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शोध आलेख : भारतीय दलित साहित्य में नवीन चेतना

सार संक्षेप

दलित साहित्य समकालीन संदर्भों में जाति व्यवस्था, ऊँच-नीच, छुआछूत, लिंगभेद, भाग्य-भगवान, कर्मकांड, पुनर्जन्म, स्वर्ग-नरक, पाखंडवाद, पुरोहीतवाद, अंधविश्वास तथा ब्राह्मणवादी वर्चस्वविरोध करती है और समतामूलक समाज की स्थापना हेतु वैज्ञानिकता, अधुनिकता के साथ संविधान में दिए गए अधिकारों का ईमानदारी से कार्यान्वयन की मांग करती है। दलित साहित्य में दलित चेतना का मूलआधार और प्रमुख मुखर स्वर यही है। दलित साहित्य यथास्थितिवाद को नकारता है और नवीन मानदंडों के अनुसार वैज्ञानिकता के साथ साहित्यिक सौंदर्यबोध की स्थापना करना चाहता है। उसकी संकल्पनाओं में ईश्वर का ऐश्वर्य नहीं बल्कि मानवता का उत्कर्ष है। उसके विवेचन में यदि ईश्वर है तो किसी विशेष वर्ग का नहीं बल्कि सबका है और उसका आचार-व्यवहार आडंबरपूर्ण नहीं बल्कि समय की मांग के अनुसार संवैधानिक है। वह किसी भाषा विशेष के माध्यम से ही नहीं सुनता बल्कि किसी भी भाषा और भाव को समान रूप से सुनता और समझता है। कुल मिलाकर दलित साहित्य तार्किक और यथार्थ पर समाज का निर्माण चाहता है।


बीज शब्द

नवजागरण, पनुर्जागरण, जनवादी धारा, शोषक वर्ग, साम्यवादी, मानवतावादी, दलित समाज, जागरुक रचनाकार, विचारक, शापित, आभा मंडल, सामानांतर आंदोलन, बुद्ध, कबीर, रविदास, बिरसा, सिधू-कान्हू, झलकारी बाई, क्यूम अंसारी, फातिमा शेख़, फूले-दंपत्ति, पेरियार और अंबेडकर आदि।


भूमिका

आधुनिक भारतीय साहित्य में दलित साहित्य एक ऐसी साहित्यिक धारा है जो क्षेत्र और भाषा की सीमाओं को लांघकर राष्ट्रीय संवेदना एवं सामूहिकता का बोध कराते हुए समूचे मानव समाज के मन-मस्तिष्क को प्रभावित कर रही है। ऐसा माना जा रहा है कि भक्तिकाल के बाद आधुनिक काल में उभरी यह विधा एक ऐसी विधात्मकघटना है जिसने साहित्य के मायने और मानदंडों को बदल कर रख दिया है और मानव होने और उसकी अनुभूतियों के अर्थ में बदलाव कर दिया है। यदि कहा जाए कि यह एक राष्ट्रीय साहित्यिक आंदोलन है तोगलत नहीं होगा। क्योंकि यहधारा सामाजिक और राजनीतिक दोनों आंदोलनों के समानांतर चलते हुए दोनों में अपनी गहरी पैठ बना रही है।

    जिस नवजागरण या पनुर्जागरण की बात आधुनिक साहित्य की जनवादी धारा के अतंगर्त की जाती रही है, उसका राष्ट्रीय स्वरूप नहीं बन सका था। क्योंकि देश के हर क्षेत्र और भाषा के नवजागरण की धारणा एवं परिव्याप्ति भिन्न-भिन्न तरीके से गुनी-बुनी जा रही थी और प्राय: उसके प्रणेता शोषक वर्गों के ही साम्यवादी एवं मानवतावादी लोग थे। इसलिए उनके चिंतन की तीव्रता अलग-अलग दिशाओं एवं भावनाओं से प्रेरित होती थी. जैसे कि महाराष्ट्र और बंगाल में सुधारवादी प्रवृत्तिया आरंभ तो हुईं लेकिन उन दोनों की दिशाएं भिन्न-भिन्न रहीं।इसी प्रकार हिंदी भाषी क्षेत्र और हिंदीतर भाषी क्षेत्र की समस्याएं नएक थीं और ही उनका समाधान एक था। इसलिए उनके निराकरण की कोई एक प्रक्रिया नहीं बन सकी। इसलिए दलित समाज के शिक्षित जागरुक रचनाकारों एवं विचारकों ने अपनी व्यथा एवं मनोभावों को व्यक्त करने हेतु एक नई विधा/सोचका प्रवर्तन किया। लेकिन भारतीय साहित्य की मुख्य धारा ने इसे कमजोर और व्यापक विमर्श की धारा बनने से रोकने के लिए इसे दलित साहित्य की धारा संबोधित करके एक अलग धारा घोषित कर दिया। फिर भी मुख्य धारा द्वारा शापित दलित साहित्य में उभरी चेतना ने अभी तक समूचे साहित्यिक आभा मंडल को प्रभावित करने में अपार सफलता पाई है।


चेतना की अवधारणा कारक

दलित साहित्य को मूलत: आह से निकला साहित्य माना जाता है। जिसमें अमानवीयता एवं असह्य पीड़ा की टीस संत्रास है। जिसके मूल में एक समाज के धार्मिक जातीय श्रेष्ठता के ताप की तपिश से दागदार हुए चेहरे हैं, कराहता इतिहास और चित्कार करता भूगोल है। कोई साहित्यकार बस यूँ ही दलित साहित्यकार नहीं हो जाता। उसे उस तपिश की आंच को महसूस ही नहीं बल्कि उसमें स्वयं को तपाना पड़ता है। विमर्श में कई बार यह बात उठाई जाती है कि क्या कोई सवर्ण भी दलित साहित्य लिख सकता है?’ कई बार उत्तर हाँ होता है। लेकिन वास्तव में स्व-अनुभूति के आधार पर लिखा गया साहित्य ही बेहतर माना जाता है। इस प्रकार दलित साहित्य की अवधारणा विचारपरक अनुभूतियों पर अधारित होती है। इसी लिए दलित साहित्य की अवधारणा के संदर्भ में दलित विचारक डॉ तुलसीरामलिखते हैं किदलित साहित्य का आधार डॉ. अबंडेकर के विचार हैं। येविचार दलितोंके धार्मिक शोषण के विरुद्ध पनपे हैं। बुद्ध के प्रभाव में लिखे गए जिस साहित्य को ब्राह्मणोंने आठ सौ वर्ष पूर्वनष्ट कर दिया था, उसे डॉ. अबंडेकर ने पनुर्जीवित करनेका अभियान छेड़ा। यही कारण है कि बिना अंबेडकर के दलित साहित्य की बात नहीं की जा सकती।''[1]

    

    उपरोक्त कथन में दलित साहित्य के मूल में अंतर्निहित वे ऐतिहासिक छल-कपट और धोखों की प्रतिध्वनि सुनाई देती है, जो बुद्ध, कबीर, रविदास, बिरसा, सिधू-कान्हू, झलकारी बाई, क्यूम अंसारी, फातिमा शेख़, फूले-दंपत्ति, पेरियार और अंबेडकर जैसे अनेक मानवतावादी विचारकों-विभूतियों के विचारों, समाजपयोगी कार्यों, साहित्यों आदि को नुकसान पहुँचाया गया और उन्हें तुच्छ दिखाया गया।  वह तो भला हो अंग्रेजों का जिन्होंने सर्व-शिक्षा के लिए प्रयास किए और डॉ अंबेडकर सहित कुछ विचारक सामाजिक पटल पर खुलकर सामने गए यदि डॉ अंबेडकर जैसा सूरज नहीं उगा होता तो संभवत: दलित विमर्श होता और उसका साहित्य। आजादी के बाद संवैधानिक प्रावधानों के कारण दलितों में शिक्षा का प्रचार-प्रसार होने लगा और दलितों ने अपनी समस्याओं के लिए हर स्तर पर स्वयं राह तलाशना शुरू कर दिया और एक लक्ष्य निर्धारित किया। इस संदर्भ में मराठी दलित रचनाकार अर्जुन डांगले ने लिखा है, किसामाजिक व्यवस्था और विषमता के विरुद्ध आंदोलन खड़ा करके एक नए समाज का निर्माण करना, यह दलित साहित्य का प्रमुख उद्देश्य है।''[2]

    

    इसी संदर्भ में डॉ. विमल थोरात का मानना है किदलित साहित्य उस विद्रोह का उन्मेष है, जो किसी विशिष्ट जाति या व्यक्ति के विरुद्ध नहीं बल्किस्वकी खोज में निकले हुएएक समाज का पूर्व की परंपराओंसे विद्रोह एवं अपने अस्तित्व की स्थापना का प्रयासहै।''[3]

    

    जैसा कि हिंदू धर्म की वर्णाश्रम-व्यवस्था पनुर्जन्म और कर्मफल पर टिकी हुई मानी जाती है। इस धार्मिक मान्यता अनुसार पूर्वजन्म में किए कर्मों के आधार पर ही ऊँची अथवा नीची जातियों में मनुष्य का जन्म होता है। साथ ही शूद्रों (दलितों सहित) के लिए आजन्म ऊँची जातियों का सेवा करना ही धर्म है और उनकी मुक्ति का मार्ग भी यही बताया गया है। ज्ञान के आधार पर शूद्रों (दलितों सहित) ने जब इस धोखे को जाना तो इस मानसिक गुलामी की जंजीर को तोड़ने के लिए प्रयास करना शुरु किया।

    

    दलित साहित्य मुखर होकर इस मानसिक गुलामी की सोच को बेनकाब करने का प्रयास करताहै। दलित साहित्य में भारतीय समाज-व्यवस्था की भेदभावपूर्ण क्रूर प्रणाली ने धार्मिक परंपराओं और मर्यादाओं का आवरण ओढ़कर हमेशा दलित समाज को ठगने का काम किया है। अपने धार्मिक कर्मकांडों, अंधविश्वासों और जन्मना ऊँच-नीच की भावना को वैधता प्रदान करते हुए समाज का शोषण किया है। पाखंड और शोषण का यह सिलसिला आज भी बदस्तूर जारी है, जबकि इन्हें रोकने के लिए अनेक नियम-कानून बने हुए हैं। दलित समाज और उसका साहित्य यह मानता है शासन-प्रशासन में बैठे प्राधिकारियों की अकर्मण्यता के कारण ही आज भी अमानवीय व्यवहार दलितों के साथ हो रहे हैं और समाज अवैज्ञानिक पाखंडों और कर्मकांडों में फंसा हुआ है। इस लिए भुक्तभोगी समाज साहित्यिक, सामाजिक और राजनीतिक स्तर पर इस अमानवीय एवं अवैज्ञानिक व्यवस्था के विरोध में खड़ा है।

    

    इसी संदर्भ में ओमप्रकाश वाल्मिकी कहते हैंदलित चेतना एक प्रति सांस्कृतिक चेतना है, बल्कि एक वैकल्पिक चेतना भी है। इसलिए विद्रोही है। इस चेतना की जड़ में भारतीय सामाजिक संरचना है। जो सिर्फ जाति पर आधारित है बल्कि इसे धार्मिक वैधता भी प्रदान करती है। जाति-व्यवस्था सामाजिक दुराव के सिद्धांत पर आधारित है। यह हमारे सामाजिक संबंधों को ही नहीं बल्कि धार्मिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक पक्षोंको भी प्रभावित करती है। यह गुलामी की संपूर्ण व्यवस्था है, हिंदू समाज-व्यवस्था में प्रारंभ से ही धर्म की प्रधानता और अर्थ गौण रहा है। व्यावहारिक स्तर पर हिंदुत्व की जो अवधारणा आम आदमी तक पहुंचती है, वह बहतु हद तक जातीय आचार-व्यवहार और संस्कार से परिसीमित हुई रहती है। स्वतत्रंता के बाद भी यह स्थिति किसी किसी रूप में बनी हुई है। बदलाव के बावजूद दलित वर्ग को मूलभूत सुविधाओं  से वंचित रखने का प्रयास जारी है।''[4]

    

    जैसा कि उपर संकेत किया गया है कि ऐतिहासिक रुप से दलित चेतना का दार्शनिक और वैचारिक आधार स्रोत गौतम बुद्धही रहे हैं। उन्होंनेवर्ण-व्यवस्था के औचित्य को चुनौती दी और उसेअन्यायपूर्ण बताया और साथ ही अपने श्रावस्ती प्रवासके दौरान सुनीत नामक भंगी को अपने संघ में शामिल किया। लेकिनआधुनिक दलित चेतना के जनक डॉ. अबंडेकरहैं। क्योंकि उन्होंनेएक व्यवस्थित सामाजिक, धार्मिक और राजनीतिक विकल्प दिया। साथ ही महिलाओंउपेक्षित और पिछड़े वर्गों हेतु सम्मान, गरिमा, अधिकार और न्यायपूर्ण व्यवस्था सुनिश्चितकराया। नागपुर में दीक्षा के दौरान उनके द्वारा ली गई और दिलाई गईं 22 प्रतिज्ञाएं दलित चेतना की उत्प्रेरक हैं। 


    दलित साहित्य समकालीन संदर्भों में जाति व्यवस्था, ऊँच-नीच, छुआछूत, लिंगभेद, भाग्य-भगवान, कर्मकांड, पुनर्जन्म, स्वर्ग-नरक, पाखंडवाद, पुरोहीतवाद, अंधविश्वास तथा ब्राह्मणवादी वर्चस्वविरोध करती है और समतामूलक समाज की स्थापना हेतु वैज्ञानिकता, अधुनिकता के साथ संविधान में दिए गए अधिकारों का ईमानदारी से कार्यान्वयन की मांग करती है।  दलित साहित्य में दलित चेतना का मूलआधार और प्रमुख मुखर स्वर यही है। दलित साहित्य यथास्थितिवाद को नकारता है और नवीन मानदंडों के अनुसार साहित्यिक सौंदर्यबोध की स्थापना करना चाहता है। उसकी संकल्पनाओं में ईश्वर का ऐश्वर्य नहीं बल्कि मानवता का उत्कर्ष है। उसके विवेचन में यदि ईश्वर है तो किसी विशेष वर्ग का नहीं बल्कि सबका है और उसका आचार-व्यवहार आडंबरपूर्ण नहीं बल्कि समय की मांग के अनुसार संवैधानिक है। वह किसी भाषा विशेष के माध्यम से ही नहीं सुनता बल्कि किसी भी भाषा और भाव को समान रूप से सुनता और समझता है।


    इस प्रकार दलित साहित्य अपने साहित्य के माध्यम से हमें समाजगत और वस्तुजगत दोनों भावनाओं को वैज्ञानिक और समाजशास्त्रीय ढंग से समझने के लिए प्रेरित करता है और साथ ही यह भी कोशिश करता है कि मनुष्य की स्वतत्रंता, गरिमा और व्यक्तित्व का विकास हेतुसमान अधिकारों जैसे मानवीय मूल्यों को बढ़ावा दिया जाना चाहिए। लेकिन आजादी के बाद भी भारत में जनवादी प्रगतिशील मूल्यों के नाम पर कुछ ऐसे मूल्यों का प्रचार-प्रसारहोता रहा जो बाहर से तो बहुत ही आकर्षक लगते हैं, लेकिन भीतर वे सामंतवादी, पूँजीवादी व्यवस्थाओं का घोर समर्थन करते हैं। जैसे कि भारत की सांस्कृतिक विरासत में विश्व बंधुत्व की बात का प्रचार-प्रसार तो पूरे दम-खम से होता है। लेकिन धरातल पर भारतीय समाज इतनी बंटा हुआ है कि उसमें एकता की कल्पना भी बेमानी लगती है।


    ऐसे ही जिस हिंदू धर्म अथवा अब तथाकथित सनातन के नाम पर एकता की बात कहीं जाती है वह भीतर से इतना जर्जर है कि उसमें एक अबोध बच्चे द्वारा पानी के घड़े को छूने को इतना बुरा मान लिया जाता है कि उसकी हत्या तक कर दी जाती है और तथाकथित सभ्य समाज साहित्य आँख बंदकर राममंदिर निर्माण में मगन रहता है। वह उसे समाज की बुराई मानने के लिए तैयार ही नहीं है। ऐसी स्थिति में दलित साहित्य अपनी सामाजिक जिम्मेदारियों मजबूरियों में राग मल्हार कैसे गा सकता है। आज संवैधानिक अधिकारों और समाज के दायित्वों के बावजूद दलितों पर अत्याचार कैसे जारी हैं? यह मूल प्रश्न क्या तथाकथित सभ्य साहित्य में विचार का मुद्दा नहीं होना चाहिए?


    इसीलिए दलित साहित्य बेधड़क होकर भारत कीसामाजिक संरचना में विद्यमान विभेदों पर मुखर होकर प्रहार करता है और लुभावनी बातें करने वालों को बेनकाब करते हुए अपने अधिकार, सम्मान, समता के लिए संघर्ष करता है। दलित साहित्य की संवेदनाओं को व्यापकता से यदि समझना है तो ओमप्रकाश वाल्मीकि, मोहनदास नैमिशराय, सूरजपाल चैहान, डॉ सुशीला टाकभौरे, डॉजय प्रकाश कर्दम,  डॉ श्यौराज सिंहबेचैनजैसे नेक साहित्यकारों की रचनाओं में महसूस किया जा सकता है।


    दलित साहित्य का विकास जितना मराठी और हिंदी में हुआ है लगभग उतना ही अन्य भाषाओं में भी हुआ है, मराठी में नामदेव ढसाल, अर्जुन डांगले,दया पवार, बाबुरावबागलु, प्रज्ञा लोकंडे, केशव मेश्राम  आदि तथा कन्नड़ में सिद्धलिंगय्या, अरविदं मालगत्ती, एल हनमुंथय्या, मोगली गणेश, सुमुह होलियार, गंगाराम चंडाल आदि असमियामें रमला राय सरकार, पीताम्बर दास, नयन बड़ो, दिजेन काकति, हरेन्द्र कुमार मछाहारी, डॉ. श्रीधारी दुसाध और मलयालम में तंकप्पन, कवियूर मुरली, राघवन अत्तोली, एम.आर रेणु कुमार, एम.बीमनोज कुमार आदि को पढ़ा जा सकता है।


    अब तो दलित साहित्य की छाया पेंटिग के क्षेत्र पर भी पड़ने लगी है। दलित छायाकार अपनी कूँचियों से अपनी सांस्कृतिक विरासतों, संघर्षों, व्यथाओं आदि को पेंटिंग में दिखाने लगे हैं। ऐसे दलित चित्रकारों की सूची में प्रदीप रामटेके तथा सवी सावरकर का नाम प्रमुखता से लिया जाने लगा हैं। प्रदीपरामटेके ने गौतम बुद्ध एवं डॉ अंबेडकर को अपनी चित्रकारी का आधार माना है तोसवी सवारकर ने मनुवादी व्यवस्था पर चित्रकारी का पूरा एक धारावाहिक तैयार की है जो छुआछूत विभिन्न स्रोतों से लोगों का परिचय कराता है।


    दलित साहित्यकार दलित साहित्य पत्रकारिता के विभिन्न विधाओं में फैलकर देश विदेश में भी अपनी बात को रखने की कोशिश कर रहे हैं। दलित साहित्य की विभिन्न विधाओं पर विदेश के विश्वविद्याल्यों में शोध होने आरंभ हो चुके हैं अर्थात दलित साहित्य की चेतना वैश्विक हो चुकी है।

  

-प्रोशकीला खानम

डीन  फैकल्टीऑफ आर्टस (पूर्व)

डॉबीआरअंबेडकर सार्वत्रिक विश्वविद्यालयहैदराबाद


संदर्भ-सूची

[1] चिंतन की परंपरा और दलित साहित्य – डॉ. तुलसीराम, पृष्ठ-40

[2] दलित साहित्य का सौंदर्यशास्त्र - ओम प्रकाश वाल्मीकि, पृ0 24

[3] वही, पृष्ठ 64-65

[4] दलित चेतना औरहिंदी कथा साहित्य -ओम प्रकाश वाल्मीकि -समकालीन जनमत, पृ0 52-53




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