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शोध आलेख : छप्पर उपन्यास में अभिव्यक्त दलित चेतना के स्वर

सारांश
सामाजिक परिवर्तन के विभिन्न प्रयासों और लम्बे संघर्षों के बावजूद आज भी सामाजिक भेदभाव और जातीय उत्पीड़न की जो घटना घटित हो रही है वह हमारी चिंता का कारण बना हुआ है। इस शोध-आलेख में समाज के अंदर मौजूद उन तथ्यों की पड़ताल करना है, जिसके चलते समाज में दलितों की स्थिति भयावह बनी हुई है। दलितों के प्रति आज भी गैर दलितों के मन में घृणा व्याप्त है। कहने और देखने को तो हमारे सामने बहुतों ऐसे उदाहरण हैं जिसमें गैर दलित अपनी पूरी जिम्मेदारी के साथ इस दूरी को पाटने में लगा है लेकिन, दलित उत्पीड़न के मामले आज भी जस के तस हैं। पिछले दिनों ऊना से लेकर सहारनपुर तक तथा देश के अन्य हिस्सों में दलित उत्पीड़न की कई हिंसक घटनाएँ सामने आई हैं। ऐसे में इस उपन्यास की प्रासंगिकता और बढ़ जाती है। इसमें लेखक जहाँ चन्दन के हवाले से समाज में दलितों के लिए हक और बराबरी का अधिकार मांगते हैं, वहीं रजनी के जरिये इस आन्दोलन का समर्थन करवाते हैं। उपन्यास के अंत तक आते-आते ठाकुर साहब का जिस तरीके से हृदय परिवर्तन करवाते हैं वह बड़ा ही जरूरी मालूम पड़ता है। समाज में परिवर्तन लाने के और भी तरीके हो सकते थे लेकिन दलित समाज की जो स्थिति है, ऐसे में अहिंसक रास्ता चुनना मुझे सबसे ज्यादा आकर्षित करता है।

बीज शब्द : दलित, उत्पीड़न, धर्म-शास्त्र, साहित्य, ब्राह्मणवादी, व्यवस्था, साम्यवादी, संवेदनशील, चेतनाशील, सांस्कृतिक, प्रयत्नशील, पूंजीवाद, सामंतवाद, अहिंसक।


प्रस्तावना
जयप्रकाश कर्दम का हिंदी साहित्य सृजन के क्षेत्र में बड़ा नाम है। कविता, कहानी, उपन्यास और आलोचना से लेकर संपादन तक में उन्होंने अपना योगदान दिया है। वर्ष 1999 से लगातार दलित साहित्य (वार्षिकी) का संपादन कर रहे हैं। इसके अलावा देश–विदेश की अनेक भाषाओं में रचनाओं का अनुवाद और प्रकाशन के साथ-साथ अनेक साहित्यिक, सांस्कृतिक संस्थाओं द्वारा सम्मानित एवं पुरस्कृत हुए हैं। दलित साहित्य के क्षेत्र में कर्दम वह नाम हैं जिनके उपन्यास ‘छप्पर’ को हिंदी का पहला दलित उपन्यास होने का गौरव प्राप्त है। दलित साहित्य और समाज की समृद्धि के लिए ये निरंतर प्रयत्नशील रहते हैं।

    

‘छप्पर’ उपन्यास में दलित चेतना के कई स्वर हैं। चन्दन दलित समाज से निकला हुआ युवक है जो आगे चलकर दलित चेतना और संघर्ष का प्रतीक बनता है। जब चन्दन शहर पढ़ने के लिए जाता है तो गाँव के ब्राह्मण और ठाकुर को यह बात उचित नहीं लगती है। उसे चन्दन का शहर पढ़ने के लिए जाना अपने जातीय दंभ के विपरीत लगता है और कहीं न कहीं ब्राह्मणवादी व्यवस्था के दरकने के संकेत भी। काणा पंडित ठाकुर साहब को देखते ही एकदम क्रोध की मुद्रा में आकर सुक्खा से कहता है, “‘तू कितना ही बड़ा हो जा सुक्खा, लेकिन धर्म–शास्त्रों से बड़ा नहीं हो सकता तू। अपमान करता है धर्म-शास्त्रों का, वेद–वेदांगों का और पूछता है क्या हुआ, नास्तिक...।’ काणे पंडित की ऊँची आवाज से घबराया सुक्खा। उसे आश्चर्य हुआ काणे पंडित को क्रोधित होता देखकर। वह जानता था कि ठाकुर-ब्राह्मणों का क्रोधित होना उनके लिए हितकर नहीं है। अतः दीनता से गिड़गिड़ाते हुए बोला – ‘जान-बूझकर मैंने कोई गलती नहीं की पंडित जी, अनजाने में कुछ हो गया हो तो माफ़ कर दें।’ सुक्खा के गिड़गिड़ाने का काणे पंडित पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा। उल्टे वह और ऊँचे स्वर में बोला, ‘प्रायश्चित करना पड़ेगा तुझे सुक्खा – प्रायश्चित। जल्दी से अपने बेटे को शहर से वापस बुला और प्रायश्चित करने का उपाय कर।’¹ इस परिस्थिति की भयावहता को महसूस कीजिये और फिर सोचिये कि चन्दन जैसे कितने ही दलित छात्रों के साथ वर्षों से ये अत्याचार होता चला आ रहा है। अगर सुक्खा यहाँ हार मान लेता तो शायद चन्दन जैसा संवेदनशील और चेतनाशील युवक का निर्माण नहीं हो पाता।


शोध-विधि: इस शोध आलेख में विश्लेषणात्मक, आलोचनात्मक, तुलनात्मक, विवरणात्मक और अवधारणात्मक अनुसंधान विधि का प्रयोग हुआ है।

शोध-विस्तार: वरिष्ठ दलित चिंतक कंवल भारती लिखते हैं, “डॉ. अम्बेडकर पहले भारतीय इतिहासकार हैं, जिन्होंने इतिहास में दलितों की उपस्थिति को रेखांकित किया है।”¹ ठीक उसी तरह कर्दम भी पहले उपन्यासकार हैं, जिन्होंने मुकम्मल तरीके से इस उपन्यास में दलितों और गैर-दलितों की वास्तविक स्थिति और एक-दूसरे के प्रति सोच से पाठकों का परिचय करवाया है।

    

    ठाकुर हरनाम सिंह अपने गुजारे लायक थोड़ी-सी जमीन अपने पास रखकर बाकी सब गाँववालों में बाँट देते हैं और खुद दूसरे लोगों की तरह अपने हाथों से अपने खेतों में काम करना शुरू कर देते हैं। बाद में वे हवेली तक का त्याग कर देते हैं और एक छोटे से मकान में जनता के बीच रहने लगते हैं। इतना ही नहीं ठाकुर हरनाम सिंह और सुक्खा के इस संवाद को देखिये– “एक दिन सुक्खा ने उनको ‘ठाकुर साहब’ कहकर संबोधित किया तो उन्होंने टोका उसे – देखो सुक्खा! बराबरी का मतलब है हर क्षेत्र में बराबरी। मान–सम्मान का ढंग भी बराबरी का होना चाहिए। ‘ठाकुर साहब’ के संबोधन में अलगाव और असमानता की गंध-सी आती है, जबकि ‘हरनाम’ कहने में एकता और समानता की खुशबू का अहसास होता है। मैं नहीं चाहता कि हमारे बीच अब किसी तरह का अलगाव अथवा असमानता रहे। जातिगत अथवा धर्म के सूचक किसी गोत्र अथवा उपनाम का भी अपने नाम के साथ प्रयोग न करें हम, केवल मनुष्यता का रिश्ता हो हमारे बीच। मनुष्यता ही हमारा गोत्र हो, मनुष्यता ही हमारी जाति और मनुष्यता ही हमारा धर्म हो। इसलिए मेरा तुमसे अनुरोध है सुक्खा कि मुझे ठाकुर साहब नहीं, हरनाम सिंह भी नहीं, केवल हरनाम कहकर पुकारो तुम, जैसे मैं तुम्हें ‘सुक्खा’ कहता हूँ।”² लेखक ने यहाँ दलितों के मन में जिस आदर्श समाज की कल्पना है उसे उजागर करने का काम किया है। एक दलित के मन में गैर-दलितों के व्यवहार को लेकर जो कसक है, उपरोक्त प्रसंग से पूर्णतः स्पष्ट हो जाता है। यहाँ कर्दम ने दलितों के लिए जिस मातापुर का आदर्श बुना है वह शत-प्रतिशत साम्यवादी है। इसमें हर दृष्टिकोण से बराबरी और समानता की बात कही गई है। इस संदर्भ में डॉ. तेज सिंह लिखते हैं – “यह सब जयप्रकाश कर्दम की सामाजिक क्रांति का परिणाम है जो उन्होंने इस उपन्यास के माध्यम से साहित्य में की है। इसलिए इसे वैचारिक क्रांति से ज्यादा ‘साहित्य क्रांति’ कहना ठीक रहेगा।”³


    चन्दन इस उपन्यास का नायक है। वह बचपन से ही पढ़ने-लिखने में मेधावी है। अपनी मेहनत और लगन के बूते वह हमेशा इम्तहान में अब्बल आता है। उसने ग़रीबी को कभी भी अपने राह का रोड़ा नहीं बनने दिया। उसका सोच हमेशा से विलक्षण रहा है। जब एक बार स्कूल में चन्दन के फटे कुर्ते को लेकर उसके एक सहपाठी ने व्यंग्य किया तो इस पर रजनी ने उसकी मदद करनी चाही, लेकिन उसने इसके लिए उनका शुक्रिया कर मदद लेने से मना कर दिया। फिर रजनी ने मदद के लिए दूसरा रास्ता अपनाया और चन्दन के ऊपर किये गये व्यंग्य को मातापुरवासियों के अपमान से जोड़ दिया तथा दोबारा से चन्दन के सामने मदद की बात रखी। चन्दन ने इस बार बड़े ही समझदारी का परिचय दिया – “उसने रजनी से कहा, ‘यह हो भी तो इससे क्या फर्क पड़ता है। हम यहाँ पढ़ने–लिखने के लिए आते हैं। यह स्कूल है – समाज या राजनीति का अखाड़ा नहीं। यदि कोई मेरा उपहास करने में अपने समय और ऊर्जा को बर्बाद करता है तो करे, यह उसका काम है। मैं उसके उपहास या व्यंग्य का जवाब देने में अपना समय और ऊर्जा क्यों नष्ट करूँ। उसको इस बात का शायद ठीक से अहसास नहीं है कि मेरे माता-पिता कितना कष्ट उठाकर मुझे पढ़ा रहे हैं। उनको मुझसे कुछ आशाएं हैं, उनकी आशाओं पर पानी फेरना नहीं चाहता मैं। मेरा काम पढ़ना है और मैं पूरी ईमानदारी और मेहनत से पढ़ता हूँ। मेरे फटे कुर्ते का मेरी पढ़ाई से कुछ संबंध है, मैं नहीं समझता। परीक्षा होने दो, रिजल्ट बता देगा कि उपहास का पात्र कौन है? तुम देखना रजनी! मातापुर का फटे कुर्ते वाला यह ग़रीब लड़का सबसे अच्छे नंबरों से पास होगा। मेरे उपहास को यदि तुम मातापुर के साथ जोड़ती हो तो तुम भी मेहनत से पढ़ो और उनसे ज्यादा नंबर लाओ। हम पढ़ाई में पछाड़ेंगे उन्हें। उनके उपहास का यही उचित जवाब होगा, न कि फटा कुर्ता उतारकर नया कुर्ता पहनना।’”⁴ जिस तरीके से आज आरक्षण विरोध के नाम पर गैर दलित समाज के लोग दलित विद्यार्थियों का यह कहकर मजाक उड़ाते हैं कि – ‘वह मेहनत नहीं करना चाहता है। उसे हर चीज खैरात में चाहिए। अरे आपको पढ़ने की क्या ज़रूरत है, आप तो सिर्फ फॉर्म भर दीजिये घर से बुलाकर नौकरी दे दी जाएगी।’ ऐसे में उपन्यास के नायक का उपरोक्त कथन दलित युवाओं के लिए जहाँ प्रेरणा का काम करता है, वहीं गैर दलित युवकों के फूहड़पन का जवाब भी है।


    “डॉ. अम्बेडकर ने गाँव को भारतीय गणतंत्र की अवधारणा का शत्रु माना था। उनके अनुसार हिन्दुओं की ब्राह्मणवादी और पूँजीवादी व्यवस्था का जन्म भारतीय गाँव में ही होता है। डॉ. अम्बेडकर का कहना है कि भारतीय गाँव हिन्दू व्यवस्था के कारखाने हैं। उनमें ब्राह्मणवाद, सामंतवाद और पूँजीवाद की साक्षात अवस्थाएँ देखी जा सकती हैं। उनमें स्वतंत्रता, समता और बंधुत्व के लिए कोई स्थान नहीं है। भारतीय गाँव ब्राह्मणों के लिए स्वर्ग हो सकते हैं, परन्तु दलितों के लिए तो वे नरक ही हैं। अतः दलित साहित्य भी गाँव के विकास और ग्राम पंचायत व्यवस्था का न केवल विरोधी है, बल्कि उनके विनाश में ही ब्राह्मणवाद, सामंतवाद और पूँजीवाद का अंत मानता है।”⁵ कर्दम जी अम्बेडकर के इस कथन से आगे जाकर आदर्श मातापुर गाँव का सपना बुनते हैं तथा चन्दन, रजनी, सुक्खा, रमिया और ठाकुर हरनाम सिंह के सहारे वे इस सपने को साकार रूप देते हैं। इस उपन्यास में एक बात साफ है कि परिवर्तन के लिए दलित और गैर दलित दोनों को एक साथ आना पड़ेगा, तभी एक आदर्श गाँव का निर्माण हो सकता है।


    चन्दन मातापुर गाँव का एक युवक है। उसके पिता का नाम सुक्खा और माता का नाम रमिया है। माता–पिता की इच्छा है कि उनका बेटा पढ़–लिखकर बड़ा ऑफिसर बने। लेकिन, बेटे को पढ़ाने के पीछे दूसरा मकसद काम कर रहा है। सुक्खा सोचता है – “क्या उसकी पढ़ाई अधूरी छूट जाएगी? क्या उसकी इच्छाओं को जिन्दा ही गला घुट जाएगा? क्या ऊँचे ओहदे तक पहुँचने का उसकी उम्मीदों का महल रेत के ढेर की तरह बिखर जाएगा? क्या मेरे जीते जी मेरे इकलौते बेटे को अपनी पढ़ाई-लिखाई छोड़कर मेरी तरह शोषण और बर्बरता की चक्की में पिसना पड़ेगा? क्या उसे भी गुज़र-बसर के लिए लाला–साहूकारों के तलुए सहलाने पड़ेंगे? क्या उसे भी ठाकुर-जमींदारों के सांटे और दुधमुंहे बच्चों तक की गलियाँ सहनी पड़ेंगी? क्या उसे भी गुड़ की डली या प्याज की गंठी के साथ रूखी-सूखी रोटी हलक के नीचे उतारकर दिन गुजारने पड़ेंगे? क्या उसे भी मेरी तरह जानवरों का-सा जीवन जीना पड़ेगा?”⁶ यहाँ स्पष्ट है कि सुक्खा ने अपने जीवन में जो अमानवीय कष्ट झेला है, चन्दन को उसकी साये से भी दूर रखना चाहता है। डॉ. अम्बेडकर ने ऐसे ही गाँव को भारतीय गणतंत्र की अवधारणा का शत्रु माना है।


    यह उपन्यास सुक्खा जैसे पिता के अन्दर भी आत्मविश्वास भरने का काम करता है। सुक्खा ने मज़बूरी में गाँव छोड़ना पसंद किया लेकिन ब्राह्मण – ठाकुरों के आगे झुका नहीं। उनके इसी आत्मविश्वास और भरोसे का परिणाम है कि दलित समाज को चन्दन जैसा जुझारू नायक मिला। जिसके नेतृत्व में परिवर्तन की एक लहर चली और उसी लहर ने आदर्श मातापुर का निर्माण किया। सुक्खा को प्रताड़ित करने की एक और बानगी देखिये – “अपनी बात का न माना जाना ठाकुर साहब को अपमानजनक लगा था। इस अपमान को सह नहीं सके वे। उसी दिन ठाकुर हरनाम सिंह की चौपाल पर गाँव के सारे सवर्णों की पंचायत हुई। फैसला हुआ कि न तो सुक्खा को खेत – क्यार में घुसने दिया जाए, न उसे किसी डौले-चकरोड़ से घास खोदने दी जाए और न उसे लाई – पताई या मजदूरी के लिए बुलाया जाए। पंचायत उठ गई फैसला सुनाकर। ‘अब देखते हैं कैसे पढ़ाता है सुक्खा अपने बेटे को।’ ठाकुर हरनाम सिंह और काणे पंडित ने अपनी – अपनी मूंछों पर ताव दिया।” 9 इस तरह का असंवेदनशील फैसला जो मनुष्यता को शर्मसार करती है, सदियों से दलितों के ख़िलाफ़ सुनाया जाता रहा है। यह भारत के आत्मनिर्भर ग्रामीण – समाज की वर्ण-व्यवस्था का वास्तविक रूप है जिसे हज़ारों साल से सवर्ण समाज अपने वर्ग हितों के लिए बनाए रखना चाहता है और पंचायती राज-व्यवस्था उसका साधन बनती है। जब दलितों द्वारा इस सामाजिक – संरचना को तोड़ने के लिए प्रयत्न किये जाते हैं तो सवर्ण समाज का जातिवादी घिनौना चेहरा हमारे सामने आ जाता है और दलितों के जीवन-यापन के सारे रास्ते बंद कर दिये जाते हैं। लेखक सुक्खा जैसे पुरानी पीढ़ी के चरित्र के द्वारा दिखाना चाहता है कि हज़ारों साल की घृणा, उपेक्षा, तिरस्कार और अपमान के शिकार दलितों में स्वाभिमान की भावना जन्म ले चुकी है और उनमें आत्मसम्मान से जीने की इच्छा बलवती हो गयी है। तभी तो सुक्खा ने जीवन – यापन के सभी रास्ते बंद पाकर अपनी छोटी – सी बोंडिया में ही मेहनत से कमाना शुरू कर दिया और अपनी ज़िंदगी के रास्ते बंद नहीं होने दिये। लेकिन इसके बावजूद मौका मिलने पर दलित छात्र अपनी पूरी ईमानदारी से पढ़ाई करें और पढ़ – लिखकर अपने समाज में जागरूकता फैलाने का काम करे चन्दन के माध्यम से लेखक ये संदेश देने का काम किये हैं।


    कमली अपने बेटे को पढ़ाना चाहती है। यह परिवर्तन या जागरूकता चन्दन ने ही संत नगर के लोगों में फैलाया था। जब चन्दन ने कमली से उसके बच्चे के पिता नाम पूछा तो वह पहले कुछ नहीं बोली लेकिन जब उसने बताया कि वह खुद भी नहीं जानती तो चन्दन के पाँव तले ज़मीन खिसक गई। संवाद का ये अंश देखिये – “ ‘क्या ? ... आप खुद भी नहीं जानती ?’ जैसे किसी तेज दौड़ती एक्सप्रेस ट्रेन में अचानक ब्रेक लगा हो। बहुत तेज झटका लगा चन्दन को। इस बार चौंके बिना नहीं रह सका वह। ‘हाँ बाबू साहब ! एक होता तो नाम बता देती, लेकिन एक नहीं कई थे वे लोग।’ और कहकर फफक कर रोने लगी।” 10 आज भी कमली जैसी लड़कियां मालिकों के हवस का शिकार बनती हैं और कोई विरोध के लिए आवाज़ नहीं उठाता है। लेकिन कमली अपने साथ हुए जुल्म का सामना दूसरे तरीके से करती है। उसने उस बच्चे को जन्म दिया और उसे पढ़ा-लिखा कर काबिल बनना चाहती है। चन्दन को अब तक लगता था कि असमानता, शोषण और अन्याय के ख़िलाफ़ संघर्ष करने वाला वह अकेला व्यक्ति है लेकिन कमली का सच जानने के बाद उसका हौंसला और बढ़ गया।


निष्कर्ष : संत नगर के लोगों में जागरूकता फैलाने के लिए चन्दन ने दिन-रात एक कर दिया। उसने वहाँ के लोगों को अपने बच्चे को पढ़ाने के लिए प्रेरित किया। उनका लक्ष्य अपने समाज के लोगों को शिक्षित करना, उसको संगठित करना और उसमें जागृति पैदा करना था और इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए उसने वहाँ के बच्चों के लिए एक स्कूल खोल दिया था। वह लोगों से कहता था कि यदि समाज हमें समानता का दर्जा नहीं देता, वह हमें हमारे मनुष्यत्व के साथ स्वीकार नहीं करता, यह समाज का दोष है। समाज, धर्म द्वारा प्रेरित और संचालित है, हमारी सामाजिक स्थिति धार्मिक आदेशों का ही परिणाम है। ‘धर्मग्रंथ’ ही हमारे शोषण और अत्याचार की जड़ें हैं। इन जड़ों को उखाड़ फेंकने की ज़रूरत है। और उसके लिए ज़रूरी है कि लोग अधिक से अधिक पढ़ें ताकि इन धर्म-ग्रंथों में निहित अन्याय और असमानता के दर्शन को समझ सकें तथा अन्याय, शोषण और असमानता के विरुद्ध संघर्ष करने के लिए स्वयं को तैयार कर सकें। इतना ही नहीं चन्दन अपने कॉलेज के मित्रों को भी बराबर इस काम के लिए प्रेरित करते रहते थे जिसका परिणाम ये हुआ कि सबने चन्दन की तरह अपने-अपने स्तर पर समाज सेवा का वचन लिया। रामहेत ने कहा- मैं बिज़नेस करूँगा और अधिक से अधिक पैसा कमाऊँगा और अपने परिवार के आजीविका को छोड़कर सारा पैसा अपने समाज के उत्थान के कामों में लगाऊँगा। नन्दलाल ने कहा- मैं वकालत करूँगा और क़ानूनी मामलों में अपने लोगों की मदद करूँगा तथा अपने लोगों का मुकदमा मुफ़्त लड़ूँगा। रत्तन ने कहा- मैं प्रशासनिक सेवा में जाऊँगा और प्रशासनिक स्तर पर अपने लोगों की मदद करूँगा। चन्दन ने कहा – मैं अपनी शिक्षा का उपयोग अपने दीन – हीन समाज के उत्थान के लिए करूँगा।


    इस तरह चन्दन के त्याग और कार्य करने की दृढ़ इच्छाशक्ति से प्रेरणा लेकर संत नगर के दलितों ने संकल्प लिया कि - वे सभी व्यसनों का परित्याग करेंगे और अपने बच्चों को हर हाल में पढ़ाएँगे ताकि वह शोषण और जहालत की ज़िंदगी से निकल कर समता और स्वाभिमान की ज़िंदगी जी सके।


- डॉ. लल्टू कुमार
असिस्टेंट प्रोफेसर,
हिंदी विभाग, राजकीय डिग्री महाविद्यालय (मधुबन) पकड़ीदयाल,
पूर्वी चंपारण

सन्दर्भ सूची

  1. कर्दम, जयप्रकाश ; छप्पर ; सम्यक प्रकाशन, नई दिल्ली ; प्रथम सम्यक संस्करण, 2015 ; पृष्ठ – 35/36

  2. भारती, कंवल ; दलित विमर्श की भूमिका ; इतिहासबोध प्रकाशन, इलाहाबाद ; संस्करण, 2004 ; भूमिका से

  3. कर्दम, जयप्रकाश ; छप्पर ; सम्यक प्रकाशन, नई दिल्ली ; प्रथम सम्यक संस्करण, 2015 ; पृष्ठ- 127

  4. सिंह, डॉ. तेज ; आज का दलित साहित्य ; कुमार पब्लिकेशन हाउस, दिल्ली ; द्वितीय संस्करण, 2008 ; पृष्ठ- 75

  5. कर्दम, जयप्रकाश ; छप्पर ; सम्यक प्रकाशन, नई दिल्ली ; प्रथम सम्यक संस्करण, 2015 ; पृष्ठ – 77/78

  6. वाल्मीकि, ओमप्रकाश ; दलित साहित्य का सौन्दर्यशास्त्र ; राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली ; पहला छात्र संस्करण, 2014 ; पृष्ठ-31

  7. कर्दम, जयप्रकाश ; छप्पर ; सम्यक प्रकाशन, नई दिल्ली ; प्रथम सम्यक संस्करण, 2015 ; पृष्ठ – 31

  8. वही, पृष्ठ – 4

  9. वही, पृष्ठ – 38/39

  10. वही, पृष्ठ – 53




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