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शोध आलेख : समाज सुधार के सच्चे मार्गदर्शक संत रविदास

सारांश

संत रविदास जी संत काव्य धारा के प्रतिनिधि कवियों में से एक हैं। भारतीय साहित्य में संत काव्य धारा की लम्बी परंपरा रही है। जब-जब संसार में मानवता की जड़ें कमजोर हुई हैं उनको बचाने का काम संतों ने किया। आज जब देश ही नहीं बल्कि सम्पूर्ण विश्व हिंसा के रास्ते पर जा रहा हो, ऐसे में संत रविदास जैसे संतों की बाणियों को पढ़ना जरूरी हो जाता है। संत रविदास ने बहुत ही सहज भाषा में अपनी बाणियों के माध्यम से समाज को मानवता का पाठ पढ़ाया है और सच्चाई के मार्ग पर चलने का संदेश दिया है। वर्तमान दौर में जब देश की धर्म-निर्पेक्षता की संकल्पना को ताक पर रखकर द्वेष-भावना से कुत्सित कुछ स्वघोषित हिंदू, हिंदू गांव बनाने की बात कर सामाजिक समरसता को बिगाड़ने और मानवता को कुचलने का काम कर रहे हों, ऐसे में संत रविदास के विचारों और उनके बेगमपुर की कल्पना से सीखते हुए उनको आत्मसात करने की जरूरत है। ताकि उनके विचारों से मार्गदर्शन प्राप्त कर सच्चे और खूबसूरत भारतीय गांव बसाने की संकल्पना कर बेहतर समाज की रचना कर सकें।


बीज शब्द : संत, सामाजिक असमानता, धार्मिक असमानता, साम्प्रदायिकता, मानवता, श्रमिक संस्कृति, बेगमपुरा आदि।


शोध आलेख  

चौदह सौ तैंतीस की माघ सुदी पंद्रास ।
दुखियों के कल्याण हित प्रकटे श्री रैदास ।।1

संत करमदास जी द्वारा रचित उपरोक्त पंक्तियां संत रैदास के जीवन को स्पष्ट करती हैं कि उनका जन्म भारतीय समाज में व्याप्त अंधविश्वास, छुआछूत, जाति-पांति और ऊंच-नीच से पीड़ित जनता का मार्ग प्रशस्त करने के लिए हुआ था। मध्यकालीन समाज का एक बड़ा हिस्सा जब चारों तरफ से पिस रहा था तब संत रविदास जैसे अनेक संतों ने इससे निकलने का मार्ग प्रशस्त किया।


    आज जब समाज में हिंसा और उन्माद बढ़ते जा रहे हैं, जिसका शिकार निरपराध-निर्दोष जनता हो रही है, ऐसे समय में संत रविदास का काव्य प्रसंगिक लगता है। यह तय है कि ऐसी हिंसा और उन्माद के पीछे कोई न कोई विचारधारा काम कर रही होती है। ये सब धर्मवाद या राष्ट्रवाद के नाम पर खेला जाता है। इस खेल में समाज के चंद लोग शामिल होते हैं, जिससे उनका क्षणिक लाभ भले होता हो लेकिन इस खेल में समाज का एक बड़ा हिस्सा गर्त में जा रहा होता है। ऐसी उन्मादी भीड़ का हिस्सा ज्यादातर अशिक्षित और अंधविश्वासी लोग होते हैं। उनको यह पता ही नहीं होता कि वे अपने ही पैर में कुल्हाड़ी मार रहे हैं। इस सबके पीछे का मुख्य कारण अशिक्षा है क्योंकि शिक्षा किसी भी व्यक्ति तथा समाज के प्रगति करने का मुख्य साधन है। दुनिया में वही लोग आगे बढ़ सके जिन्होंने शिक्षा प्राप्त की। संत रविदास जी ने भी उस समय यह अनुभव किया और कहा –

माधो अविद्या अहित कीन्ह ।
तातै विवेक दीप मलीन ।।2


    शिक्षा न मिलने के कारण हमारा विवेक कमजोर पड़ गया है और हम अच्छे-बुरे, गलत-सही की पहचान करना भूल गए हैं। लोगों को यह समझ ही नहीं आ रहा कि हम अपना ही अहित कर रहे हैं।


    वर्षों से धर्म के नाम पर हिंदू-मुस्लिम कर समाज का बंटवारा कर साम्प्रदायिकता फैलाई जाती रही है, जो आज भी जारी है। डॉ. विजय कुमार त्रिशरण ने अपनी पुस्तक ‘क्रांतिसूर्य महाकवि रविदास समाज चेतना के अग्रदूत’ में लिखा है कि – “मध्यकाल का बर्बर भारतीय समाज जातीय और सांप्रदायिक तनाव तथा विद्वेष के दौर से गुजर रहा था। हिंदू और मुसलमान अपने-अपने धर्म, धर्मस्थलों और देवताओं को श्रेष्ठ सिद्ध करने में लगे थे। कट्टर हिंदू अपने ही कुछ धर्म-भाइयों को अस्पृश्य बनाकर उन्हें मानवीय अधिकारों से वंचित कर उनका जीवन नरकीय बनाए हुए थे। अछूतों पर शास्त्रीय निर्योग्यताएं थोपकर उन्हें बहिष्कृत कर दिया गया था। मंदिर तो क्या, अछूतों को उस रास्ते पर चलने की मनाही थी जिस रास्ते पर ब्राह्मण चलते थे। हिंदू धर्म ऊंच-नीच के आधार पर हजारों जातियों में इस प्रकार बिखरा हुआ था, जिस प्रकार माला टूटने के बाद मोती बिखर जाते हैं। दूसरी तरफ मुस्लिम मुल्लाओं का भी कट्टरपन चरम पर था। हिंदुओं की कमजोरी और बिखराव का फायदा उठाकर वे उन पर हावी हो रहे थे। मुस्लिम हुक्मरान जबरन धर्म-परिवर्तन करा रहे थे तथा धर्मस्थलों को ध्वस्त कर रहे थे। साम्प्रदायिकता के नाम पर क्रूर कत्लेआम हो रहा था। ऐसे गहन अंधकारमय माहौल में कवियों के कवि, महाकवि गुरु रविदास ने सामाजिक और साम्प्रदायिक समानता की सरिता बहाकर धार्मिक सद्भाव पैदा कर समाज को अनावश्यक हिंसा की आग से बचाने का प्रयास किया।”3

ऐसे दौर में उन्होंने कहा –

मुसलमान सो करि दोसती, हिन्दुअन सो करि प्रीति ।
रविदास जाति सब राम की, सभ हैं अपने मीत ।।4


    संत रविदास की तरह मध्यकाल के लगभग सभी संतों का एक ही धर्म था – मानवता। रविदास, कबीर आदि से लेकर संत परंपरा में जितने भी संत हुए सभी ने प्रेम और भाईचारे का संदेश दिया है। संतों ने जो काव्य लिखा वह दिखावे के लिए नहीं बल्कि मानवता की सुरक्षा के लिए, जुल्म सह रहे लोगों को बचाने के लिए लिखा था। सामाजिक शोषण से पीड़ित समाज को बचाने का मार्ग बता रहे थे। संत रविदास अच्छे से जान चुके थे कि धर्म की आड़ में मानवता को कुचला जा रहा है। इसीलिए संत रविदास कहते हैं –

मंदिर सो कोई घिन नहीं, मस्जिद सों नहीं पियार ।
दोउ मंह अल्लाह-राम नहिं, कह रविदास चमार ।।5

कबीर भी धर्म की आड़ में मानवता को कुचलने वालों के लिए ही तो कहते हैं –

अरे इन दोउन की राह न पाई
हिंदुअन की हिन्दुआई देखो तुरकन की तुरकाई ।

यहां डॉ. धर्मवीर अपनी पुस्तक ‘गुरु रविदास’ में सवाल खड़ा करते हैं कि यह मानवता की भावना मध्यकाल के संतों में ऐसे ही नहीं आ गई थी, बल्कि –“जब दलित जातियों के संतों से सगुण ईश्वर छीन लिया गया तो उनकी भक्ति भी सगुण नहीं रह सकती थी।”6

आगे लिखते हैं कि –“हिन्दुस्तान में ईश्वर मंदिर में रहता था। तत्कालीन दलित जातियों ने मंदिर में प्रवेश की कोशिश की थी। उन्हें मनाही की गई थी और लाठियों से पीटा गया था। उन्हें ईश्वर और भक्ति के लिए मंदिर की फिर भी जरूरत थी। इसलिए मजबूरी में उन्होंने मन को ही मंदिर बनाया।”7


    धर्मवीर के उपरोक्त विचार कुछ हद तक तर्कपूर्ण लगते हैं, लेकिन यह भी देखने वाली बात है कि जिन प्रचलित किवदंतियों जैसे कथौती में गंगा और जनेऊ दिखाने की बात को लेकर कहा जाता है, वे किवदंतियां ब्राह्मणों द्वारा फैलाया गया भ्रम भी तो हो सकती हैं। क्योंकि आचार्य रजनीश का एक लेख ‘आग के फूल’ है, जिसमें लिखा है –“रैदास को भक्तमाल में स्वीकार कर लिया परमभक्त, भक्त शिरोमणि, लेकिन दो कहानियां गढ़ीं। और जैसी कहानी ब्राह्मण गढ़ सकते हैं, दुनिया में कोई भी नहीं गढ़ सकता। क्योंकि इतना पुराना अभ्यास है उनका कहानियां गढ़ने का, पुराण लिखने का...”8


    ये दो कहानियों में पहली कहानी तो बनिए के यहां का सीधा लाने पर ठाकुर जी का नाराज होना और दूसरी कहानी – पूर्वजन्म का ब्राह्मण होने के कारण पैदा होते ही दूध न पीना और फिर रामानंद के जाने के बाद कान में फूंक मारने पर पी लेना। यह सब रजनीश जी ने अपनी पुस्तक में काफी व्यंग्यात्मक तरीके से बताया है और अंत में लिखा है –“कहानी तो बिल्कुल झूठ है। कहानी में कोई सार नहीं है। मगर कहानियां इस बात की खबर दे रही हैं कि भारत का मन कितना कलुषित हो गया है कि हम अपने श्रेष्ठतम लोगों को भी सीधा-सीधा स्वीकार नहीं कर सकते, जैसे हैं वैसे स्वीकार नहीं कर सकते।”9


    मानवीय एकता को प्रेम के धागे में पिरोकर हृदयों को जोड़ने वाले संत रविदास मानव को मानव से प्रेम करने की सीख देते हैं। वे सभी को मानव समाज का हिस्सा मानते हैं। कहते हैं – हम सब एक ही रास्ते से आए हुए हैं, फिर जात-पांति का भेद कैसा है, जो मानवता को लीलता चला जा रहा है –

जात-पांत के फेर मंहि उरझि रहा सभ लोग।
मानुषता को खात है रविदास जात का रोग।।10

जिस तरह आज समाज में अनेक तरह के कुकर्म करने वाले चोर, पाखंडी, झूठे और व्यभिचारी लोग धर्म की आड़ में मानवता को तार-तार कर रहे हैं, खुद को ब्रह्मज्ञानी बताकर समाज में कुकर्म कर रहे हैं, ऐसे लोगों की लंबी सूची है जैसे – आशाराम बापू, रामरहीम, संत रामपाल आदि। ऐसे ही ढोंगी पाखंडी लोगों का जमघट मध्यकाल में भी था, तभी तो संत रविदास को कहना पड़ा कि –

जन्म जात के कारनै होत न कोऊ नीच।
नर कु नीच करि डारि है औछे करम की कीच।।11

संतों के संत रविदास जी समानता और मानवता के लिए बहुत सावधानी से फूंक-फूंक कर कदम बढ़ा रहे थे। वे उन सभी पहलुओं पर नज़र रख रहे थे, जो समाज और मानवता के लिए बाधा थे। संत रविदास जी ने अधर्म करने वाली जाति, जिसने मानवता का हनन करने वाले चरित्र से गिरे हुए लोग खुद को अपनी ही बनाई व्यवस्था में श्रेष्ठ घोषित किए हुए थे – ऐसे गुणहीन लोगों को क्यों पूजा जाए? पूजने योग्य तो वे हैं जो गुणी हों, फिर चाहे वे किसी भी जाति या धर्म के हों। इसलिए रविदास जी ने कहा –

रैदास ब्राम्हण मत पूजिए, जो होवे गुन हीन।
पूजिए चरण चंडाल के जो होवे गुन प्रवीन।।12

आज जरूरत है कमेरा वर्ग के लोगों को अपने समाज में संत रविदास जी के विचारों का अनुसरण करने की। ऐसे विचारों को समाज के उन अशिक्षित लोगों तक पहुंचाने की जरूरत है, जो बात-बात में बच्चों को सलाह देते रहते हैं कि पैर छू लो पंडित जी का पुण्य होगा। गाड़ी लेनी है तो पंडित जी से शुभ घड़ी पूछ लो और न जाने क्या-क्या। ऐसे लोगों तक इन विचारों को पहुंचाने की जरूरत है, तभी एक अच्छा और समतामूलक समाज बनाने की कल्पना साकार हो सकती है। “इतिहासकार डी. डी. कोसंबी ने बताया है कि श्रमण शब्द ‘श्रम’ से बना है। संत कवियों ने श्रम पर विशेष बल दिया है। वे खुद श्रम भी करते थे। कबीर बुनकर थे, रैदास मोची थे और बूला साहब हल चलाते थे। रैदास श्रमण संस्कृति के पोषक थे। वे श्रम के मूल्य को समझते थे।”13


    हिंदी साहित्य के मध्यकालीन साहित्य में अगर गर्व करने लायक कुछ है तो वह है ‘निर्गुण संत काव्य धारा’। भारतीय संत परंपरा भिखमंगी परंपरा नहीं है, बल्कि उन मेहनतकश लोगों की परंपरा है, जो खुद श्रम करके अपना जीवन यापन करते हैं; न कि सगुण धारा की तरह, जो निठल्ली और पराश्रित है। वर्णाश्रमधर्मी तुलसी कहते हैं – ‘मांग के खइबो, मसीद में सोइबो।’ जबकि संतों के संत रविदास जी ने श्रम को ईश्वर कहा और उसकी ही पूजा करने की बात की है –

रैदास श्रम कर खाइहिं, जौ लौं पार बसाय।
नेक कमाई जउ करई, कबहुं न निहफल जाय।।14

किसी भी देश की अर्थव्यवस्था तभी गड़बड़ा जाती है, जब कुछ लोग बेकार में बैठकर वस्तुओं का भोग करते हैं। जिससे उत्पादन और उपभोग में अंतर आ जाता है और व्यवस्था चरमरा जाती है। मध्यकाल से लेकर आज तक एक तबका ऐसा है जो खुद को श्रेष्ठ बताता है, दूसरों पर आश्रित है। तभी संत रैदास को कहना पड़ा कि –

श्रम को ईसर जानि कै, जो पूजै दिन रैन।
रैदास तिन्हहिं संसार मंह, सदा मिलहिं सुख चैन।।15

संत रविदास ऐसी मानसिकता को धिक्कारते हैं, जो श्रेष्ठ-कुश्रेष्ठ, जाति-कुजाति का भेद बताकर समाज को बांटती है और समाज के विकास में अवरोध पैदा करती है। जाति ने हमेशा से ही इंसानियत का कत्ल किया है, जिसके भुक्तभोगी स्वयं रविदास जी थे। आज भी समाज में लोग जाति का शिकार हो रहे हैं। राजस्थान में एक घटना घटी, जहां कुछ तथाकथित खुद को उच्च जाति का समझने वाले लोगों ने एक दलित समाज के युवक को इसलिए मार दिया क्योंकि उसने मूंछ रखी हुई थी। यह तो सिर्फ एक घटना है, जबकि जातीयता का शिकार समाज में हर दिन कोई न कोई हो रहा है। इस जातीय भेदभाव के कारण अनगिनत लोगों की हत्या कर दी गई, मानवता को कलंकित किया जा रहा है। तभी रविदास जी कहते थे –

जाति पांत के फेर महि, उरझि रहइ सब लोग।
मानुषता कूं खात हइ, रविदास जात का रोग।।16

जात पांत में जात है, जौं केलन की पात।
रैदास न मानुष जुड़ सकैं, जौ लौं जात न जात।।17

आज भारतीय समाज को ही नहीं, बल्कि पूरे विश्व को मध्यकालीन भारतीय संतों से प्रेरणा लेने की जरूरत है, ताकि नफरत की सड़ांध से भर चुके समाज में प्रेम और भाईचारा स्थापित हो। संत रविदास जी की कल्पना के शहर ‘बेगमपुर शहर’ में पूरा विश्व चैन से रहे। रविदास नफरत के घर को छोड़कर वहां ले जाना चाहते हैं, जहां कोई दुखी नहीं है, न कोई अमीर है और न कोई गरीब, न कोई दोयम दर्जे का होगा, जहां न कोई ऊंचा है, न कोई नीचा। सब मित्र भाव से रहते हैं –

अब हम खूब वतन घर पाया, ऊंचा खेर सदा मन भाया।
बेगमपुरा सहर का नाउं, दुःख अंदेस नहीं तिहिं ठाऊं।
नां तसबीस, खिराजु न मालू, खौफ न खता न तरसु जवालु।
काइमु-दाइमु सदा पातिसाही, दाम न, साम एक सा आही।
आवादानु सदा मसहूर, ऊहां गनी बसहिं मामूर।
तिउं-तिउं सैर करहिं जिउ भावै, हरम महल मोहिं अटकावै।
कह रैदास खलास चमारा, जो उस सहर सों मीत हमारा।।18


 डॉ. राजेन्द्र प्रसाद ने अपनी पुस्तक ‘छिपाए रैदास बाहर आए’ में बताया कि “संत रैदास के बेगमपुर को लेकर गेल ओमवेट ने एक पुस्तक लिखी है – सीकिंग बेगमपुरा अर्थात् बेगमपुर की खोज। पुस्तक में उन्होंने बताया है कि बेगमपुर की खोज ब्राह्मणवादी ढांचे के बाहर सोचने का शूद्र- अतिशूद्र तरीका था। यह पुस्तक दिल्ली से 2009 ई. में छपी।”19


    निष्कर्षतः कहा जा सकता है कि संत रैदास जी समाज में स्थापित कुप्रथाओं का विरोध करते हुए उन्हें बदलने का पुरजोर प्रयास किया था। आज समाज में फैली साम्प्रदायिकता, आतंकवाद, राष्ट्रविरोधी ताकतों और ब्राह्मणवादी कुव्यवस्था से निपटना है तो संत रैदास के काव्य को समझना और समझाना होगा। रैदास का काव्य मानवता की आवाज है। अगर संत रैदास के विचार जन-जन तक पहुँच जाएँ तो निश्चित है कि शोषक और शोषित समाज में क्रांतिकारी परिवर्तन होंगे। घृणा, ईर्ष्या और अमानवीयता से दूषित समाज को संत रैदास का काव्य ऑक्सीजन का काम करेगा और एक अच्छा वातावरण तैयार हो सकेगा। सिर्फ़ जरूरत है तो उनके विचारों को सही और सच्चे अर्थों में विश्व को समझाने की। संत रैदास की वाणियाँ उनके सच्चे समाज सुधारक होने की गवाह हैं –

ऐसा चाहूं राज मैं, जहां मिलै सबन को अन्न।
छोट-बड़े सब सम बसें, रैदास रहे प्रसन्न।।20

संदर्भ

1. संपा. आचार्य पृथ्वी सिंह आजाद, युग प्रवर्तक संत रैदास, पृष्ठ 41.

2. संपा. सुकदेव सिंह, रैदास बानी, राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली, संस्करण 2021, पृष्ठ 187.

3. डॉ. विजय कुमार त्रिशरण, क्रांतिकारी महाकवि रविदास: समाज चेतना के अग्रदूत, सम्यक प्रकाशन, नई दिल्ली, संस्करण 2020, पृष्ठ 95.

4. डॉ. रमेशचन्द्र मिश्र, संत रैदास: वाणी और विचार, प्रकाशक संत साहित्य, नई दिल्ली, संस्करण 2002, पृष्ट 254.

5. संत रैदास: वाणी और विचार, पृष्ट 249.

6. डॉ. धर्मवीर, गुरू रविदास, समता प्रकाशन, दिल्ली, संस्करण 1998, पृष्ठ 16.

7. वही, पृष्ठ 16.

8. मोहनदास नैमिशराय, गुरू रविदास—जीवन और दर्शन (समग्र अध्ययन), सम्यक प्रकाशन, नई दिल्ली, संस्करण 2022, पृष्ठ 116.

9. वही, पृष्ठ 121.

10. संत रैदास: वाणी और विचार, पृष्ठ 238.

11. संत रैदास: वाणी और विचार, पृष्ठ 254.

12. डॉ. एन. सिंह, संत शिरोमणि रैदास: वाणी और विचार, पृष्ठ 138.

13. डॉ. राजेन्द्र प्रसाद सिंह, छिपाए रैदास बाहर आए, सम्यक प्रकाशन, नई दिल्ली, संस्करण 2022, पृष्ठ 13.

14. डॉ. एन. सिंह, संत शिरोमणि रैदास: वाणी और विचार, पृष्ठ 137.

15. संत रैदास: वाणी और विचार, पृष्ठ 254.

16. वही.

17. वही.

18. संपा. सुकदेव सिंह, रैदास वानी, राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली, संस्करण 2021, पृष्ठ 44.

19. डॉ. राजेन्द्र प्रसाद सिंह, छिपाए रैदास बाहर आए, सम्यक प्रकाशन, नई दिल्ली, संस्करण 2022, पृष्ठ 22.

20. डॉ. एन. सिंह, संत शिरोमणि रैदास: वाणी और विचार.


सहायक ग्रंथ

1. धर्मपाल मैनी, श्री गुरु ग्रंथ साहिब—एक परिचय, लुधियाना, अनंत भवन.

2. पृथ्वी सिंह आजाद, रविदास दर्शन, श्री गुरु रविदास संस्थान, चण्डीगढ़.

3. योगेन्द्र सिंह, सपां संत रैदास, अक्षर प्रकाशन, दिल्ली.

4. डॉ. सरनदास भनोत, रविदास वचन सुधा, लोक संपर्क विभाग, हरियाणा.

5. एम. कैलवर्ट एवं जी. फ्रैंडलर, The Light and Work of Raidas, मनोहर पब्लिकेशन, दिल्ली.


-राम नरेश यादव
शोधार्थी (हिंदी विभाग), दिल्ली विश्वविद्यालय
दिल्ली - 110007




 

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