शोध आलेख : ब्रजभाषा साहित्य में सूर साहित्य का व्यंग्य एवं उपालंभ
सारांश
हिन्दी साहित्य के इतिहास में ब्रजभाषा की अत्यन्त समृद्ध एवं सुदीर्घ परम्परा रही है। ब्रज पश्चिमी हिन्दी की एक प्रमुख बोली है जो कि शौरसेनी अपभ्रंश से विकसित हुई। आज जिस क्षेत्र में ब्रजभाषा बोली जाती है, वहाँ छठी-सातवीं सदी में अपभ्रंश बोली जाती थी। आज ब्रजभाषा उत्तर प्रदेश के मथुरा, अलीगढ़, आगरा, बुलन्दशहर, एटा, मैनपुरी, बदायूँ तथा बरेली जिले में, हरियाणा में गुड़गाँव जिले की पूर्वी पट्टी, राजस्थान में भरतपुर, धौलपुर, करौली तथा जयपुर के पूर्वी भाग, मध्यप्रदेश में ग्वालियर के पश्चिमी भाग में बोली जाती है, किन्तु विशुद्ध ब्रजभाषा मथुरा, अलीगढ़ और आगरा जिले में बोली जाती है। स्थानीय भेद के कारण ब्रजभाषा की कई बोलियाँ हैं, जिनमें से कुछ अपने प्रभाव के कारण उल्लेखनीय हैं – भुक्सा (नैनीताल), गाँववारी (आगरा जिले का पूर्वी भाग), ढोलपुरी (ढोलपुर), जादोबाटी (भरतपुर, करौली), डाँगी (धौलपुर और पूर्वी जयपुर), अन्तर्वेदी (एटा, मैनपुरी, बदायूँ और बरेली), मथुहरी (मथुरा, वृन्दावन)। ब्रजभाषा का पहला स्वतन्त्र प्रयोग करने का श्रेय आदिकालीन कवि अमीर खुसरो को दिया जा सकता है। यद्यपि उनकी भाषा में फ़ारसी, खड़ी बोली और अवधी तीनों भाषिक परम्पराएँ मिलती हैं, पर निश्चित रूप से उनकी रचनाओं में ऐसे कई उदाहरण हैं, जो ब्रजभाषा के मधुर रूप का आभास कराते हैं। जैसे –
द्वितीय चरण में इस समय तक ब्रजभाषा का रूप स्थिर हो गया था। ब्रज क्षेत्र में जैसे ही कृष्ण भक्ति के केन्द्र स्थापित हुए, सांस्कृतिक भाषा के रूप में ब्रजभाषा कविता में सहज ही ग्राह्य हो गई। डॉ. धीरेन्द्र वर्मा ने लिखा है – “जिस समय श्री प्रभु वल्लभाचार्य को ब्रज जाकर गोकुल तथा गोवर्धन को अपना केन्द्र बनाने की प्रेरणा हुई, उसी दिन से ब्रज की प्रादेशिक बोली के भाग्य पलटे। वल्लभाचार्य के पुत्र विट्ठलनाथ ने अष्टछाप की स्थापना की। सूरदास इसमें प्रमुख थे।” (हिन्दी भाषा, डॉ. हरदेव बाहरी, पृ. 207) अष्टछाप के अन्य कवि थे – नन्ददास, कृष्णदास, परमानन्ददास, चतुर्भुजदास, कुम्भनदास, छीतस्वामी, गोविन्दस्वामी। इसके अलावा अन्य सम्प्रदायों के कवियों ने भी ब्रजभाषा में साहित्य लिखा।
बीज-शब्द
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सिरमौर – सिर का मुकुट या ताज
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नवोन्मेषकारी – नवीन
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लोकरक्षक – जन समाज का रक्षक
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विशृंखलता – जिसमें शृंखला न हो
प्रस्तावना
सूरदास ब्रजभाषा के सफलतम कवि हैं। भाषा वैज्ञानिकों का मानना है कि जिस प्रकार जायसी और तुलसी को पाकर अवधी धन्य हो गई थी, उसी प्रकार सूर को पाकर ब्रजभाषा धन्य हो गई। सूरदास ने ब्रजभाषा में लगभग सवा लाख पदों की रचना की है। उनकी भाषा का महत्त्व इस बात में है कि वह कई क्षेत्रों से जुड़ी होकर भी एकदम स्वाभाविक है और उनकी काव्यभाषा ब्रजभाषा का आरम्भिक उदाहरण होकर भी चरम रूप से सफल भाषा है।
सूरदास भक्ति युग के प्रमुख कवि हैं। ये कृष्णभक्ति काव्य परंपरा के सिरमौर हैं। अष्टछाप के कवियों में इनका स्थान प्रमुख है। पुष्टिमार्गी होने के कारण सूर की भक्ति प्रेमाभक्ति थी। इसमें समर्पण को ही सब कुछ माना गया है। सूर ने अपने काव्य में उपास्य कृष्ण के प्रति प्रेम प्रकट करने के लिए उनके रूप, व्यक्तित्व, परिवेश, क्रियाकलाप, लीला आदि का चित्रण सहज मानवीय रूप में किया है। सूरदास ब्रजभाषा में कविता रचने वाले पहले प्रमुख कवि हैं। उन्होंने ब्रज प्रदेश को लोक-संस्कृति और वाचिक परंपरा की उत्कृष्टता प्रदान की और उसे कलात्मक उत्कर्ष प्रदान किया।
ब्रजभाषा में कृष्ण भक्ति से संबंधित गीत, गायन, कीर्तनकाव्य और संगीत की यह मिली-जुली परंपरा सूरदास को कहाँ से मिली? आप लोगों ने यह अवश्य ही सुना या पढ़ा होगा कि राधाकृष्ण से संबंधित भक्तिगीत की कीर्तन परंपरा के सूत्रपात में जयदेव, विद्यापति, चंडीदास और चैतन्य का बहुत बड़ा योगदान है। आपने यह भी सुना होगा कि सूरदास पहले दैन्य और विनय के पद ही गाते थे। जब महाप्रभु वल्लभाचार्य से उनकी भेंट हुई तो आचार्य जी ने उनसे कहा: "घिघियाते क्यों हो, भगवान की लीला का गान करो।" इसके बाद से सूरदास के भक्तिगीतों में दास्य भाव और आत्मदीनता की प्रवृत्ति समाप्त हो गई और वे सख्य भाव से प्रेमभक्ति के गीत गाने लगे। वल्लभाचार्य की प्रेरणा से ही सूरदास श्रीमद्भागवत में वर्णित कृष्णकथा को गीत-संगीत में रूपांतरित करने लगे। श्रीमद्भागवत में कृष्ण के लोकमंगलकारी और लोकरक्षक व्यक्तित्व की भी कुछ छटाएँ और छवियाँ हैं। अतः सूरसागर में संकलित आपको सैकड़ों ऐसे पद मिलेंगे जिनमें कृष्ण लोगों की रक्षा के लिए गोवर्धन पर्वत उठाए हुए मिलेंगे, कालिया नाग को नियंत्रित करते हुए मिलेंगे, कंस का वध करते हुए दिखाई पड़ेंगे, जनसाधारण को पीड़ित करने वाले राक्षसों का दमन करने वाले स्वरूप में उपस्थित होंगे, महाभारत के योद्धा रूप में विस्मित कर रहे होंगे। पर सूरदास की काव्य-प्रतिभा का चमत्कार आपको ऐसे आख्यान-प्रसंगों में कम ही दिखाई पड़ेगा। सूरदास का मन रमता है राधाकृष्ण, गोप-गोपिका, नंद-यशोदा और ब्रज की हरीभरी प्रकृति की जीवंत क्रियाओं और मनोरम रूपों के चित्रण में। सूर की चित्रण-शैली में ब्रज की लोकसंस्कृति लिपटी हुई चली आती है तथा सूर के स्वर-संगीत में जनभाषा के रूप में ब्रजभाषा की मृदुता और मधुरता की कलकल ध्वनि सुनाई पड़ती रहती है।
संगीत के नवोत्थान और मध्यकालीन भारत के लोकजागरण के बीच बड़ा गहरा संबंध है। सूरदास उस युग की नवोन्मेषकारी सांस्कृतिक प्रक्रिया और नयी भावधारा के सच्चे प्रतिनिधि हैं। संगीतात्मकता उनके काव्य का अप्रतिम गुण है। इसमें एक कथा है पर यह प्रबंध-काव्य नहीं है। सूरसागर के कथानक की विशृंखलता इसका प्रमुख कारण है।
तेरहवीं सदी के बाद से लगातार आधुनिक भारतीय भाषाओं के अभ्युदय के प्रमाण मिलते हैं। ब्रजभाषा भी हिंदी क्षेत्र की एक आधुनिक भारतीय भाषा है। सूरदास अपने पदों की रचना इसी जनभाषा में करने लगे, इन पदों को गाकर सुनाने लगे। ये पद संगीत के सुरों में ढले हुए थे। धीरेंद्र वर्मा यह मानते हैं कि – "ब्रजभाषा का साहित्य में प्रयोग सोलहवीं शताब्दी के प्रारंभ में मिलता है, जब ब्रजप्रदेश में गौड़ीय वैष्णव और वल्लभ संप्रदाय अथवा पुष्टिमार्ग के केंद्र स्थापित हुए। सूरदास साहित्यिक ब्रजभाषा के श्रेष्ठ कवि थे। उनके उपरांत हिंदी प्रदेश के लगभग समस्त कृष्णभक्त कवियों ने अपनी रचनाएँ ब्रजभाषा में ही लिखीं, जिसके फलस्वरूप ब्रजभाषा हिंदी प्रदेश की प्रमुख साहित्यिक भाषा बन गयी। सत्रहवीं और अठारहवीं शताब्दी का हिंदी रीति साहित्य भी ब्रजभाषा में ही लिखा गया। यह भक्तिकाल की ब्रजभाषा का अधिक परिमार्जित और साहित्यिक रूप है तथा इस पर पूर्वी ब्रज (कन्नौजी) का प्रभाव कुछ अधिक मिलता है।"¹
स्वभावतः मनुष्य अनेक वृत्तियों की ही तरह रागपक्ष के हर्ष-विषाद, निंदा-स्तुति में कुछ विशेष अभिरुचि रखता है। हर्ष का कारण उपस्थित होने पर वह प्रसत्र होता है, निंदा का कारण उपस्थित होने पर भी वह प्रसत्र होता है। कभी-कभी ईर्ष्या के कारण जो व्यक्ति निंदा का पात्र नहीं होता उसकी भी निंदा कर वह एक प्रकार का सुख अनुभव करता है। इसलिए ज्ञानियों, घनियों और महात्माओं के निंदा का इतिहास भी लंबे समय से चला आया है। इसी प्रकार दूसरों की मूर्खता में भी मनुष्य विशेष अभिरुचि लेता है। जो मूर्ख नहीं हैं उन्हें मूर्ख बनाने, बौद्धिक पराजय देने और उसके पराजित हो जाने पर कभी अल्पस्मित से और कभी अट्टहास से वह भावात्मक आह्लाद का अनुभव करता है। यही देखकर आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने लिखा है कि बना-बनाया पाकर लोग हंसते हैं और हंसने के लिए बनाते भी हैं। हास्य रस का आलंबन इसीलिए गधा, उल्लू जैसे पक्षी तो होते ही हैं, किन्तु इनके गुणों से संपत्र मनुष्य भी हास्य रस का आलंबन जाता है जो जन्म से गधा, उल्लू या मूर्ख नहीं है। अभिनय में विदूषक, मसखरा, कंजूस, सेठ, पेटू ब्राह्मण, मूंछ ऐंठने वाला क्षत्रिय, चोटी बढ़ाने वाला ब्राह्मण, चिड़चिड़ाने वाली स्त्री, कभी-कभी आवश्यकता से अधिक मोटा पुरुष, मोटी स्त्री जैसे लोग हास्य रस के आलंबन बन जाते हैं और लोगों का कुछ समय के लिए मनोरंजन कर जाते हैं। राजदरबारों, अभिनयशालाओं और शिष्ट समाज में इस तरह का आचरण एक शौक माना जाता रहा है। गरीब लोग अपने बच्चों के कौशल, जय-पराजय, पशुओं के खेल-कूद में हल्का-फुल्का मनोरंजन कर लेते हैं। साहित्य के क्षेत्र में इस हास्य या मनोरंजन को परिष्कृत कर शास्त्रीय ढंग से प्रस्तुत किया जाता है। इसके कारणों, गुणों, और प्रभावों का भी शास्त्रसम्मत चिंतन होता है।
शास्त्रकारों का ऐसा अभिमत है कि साहित्य में यहां-वहां आवश्यकतानुसार मनोरंजन की बातें साधन के रूप में स्वीकार की जा सकती हैं, किन्तु साहित्य का मुख्य उद्देश्य मनोरंजन नहीं होता। जीवन संघर्षों के माध्यम से जीवन का नवनिर्माण और परिष्कार उसका उद्देश्य हुआ करता है। इस संबंध में किसी प्रकार का भ्रम पालने की आवश्यकता नहीं है। ज्ञानी भक्त देवर्षि नारद कीमनोरंजनपूर्ण विभिन्न योजनाओं में हम केवल मनोरंजन नहीं पाते, दूसरों की त्रुटि, दुर्बलता या मूर्खता और हमारा मनोरंजन किसी श्रेष्ठ उद्देश्य से देवर्षि के लिए साधन बनता है। इस परिवेश में वे जीवन के श्रेष्ठ निर्माण का बीजारोपण करते रहते हैं और विधि निषेध में हमारा मनोरंजन कर जीवन का श्रेष्ठतर परिष्कार करते हैं, स्वस्थ समाज का मार्ग निष्कंटक बनाते हैं। इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए वे ब्रह्मा, विष्णु, महेश तक को साधन बनाने से नहीं चूकते। इन्हीं कारणों से साहित्य का उद्देश्य लोकमंगल माना गया है। प्रायः सुनने में आता है कि-"कविता का उद्देश्य मनोरंजन है पर जैसा कि हम पहले कह आए हैं कविता का अंतिम लक्ष्य जगत के मार्मिक लक्ष्यों का प्रत्यक्षीकरण करके उनकै साथ मनुष्य-हृदयं का सामंजस्य स्थापन है। इतने गंभीर उद्देश्य के स्थान पर केबल मनोरंजन का हल्का उद्देश्य सामने रखकर जो कविता के पठन-पाठन का विचार करते हैं, वे रास्ते में ही रह जाने वाले पथिक के समान हैं। कविता पढ़ते समय मनोरंजन अवश्य होता है। पर उसके उपरांत कुछ और भी होता है और वही 'और' सब कुछ है। मनोरंजन वह शक्ति है, जिससे कविता अपना प्रभाव जमाने के लिए मनुष्य की चित्तवृत्ति को स्थिर किए रहती है, उसे इधर-उधर जाने नहीं देती। अच्छी से अच्छी बात को कभी लोग केवल कान से सुनकर लेते हैं। इसकी ओर उसका मनोयोग नहीं होता। अतः हास्य या मनोरंजन कौशल या व्यंग्य हमारे मनोयोग को साहित्य के वास्तविक उद्देश्य से जोड़ने कसशक्त साधन है। इसी से कवि, नाटककार सदा से इसका उपयोग करते आए हैं।"2
शास्त्रीय चिंतन में मनुष्य के मन की तल्लीनता की दुशा को रस कहा जा सकता है। यह तल्लीनता सुख और दुख यथा प्रेम और क्रोध दोनों स्थितियों में होती है। उस तल्लीनता में मनुष्य को आनन्द का बोध होता है। एक ही नाटक को वह हंसते हुए देखता है और आंसू गिराते हुए भी देखता है, दोनों में वह तल्लीन रहता है और आनन्दानुभूति करता है, भारत में ही नहीं अरस्तू की ट्रेजडो में भी यह तल्लीनता आनन्ददायी होती है और चित्त का परिष्कारकरती है। हास्य रस की विभिन्न स्थितियों में हम हर्षातिरेक से आप्लावित हो जाते हैं। आचार्यों के विवेचन के अनुसार हास्य रसका स्थायीभाव 'हास' है। इसके देवता 'प्रमथ' (शंकर के गण)माने जाते हैं और वर्ण श्वेत है। हास्य रस का आलंबन विकृत रूप, आकार, वेशभूषा विचित्र, अनर्गल वचन, विलक्षण चेष्टाएं हैं। विचित्र अंग-भंगिमा, क्रिया-कलाप आदि उद्दीपन है। आंखों और मुख का विकसित होना खिलखिलाना आदि अनुभाव है। चपलता, हर्ष, गर्व, आदि संचारी भाव है। हास्य के भेद स्वनिष्ठ, परनिष्ठ तथा स्मित, हसित-विहसित, अवहसित और अतिहसित माने गए हैं।"3 इन लक्षणों के अनुरूप एक उदाहरण निम्नलिखित है -
“हसि-हसि भाजे देखि दूलह दिगम्बर को,
पाहुनि जे आवै हिमाचल के उछाह में।
कहें 'पद्याकर' सु काहू सों कह को कहा,
जोई जहां देखें सो हसेई तहां राह में।
मगन भए ई हंसें नगन महेश ठाढ़े,
और हंसै एक हॉस-हंसी के उगाह मैं।
सीस पर गंगा हंसै, भुजनि भुजंगा हंसै,
हास ही को दंगा भयौ नंगा के विवाह मैं।।"4
जब हम इस हास्य और मनोरंजन जैसे साधनों को जोवन के किसी महत उद्देश्य, यथा दार्शनिक विवेचन, शत्रु पक्ष की गतिविधि, सामाजिक क्रिया कलाप, राजनीतिक संघर्ष या जीवन व्यापार के अन्य क्षेत्र की गोपन और जटिल गतिविधियों से जोड़ देते हैं, और रहस्य या षड्यंत्र या त्रुटियों का उद्घाटन करते हैं और उसमें से मनोरंजक ढंग से विना दुख पहुंचाए किसी श्रेष्ठ पथ का अनुसंधान करते हैं तब वहां तात्कलिक हर्ष के अतिरिक्त कुछ बड़ा उद्देश्य हमारे समक्ष उपस्थित हो जाता है। हास्य में प्रायः प्रत्यक्ष भाषा का अथवा शब्द की लक्षणा, व्यंजना शक्ति और उसके अर्थ प्रयोग करने लगते हैं। तव वहां हास्य से श्रेष्ठ व्यांय और उपालंभकी मनोवैज्ञानिक स्थिति उत्पन्न हो जाती है। हास्य प्रायः व्यक्तिगत हुआ करता है किन्तु व्यंग्य और उपालंभ व्यक्तिगत होते हुए भी सामाजिक तथा सार्वभौमिक उद्देश्यों से अभिप्रेरित होता है, किन्तु इतना स्मरण रखना चाहिए कि व्यंग्य और उपालंभ की खेती हास्य की कृषि-भूमि में हो संभव है-"इसका पारिभाषिक नाम है 'सिटायर' अथवा व्यंग्य-काव्य या प्रबंध जो पद्म तथा गद्य दोनों रूपों में प्रसिद्ध है। इसका मुख्य उद्देश्य है व्यक्ति विशेष अथवा समाजया मानव जाति की त्रुटियों तथा कुरीतियों और दोषों पर प्रहार करना यह दोष-विगोपन, मीठे व्यंग्य से लेकर निर्मम तथा विषाक्त उपहास के बीच कई रूपों में पाया जा सकता है।"5 व्यक्तिगत तथा सामाजिक शत्रुओं, समस्त मानवता के विरोधी तत्वों का व्यंग्य द्वारा दमन करने की प्रथा प्राचीन तथा सर्वदेशीय है, और संस्कृत साहित्य में भी इसके उदाहरण उपलब्ध हैं। जैसे क्षेमेन्द्र ने भी देशोपदेश, नर्ममाला, दामोदार गुप्त का कुट्टनीमत इत्यादि। क्षेमेन्द्र ने भी सिटायर (व्यंग्य)का समर्थन ऐसे शब्दों में किया है जो 'होरेस' आदि पाश्चात्य आचार्यों के दावे के नितांत अनुरूप है।
यूनान के 'एरिस्टो फेनीज' से लेकर इंग्लैंड के 'जॉर्ज बर्नार्ड शॉ' तक अनेक हास्यचार्यों ने अपने को समाज का हितैषी पोषित किया है क्योंकि "उनका व्यंग्यात्मक छिद्रान्वेषण स्वस्थ जीवन का परिपोषक होता है और उसकी प्रत्यक्ष निर्ममता उस कल्याणकारी चिकित्सक की शल्य-क्रिया के समान है जो अंग के सड़े-गले भागों को निकालकर स्वस्थ भागों को रक्षा करता है।आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने भ्रमरगीत के हास्य-व्यंग्य का सिद्धान्त निरूपण करते हुए लिखा है कि "उद्धव के ज्ञानयोग की गोपियां कितनी कद्र करती हैं अब थोड़ा वह भी देखिए जो ऐसी चीज ढोए फिरता है जिसे बहुत लोग-बिलकुल निकम्मी समझ रहे हैं। उसे वे बेवकूफ समझकर नहीं रह जाते बल्कि बनाने में भी कभी-कभी पूरी कल्पना खर्च करते हैं। बेवकूफी पर हंसने का रिवाज बहुत पुराना है, लोग बना-बनाया बेवकूफ पाकर हंसते भी हैं और हंसने के लिए बेवकूफ बनाते भी हैं। हास की प्रेरणा की कल्पना मूर्ख का स्वरूप जोड़ने और वाणी को कुछ शब्द रचना करने में तत्पर करती है। ज्ञानी उद्धव को उनकी मूर्खता कां स्मरण कराते हुए गोपियां कहती हैं कि ऐसी निरर्थक और फालतू वस्तु के लिए हमारे यहां जगह नहीं है इसे तुम संभाल कर रखो।"6
वचन विदग्धता और वक्रोक्ति के माध्यम से गोपियों ने विविध प्रकार से उपालंभ का भाव व्यक्त किया है। निर्गुण के प्रति गोपियों की खिझलाहट द्वारा ब्रह्मज्ञान की बातें करनेवाले उन दभियों का स्वरूप स्पष्ट हो जाता है जो कहते कुछ हैं और करते कुछ और हैं। "आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने ठीक ही लिखा है कि 'ज्ञानमार्गी, वेदान्तियों और दार्शनिकों के सिद्धान्तों की लोक अव्यवहार्यता तथा इनके वेडौल और भड़कीले शब्दों के अथों की अस्पष्टता और दुर्बोधता की ओर गोपियों की यह झुंझलाहट कैसा संकेत कर रही है- “याकी सीख सुने ब्रज को रे... निर्गुण की नीरसता और सगुण की सरसता किस प्रकार हृदय के सच्चे अनुभव के रूप में गोपियां उद्धव के सामने क्या, जगत के सामने रखती हैं।"7
हास्य-व्यंग्य और उपालंभ प्रस्तुत करने के लिए धीरज और सरल स्वभाव का होना आवश्यक है, उच्चकोटि की प्रतिभा भी अपेक्षित है। इसके अतिरिक्त परिस्थितियों के विरोधाभासों की पकड़ भी होनी चाहिए। तदोपरांत सामाजिक उद्देश्य का आग्रह अनिवार्य है। यदि सामाजिक उद्देश्य का आग्रह नहीं है तो कवि व्यंग्य की रचना नहीं कर सकेगा। डॉ० बरसाने लाल चतुर्वेदी ने सूर के हास्य-व्यंग्य पर अपना अभिकथन करते हुए लिखा है, कि-"जहां सूर की विनोद वृत्ति मुखरित हुई है, वहां हास्य रस भी उच्चकोटि तक पहुंच गया है। सूर के हास्य में जहां केवल मनोरंजनकारी रजत हास्य मिलता है वहां सोद्देश्य हास्य अर्थात् व्यंग्य भी मिलता है। वाग्विदग्ध्ता के साथ-साथ वक्रोक्तियां भी-गजब की भरी पड़ी हैं। आचार्य शुक्ल ने कहा है कि सूर को किसी को किसी बात के कहने-सुनने के न जाने कितने ढंग मालूम थे।"8
उपदेश से व्यक्ति को कुपथ से हटाने, सतपथ पर ले आने अथवा दुराग्रह और अनीति को मिटाने और व्यक्ति तथा समाज को नीति पथ पर संचालित करने का कार्य धर्म और नीति क्षेत्र में पहले से होता आया है। मनुष्य का मनोविज्ञान लाचारी और दबाव में प्रायः धर्मत्व को स्वीकार करता है। सामान्यताः अधिभौतिक अपेक्षाएं उसे अधिक प्रभावित करती हैं। मनुष्य की समवृत्ति विरागप्रतिपक्ष की विसंगतियों का उद्घाटन उनके दोषों का दिग्दर्शन, हानिकर या असाध्य साधनाओं का निरूपण हास्य-व्यंग्य के माध्यम से भी किया जाता है। यह एक रचनात्मक वृत्ति है। रौद्र रस या क्रोध की तुलना में यह केवल विधायक है। यह अहिंसात्मक ही नहीं आनन्दवर्द्धक भी है। यह प्रतिपक्ष को क्षति पहुंचाए बिना उसे तत्काल प्रभावित करने का एक सुगम साधन है। अपने सत्य या सगुण की स्थापना और प्रतिपक्ष का निषेध करने के लिए सूरदास ने इस पद्धति का सहारा लिया है। आधुनिक काल में अंग्रेज नाटककार बर्नार्ड शॉ ने भी माना है कि राजनीतिक, सामाजिक और धार्मिक क्षेत्र में व्यापक मानवता के विरुद्ध आर्थिक विषमता और पूंजीवाद, हानिकर युद्ध, धर्म की विडंबना और पाखण्ड, तानाशाही आदि का निषेध करने के लिए हास्य-व्यंग्य के सशक्त माध्यम की सहायता लेकर प्रतिपक्ष का उन्मूलन करना या निषेध करना अधिक सुखद और आनन्दवर्द्धक होता है। सूरसागर में सूर ने इस युक्ति का जो प्रभावशाली और सुखात्मक प्रयोग किए हैं, वह हिन्दी साहित्य में एक अनूठा प्रयोग है।
-डॉ. निशि राघव
संदर्भ ग्रंथ
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रसमीमांसा, आचार्य रामचन्द्र शुक्ल, पृ. 19
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काव्यशास्त्र, डॉ० भगीरथ मिश्र, पृ. 234
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काव्य समीक्षा, प्रो० विक्रमादित्य राय, पृ. 264
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वही, पृ. 265
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वही, पृ. 266 - 267
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प्रगतिशील साहित्य की समस्याएं, डॉ० रामविलास शर्मा, पृ. 202
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भ्रमरगीत सार, आचार्य रामचन्द्र शुक्ल, पृ. 9
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वही, पृ. 267


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