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शोध आलेख : काव्य भाषा का प्रश्न और धूमिल व रघुवीर सहाय की कविता

काव्य भाषा का विश्लेषण कविता की रचना प्रक्रिया को समझने व उसकी व्याख्या करने के लिए जहाँ एक ओर मुख्य सूत्र सिद्ध होता है वहीं दूसरी ओर भाषा की अपनी प्रकृति का सम्यक ज्ञान प्राप्त करने के लिए भी एक महत्वपूर्ण साक्ष्य है।


    नयी कविता के युग में जब कविता के सभी परम्परागत भेदक लक्षण—तुक, छंद, अलंकार, लय—धीरे-धीरे विलुप्त हो जाते हैं तो काव्य भाषा ही वह अंतिम व सर्वाधिक महत्वपूर्ण आधार शेष रह जाता है जिसके सहारे कविता के संगठन को समझने की चेष्टा हो सकती है। कवि की रचना प्रक्रिया को समझने के लिए काव्य भाषा की उपादेयता बताते हुए डॉ. रामस्वरूप चतुर्वेदी ने लिखा है कि— “यूं तो प्रत्येक युग के काव्यबोध को समझने के लिए कवि की भाषा-प्रयोग-विधि हमारे लिए शायद सबसे महत्वपूर्ण प्रक्रिया सिद्ध हो सकती है, पर जैसा कहा गया आधुनिक कविता का मर्म ग्रहण करने के लिए काव्य भाषा का उपादान ही एक मात्र विश्वसनीय आधार रह गया है जिससे हम इस युग विशेष की काव्य-सर्जना की क्षमता को समझ सकते हैं।”

    

    साहित्यिक भाषा मूलतः बोलचाल की ही भाषा है जो विभिन्न रचनाकारों की सृजन प्रक्रिया में समाहित होकर अपने स्वरूप को परिवर्तित कर लेती है। कवि विशेष के अनुभव की अद्वितीयता से संतृप्त होने पर उसकी अर्थ-क्षमता में कई प्रकार के अंतर उत्पन्न हो जाते हैं।


    रघुवीर सहाय और धूमिल दोनों ही साठोत्तरी हिंदी कविता के दो प्रमुख हस्ताक्षर हैं। ‘आत्महत्या के विरुद्ध’ और ‘पटकथा’ इस युग की प्रतिनिधि कविताएं हैं। दोनों ही कविताओं की विषय-वस्तु और संरचना में भी समानता है। अर्थात् दोनों ही कविताएँ विषय-वस्तु के धरातल पर जहाँ आज़ादी के बाद उपजे नेहरू-युगीन व्यवस्था से मोहभंग को समाहित किए हुए हैं, वहीं संरचना की दृष्टि से दोनों की कोटि लंबी कविता की है। लेकिन रचनाकारों की अलग-अलग वर्गीय चेतना और अनुभवों को अभिव्यक्त करने की विशिष्टता काव्य भाषा के स्तर पर कविताओं में भेद पैदा करती है। रघुवीर सहाय का आत्मसंघर्ष अक्सर स्वविवेक से ही तय होता है, किसी विचारधारात्मक आधार पर नहीं और जब स्वविवेक का आधार विचारधारात्मक नहीं होता तो दरार देखते ही वे मूल्य हममें ताक-झाँक करने लगते हैं जिनसे हमारा संघर्ष है।


    रघुवीर सहाय के शब्द लेकर कहें तो कह सकते हैं कि—“संघर्ष की रणनीतियाँ उन्हीं के आदर्शों की पूर्ति करती दिखाई दे रही हैं जिनके विरुद्ध संघर्ष है।” इसके विपरीत धूमिल की कविता विद्रोह की एक सही जमीन की समझ को उजागर करने वाली सही परंपरा का उत्स-बिंदु है। धूमिल की कविता वामपंथी साहित्य में इन दिनों प्रचलित दो सूत्रों—अर्थात् सामान्य जन के बारे में और सामान्य जन के लिए वाली कविता—नहीं है, बल्कि ग्रामीण चरित्रों से शिक्षित हुई ग्रामीण जन की और उसको सहज और सपाट चरितार्थ करने की कोशिश करती कविता है। कहने का तात्पर्य है कि कवि की काव्य भाषा भी उसकी वैचारिक दृष्टि द्वारा ही निर्धारित होती है।


  रघुवीर सहाय कई बार शब्दों को दुहराकर उनको और गहरा अर्थ प्रदान करने की कोशिश करते हैं—

“कुछ होगा कुछ होगा अगर मैं बोलूंगा

न टूटे न टूटे तिलिस्म सत्ता का मेरे अंदर एक कायर टूटेगा टूट

मेरे मन टूट एक बार सही तरह।”

यहाँ ‘न टूटे’ और ‘कुछ होगा’ का प्रयोग सार्थक है। ये अभिव्यक्ति के प्रभाव को एक खास तरह की गहराई और ताकत देता है।

धूमिल के यहाँ इस तरह की कोई आवृत्ति ‘पटकथा’ में नहीं हुई है। लेकिन धूमिल के यहाँ भाषा की नाटकीयता ज़रूर है—

  1. “एक समूचा और सही वाक्य
    टूट कर
    बि ख र गया है।”

  2. “भाषण में जोश है
    पानी ही पानी है
    पर
    की
    ड़
    खामोश है।”

एक अक्षर से पंक्ति का निर्माण कर देना धूमिल की एक विशेषता है।

काव्य भाषा के स्तर पर ‘आत्महत्या के विरुद्ध’ और ‘पटकथा’ का तुलनात्मक अध्ययन इन कविताओं में प्रयुक्त बिंबों, प्रतीकों और मुहावरों के आधार पर कर सकते हैं।



1. प्रतीक – हिन्दी में प्रतीक शब्द अंग्रेजी के ‘सिंबल’ का पर्याय है। सिंबल का अन्य अर्थ हिंदी में पक्ष रूपांतरण, संकेताक्षर, संकेत या चिह्न है। प्रतीक का कार्य स्थूल को सूक्ष्म बनाना है। कलाकार प्रतीकों की मदद से कृति को ठोस रूप प्रदान करता है। कवि प्रतीकों की मदद से कृति को अर्थपूर्ण बनाता है और अपनी मनःस्थिति को व्यक्त करने के लिए करता है। प्रतीकों की दो विशेषताएँ हैं—‘प्रतीक सदैव किसी न किसी मध्यस्थ प्रकार के व्यापार का प्रतिनिधि होता है। इसका आशय यह है कि सभी प्रतीकों में ऐसे अर्थ निहित होते हैं जिसको केवल प्रत्यक्ष अनुभव के संदर्भ में नहीं जाना जा सकता। दूसरा यह कि प्रतीक शक्ति को धनीभूत कर देता है। प्रतीक की तुच्छता और उसके द्वारा निर्दिष्ट वास्तविक महत्व के परिणाम में कोई अंतर नहीं होता।’


    प्रतीक कृति को सौन्दर्य प्रदान करते हैं। पाठक प्रतीक को समझने में जितना करीब होगा वह उतना ही चमत्कृत होगा। प्रतीक कवि के मनोजगत का परिणाम होता है। ‘आत्महत्या के विरुद्ध’ और ‘पटकथा’ में प्रयुक्त प्रतीकों का तुलनात्मक अध्ययन करने से पहले हमें यह देख लेना चाहिए कि काव्य भाषा को लेकर इन रचनाकारों का दृष्टिकोण कैसा था। ‘आत्महत्या के विरुद्ध’ की भूमिका में रघुवीर सहाय ने लिखा है कि—“जिन दिनों मैं 1960-67 में ‘आत्महत्या के विरुद्ध’ की कविताएँ लिख रहा था उन दिनों रेडियो, टेलीविजन और अखबार—इन माध्यमों की विद्या में सिद्धि पाने में संलग्न हुए मुझे कम से कम बीस वर्ष हो चुके थे।”


    रघुवीर सहाय ने अपनी कविताओं में रेडियो, टेलीविजन और अखबार से जुड़े हुए शब्दों एवं प्रतीकों का प्रयोग बहुतायत में किया है। इसी कारण से कुछ आलोचकों ने इनकी कविता को अखबारी कतरन भी कहा। ‘आत्महत्या के विरुद्ध’ की कविताओं की भाषा के बारे में रघुवीर सहाय का यह वक्तव्य बहुत महत्वपूर्ण है कि—“मुझे स्वाभिमान है कि मैंने मातृभाषा और राष्ट्रभाषा की न सेवा की न पूजा की, मैंने उसे बरता और मेरी कविताएँ उसी बरतन की उपज हैं। विशेष रूप से ‘आत्महत्या के विरुद्ध’ की कविताएँ।” अतः ‘आत्महत्या के विरुद्ध’ की काव्य भाषा में प्रयुक्त प्रतीकों का अर्थ ढूँढते समय रघुवीर सहाय के इस वक्तव्य को ध्यान में रखना आवश्यक होगा। इसके विपरीत ‘पटकथा’ के कवि धूमिल नयी कविता की भाषा को बिम्ब-बोझिल एवं सूक्ष्म प्रतीकात्मक कहकर उसे अपनी कविता के लिए अनुपयुक्त घोषित कर देते हैं—

“नहीं अब वहाँ कोई अर्थ खोजना व्यर्थ है

पेशेवर भाषा के तस्कर संकेतो

और बैलमुत्ती इबारतों

अर्थ खोजना व्यर्थ है।”


    भाषा की पेशेवर होने की जो बात धूमिल ने उठायी वह नयी कविता में स्पष्ट रूप से दिखाई देती है, जो अपनी काव्य-दुरूहता तथा बोझिल बिम्बों के प्रयोग से समाज से कटती जा रही थी। धूमिल ने काव्य भाषा में विद्यमान इस जड़ता को ‘संसद से सड़क तक’ की कविताओं में तोड़ा है। काव्य भाषा के प्रति दोनों कवियों के दृष्टिकोणों को जान लेने के उपरान्त अब ‘आत्महत्या के विरुद्ध’ और ‘पटकथा’ में प्रयुक्त प्रतीकों को समझना आसान होगा।


    ‘आत्महत्या के विरुद्ध’ में ‘आत्महत्या’ शब्द स्वयं अपने आप में प्रतीक है, जिसका अर्थ है यथास्थितिवाद। कवि इसी यथास्थितिवाद के विरुद्ध—जो नेहरूयुगीन राजनीति से मोहभंग होने के उपरान्त उपजा था—खड़ा होने का आह्वान करता है। वहीं ‘पटकथा’ शब्द चलचित्र से लिया गया है। चूंकि पूरी कविता फिल्म की एक रील की तरह चलती है इसलिए कविता का यह शीर्षक सार्थक है। ‘आत्महत्या के विरुद्ध’ और ‘पटकथा’ दोनों ही राजनीतिक कविताएँ हैं, इसलिए दोनों के कथ्य में बहुत समानता भी है। इसलिए कविता में प्रयुक्त पात्र एवं स्थितियों के लिए कई बार एक जैसे शब्दों का प्रयोग हुआ है। राजनीतिक कविताओं में तीन चीजों का विशेष महत्व होता है—जनता, नेता और नौकरशाही। ‘जनता’ के लिए रघुवीर सहाय ‘भीड़’ शब्द का प्रयोग करते हैं तो धूमिल के लिए वह ‘भेड़’ है, जो दूसरों की गर्मी के लिए अपनी पीठ पर ऊन का बोझ ढोती है। ‘भीड़’ शब्द जहाँ जनता की विवेकशून्यता को प्रदर्शित करता है, वहीं ‘भेड़’ उसकी परवशता और मजबूरी को। रघुवीर सहाय की कविता में यथार्थबोध को तीव्र करने के लिए संज्ञावाचक शब्दों का भी प्रयोग दिखाई देता है। जैसे—आम जन के लिए ‘आत्महत्या के विरुद्ध’ में ‘रामलाल’ का प्रयोग हुआ है। इसी तरह ‘आत्महत्या के विरुद्ध’ में नेता के लिए ‘मुसद्दीलाल’ का प्रयोग रघुवीर सहाय करते हैं। वस्तुतः नेहरू युग की समाप्ति के बाद भारत में एक ऐसा राजनीतिक परिदृश्य उभर कर आता है जिसमें भ्रष्टाचार, रिश्वतखोरी, भाई-भतीजावाद जैसी प्रवृत्तियाँ हावी होने लगती हैं और मुसद्दीलाल जैसे व्यक्ति—जो राजनेता कम, दलाल अधिक हैं—की समाज में माँग बढ़ जाती है। मुसद्दीलाल अपने आप में हर मर्ज की दवा है।


    धूमिल अपनी ‘पटकथा’ में यद्यपि भारतीय समाज की दुर्दशा के लिए नेताओं को ही दोषी ठहराते हैं, लेकिन वे इसके लिए किसी खास प्रतीक का इस्तेमाल न कर नेताओं के द्वारा किए गए कार्यों का, जिससे समाज में दुरवस्था आती है, चित्र खींचते हैं। समाज में बुद्धिजीवियों एवं मध्यवर्ग की भूमिका को लेकर दोनों लगभग एक जैसे प्रतीकों का प्रयोग करते हैं। ‘आत्महत्या के विरुद्ध’ की पंक्तियाँ हैं—

“अकादमी की महापरिषद की अनंत बैठक

अदबदा कर निश्चित कर देती है जब कुछ और नहीं कर पाती

तो ऊब कर स्तर / एक सीधी ऊँगली का निशान डाल दस्तखत कर

तले हुए नाश्ते के तेलौश मेज पर।”

तो धूमिल की ‘पटकथा’ में—

“फिर बहसें होती थीं

शब्दों के जंगल में

हम एक-दूसरे को काटते थे

भाषा की खाई को

जुबान से कम और जूतों से

ज्यादा पाटते थे।”


    नेहरू युगीन राजनैतिक व्यवस्था से पूरी की पूरी पीढ़ी घुटन, यंत्रणा से त्रस्त हो गयी थी। इस घुटन को रघुवीर सहाय ‘आत्महत्या के विरुद्ध’ में ‘नरेन’ और उसके बाप मिस्त्री के माध्यम से बताते हैं। नरेन और उसका बाप मात्र व्यक्ति नहीं हैं बल्कि वे अपने-अपने पीढ़ी का प्रतिनिधित्व करते हैं। जो मरी हुई चूड़ियों को कसने का प्रयास कर रहे हैं जो संभव नहीं है। यह निराशाजनक स्थिति को व्यक्त करता है। यह जानते हुए भी कि पेंच की चूड़ियां पहले से ही मर चुकी हैं फिर भी प्रयत्न करते हैं। असफलता और निराशा की विडम्बना, नेहरू युगीन मोहभंग को दर्शाता है। इसी प्रकार की विडम्बना को धूमिल ने ‘पटकथा’ में व्यक्त किया। धूमिल के स्वप्न का ‘हिन्दुस्तान’ अपनी कथा बयान करता है। इस व्यवस्था से परेशान होकर बदलने की बात करता है क्योंकि इस व्यवस्था ने उसे रोटी से वंचित कर दिया। योजनाएं चलती रहीं लेकिन वह भूखा ही रहा। इस व्यवस्था से तंग आकर कहता है- “तुम चाहे जिसे चुनो/ मगर इसे नहीं। इसे बदलो।” वह जानता है

“देखने-सुनने और समझने के लिए

अब यहां कुछ भी नहीं रहा-

सत्ताधारी, बुद्धिजीवी, जननायक, कलाकार

सभी की एक जैसी पीठ

काली चमकदार

एक जैसी रचना

एक जैसा संसार”


    इसी व्यवस्था को बदलने की बात धूमिल करते थे। इस व्यवस्था के सभी लोग एक जैसे हैं। राजनायक से लेकर नौकरशाही तक सभी उसी अराजक व्यवस्था के अंग हैं जो जनता के खून को चूसकर अपनी झोलियां भरते हैं।


    रघुवीर सहाय इस व्यवस्था से परेशान जरूर हैं लेकिन बदलने के लिए सशक्त आवाज नहीं देते। वह जानते हैं यहां “कितना आसान है रख लेना अपने पास अपना वोट/क्योंकि प्रतिद्वन्द्वी अयोग्य है।” लेकिन धूमिल वोट के माध्यम से, जननायक जो अयोग्य है, उसे बदलने को कहते हैं।


    बुद्धिजीवी वर्ग के प्रति दोनों के दृष्टिकोण में समानता नजर आती है। ‘आत्महत्या के विरुद्ध’ में बुद्धिजीवी वर्ग के लिए ‘अंग्रेजी की अवध्य गाय’ तथा ‘पटकथा’ में ‘विवेक’ शब्द आया है। बुद्धिजीवी व्यवस्था का राग अलापते हैं। व्यवस्था के जननायकों की चापलूसी करते हैं। अपनी जेबें भरते हैं। ऐसे लोगों को जनता के साथ होना चाहिए लेकिन ये उस भ्रष्ट व्यवस्था के पक्ष में हैं जो इन्हें भौतिक विलास के लिए धन देता है-

पटकथा में धूमिल ने लिखा है-

“मैंने ईमानदारी को अपने चोरजेबें

भरते हुए देखा

मैंने विवेक को

चापलूसों के तलवे चाटते हुए देखा...”

आत्महत्या के विरुद्ध में-

“गोल शब्दकोश में अमोल बोल तुतलाते

भीमकाय भाषाविद हांफते डकारते हांकते

अंग्रेजी के अवध्य गाय

घंटा घनघनाते पुजारी जय जय कार

सरकार से करार जारी हजार शब्द रोज।”


    ‘आत्महत्या के विरुद्ध’ में ‘लपसी’ शब्द का प्रयोग रघुवीर सहाय ने किया। जो जन समस्याओं से मुंह मोड़ने वाला और जनता की छाती पर बैठकर जश्न मनाने वाला वर्ग है। इन लोगों द्वारा जनता के लिए तैयार की गयी नीतियों को जनता ही नहीं समझ सकती है। वह सब एक ऐसा गड़बड़ घोटाला है जो देश को खोखला बना रहा है। जबकि धूमिल ने ‘लपसी’ जैसे कोई प्रतीक शब्द का प्रयोग नहीं किया लेकिन अपनी कविताओं में ‘लपसी’ जैसे नेताओं को जरूर बताया है-

“मंत्री जब प्रजा के सामने आता है

तो पहले से

कुछ ज्यादा मुस्कराता है

नये-नये वादे करता है

और यह सब सिर्फ घास है

सामने होने की मजबूरी है।”


    ‘मुस्टंडा विचारक’ बुद्धि की जगह अविवेक युक्त ताकत का प्रयोग करने वाले व्यक्ति के लिए, ‘नकली दरवाजा’, झूठे आश्वासनों का प्रतीक है। ‘लपसी’ जनता की समस्याओं से मुंह मोड़कर आनंद मनाने की अवस्था का प्रतीक है। ‘पीटा हुआ दलपति’ चुनाव में पराजित नेता के लिए प्रयुक्त है।


    धूमिल की कविता का फलक रघुवीर सहाय की कविता से बड़ा है। उनके यहाँ प्रतीकों में विविधता भी पायी जाती है तथा वे प्रतीक रघुवीर सहाय की कविता के प्रतीकों से अधिक स्पष्ट हैं। ‘पटकथा’ में आज़ादी का स्वप्न खुशहाली का प्रतीक है। बसंत-खुमारी के लिए प्रयुक्त हुआ है। इसी तरह कबूतर-शांति का प्रतीक है। शांतियात्री- लाल बहादुर शास्त्री का प्रतीक है। ‘जंगल’ अव्यवस्था, स्वतंत्रता, साहस एवं आदमी का प्रतीक बन गया।

‘साँपों का केचुल’ अव्यवस्था, विकृति का प्रतीक है। बौद्धमठ-शांति, घोड़ा-पूँजीपति, घास-सर्वहारा, व्याकरण-सभ्यता संस्कृति, भेड़िया-पूँजीपति, तथा दीवार-यथास्थिति का प्रतीक है। धूमिल ने क्रोध के लिए आग तथा हिन्दुस्तान के लिए ‘अधमरा पशु’ का प्रतीक प्रयोग किया है।


2. बिम्ब- बिम्ब का निर्माण समाज और परिवेश के माध्यम से होता है। बिम्ब भौतिक जीवन से उत्पादित एक अमूर्त कल्पना होती है। परिवेशगत और सामाजिक परिस्थितियों से कवि बिम्ब को ग्रहण कर कविता की रचना करता है। आत्मसातीकरण की प्रक्रिया के द्वारा ही बिम्बों का निर्माण होता है।


    बिम्ब अंग्रेज़ी में इमेज का साहित्यिक रूपांतरण है। साहित्य एवं अन्य कलाओं में इसका अर्थ किसी सजीव या निर्जीव की प्रतिछाया से है। किसी वस्तु, भाव, घटना का इन्द्रियों के द्वारा बोध तथा इसकी काल्पनिक मूर्तता का बिम्ब कहा जाता है। बिम्ब साहित्य को गति प्रदान करता है और उसे मूर्त बनाता है। साहित्यिक बिम्ब प्राणवान होते हैं और मूल्य कालजीवी।


    रघुवीर सहाय और धूमिल की काव्य दृष्टियों में अंतर के कारण दोनों कवियों के बिम्बों में भी अंतर है। धूमिल की ‘पटकथा’ का प्रारम्भ इस आशावादी बिम्ब के साथ होता है-

“मैंने कहा- आ-जा-दी। और दौड़ता हुआ खेतों की ओर/ गया। वहाँ कतार के कतार/ अनाज के अंकुएँ फूट रहे थे/ मैंने कहा- जैसे कसरत करते/ बच्चे। तारों पर चिड़ियाँ चहचहा रही थीं।”

जबकि ‘आत्महत्या के विरुद्ध’ की भारत के सामाजिक और राजनीतिक परिदृश्य को प्रदर्शित करने के लिए वह-

“एक गरीबी, ऊबी, पीली, रोशनी, बीवी

रोशनी, धुंध, जाला, यमन, हरमोनियम अदृश्य

डब्बाबंद शोर

गाती गला भींच आकाशवाणी

अंत में टडंग।”


    ‘पटकथा’ और ‘आत्महत्या के विरुद्ध’ के शुरूआत में आये इन बिम्बों में अंतर का कारण यह है कि यद्यपि दोनों ही कवि देश के परिदृश्य को दिखाना चाहते हैं किन्तु धूमिल जहाँ 1947 के तुरन्त बाद की स्थिति का वर्णन करते हैं, वहीं रघुवीर सहाय नेहरू युग से उपजे मोहभंग के बाद की स्थिति का वर्णन कर रहे हैं।


    रघुवीर सहाय की काव्य भाषा में तात्कालिकता का इतना अधिक प्रभाव था कि वे कविता में विभावन-व्यापार की बजाय खबर को अधिक महत्व देते थे। इसलिए उनकी कविताओं में बिम्बों की समुचित योजना का अभाव दिखता है। इसके विपरीत किसानी संस्कार और चेतना वाले कवि धूमिल अपनी बातों को सपाट ढंग से कहते हैं, फिर भी लोक की संवेदना के गहरे जुड़ाव के कारण कथ्य मूर्तिमान हो उठता है।


    भारतीय लोकतंत्र में आम जनता की स्थिति को दिखाने के लिए दोनों कवियों ने बिम्ब रचे हैं। रघुवीर सहाय उस स्थिति को मूर्तिमान करने के लिए बिम्ब रचते हैं। वह जानते हैं कि भारतीय लोकतंत्र में नायक जनता है। वहीं यह जनता भ्रष्ट व्यवस्था का शिकार हो गई। आज़ादी के पहले जो स्वप्न देखे थे वह पूरे नहीं हो सके। लगातार इंतज़ार के बाद भी वह समय नहीं आया। सभी लोग आश्वासन देते रहे कि ‘समय आ गया है’। इसी विवशता और संभावना में कि ‘समय आ गया है’ अपनी ज़िंदगी काट रही है। इससे सहानुभूति के लिए कवि अपना हाथ उसकी पीठ पर रखता है, लेकिन सहानुभूति नहीं दे पाते क्योंकि जनता की पीठ इतनी चिकनी थी कि हाथ रुका ही नहीं, वह फिसल गया।

“कल मैंने उसे देखा लाख चेहरे में एक वह चेहरा

कुढ़ता हुआ और उलझा हुआ वह उदास कितना बोदा

वही था नाटक का मुख्यपत्र

पर उसकी ठस पीठ पर मैं हाथ रख न सका

वह बहुत चिकनी थी।”


    इसी विवशता को धूमिल ने भी एक बिम्ब रचकर दिखाया है कि जनता मात्र ‘भेड़’ बनकर रह गयी है। जो अपने उत्पाद से अपने लिए कुछ भी नहीं कर सकती, फिर भी ऊन का उत्पादन कर रही है। भेड़ कोई और नहीं बल्कि व्यवस्था का शिकार वह ‘अधमरा पशु हिन्दुस्तान’ ही है। धूमिल ने भी लोकतंत्र में जनता की स्थिति का बयान इन शब्दों में किया है-

“एक भेड़ है
जो दूसरों की ठंड के लिए
अपनी पीठ पर
ऊन की फसल ढो रही है।”


    देश की राजनीतिक व्यवस्था के प्रति विद्रोह का भाव दोनों कवियों में है। रघुवीर सहाय की लम्बी कविता ‘आत्महत्या के विरुद्ध’ में आम लोगों का इलाज भी मुसद्दीलाल जैसे नेताओं या दलालों के माध्यम से होता है। उन्हीं की सिफारिश पर ही अस्पताल में भर्ती किया जाता है। हमारी व्यवस्था भी उसी खैराती अस्पताल की तरह हो गयी है जहाँ सिफारिश की ज़रूरत पड़ती है। इसी व्यवस्था को रघुवीर सहाय ने शब्द-चित्रों के माध्यम से व्यक्त किया है। जनता के आक्रोश, भय, बेबसी, वेदना, यातना को कवि ने इस बिम्ब से व्यक्त किया-

“भौचक भीड़ धाँय-धाँय/ सौ हजार लाल दर्द आठ-दस क्रोध/ तीन-चार बंद बाज़ार भय भगदड़ गर्द/ लाल/ छाँह धूप छाँह, नहीं घोड़े बंदूक/ धुआँ खून खत्म चीख।”

इसमें ‘खत्म’ शब्द सब कुछ के ठहर जाने की व्यंजना कर रहा है।

धूमिल ने भी इसी तरह के भावबोध को व्यक्त किया है। संसद के प्रति अविश्वास को प्रकट किया है। धूमिल एक ठेठ देसी बिम्ब की रचना करते हैं-

“अपने यहाँ संसद-
तेली की वह घानी है
जिसमें आधा तेल है
और आधा पानी है।”

देश में विद्यमान आर्थिक विषमता को प्रकट करने के लिए रघुवीर सहाय यह बिम्ब रचते हैं-

“छुओ
मेरे बच्चे का मुँह
गाल नहीं जैसा विज्ञापन में छपा।”


    वस्तुतः ये पंक्तियाँ मीडिया में प्रसारित भारत की छवि और उसकी वास्तविकता के विरोध को उद्घाटित करती हैं। कुछ इसी तरह का भाव धूमिल की इन पंक्तियों में भी है-
“भूख से मरा हुआ आदमी/ इस मौसम का/ सबसे दिलचस्प विज्ञापन है और गाय/ सबसे सटीक नारा है।”


    रघुवीर सहाय की ‘आत्महत्या के विरुद्ध’ और धूमिल की ‘पटकथा’ में बिम्ब विधान को लेकर सबसे बड़ा अंतर इस बात का भी है कि चूँकि रघुवीर सहाय व्यक्तिगत संघर्ष या सामूहिक संघर्ष में विश्वास करने वाले कवि नहीं हैं, वे सिर्फ पीड़ित की स्थिति का उद्घाटन करते हैं, वहीं धूमिल की कविता में संघर्ष और उसके आह्वान को लेकर तमाम बिम्ब खड़े किये गये हैं।

3. मुहावरे एवं लोकोक्तियाँ-

लोकोक्तियाँ या मुहावरे गढ़ना एक ग्रामीण परम्परा है। लोकोक्तियाँ अधिकतर अपने निर्धारित शब्दों के भीतर ही अनेकानेक अर्थों की गूँज को अपने में समाहित किये होती हैं। और संदर्भों के बदलते ही एक ही मुहावरे के अर्थ भी बदल जाते हैं। यद्यपि छायावाद तक कविता में मुहावरे एवं लोकोक्तियों का प्रयोग कवि की कमजोरी के रूप में देखा जाता है, लेकिन छायावादोत्तर एवं नयी कविता के कवियों ने इस मान्यता को चुनौती दी और सूक्तियों, लोकोक्तियों और वक्तव्यों के द्वारा न केवल कविता के गठन को सम्भव किया बल्कि कविता का एक तेज-तर्रार मुहावरा भी गढ़ा।


    धूमिल की कविता में सूक्तियों की अधिकता के पीछे कारण बताते हुए राजेश जोशी कहते हैं कि-
“धूमिल की कविता में सूक्तियाँ बोलने की प्रवृत्ति के पीछे जहाँ उनके किसानी संस्कार या किसानी को चरितार्थ करने की मान्यता एक कारण है, वहीं दूसरा कारण भाषा का संकट भी है।”


    रघुवीर सहाय ने भी ‘आत्महत्या के विरुद्ध’ में कथन की भंगिमा को प्रभावी बनाने के लिए मुहावरों का प्रयोग किया है। ‘आत्महत्या के विरुद्ध’ कविता की शुरुआत ही इस मुहावरे के साथ होती है- ‘समय आ गया है’ और कविता का अंत इस मुहावरे के साथ होता है- कि वह समय तलवे से छनकर पाताल में चला गया। पूरी कविता इन्हीं दो मुहावरों के बीच फैली हुई है। इसके अलावा रघुवीर सहाय ने जिन मुहावरों का प्रयोग किया है वे निम्नवत् हैं- त्योहार मनाना, कंधे से कंधा मिलाना, चिकनी पीठ, खाते-पीते स्वर्ग में रहना, गरदनें बजाना, विचार का उड़ जाना, अधेड़ रह जाना, नकली दरवाज़ा भिड़ना, पागल हो जाना, घंटा घनघनाना, भाँय-भाँय करना आदि।


    धूमिल की ‘पटकथा’ में जो मुहावरे प्रयुक्त हुए हैं उनकी विशिष्टता इस बात में है कि वे हिन्दी के ठेठ देसी मुहावरे हैं। उन पर नगरीय सभ्यता का असर न के बराबर हुआ है। ‘पटकथा’ में प्रयुक्त प्रमुख मुहावरे इस प्रकार हैं- आदतों का शिकार होना, नस-नस में बिजली दौड़ना, बंदूक के कारखाने में जूता बनाना, छूरा भोंकना, पीठ ठोकना, हड्डी का गायब होना, कलेजा मुँह को आना, पेड़ों की छाल गिनना, हाथ मैला होना, मुट्ठी तानना, गिरगिट की तरह रंग बदलना, चापलूसों के तलवे चाटना आदि।


    भाषा के भीतर और भाषा के सतह पर मुहावरों का प्रयोग ‘नट-बोल्ट’ की तरह है। वे अपने मुहावरों व लोकोक्तियों के माध्यम से गहरा चोट करते हैं। डॉ. शुकदेव सिंह ने कहा कि-
“धूमिल ने निश्चित रूप से न तो ऐसे लोगों पर हँसी उड़ाई और न ऐसे लोगों पर हमला किया। वे सही अर्थों में एक अल्पशिक्षित गाँव में पूरी तरह धँसे हुए, किसान जीवन की कठोरताओं, व्यंग्यों और मुहावरों को अपनी ग्रामीण सम्पदा में जीने वाले सशक्त किसान कवि थे।”


संदर्भ

  • रघुवीर सहायः आत्महत्या के विरुद्ध, पृ. 85

  • धूमिलः संसद से सड़क तक, पृ.120

  • धूमिलः संसद से सड़क तक, पृ.138

  • रघुवीर सहायः आत्महत्या के विरुद्ध, पृ.5

  • धूमिलः संसद से सड़क तक, पृ.9

  • रघुवीर सहायः आत्महत्या के विरुद्ध, पृ.84

  • धूमिलः संसद से सड़क तक, पृ.103

  • धूमिलः संसद से सड़क तक, पृ.112

  • सर्वेश्वरदयाल सक्सेनः कुआनो नदी, पृ.50

  • रघुवीर सहायः आत्महत्या के विरुद्ध, पृ.87

  • धूमिलः संसद से सड़क तक, पृ.120

  • रघुवीर सहायः आत्महत्या के विरुद्ध, पृ.87

  • धूमिलः संसद से सड़क तक, पृ.124

  • धूमिलः संसद से सड़क तक, पृ.125

  • रघुवीर सहायः आत्महत्या के विरुद्ध, पृ.84

  • रघुवीर सहायः आत्महत्या के विरुद्ध, पृ.85

  • धूमिलः संसद से सड़क तक, पृ.104

  • रघुवीर सहायः आत्महत्या के विरुद्ध, पृ.88

  • धूमिलः संसद से सड़क तक, पृ.127

  • रघुवीर सहायः आत्महत्या के विरुद्ध, पृ.86

  • धूमिलः संसद से सड़क तक, पृ.110

  • राजेश जोशीः एक कवि की नोटबुक, पृ.86

  • डॉ. शुकदेव सिंह (संपा.): धूमिल की कविताएँ, पृ.19


-चंद्र मणि सिंह
शोध छात्र, हिंदी विभाग
जामिया मिल्लिया इस्लामिया
नई दिल्ली





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