POLITICS

[POLITICS][list]

SOCIETY

[समाज][bleft]

LITARETURE

[साहित्‍य][twocolumns]

CINEMA

[सिनेमा][grids]

शोध आलेख : दलित आन्दोलन में माता प्रसाद की भूमिका

सारांश

दलित आंदोलन अपने इतिहास को समेटे हुए, अपने अस्तित्व को बचाने का आंदोलन है। भारतीय समाज में जिस समुदाय को सबसे निचले पायदान पर रखा गया था, वह समाज अपनी पहचान को लेकर यह आंदोलन निरंतर करता आ रहा है। इस आंदोलन में साहित्य और राजनीति एक साथ चल रहे हैं। इसी का प्रतिफल है कि दलित समुदाय की आवाज़ को अब सुना जा रहा है। प्रस्तुत शोध आलेख में दलित आंदोलन में माता प्रसाद की भूमिका का अवलोकन प्रस्तुत किया गया है।


बीज शब्द: दलित, अस्मिता, राजनीति, मानवता, समानता, छुआछूत इत्यादि।


शोध आलेख

दलित आन्दोलन और साहित्य को समृद्ध बनाने में माता प्रसाद की महती भूमिका रही है। अपने लेखन के माध्यम से तो वह सक्रिय रहे ही, साथ ही साथ विभिन्न कार्यक्रमों में अपनी उपस्थिति भी दर्ज कराई। दलित राजनीतिज्ञ होने के उत्तरदायित्व ने उन्हें अपने समाज की सहूलियत और हितों में कार्य करने को प्रोत्साहित किया। इस दिशा में उन्होंने कार्य भी किए।


    माता प्रसाद ने दलित साहित्य की अवधारणा को स्पष्ट करने की कोशिश की है। सबसे पहले उन्होंने ‘दलित कौन है?’ इस प्रश्न का जवाब देते हुए कहते हैं- “‘दलित’ शब्द का अर्थ है दबाया गया, गिराया गया, शोषित, अपमानित, उत्पीड़ित, उपेक्षित, वंचित आदि। इसमें जहाँ हिन्दू धार्मिक ग्रंथों के अस्पृश्य, चंडाल, अतिशूद्र आते हैं, वहीं उपेक्षित महिलाएँ, यथा ईट के भट्टे पर काम करने वाली मजदूरिनें, अनुसूचित जाति व जनजातियाँ, देवदासियाँ, घूमंतू जातियाँ, बंधुआ मजदूर भी आते हैं। विश्व स्तर पर रंगभेद से पीड़ित लोग विशेषकर नीग्रो की भी गणना इसमें की जा सकती है।”¹

    

    माता प्रसाद दलित साहित्य को दलित आन्दोलन का एक अंग मानते हैं- “दलित साहित्य, दलित आन्दोलन का एक भाग है। यह लोगों को जोड़ने का काम करता है न कि तोड़ने का। परम्परावादी जरूर इसे अलगाववादी साहित्य कह सकते हैं, क्योंकि यह साहित्य भाग्य, पुनर्जन्म, रूढ़िवाद, अंधविश्वास, जाति-पाति को नहीं मानता है। सबकी बराबरी भाईचारे का यह समर्थक है इसलिए यह जोड़ने वाला है। हाँ, इनको न मानने वालों के लिए यह अलगाववादी लगता है।”² यानी दलित साहित्य दलित आन्दोलन का ही एक अंग है। इस पर भले ही अलगाववादी होने का आरोप लगाया जाए लेकिन यह समाज के एक शोषित तबके को उन्नत करने का जरिया है, न कि समाज को अलगाने का।


    माता प्रसाद दलित साहित्य को सामाजिक विषमता के खिलाफ एक साहित्यिक आन्दोलन मानते हैं- “दलित साहित्य सामाजिक विषमता के विरुद्ध एक आन्दोलन है, जो समाज में समता, बंधुता, न्याय और राष्ट्रीय एकता का समर्थक है। दलित साहित्य भूखों-नंगों की जहाँ पुकार है, वहीं उनकी समस्याओं के समाधान की तलवार भी है। जहाँ यह समाज में अपमान से तिरस्कृत जनों की गुहार है, वहीं उसको साहस देने की ललकार भी है। दलित साहित्य जहाँ एक ओर समाज की संवेदना को झकझोरता है, वहीं दलितों में स्वाभिमान की चेतना को भी जागृत करता है। दलित साहित्य, विषमताओं का घोर शत्रु है। विषमताओं का जो भी संरक्षण करता है, यह उसका पुरजोर विरोध करता है। दलितों के अधिकारों की लड़ाई कोई दूसरा नहीं लड़ सकता, इसे दलितों को स्वयं ही लड़ना पड़ता है। दलित साहित्य दलितों के लिए संघर्ष करने का एक बहुत बड़ा हथियार है।”³ इस तरह, वे दलित साहित्य को एक ऐसा आन्दोलन मानते हैं, जो समता, बंधुता, न्याय और राष्ट्रीय एकता का समर्थक है। भूखों-नंगों की समस्याओं के समाधान का हथियार है। इस तरह कहा जा सकता है कि माता प्रसाद दलित साहित्य को दलितों के लिए संघर्ष करने का एक बहुत बड़ा हथियार मानते हैं।

          

    माता प्रसाद का मानना है कि दलित साहित्य के कुछ मानदंड होते हैं- “इसके आधार पर जो साहित्य लिखा जाता है वही दलित साहित्य है। यदि कोई दलित साहित्यकार भी उसका पालन नहीं करता तो उसका लिखा साहित्य, दलित साहित्य नहीं है। दलित साहित्य में केवल शोषण, उत्पीड़न, अपमान की त्रासदी का ही वर्णन न करके उसके समाधान के उपाय भी बताए जाते हैं।”4


    दलित साहित्य की भाषा को लेकर परम्परावादियों ने काफ़ी शोर मचाया था। माता प्रसाद दलित साहित्य की भाषा को लेकर अपना मत व्यक्त करते हुए कहते हैं- “दलित साहित्य ऐसी भाषा का समर्थक है जिसे अपढ़ या कम पढ़ा-लिखा भी समझ सके।”5 दलित साहित्य के सौंदर्यशास्त्र को लेकर भी काफ़ी वाद-विवाद रहे। दलित साहित्य पर आरोप लगाया जाता रहा है कि इसमें सौंदर्यशास्त्र का अभाव है। इस विषय पर दलित साहित्यकार अपना तर्क प्रस्तुत करते हैं। एक नए और अलग सौंदर्यशास्त्र की बात करते हैं। एक ऐसे सौंदर्यशास्त्र की जो समाज में हाशिये पर रहे और साहित्य से नदारद रहे लोगों की अभिव्यक्ति के लिए आवश्यक है। सौंदर्यशास्त्र के विवाद पर वे प्रश्न करते हैं कि- “‘दलित जब भूखा-नंगा है, उनकी स्त्रियों के साथ बलात्कार होते रहते हैं, उनका उत्पीड़न होता है, तो उनके वर्णन करने में दलित साहित्यकार किस प्रकार उनमें सौंदर्य की स्थापना करें?”6 माता प्रसाद संत रविदास की जयंतियों में सन् 1957 से ही भाग लेते रहे। संत रविदास सम्बंधित कार्यक्रमों में वे केवल भारत के विभिन्न भूभाग में ही नहीं, बल्कि विदेशों में भी शामिल होते रहे। अम्बेडकर जयन्ती पर भी कार्यक्रमों में शामिल होकर अपने वक्तव्यों के माध्यम से लोगों को जागरूक करने का कार्य किया। इसके अलावा दलित साहित्य-संबंधी तमाम गतिविधियों में भी वे शामिल रहे। सन् 1994 में दलित साहित्य अकादमी के अधिवेशन में शामिल हुए। सन् 1997 में हजारीबाग में दलित साहित्यकार सम्मेलन में शामिल हुए। 24 सितम्बर 1995 को दलित साहित्य अकादमी अधिवेशन, दिल्ली में शामिल हुए। सन् 2000 में यू.के. में आयोजित दलित साहित्य सम्मेलन में उन्होंने शिरकत की। माता प्रसाद ने सन् 1994 के दौरान ‘डॉ. अम्बेडकर फिल्म स्क्रिप्ट निर्माण समिति’ के चेयरमैन के तौर पर न केवल प्रकाश अम्बेडकर और सविता अम्बेडकर के मध्य विवाद को ही नहीं सुलझाया; बल्कि सकुशल फिल्म का निर्माण कराने में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभायी।


    राजनीति के क्षेत्र में भी उन्होंने दलित समाज की उन्नति के लिए महत्वपूर्ण योगदान दिए। चूँकि किसी प्रतिष्ठित व्यक्ति के कहने पर बात को अधिक तरजीह दी जाती है, इसलिए अपने राजनीतिक जीवन में उन्होंने कई बार कांग्रेस के पदाधिकारियों से पत्र लिखकर दलित समाज की बात रखी। इस बाबत उन्होंने तत्कालीन कांग्रेस महामंत्री राहुल गाँधी को लिखे एक पत्र में दलित बस्तियों में खाना खाने का सुझाव दिया। यह सुझाव देते हुए वे कहते हैं कि- “दलित समाज इस समय सम्मान का भूखा है। उसके साथ छूआछूत का व्यवहार होता आ रहा है। उसे सम्मान नहीं दिया जाता। कांग्रेस ने उनकी आर्थिक और शैक्षिक स्थिति को आगे बढ़ाने में सराहनीय सहयोग दिया है। आरक्षण का उसे अच्छा लाभ मिला है। शिक्षा के कारण उसका स्वाभिमान जगा है, इसलिए वह सम्मान को प्राथमिकता दे रहा है। आप द्वारा उनके घर पर उनके हाथ का बनाया खाना उनके बर्तन में कर लेने से वह अपने को गौरवान्वित समझता है।”7 इसके अलावा उन्होंने कांग्रेस से दलित नेताओं को आगे बढ़ाने की अपील भी की। राहुल गांधी को लिखे पत्र में ही उन्होंने महात्मा गाँधी के अस्पृश्यता-संबंधी विचार को उचित न मानते हुए लिखा है- “जब तक हिन्दू समाज में वर्ण व्यवस्था रहेगी तब तक जाति-पांति भेदभाव और अस्पृश्यता रहेगी। वर्ण व्यवस्था ही जाति-पाति और अस्पृश्यता की जननी है। वर्ण व्यवस्था को तोड़े बिना न तो जाति-पाति खत्म हो सकती है और न ही अस्पृश्यता ही। क्योंकि वर्ण व्यवस्था के चारों वर्णों में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्रों के कार्य निर्धारित हैं, जिसमें शूद्र और अतिशूद्र के लिए पढ़ना वर्जित है, उनका काम तीनों वर्णों की सेवा करना है, गन्दगी साफ़ करना, मेहनत-मजदूरी करना, धन न इकठ्ठा करना, इनका कर्तव्य है। इस व्यवस्था के कारण दलित अस्पृश्य हो गया है और उसका दंश भोग रहा है। अस्पृश्यता को कानूनन अपराध बना दिया गया है, किन्तु व्यवहार में वह अब भी लागू है। इस प्रकार गांधी जी का वर्ण-व्यवस्था का समर्थन करना और अस्पृश्यता को दूर करना, दोनों एक-दूसरे के विरोधी हैं, इसलिए उचित नहीं कहा जा सकता।”8 इसके अलावा इसी पत्र में वे कांग्रेस के प्रति अपनी वफादारी निभाते हुए उत्तर प्रदेश की राजनीति में सुश्री मायावती जी की काट के तौर पर कांग्रेस के कुछ दलित नेताओं को उच्च पद देने का भी सुझाव देते हैं। इस बाबत वे पत्र में लिखते हैं- “मायावती की काट के लिए चमार या जाटव जाति के कुछ लोगों को राज्यपाल, राजदूत या आयोगों में स्थान दिया जाय, जिससे दलित समाज के लोग पार्टी से जुड़ें।”9 एक दृष्टि से देखें तो यह दलित जातियों के सुश्री मायावती की पार्टी को एकछत्र समर्थन देने को तोड़ने की राजनीति लगती है। लेकिन उनके इस सुझाव में भी कांग्रेस में शामिल दलित नेताओं का हित ही जुड़ा हुआ है।


निष्कर्ष

माता प्रसाद ने अपने जीवन भर में कई सारी दलित-हित संबंधी गतिविधियों में भाग लिया। दलितों की शिक्षा को ध्यान में रखते हुए उन्होंने सिद्दीकपुर, जौनपुर में सन् 2006 में बाबा साहब डॉ. अम्बेडकर महाविद्यालय खोला। इस महाविद्यालय से क्षेत्रीय दलित समाज को शिक्षार्जन में मदद मिली।


संदर्भ सूची-

  1. माता प्रसाद, झोपड़ी से राजभवन, नमन प्रकाशन, नई दिल्ली, 2011, 'संशोधित संस्करण के संबंध में दो बातें' में।

  2. वही, पृ. 464

  3. वही, पृ. 467

  4. वही, पृ. 466

  5. वही, पृ. 467

  6. वही, पृ. 467

  7. वही, पृ. 467-468

  8. माता प्रसाद, झोपड़ी से राजभवन, नमन प्रकाशन, नई दिल्ली, 2011, पृ. 494-495

  9. वही, पृ. 495


-अरविंद भारती
शोधार्थी, अवध विश्वविद्यालय, अयोध्या


Post A Comment
  • Blogger Comment using Blogger
  • Facebook Comment using Facebook
  • Disqus Comment using Disqus

No comments :