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शोध आलेख : हिन्दी का वैश्विक महत्व

सारांश

भारत एक बहुभाषिक देश है, जहाँ अनेक भाषाएँ बोली जाती हैं। गुरुदेव रविंद्रनाथ टैगोर ने भारत को भाषाओं का जंगल कहा था। भारत में व्यवहृत सभी भाषाओं में हिंदी का विशिष्ट स्थान है। वह मान्यता प्राप्त भारतीय संघ की राजभाषा है, जिसे हम सभी राष्ट्रभाषा के रूप में याद करते हैं। यह भाषा समय-समय पर राजनीतिक कुचक्र का शिकार भी होती रही है। हिन्दी भी इन सबसे अछूती नहीं है। फिर भी सारे झंझावतों को पार करते हुए आज के समय में हिंदी भारत देश की आत्मा में बसती है। उसका उत्तरोत्तर वैश्विक विकास हो रहा है। विश्वस्तर पर हिंदी अध्ययन-अध्यापन की मुख्य भाषा के रूप में उभर रही है। सूचना-प्रौद्योगिकी के विकास के साथ हिन्दी भी अपना स्वरूप विस्तार कर रही है तथा लोगों के बीच समादृत हो रही है। विश्व की अनेक भाषाओं को उसने पीछे छोड़ दिया है। विश्व स्तर पर हिंदी की स्वीकार्यता बढ़ रही है। हिन्दी हमारी थाती है। हमें उसे संजोकर रखना है। तब हम हिंदी भाषा के विकास में सहभागी बन सकेंगे।


बीज शब्द

राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020, भूमंडलीकरण, वैश्वीकरण, राष्ट्रभाषा, राजभाषा, राष्ट्रीय चेतना, सूचना प्रौद्योगिकी, उदारीकरण, निजीकरण, इलेक्ट्रॉनिक क्रांति, जन संचार एवं जन सम्पर्क, नव्य बाजार व्यवस्था, पत्रकारिता, विश्वभाषा।


प्रस्तावना

मनुष्य की अभिव्यक्ति एवं परस्पर विचारों के आदान-प्रदान का सबसे सशक्त माध्यम भाषा है। भाषा ही मनुष्य के समस्त प्रयोजनों की वाहिका होती है। दुनिया में सम्प्रेषण और संचार के सभी साधनों एवं माध्यमों का अस्तित्व भाषा पर आधारित है। मानव समाज की चरम उपलब्धि भाषा है। भाषा व्यक्ति, समाज और राष्ट्र की पहचान होती है। कोई भी भाषा व्यक्तित्व के निर्माण एवं विकास के साथ ही समाज एवं राष्ट्र के निर्माण, विकास और एकीकरण में महती भूमिका का निर्वहन करती है। भाषा सामाजिक एवं सांस्कृतिक चेतना की संवाहिका होती है।


    भारतवर्ष एक बहुभाषिक देश है, जहाँ अनेक भाषाएँ लिखी, पढ़ी और बोली जाती हैं। कहना गलत न होगा कि सभी भारतीय भाषाओं में भारत को एकता के सूत्र में पिरोने वाली भाषा के रूप में हिन्दी को विशेष महत्व है। भारतीय विचार और संस्कृति की वाहक है- हिन्दी। गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर का मानना था कि “भारतीय भाषाएँ नदियाँ हैं और हिन्दी महानदी।”


    अपने संवेदनात्मक विस्तार के कारण हिन्दी भारत देश की आत्मा है। भारतीय विचारों और संस्कारों के सह-आस्तित्व से हिन्दी ने अपना निर्माण किया है। देव-भाषा संस्कृत की कोख से जन्मी हिन्दी हमें एकता के सूत्र में बांधती है। भारत देश में समय-समय पर उठ खड़े होने वाले जनांदोलनों की भाषा हिन्दी ही रही है। स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान देश को एकता के सूत्र में बाँधने में हिन्दी की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। इसमें कोई संदेह नहीं कि - "भारत में स्वतंत्रता की जो लौ जलाई गई, वह मात्र राजनैतिक स्वतंत्रता के लिए ही नहीं थी, वरन् सांस्कृतिक अस्मिता की रक्षा के लिए प्रमुख थी। भारत में साहित्य, संस्कृति और हिन्दी एक दूसरे के पर्याय रहे हैं, ऐसा कहना कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी।" (साहित्य अमृत, सितम्बर 2010, पृष्ठ 38)


    हिन्दी भाषा हमारी अस्मिता की भाषा है। वह हमारा अस्तित्व है और हमारा आत्मगौरव भी। महात्मा गांधी का मानना था कि - "हिन्दी ही इस देश को एक सूत्र में बांध सकती है। मुझे अंग्रेजी बोलने में शर्म आती है और मेरी दिली इच्छा है कि देश का हर नागरिक हिंदी सीख ले और देश की हर भाषा देवनागरी में लिखी जाये।" स्वामी दयानंद सरस्वती, स्वामी विवेकानन्द, चक्रवर्ती राजगोपालाचारी, केशवचन्द्र सेन आदि अनेक अहिन्दी भाषी विचारकों ने हिन्दी का पुरजोर समर्थन करते हुए उसे भारत का भविष्य माना था। 1893 ई. में स्वामी विवेकानन्द द्वारा शिकागो के विश्व धर्म सम्मेलन में अपने भाषण की शुरुआत 'भाइयों और बहनों' के सम्बोधन के साथ हिन्दी में किये जाने की घटना किसे याद नहीं होगी? स्वामी दयानंद सरस्वती ने अपना ग्रन्थ 'सत्यार्थ प्रकाश' हिंदी में रचकर हिन्दी को प्रतिष्ठा प्रदान की। कवि, राजनेता और देश के पूर्व प्रधान मंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने संयुक्त राष्ट्र महासभा में हिंदी में पहला भाषण दिया था, जिससे हिंदी के अन्तर्राष्ट्रीय स्वरूप और महत्व में श्रीवृद्धि हुई। यहीं यह भी उल्लेखनीय है कि सम्पर्क भाषा के रूप में हिंदी के महत्व को समझते हुए गांधी जी ने कहा था कि - "कांग्रेस अधिवेशन की कार्यवाही केवल हिंदी में होगी क्योंकि सम्पूर्ण राष्ट्र तक यदि हमें कांग्रेस का संदेश पहुंचाना है तो यह केवल हिन्दी के माध्यम से ही सम्भव हो सकता है।" (फिजी में हिंदी : स्वरूप और विकास - विमलेश कांति वर्मा, पृष्ठ 1-2, सन 2000 ई०)।


शोध विस्तार

हिन्दी भारत की सम्पर्क भाषा और भारत के संविधान में स्वीकृत राजभाषा है। 14 सितम्बर 1949 को संविधान सभा ने संविधान के भाग-17 के अध्याय 1 की धारा 343(1) के अनुसार यह घोषणा की कि संघ की राजभाषा हिंदी और लिपि देवनागरी होगी। मराठी भाषी बाल गंगाधर तिलक का मानना था कि - "हिन्दी ही भारत की राजभाषा होगी।"


    ध्यातव्य है कि बहुत पहले ही हिंदी भाषा के महत्व को दर्शाते हुए हिन्दी के प्रकांड विद्वान आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी ने 1907 ई. में अपनी पुस्तक 'हिन्दी भाषा की उत्पत्ति' में लिखा था कि "कुछ समय से विचारशील लोगों के मन में यह बात आने लगी है कि देश में एक भाषा और एक लिपि होने की जरूरत है और हिन्दी भाषा एवं देवनागरी लिपि ही इस योग्य है।"


    यह सही है कि हिन्दी भाषा, भारत की राष्ट्रीय चेतना की संवाहिका है। यह राष्ट्र की गतिशील चेतना की प्रतीक है। यह भारतीय संघ की राजभाषा तो है पर राष्ट्रभाषा के रूप में कहीं दर्ज नहीं है। राष्ट्रभाषा शब्द बोलने में तो है, पर इसे आधिकारिक स्वरूप अभी प्राप्त नहीं है। जबकि ऐसा नहीं होना चाहिए था। महात्मा गांधी के राष्ट्र को एकसूत्रता में पिरोने के संकल्प में राष्ट्रभाषा सिद्धान्त था। वे देश में हिन्दुस्तानी राष्ट्रभाषा बने, इसके लिए कृतसंकल्पित थे। पर ऐसा न हो सका। परिणामस्वरूप राष्ट्रभाषा शब्द ही तिरोहित होता गया। जिस राष्ट्र में एक भाषा, एक विचार का प्रवाह नहीं होता, जिस राष्ट्र में वैचारिक अभिव्यक्ति के संसाधनों में विशृंखलन होता है, वहाँ भावात्मक एकता का प्रश्न उठना स्वाभाविक है। डॉ. राम मनोहर लोहिया कहते थे कि "अपनी भाषा से रहित राष्ट्र, जीभ कटे मनुष्य की भाँति है।" चूँकि राष्ट्रभाषा समग्र राष्ट्रीय चेतना की प्रतीक होती है, इसलिए हिंदी भाषा को ऐसे ही देखे जाने की जरूरत है।


    हिन्दी के महत्व को समझने के लिए हिंदी की राजनीति को भी समझने की जरूरत है। भाषा की राजनीति अक्सर वोट की राजनीति भी हुआ करती है। यह कहना गलत न होगा कि इस देश में भाषा के मुद्दे को हमेशा सुलझाने की बजाय, उलझाने की कोशिश की जाती रही है तथा उसे चुनाव-दर-चुनाव भुनाया जाता रहा है। भारत देश में राष्ट्रभाषा का मुद्दा भी ऐसा ही रहा है। देश को आजादी मिलने के साथ ही भाषा सम्बन्धी विवाद शुरू हो गये थे। देश में बहुत से राज्य – जैसे कि मद्रास, गुजरात, असम, बंगाल, उड़ीसा, महाराष्ट्र और पंजाब इत्यादि भाषायी आधार पर बने राज्य हैं। विशेष रूप से देखा जाये तो दक्षिण भारतीय नेताओं ने भाषायी विवाद की राजनीति में बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया। इस राजनीति का शिकार हिन्दी को होना पड़ा। देश के नीति-नियामकों की मूर्खताओं का शिकार हिंदी होती रही है। आजादी के बाद जिस हिंदी को भारत की शिक्षा और अभिव्यक्ति का माध्यम होना था, वह अंग्रेजी के बरक्श क्यों पहचानी जाती रही है! क्या यह सच नहीं है कि हम वास्तविक जीवन में भले हिन्दी का प्रयोग करते हों, पर कॉरपोरेट जगत में ज्यादातर धड़ल्ले से अंग्रेजी का प्रयोग होते देखते हैं और खुद भी करते हैं। हमारे लिए यह सोचनीय है। हम इस पर विचार करेंगे तभी सही रास्ते की तलाश कर पायेंगे। सच तो यह भी है कि आज के समय में साहित्य, कला, समाज विज्ञान जैसे कुछ विषयों को छोड़कर विज्ञान, गणित, कम्प्यूटर इत्यादि की पढ़ाई अधिकांशतः अंग्रेजी में ही होती है। इस सम्बन्ध में यह एक आम मान्यता है कि अंग्रेजी में ही इन विषयों की अच्छी किताबें उपलब्ध हैं। तो क्या यह मान लिया जाये कि आजादी के इतने वर्षों बाद भी हमारे देश के शिक्षाविद् कर्णधारों ने इतनी भी कवायद नहीं की कि हम इन विषयों की हिंदी में किताबें तैयार कर सकें। सम्भवत: इसका जवाब नहीं ही होगा।

    आज जब देश में राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 लागू कर दी गई है, तब इसकी पड़ताल जरूरी हो जाती है। राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 में भाषा को विशेष महत्व दिया गया है। राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 मातृभाषा में प्रारंभिक शिक्षा ग्रहण करने की वकालत करती है। देश में बिखरी हुई ज्ञान-सम्पदा को संरक्षित करने का यह एक महत्वपूर्ण कदम है। इसी से हम अपनी भाषायी अस्मिता को एक पहचान दे सकते हैं। इसके मूल में यह विचार निहित है कि यदि हिन्दी माध्यम से हिन्दी भाषियों को ज्ञान-विज्ञान की शिक्षा सुलभ करायी जाये तो उनका मौलिक चिंतन अधिक विकसित होगा। अनुवाद-साहित्य इसमें महत्वपूर्ण भूमिका अदा कर सकता है। अनुवाद मूलतः भाषाओं की आवाजाही के साथ भाषा के ज्ञान का विस्तार भी होता है। कहना गलत न होगा कि हिन्दी ने अपने कदम इस ओर बढ़ाकर अपने आपको समृद्ध किया है। हमारे पूर्व राष्ट्रपति माननीय श्री रामनाथ कोविंद ने कहा था कि – "हिन्दी अनुवाद की नहीं बल्कि संवाद की भाषा है। किसी भी भाषा की तरह हिन्दी मौलिक सोच की भाषा है।" इसलिए हिन्दी के लिए कुछ उपाय जरूर किये जा सकते हैं। दुनिया भर से ज्ञान, शिक्षा और कला को लेकर अपनी भाषा को देने का हुनर आज के समय की मांग है। इससे हिन्दी समृद्ध ही होगी। राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 में इसीलिए अनुवाद-साहित्य को लेकर बहुत जोर दिया गया है। यह सही है कि हिंदी में पारिभाषिक शब्द जनप्रिय एवं लोक व्यवहार का हिस्सा नहीं बन पाये हैं, पर कुछ आवश्यक कदम उठाकर इसे दूर किया जा सकता है। जैसे कि यूरोपीय भाषाओं में प्रचलित पारिभाषिक शब्दावली को ज्यों का त्यों ग्रहण करना – जैसे कि पेट्रोल, डीजल, कार, रेडियो, कॉफी, डॉक्टर इत्यादि का प्रयोग। मिलते-जुलते शब्दों की स्वीकार्यता – जैसे कि इंजन, अकादमी, रपट, फैक्टरी, राशन इत्यादि शब्द।

    उल्लेखनीय है कि अभी हाल ही में देश के माननीय गृहमंत्री श्री अमित शाह जी ने एमबीबीएस की डिग्री की पढ़ाई के लिए हिन्दी माध्यम में पढ़ाई कराने का शुभारंभ किया है। तकनीकी के सारे विषयों की हिन्दी माध्यम से पढ़ाई के लिए पुस्तकें तैयार की जा रही हैं। यह स्थिति सुखद है, जिससे हिन्दी का विकास रूपाकार पा रहा है।

    आज के समय में देश से लेकर विदेश तक हिन्दी का विस्तार हो रहा है। वस्तुतः आज की हिन्दी नई चाल में ढल रही है। उसका वैश्विक परिदृश्य निरन्तर विस्तृत हो रहा है। दुनिया में कोई ऐसी जगह नहीं जहाँ भारतीय नहीं है। अप्रवासी भारतीय पूरी दुनिया में फैले हैं, जिनके मध्य हिन्दी का व्यवहार होता है और इस तरह हिन्दी का प्रचार-प्रसार बढ़ रहा है और वह संपर्क भाषा के रूप में विकसित हो रही है। इन्हीं स्थितियों का परिणाम है कि अमेरिकी राष्ट्रपति द्वारा ऐसी घोषणा की जाती है – "हिन्दी ऐसी विदेशी भाषा है, जिसे 21वीं सदी में राष्ट्रीय सुरक्षा और समृद्धि के लिए अमेरिका के नागरिकों को सीखना चाहिए।" (भूमंडलीकरण के दौर में हिन्दी, कृष्ण कुमार यादव, साहित्य कुंज, 17 जनवरी 2009)

    इक्कीसवीं सदी के दो दशक पार करते हुए हम आज इलेक्ट्रॉनिक क्रान्ति, उच्च सूचना प्रौद्योगिकी, आर्थिक उदारीकरण एवं निजीकरण की नव्य बाजार-व्यवस्था के संयुक्त उपक्रम विश्व ग्राम (Global Village) के निवासी हो गये हैं, जहाँ अत्याधुनिक संचार माध्यमों के द्वारा हर पल हर क्षण जन संचार एवं जन सम्पर्क की व्यापक लहर चल रही है और जिसमें आज हम सभी कई संभावनाओं, आशंकाओं और प्रश्नों का सामना कर रहे हैं। इस सदी में ज्ञान और जीवन के जटिल व्यापारों का अत्यधिक विस्तार हुआ है। और कोई आश्चर्य नहीं कि अगली सदी में यह अपरिमित हो जाये।

    कहना न होगा कि बाजार और व्यापार की प्रमुख भाषा के रूप में हिन्दी का विकास हो रहा है। पूरे विश्व में 4 करोड़ प्रवासी भारतीय हिंदी के प्रसार-प्रचार में अपनी भूमिका निभा रहे हैं। हिंदी को लेकर कुछ तथ्य उल्लेखनीय हैं। अमेरिका के 67 विश्वविद्यालयों में तथा पूरे विश्व में 260 विश्वविद्यालयों में हिन्दी पढ़ाई जाती है। भारतवर्ष में बॉलीवुड के 67% विज्ञापन हिन्दी में बनते हैं। संयुक्त अरब अमीरात ने हिन्दी को तृतीय राजभाषा के रूप में मान्यता दी है। फिजी में हिन्दी द्वितीय राजभाषा है। हिन्दी में 12 लाख 80 हजार से अधिक लेखक और प्रकाशन हैं। हिन्दी को सोशल मीडिया पर लिखने वालों की संख्या करोड़ों में है। विश्व का हर छठा व्यक्ति हिन्दी बोल और समझ सकता है। 2035 तक हिन्दी, अमेरिका में चतुर्थ राजभाषा के रूप में प्रतिष्ठित होगी। विश्व के हर देश में हिंदी की संस्थायें हैं। संयुक्त राष्ट्र जैसी संस्थाओं में हिन्दी की गूंज सुनाई देने लगी है। हमारे प्रधानमंत्री माननीय श्री नरेन्द्र मोदी ने विगत वर्ष संयुक्त राष्ट्र महासभा में हिन्दी में ही अभिभाषण दिया था। इसकी बहुत सम्भावना है कि हिन्दी को शीघ्र ही संयुक्त राष्ट्र की आधिकारिक भाषा होने का दर्जा प्राप्त होगा।

    हिन्दी अपनी अंतरराष्ट्रीयता की ओर तेजी से कदम बढ़ा रही है। "आज भारत और चीन विश्व की सबसे तीव्र गति से उभरने वाली अर्थव्यवस्थाओं में से हैं तथा विश्व स्तर पर इसकी स्वीकार्यता और महत्ता स्वतः बढ़ रही है।" (हिन्दी का विश्व सन्दर्भ : डॉ. करुणाशंकर उपाध्याय, पृष्ठ 11, राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली, 2016)

    

    देशों के बढ़ते वैश्विक प्रभाव से भाषा की वैश्विक चेतना का भी विकास हो रहा है। विश्व में हिन्दी प्रयोग करने वालों की संख्या चीन से भी अधिक है और हिन्दी अब प्रथम स्थान पर है। उसने अंग्रेजी समेत विश्व की अन्य सभी भाषाओं को पीछे छोड़ दिया है।" (साहित्य अमृत पत्रिका में भाषाविद् जयंती प्रसाद नौटियाल का कथन, सितम्बर 2010, पृष्ठ 39)। बाजार में हिन्दी बहुत सशक्त रूप से अपनी उपस्थिति दर्ज कर रही है। "आज अक्सर किसी भाषा की ताकत की पहचान इससे की जाती है कि यह बाजार में कितनी दौड़ सकती है। इसमें संदेह नहीं कि आज बाजार हिन्दी का एक दमकता रूप है।" (भारतीय अस्मिता और हिन्दी - शम्भूनाथ, पृष्ठ 69, सामयिक प्रकाशन, नई दिल्ली प्रथम संस्करण 2012)


    भूमंडलीकरण ने हिन्दी को खूब प्रभावित किया है, इसलिए हिंदी ने अब तेजी से अपने पंख फैलाने शुरू कर दिये हैं। "भूमंडलीकरण की उपभोक्तावादी संस्कृति ने हिन्दी को भी प्रभावित किया है, अतः अब उसका बहुविध स्वरूप और प्रयोजन मूलक रूप उजागर हुआ है। अब हिंदी सृजन, राजभाषा व संपर्क भाषा के समानांतर जन संचार के साधनों में प्रचलित तकनीकी समृद्धि के अनुरूप आकाशवाणी, दूरदर्शन, कम्प्यूटर, इंटरनेट और पत्रकारिता से होते हुए सैटेलाइट एवं डिजिटल क्रांति से भी संपृक्त हो चुकी है। आज हिंदी में ऐसे अनेक अंतर्राष्ट्रीय शब्द प्रचलित हो गये हैं, जिनकी विश्व स्तर पर उपयोगिता है। आज उपभोक्ताओं की रुचि को ध्यान में रखकर साहित्य लिखा जा रहा है। विश्व बाजार सूचना तंत्र से संचालित है, जो विज्ञापनों से अटे पड़े हैं।" (भूमंडलीकरण के दौर में हिंदी - नीरज कुमार चौधरी - भाषा विमर्श पत्रिका - अंक 19, दिसम्बर 2017, पृष्ठ 27)


    हिन्दी के विशाल शब्द भंडार, उसकी वैज्ञानिक शब्दावली, शब्दों और भावों को आत्मसात करने की प्रवृत्ति, ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में विलक्षणता के कारण उसे विश्व-भाषा के रूप में सर्वत्र मान्यता मिल रही है। गगनांचल पत्रिका के संपादक श्री कन्हैयालाल नन्दन अपने संपादकीय में लिखते हैं - "पिछले दिनों विश्व की एक स्तरीय और अंतर्राष्ट्रीय संस्था ने हिन्दी के अनेक रचनाकारों की कालजयी कृतियों के अनुवाद प्रकाशित करके अप्रत्यक्षतः हिन्दी की अंतर्राष्ट्रीयता को प्रमाणित किया है।" (गगनांचल पत्रिका, जुलाई-सितम्बर 1999, पृष्ठ 10)


    हिन्दी फिल्मों, गीतों और विज्ञापनों की दुनिया ने हिंदी के विकास को तीव्र गति से आगे बढ़ाया है। "अभी हाल ही में गूगल के एक सर्वेक्षण में कहा गया है कि “विगत वर्ष में सोशल मीडिया में हिंदी के प्रयोग में 94% का इजाफा हुआ है, जबकि अंग्रेजी प्रयोग में केवल 19% की वृद्धि हुई है। ...... यह स्थापित तथ्य है कि अंग्रेजी के दबाव के बावजूद हिन्दी बहुत ही तीव्र गति से विश्व-मन के सुख-दुःख, आशा-आकांक्षा की संवाहक बनने की दिशा में अग्रसर है।" (हिन्दी का विश्व संदर्भ - करुणाशंकर उपाध्याय, पृष्ठ 27, राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली, 2016)


निष्कर्ष

हिन्दी के प्रसिद्ध कवि तुलसी का नाम किसने नहीं सुना होगा। तुलसी नहीं गाते तो राम को कौन जानता। तुलसी ऐसे कवि हैं जो राम को क्रियेट करते हैं। इसी तरह हिन्दी को समृद्ध करने के लिए हिन्दी के विद्वानों, शिक्षकों और भारतीयों को बीड़ा उठाना होगा। विश्व की सारी ज्ञान परम्परा को हिन्दी में रूपांतरित करना होगा और अपनी भारतीय ज्ञान परंपरा से विश्व को परिचित कराना होगा। देश के हर नागरिक के अंदर अपनी भाषा के प्रति आत्मबोध विकसित करना होगा, उन्हें प्रोत्साहित करना होगा।

    

    कहना न होगा कि एक शिक्षक की भूमिका इसमें सबसे महत्वपूर्ण है। अगर हम ऐसा कर पाएंगे तभी हमारे भारत का सच्चा सपना साकार हो पाएगा और विश्व पटल पर हमारी आदर्श छवि निर्मित होगी। हमारा कर्तव्य है कि हम हिंदी का उपयोग करें, हिंदी को बरतें और हिंदी के गर्व को आत्मसात करें। हिंदी का गौरव बढ़े, हमारा सत्प्रयास यही होना चाहिए।



संदर्भ सूची


  • 1. साहित्य अमृत, सितम्बर 2010, पृष्ठ 38

  • 2. विमलेश कांति वर्मा, फिजी में हिंदी : स्वरूप और विकास, सन 2000 ई०, पृष्ठ 1-2

  • 3. कृष्ण कुमार यादव, भूमंडलीकरण के दौर में हिन्दी, साहित्य कुंज, 17 जनवरी 2009

  • 4. डॉ. करुणाशंकर उपाध्याय, हिन्दी का विश्व सन्दर्भ, राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली, 2016, पृष्ठ 11

  • 5. भाषाविद् जयंती प्रसाद नौटियाल का कथन, साहित्य अमृत पत्रिका, सितम्बर 2010, पृष्ठ 39

  • 6. शम्भूनाथ, भारतीय अस्मिता और हिन्दी, सामयिक प्रकाशन, नई दिल्ली, प्रथम संस्करण 2012, पृष्ठ 69

  • 7. नीरज कुमार चौधरी, भूमंडलीकरण के दौर में हिंदी भाषा, विमर्श पत्रिका, अंक 19, दिसम्बर 2017, पृष्ठ 27

  • 8. गगनांचल पत्रिका, जुलाई-सितम्बर 1999, पृष्ठ 10

  • 9. करुणाशंकर उपाध्याय, हिन्दी का विश्व संदर्भ, राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली, 2016, पृष्ठ 27


डॉ. हिमांशु कुमार
असिस्टेंट प्रोफेसर, हिन्दी विभाग
डॉ. हरीसिंह गौर विश्वविद्यालय, सागर, म.प्र.



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