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शोध आलेख : राजनीति और नैतिकता - मुद्राराक्षस में नीति बनाम नैतिकता की टकराहट

शोध सारांश

विशाखदत्त रचित मुद्राराक्षस एक महत्वपूर्ण संस्कृत नाटक है, जो मौर्यकालीन राजनीतिक परिवेश में घटित सत्ता परिवर्तन की गाथा को प्रस्तुत करता है। इस नाटक के केंद्र में चाणक्य की राजनीतिक कुशलता तथा नंद वंश के पतन के पश्चात चंद्रगुप्त मौर्य के राज्याभिषेक की प्रक्रिया है। इस शोध विषय के अंतर्गत राजनीति और नैतिकता के मध्य टकराव की पड़ताल की गई है, विशेषतः यह कि कैसे चाणक्य की 'नीति' कभी-कभी परंपरागत 'नैतिकता' से टकराती है।


    चाणक्य एक ऐसे नायक के रूप में उभरते हैं, जिनकी राजनीति "साध्य के लिए साधन" को न्यायोचित ठहराती है। वे 'राज्य की स्थिरता' और 'राष्ट्रहित' को सर्वोपरि मानते हैं, भले ही उसके लिए छल, कपट और धोखे का सहारा लेना पड़े। उदाहरणस्वरूप, राक्षस जैसे योग्य व परंपरावादी मंत्री को अपने पक्ष में लाने हेतु चाणक्य अनेक योजनाएँ बनाते हैं, जिनमें कई नैतिक दृष्टि से प्रश्नांकित की जा सकती हैं। किंतु नाटक में यह भी स्पष्ट होता है कि चाणक्य के ये कार्य व्यक्तिगत नहीं, अपितु राजनीतिक स्थिरता और सामाजिक समरसता के लिए हैं।


    राक्षस का चरित्र नैतिकता का प्रतीक है—वह अपने स्वामी नंद के प्रति निष्ठावान है और अंतिम समय तक सत्ता परिवर्तन को स्वीकार नहीं करता। परंतु जब वह चंद्रगुप्त की योग्यता और चाणक्य की दूरदृष्टि को समझता है, तब राष्ट्रहित में वह अपने व्यक्तिगत मूल्यों से समझौता करता है। यह द्वंद्व—राजनीतिक नीति बनाम व्यक्तिगत नैतिकता—मुद्राराक्षस का केंद्रीय तत्व है।


    यह नाटक नीति और नैतिकता के संघर्ष को केवल विरोध नहीं, बल्कि एक दूसरे के पूरक के रूप में प्रस्तुत करता है। चाणक्य की रणनीति और राक्षस की नैतिक दृढ़ता अंततः एक संगठित और न्यायप्रिय शासन की स्थापना में सहायक बनती हैं। इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि राजनीति में नैतिकता की भूमिका महत्वपूर्ण है, किंतु कभी-कभी राष्ट्रहित में व्यावहारिक नीति को प्राथमिकता देना अनिवार्य हो जाता है।


बीज शब्द 

राजनीति, नैतिकता, नीति, चाणक्य नीति, राष्ट्रहित, धोखा और कूटनीति, नंद वंश, चंद्रगुप्त मौर्य, राक्षस, सत्ता संघर्ष, नैतिक द्वंद्व, साध्य और साधन, प्राचीन भारतीय राजनीति, राजधर्म, राजनीतिक स्थिरता, शासन परिवर्तन, आदर्शवाद बनाम व्यवहारवाद, नाटक में राजनीति, धर्म और सत्ता, विशाखदत्त।


परिचय 

प्राचीन भारतीय साहित्य में मुद्राराक्षस एक महत्वपूर्ण नाट्यकृति है, जिसकी रचना विशाखदत्त ने की थी। यह नाटक न केवल मौर्यकालीन सत्ता संघर्ष को चित्रित करता है, बल्कि राजनीति और नैतिकता के जटिल संबंधों की पड़ताल भी करता है। चाणक्य, चंद्रगुप्त और राक्षस जैसे पात्रों के माध्यम से यह कृति उस समय की राजनीतिक बौद्धिकता, कूटनीति और नैतिक द्वंद्व को उजागर करती है।


    राजनीति का उद्देश्य सामान्यतः सत्ता प्राप्ति और उसके स्थायित्व से जुड़ा होता है, जबकि नैतिकता का संबंध आदर्शों, सिद्धांतों और मानवीय मूल्यों से होता है। इन दोनों अवधारणाओं के बीच अक्सर संघर्ष उत्पन्न होता है, विशेषकर तब जब सत्ता के लिए नैतिक मूल्यों की बलि दी जाती है। मुद्राराक्षस में यह संघर्ष चाणक्य और राक्षस की रणनीतियों, उनके चरित्र और कार्यों के माध्यम से सामने आता है।


    चाणक्य, जिसे कौटिल्य या विष्णुगुप्त के नाम से भी जाना जाता है, राजनीतिक कौशल और रणनीति का प्रतीक है। उसकी नीतियाँ 'राजधर्म' के अंतर्गत आती हैं, जिसमें उद्देश्य की पूर्ति के लिए किसी भी साधन का प्रयोग उचित माना गया है। "सिद्ध्यर्थं सर्वमेव साध्यम्" अर्थात् लक्ष्य की प्राप्ति के लिए सब कुछ साध्य है — यही उसका मूल मंत्र प्रतीत होता है। दूसरी ओर, राक्षस एक ऐसे राजपुरुष के रूप में सामने आता है, जो नंद वंश के प्रति निष्ठा, व्यक्तिगत नैतिकता और नीति के उच्च आदर्शों को धारण किए हुए है। वह राजनीति में नैतिक मूल्यों को सर्वोपरि मानता है, भले ही इसके कारण उसे सत्ता से वंचित रहना पड़े।


    इस नाटक में नीतिगत छल, गुप्तचरी, दलबदल और कूटनीतिक चालें भरपूर हैं, लेकिन साथ ही यह प्रश्न भी बार-बार उठता है कि क्या ऐसे साधनों का उपयोग उचित है? क्या नैतिकता की बलि देकर प्राप्त सत्ता स्थायी और न्यायसंगत हो सकती है? चाणक्य की राजनीति जहाँ परिणामवादी है, वहीं राक्षस की सोच कर्तव्यनिष्ठ और आदर्शवादी है।


    मुद्राराक्षस इन दोनों दृष्टिकोणों का समन्वय नहीं करता, बल्कि उनके संघर्ष को प्रस्तुत करता है। इस संघर्ष के माध्यम से विशाखदत्त ने न केवल तत्कालीन राजनीतिक यथार्थ को दर्शाया है, बल्कि यह संकेत भी दिया है कि राजनीति और नैतिकता के बीच संतुलन बनाना कितना जटिल और आवश्यक है। चाणक्य की रणनीतियाँ भले ही मौर्य साम्राज्य की स्थापना में सहायक हों, परंतु उनके नैतिक प्रभावों की समीक्षा आज भी प्रासंगिक बनी हुई है।


    यह नाटक आज के राजनीतिक संदर्भ में भी उतना ही प्रासंगिक है, जहाँ सत्ता प्राप्ति के लिए नैतिक मूल्यों की उपेक्षा आम बात हो गई है। इसलिए यह शोध विषय न केवल साहित्यिक अध्ययन का क्षेत्र है, बल्कि नैतिक और दार्शनिक विमर्श का भी केंद्र बिंदु बनता है।


राजनीति और नैतिकता का स्थान 

भारतीय संस्कृत साहित्य में मुद्राराक्षस एक ऐसा नाटक है जो न केवल मौर्यकालीन राजनीति का यथार्थ चित्र प्रस्तुत करता है, बल्कि राजनीति और नैतिकता के द्वंद्व को भी प्रमुखता से उभारता है। इस नाटक में चाणक्य और राक्षस (अमात्य राक्षस) के बीच सत्ता प्राप्ति हेतु जो संघर्ष चित्रित हुआ है, उसमें नीति और नैतिकता के मध्य टकराहट स्पष्ट दिखाई देती है।


राजनीति में नैतिकता की भूमिका 

राजनीति का मूल उद्देश्य जनहित और राज्य की स्थिरता होता है, किंतु जब सत्ता प्राप्ति या उसकी रक्षा का प्रश्न उठता है, तो नैतिकता अक्सर पीछे छूट जाती है। मुद्राराक्षस में चाणक्य एक कुशल राजनयिक के रूप में उभरते हैं, जो चंद्रगुप्त को सत्ता दिलाने के लिए हर प्रकार की नीति—कूटनीति, छल और युक्तियों का सहारा लेते हैं। चाणक्य द्वारा किए गए कुछ कार्य, जैसे—राक्षस के विश्वासपात्रों को भटकाना, षड्यंत्र रचना और भावनात्मक रूप से उसे तोड़ना—नैतिक दृष्टिकोण से विवादास्पद प्रतीत होते हैं, परंतु उनका उद्देश्य था एक शक्तिशाली और संगठित राज्य की स्थापना।


राक्षस की नैतिकता बनाम चाणक्य की नीति 

राक्षस एक आदर्शवादी अमात्य के रूप में प्रस्तुत होता है, जो नंद वंश के प्रति निष्ठावान है और अपनी नीतिगत प्रतिबद्धताओं से विचलित नहीं होता। दूसरी ओर, चाणक्य का मानना है कि राष्ट्रहित सर्वोपरि है, भले ही इसके लिए नैतिकता से समझौता क्यों न करना पड़े। यहीं पर नीति और नैतिकता की टकराहट प्रारंभ होती है। चाणक्य के लिए साध्य यदि राष्ट्रहित हो तो साधन कोई भी हो सकता है, जबकि राक्षस साधनों की शुद्धता पर बल देता है।


राजनीतिक यथार्थ का दर्शन 

विशाखदत्त का यह नाटक स्पष्ट करता है कि राजनीति में सफलता प्रायः नैतिक मूल्यों की बलि लेकर ही संभव होती है। आधुनिक राजनीति भी इसी यथार्थ को प्रतिबिंबित करती है, जहाँ नीतिगत चातुर्य को नैतिक आदर्शों पर वरीयता दी जाती है। मुद्राराक्षस में यह संदेश भी निहित है कि यदि नीति का प्रयोग राष्ट्रनिर्माण के लिए हो, तो नैतिक सीमाओं को लांघना स्वीकार्य हो सकता है।


मुद्राराक्षस का राजनीतिक परिदृश्य 

मुद्राराक्षस का राजनीतिक परिदृश्य एक अत्यंत जटिल, रणनीतिक और यथार्थवादी व्यवस्था को प्रस्तुत करता है, जो प्राचीन भारत की मौर्यकालीन राजनीति की गहराइयों को दर्शाता है। विशाखदत्त द्वारा रचित यह नाटक मुख्यतः चाणक्य, चन्द्रगुप्त मौर्य और राक्षस (नंद वंश का मंत्री) के इर्द-गिर्द घूमता है, परंतु इसके माध्यम से उस समय की सत्ता-संरचना, कूटनीति, दलबदल, गुप्तचर व्यवस्था और नैतिक मूल्यों का गहन चित्रण मिलता है।

  1. राजनीतिक अस्थिरता और सत्ता संघर्ष
    मुद्राराक्षस का आरंभ ऐसे समय में होता है जब नंद वंश का पतन हो चुका है और चन्द्रगुप्त मौर्य सिंहासन पर आसीन हो चुका है। परंतु नंदों के प्रति वफादार मंत्री राक्षस अभी भी मौर्य साम्राज्य के लिए चुनौती बना हुआ है। यह परिदृश्य दर्शाता है कि एक नई सत्ता को स्थिर होने में किन-किन राजनीतिक बाधाओं का सामना करना पड़ता है।

  2. चाणक्य की कूटनीति
    चाणक्य इस नाटक में राजनीति के मूर्त रूप हैं। उनकी योजनाएँ, छल-कपट, गुप्तचर प्रणाली और मानसिक युद्ध की रणनीतियाँ यह दर्शाती हैं कि सत्ता केवल वीरता से नहीं, बल्कि बुद्धि और चालों से प्राप्त और सुरक्षित की जाती है।

  3. गुप्तचरी और जासूसी तंत्र
    मुद्राराक्षस में एक विकसित गुप्तचर प्रणाली का विवरण मिलता है, जहाँ भेष बदलकर, छलपूर्वक दुश्मन की योजना जानने और भ्रम फैलाने की कोशिशें की जाती हैं। यह परिदृश्य दर्शाता है कि उस युग में भी राजनीतिक जानकारी प्राप्त करना और उसे रणनीति में ढालना कितना महत्वपूर्ण था।

  4. दलबदल और मनोवैज्ञानिक युद्ध
    राक्षस को मौर्य पक्ष में लाना चाणक्य का प्रमुख लक्ष्य है। इसके लिए वह उसकी भावनाओं, कर्तव्यबोध और राजभक्ति का उपयोग करता है। यह राजनीतिक परिदृश्य बताता है कि उस समय राजनीतिक निष्ठाएँ कितनी लचीली थीं और व्यक्तिगत हित किस प्रकार राष्ट्रहित में बदले जा सकते थे।


5. नैतिकता और राजनीति का द्वंद्व

मुद्राराक्षस केवल सत्ता प्राप्ति की कहानी नहीं है, बल्कि यह भी दर्शाता है कि राजनीति में नैतिकता कैसे संकट में पड़ जाती है। राक्षस का चरित्र इस द्वंद्व को उजागर करता है — वह नीति का विरोधी नहीं, परन्तु अपने निष्ठावान राजा के प्रति वफादार है।


चाणक्य: नीतिज्ञ या अमानवीय राजनीतिज्ञ

1. चाणक्य – एक महान नीतिज्ञ

कौटिल्य अर्थशास्त्र और मुद्राराक्षस जैसे ग्रंथों में चाणक्य की छवि एक दूरदर्शी, कुशल और परिणामोन्मुख राजनीतिज्ञ के रूप में उभरती है।

राज्य की स्थिरता सर्वोपरि: चाणक्य का उद्देश्य मगध की दुष्ट नंद वंश की सत्ता को उखाड़कर एक सक्षम और आदर्श शासन की स्थापना करना था। इसके लिए वे चंद्रगुप्त को राजसिंहासन पर बैठाते हैं।

रणनीति और कूटनीति: मुद्राराक्षस नाटक में वे राक्षस जैसे योग्य मंत्री को भी चंद्रगुप्त के पक्ष में करने के लिए चालों का सहारा लेते हैं — मसलन वेश बदलकर षड्यंत्र करना, षड्यंत्रकारियों में फूट डालना, और भावनात्मक दबाव डालना।

नैतिक लचीलेपन का समर्थन: चाणक्य के लिए ‘राजधर्म’ और ‘राष्ट्रहित’ व्यक्तिगत नैतिकता से ऊपर है। वे मानते हैं – “सिद्ध्यर्थं सर्वमेव कुर्यात्” – अर्थात् लक्ष्य प्राप्ति हेतु सभी उपाय जायज हैं।


2. चाणक्य – अमानवीय राजनीतिज्ञ

चाणक्य की कुछ कार्यप्रणालियाँ आलोचना का विषय रही हैं क्योंकि वे मानवीय मूल्यों और संवेदना को गौण करती प्रतीत होती हैं:

कुटिल चालें और छल-प्रपंच: मुद्राराक्षस में चाणक्य कूटनीति के नाम पर झूठ, धोखा और भावनात्मक शोषण का प्रयोग करते हैं। उदाहरणतः चंद्रगुप्त के पक्ष में राक्षस को मोड़ने के लिए उसके परिवार को बंधक बनाना।

"उद्देश्य सिद्ध हो जाए, फिर साधन कैसे भी हों" की नीति: यह नीतिगत दृष्टिकोण आज के नैतिक राजनीतिक मानकों से मेल नहीं खाता और इसे "अमानवीय" कहा जा सकता है।

नंद वंश का संहार: इतिहासकार मानते हैं कि चाणक्य ने नंदों का संपूर्ण विनाश कर दिया, जिसमें महिलाओं और बच्चों को भी नहीं छोड़ा गया – यह सत्ता के लिए हिंसा की चरम सीमा को दर्शाता है।


नीतिज्ञ या अमानवीय राजनीतिज्ञ

चाणक्य को केवल नीतिज्ञ कहना भी अधूरा होगा और उन्हें सिर्फ अमानवीय राजनीतिज्ञ कहना भी अन्याय होगा। वे दोनों का मिश्रण हैं – राजनीति में नैतिकता और व्यावहारिकता के बीच की खींचतान को सजीव रूप से दर्शाने वाला पात्र।

यदि नीति का मूल्यांकन "राष्ट्रहित" के चश्मे से किया जाए, तो चाणक्य एक आदर्श नीतिज्ञ हैं।
यदि नीति का मूल्यांकन "नैतिकता और मानवीय संवेदना" के आधार पर किया जाए, तो उनकी रणनीतियाँ अमानवीय लग सकती हैं।

राक्षस: नैतिकता का प्रतीक या जड़ विचारधारा का संवाहक

राक्षस का चरित्र नाटक में उच्च नैतिक मूल्यों का प्रतीक बनकर उभरता है। वह नंदों के प्रति अपनी निष्ठा और कर्तव्य के प्रति समर्पित है, भले ही वह सत्ता से वंचित हो चुका हो। उसकी यह निष्ठा दर्शाती है कि वह केवल राजनीतिक लाभ के लिए कार्य नहीं कर रहा, बल्कि अपने पूर्व शासकों के प्रति दायित्व की भावना से प्रेरित है। उदाहरणस्वरूप, वह किसी भी कीमत पर चंद्रगुप्त की सत्ता को मान्यता देने को तैयार नहीं होता जब तक कि उसे यह विश्वास न हो जाए कि देश की भलाई अब उसी में है। यह उसके चरित्र की नैतिक दृढ़ता को स्पष्ट करता है।


    दूसरी ओर, राक्षस की यह प्रतिबद्धता एक हद तक उसकी जड़ विचारधारा को भी दर्शाती है। वह सत्ता परिवर्तन की आवश्यकता और समय की मांग को तत्काल नहीं समझ पाता। राजनीति में यथार्थवाद को अपनाने के स्थान पर वह पुरानी सत्ता और उसके गौरव को लेकर ही प्रतिबद्ध बना रहता है। यही कारण है कि चाणक्य जैसे यथार्थवादी पात्र को उसे अपने पक्ष में लाने के लिए चालों और योजनाओं का सहारा लेना पड़ता है। यह उसकी सोच की एक प्रकार की जड़ता को दिखाता है, जो नई व्यवस्था के प्रति आरंभिक अस्वीकार की भावना में झलकती है।


    फिर भी, जब अंततः राक्षस चंद्रगुप्त के शासन को स्वीकार करता है, तो यह उसका नैतिक बोध ही है जो उसे देशहित में व्यक्तिगत निष्ठा का त्याग करने को प्रेरित करता है। वह जब चाणक्य की नीति और चंद्रगुप्त की क्षमता को समझ लेता है, तब उसका झुकाव सत्ता के नए स्वरूप की ओर होता है। यह परिवर्तन उसे महज़ परंपरा का वाहक नहीं, बल्कि नैतिक चेतना से युक्त एक विवेकशील चरित्र सिद्ध करता है।


नीति बनाम नैतिकता की टकराहट

चाणक्य, जो इस नाटक के प्रमुख रणनीतिकार हैं, राज्य की स्थिरता और एकीकृत भारत के निर्माण के लिए किसी भी हद तक जाने को तत्पर दिखाई देते हैं। उनके लिए "राजधर्म" सर्वोपरि है, चाहे उसके लिए छल, कपट या नैतिक मूल्यों का त्याग क्यों न करना पड़े। उदाहरणतः, राक्षस (नंद वंश का प्रधानमंत्री) को चंद्रगुप्त के पक्ष में लाने के लिए चाणक्य विभिन्न चालें चलते हैं – जैसे मालविका के माध्यम से धोखे से मुद्रिका (अंगूठी) चुरवाना, चाणूर की हत्या की योजना, और वीरसेन जैसे पात्रों को भ्रमित करना। इन सभी योजनाओं में नैतिकता गौण हो जाती है और कूटनीति प्रमुख भूमिका निभाती है।


    वहीं दूसरी ओर, राक्षस एक ऐसा पात्र है जो व्यक्तिगत निष्ठा, कर्तव्य और नैतिकता का प्रतीक बनकर उभरता है। वह नंद वंश के प्रति अपनी निष्ठा निभाने के लिए चंद्रगुप्त से विरोध करता है, जबकि उसे यह भी ज्ञात है कि उसकी निष्ठा अब एक पराजित सत्ता से जुड़ी है। जब अंततः वह चंद्रगुप्त की सेवा स्वीकार करता है, तो वह भी राज्य की भलाई और जनता के कल्याण को प्राथमिकता देता है – लेकिन वह चाणक्य की तरह छल-कपट का सहारा नहीं लेता।


    यह नाटक नीति बनाम नैतिकता की उस शाश्वत बहस को प्रस्तुत करता है, जिसमें नीति की सफलता का मापक उसका उद्देश्य होता है, जबकि नैतिकता की कसौटी उस पथ की पवित्रता होती है जिससे उद्देश्य तक पहुँचा गया हो। चाणक्य का दृष्टिकोण स्पष्ट है – "राज्य का हित सर्वोपरि है", जबकि राक्षस जैसे पात्र यह प्रश्न उठाते हैं कि क्या राज्य का हित अनैतिक तरीकों से साधा जा सकता है?


    इस प्रकार, मुद्राराक्षस एक गूढ़ संदेश देता है – यदि नीति में नैतिकता का अभाव हो, तो वह एक दिन उस व्यवस्था की नींव को भी हिला सकती है जिसे वह स्थापित करना चाहती है। लेकिन व्यावहारिक राजनीति में कभी-कभी नैतिकता को ताक पर रखकर नीति अपनानी पड़ती है – विशेषतः तब जब लक्ष्य व्यापक राष्ट्रीय एकता और जनहित हो।


समाप्ति और समन्वय की दिशा 

सामाजिक समन्वय, समाप्ति की सौम्यता और राष्ट्रीय एकता की स्थापना का भी संदेश देता है। नाटक की समाप्ति जहाँ राजनीतिक रणनीति की सफलता को दर्शाती है, वहीं यह समन्वय की उस भावना को भी उजागर करती है, जो किसी भी स्थायी शासन व्यवस्था की आधारशिला होती है।


    नाटक के प्रारंभ से अंत तक चाणक्य की रणनीतियाँ प्रमुख रहती हैं। उनका लक्ष्य केवल चंद्रगुप्त को गद्दी पर बैठाना नहीं है, बल्कि एक ऐसी शासन व्यवस्था स्थापित करना है जो दीर्घकालीन और स्थिर हो। इसके लिए वे अपने विरोधियों को पराजित करने की जगह उन्हें सम्मिलित करने की नीति अपनाते हैं। यही नीति नाटक के अंत में स्पष्ट रूप से सामने आती है।


    राक्षस, जो प्रारंभ में चंद्रगुप्त का कट्टर विरोधी होता है, नंद वंश के प्रति अपनी निष्ठा के कारण मौर्य सत्ता को स्वीकार नहीं करता। लेकिन जब उसे यह ज्ञात होता है कि चाणक्य की योजनाओं का उद्देश्य केवल सत्ता प्राप्ति नहीं, बल्कि राष्ट्र की एकता और कल्याण है, तो वह स्वयं ही चंद्रगुप्त की सेवा स्वीकार कर लेता है। यह परिवर्तन न केवल चाणक्य की रणनीति की सफलता को दर्शाता है, बल्कि यह भी दर्शाता है कि एक योग्य विरोधी को साथ लाकर शासन को और अधिक सक्षम बनाया जा सकता है।


    नाटक की समाप्ति कोई हिंसात्मक या क्रूर अंत नहीं है, बल्कि यह समन्वयात्मक और शांतिपूर्ण समाधान की ओर बढ़ती है। सत्ता का हस्तांतरण छल से नहीं, बल्कि समझौते और विश्वास के आधार पर होता है। यह भारतीय कूटनीति की परंपरा को भी दर्शाता है, जिसमें विरोधियों को मित्र बनाना श्रेष्ठ नीति मानी जाती रही है।


    इसके अतिरिक्त, नाटक में समन्वय केवल राजनीतिक स्तर पर ही नहीं, बल्कि सामाजिक और सांस्कृतिक स्तर पर भी परिलक्षित होता है। विभिन्न वर्गों, राज्यों और व्यक्तियों के बीच आपसी समन्वय की भावना मौर्य साम्राज्य की नींव को मजबूत करती है।


    अंततः मुद्राराक्षस यह सिखाता है कि राजनीति केवल सत्ता प्राप्ति का साधन नहीं है, बल्कि वह समन्वय, समझ और सहयोग से राष्ट्र को एक नई दिशा देने का माध्यम भी हो सकती है। चाणक्य की नीति और राक्षस की नैतिकता जब मिलती हैं, तब एक नया युग प्रारंभ होता है – जो मौर्य साम्राज्य की स्थिरता और एकता का प्रतीक बनता है।


निष्कर्ष 

नाटक में सबसे प्रमुख टकराहट "नीति" और "नैतिकता" के बीच देखी जाती है। चाणक्य का चरित्र उस राजनीतिक सोच का प्रतिनिधित्व करता है, जो लक्ष्य की प्राप्ति के लिए किसी भी साधन को उचित ठहराता है – भले ही उसमें छल, कपट या धोखे का प्रयोग करना पड़े। दूसरी ओर, राक्षस (नाटक का प्रधानमंत्री) जैसे पात्र नैतिकता, कर्तव्य और आदर्शों के पक्षधर हैं, जो व्यक्तिगत और राजनैतिक जीवन में सच्चाई और वफादारी को सर्वोच्च मानते हैं।


    इस शोध के दौरान यह स्पष्ट होता है कि चाणक्य के लिए राज्य की स्थिरता और राष्ट्रहित सर्वोपरि है। वे व्यक्तिगत भावनाओं और नैतिक मूल्यों से ऊपर उठकर कार्य करते हैं। उदाहरण के लिए, उन्होंने अपने उद्देश्य की पूर्ति हेतु राक्षस के विश्वासपात्रों को भी अपने पक्ष में किया और मानसिक युद्ध के माध्यम से उसे पराजित किया। यह नीति-प्रधान दृष्टिकोण, यद्यपि तत्कालिक रूप से कठोर प्रतीत होता है, परंतु दीर्घकालीन रूप में एक शक्तिशाली और संगठित शासन की स्थापना का मार्ग प्रशस्त करता है।


    वहीं राक्षस जैसे पात्र, जो नैतिकता की कसौटी पर खरे उतरते हैं, अंततः चाणक्य की चतुर रणनीति से पराजित होते हैं और बाद में चंद्रगुप्त के शासन को स्वीकार कर लेते हैं। यह स्वीकारोक्ति दर्शाती है कि आदर्शवादी सोच भी व्यवहारिक राजनीति की सच्चाइयों के आगे कभी-कभी झुक जाती है।


    इस प्रकार मुद्राराक्षस हमें यह सिखाता है कि राजनीति केवल सिद्धांतों पर नहीं, बल्कि व्यावहारिक रणनीतियों पर भी आधारित होती है। नैतिकता और नीति दोनों ही राजनीति के दो आवश्यक पहलू हैं, लेकिन जब राष्ट्रहित की बात आती है, तब कई बार नैतिक मूल्यों की बलि देनी पड़ती है। चाणक्य का चरित्र 'साध्य के लिए साधन' के सिद्धांत को अपनाता है, जबकि राक्षस 'साधन की पवित्रता' को महत्व देता है।


संदर्भ ग्रंथ 


1. विशाखदत्त – मुद्राराक्षस, साहित्य भवन, इलाहाबाद, 2019

2. डॉ. रामचंद्र शुक्ल – हिन्दी साहित्य का इतिहास, राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, 2021

3. डॉ. कपिल कपूर – Ancient Indian Political Thought, D.K. Printworld, New Delhi, 2006

4. डॉ. राधावल्लभ त्रिपाठी – संस्कृत नाट्यशास्त्र, राष्ट्रीय संस्कृत संस्थान, दिल्ली, 2017


कुमार वीर भूषण
शोधार्थी, 
विश्वविद्यालय राजनीति विज्ञान विभाग, 
भूपेन्द्र नारायण मंडल विश्वविद्यालय, 
लालू नगर, मधेपुरा

डॉ. सत्येन्द्र राय
शोध निर्देशक, 
बी. एस. एस. कॉलेज, 
सुपौल, भूपेन्द्र नारायण मंडल विश्वविद्यालय, 
लालू नगर, मधेपुरा


  


  

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