शोध आलेख : समकालीन समाज में मीडिया संस्थानों की संदेहास्पद भूमिका का अध्ययन
सारांश
वैश्वीकरण के दौर में मीडिया के मूल्यवादी चरित्र का प्रश्न गहराता जा रहा है। लोकतान्त्रिक व्यवस्था में प्रमुख स्तंभ के रूप में स्थापित मीडिया का वैश्विक प्रभाव से व्यापक अर्थों में परिवर्तित होना इस बात का स्पष्ट संकेत देता है कि लोककल्याण की भावना से अनुप्राणित मीडिया ने अपना ध्येय ही स्थानांतरित कर लिया है। सामाजिक सरोकारों से संबद्ध विषय मुख्यधारा की मीडिया से विलुप्तप्राय हो चुके हैं। इनके स्थान पर व्यावसायिक हितों को तुष्ट करने वाले विषय संस्थानों की प्राथमिकता बन चुके हैं। यह मीडिया द्वारा नियंत्रित है या आतंकित, जैसा भी समय हो, इस संदिग्ध समय में स्थापित मूल्यों का तीव्र गति से विघटित होना चिंता का विषय है। इस दौर में संस्थान व्यावसायिक निगम की तरह संचालित हो रहे हैं। नवीन प्रौद्योगिकी से चाल, चरित्र और चेहरा सब बदल चुका है। जहां इसने समाज के सहज बौद्धिक विकास को मत-निर्धारण द्वारा मैनिपुलेट (जोड़-तोड़) किया है, वहीं इसने पत्रकारों की गतिविधियों को भी निर्देशित एवं नियंत्रित करने का कार्य बड़ी सूक्ष्मता से किया है। ‘मीडिया लाइफ’ उपन्यास इन सभी बुनियादी बदलावों एवं संस्थाओं की भीतरी यथास्थिति का चित्रण रोचक अंदाज़ में करता है।
बीज शब्द : मीडिया संस्थान, पत्रकार, समाज, जिजीविषा, निष्ठा, मूल्य, अवमूल्यन, आदर्श, बाज़ारवाद, यथार्थ, भविष्य।
शोध आलेख
जनमाध्यमों में सामाजिक आकांक्षाओं की अभिव्यक्ति के सशक्त माध्यम के रूप में मीडिया महत्वपूर्ण स्थान रखता है। मीडिया की समाज में उपस्थिति उसके दायित्व एवं उसकी भूमिका को निर्णायक बनाती है। मीडिया अवधारणात्मक अर्थों में लोक-कल्याण की भावना का वाहक है। अर्थात — “पत्रकारिता कला, वृत्ति और जनसेवा है।”¹ वर्तमान में भले ही यह अपने लक्ष्य से विचलित हो गई हो, सैद्धांतिक अर्थों में लोक ही इसका आधार है, इसका अस्तित्व है और घोषित रूप में लोक ही उद्देश्य भी है।
प्रौद्योगिकीय विकास ने संरचनात्मक बदलाव ही नहीं किए बल्कि इसने जनमाध्यमों की मूल अवधारणा ही बदल दी। पत्रकारीय मूल्यों का अवमूल्यन का सूत्रपात इसी घटना से माना जाता है। लोकतंत्र में प्रहरी की भूमिका में मीडिया का अवलोकन किया जाता है। इसके महत्व और दायित्व के प्रति प्रतिबद्धता के संबंध में प्रचलित है कि — “पत्रकारिता आधुनिक जनसंचार माध्यमों के द्वारा सार्वजनिक मत, सार्वजनिक सूचना तथा सार्वजनिक मनोरंजन के एक व्यवस्थित एवं विश्वसनीय तंत्र का नाम है।”² जबकि इसी मीडिया ने सामाजिक सरोकारों के साथ विश्वासघात किया है।
वर्तमान मीडिया अंतर्विरोधों से भरा है। इसलिए मीडिया पर संदेह करना अनुपयुक्त नहीं है। मीडिया के अस्वाभाविक रूप से बदले चरित्र ने इसकी भूमिका को संदिग्ध दृष्टियों से विश्लेषित करने के लिए बाध्य किया है और विभिन्न प्रश्नों को जन्म दिया है कि मुख्यधारा के मीडिया का सामाजिक सरोकारों से पलायन और राजनीतिक गतिविधियों को प्रधानता के क्या कारण हैं? सेलेब्रिटीज़ संबंधी सूचनाओं से समाज कैसे लाभान्वित हो सकता है? समाज की बदहाली के स्थान पर उत्तेजक तस्वीरें दिखाकर क्या मीडिया के दायित्व की इतिश्री हो जाती है? क्या विदेशी ग्लैमर दिखाकर मीडिया वैश्विक समाज के साथ समन्वय स्थापित करने का कार्य कर रहा है? पत्रकारों की अभिरुचि और स्वतंत्रता का ध्यान किस तरह रखा जाता है? देश की अर्थव्यवस्था का निर्धारण क्या चुनिंदा उद्योगपतियों के आधार पर किया जाना युक्तिसंगत है? राजनेताओं की प्रशंसा द्वारा क्या मीडिया लोकतान्त्रिक व्यवस्था को सशक्त बनाने का कार्य कर रहा है? सांस्कृतिक चेतना से अनुप्राणित अतीत का संरक्षण इसने किस प्रकार किया? पत्रकारीय मूल्यों के संरक्षण में इसने अपनी भूमिका किस तरह निभाई? समाज को शिक्षित करने के उद्देश्य को मीडिया ने किस प्रकार की सामग्री प्रसारित करके पूरा किया? इस तरह के अनगिनत प्रश्नों की जवाबदेही वास्तव में उस मीडिया से बनती है जो अन्यों से जवाबदेही की आशा रखता है।
उक्त उपन्यास में मीडिया जगत के उस पक्ष पर प्रकाश डाला है जो सदैव नेपथ्य में बना रहता है। सूचनाओं के नियमन के अतिरिक्त गतिविधियों की पड़ताल इसमें विभिन्न पात्रों के माध्यम से की है। इसमें पात्रों का विभाजन तीन स्तरों पर किया जा सकता है — पहले स्तर पर वे पात्र हैं जो प्रबंधन तंत्र के प्रतिनिधि हैं; दूसरे प्रकार के पात्र उच्च पदों पर आसीन हैं और प्रबंधन के निर्देशों का पालन आंख मूंद कर करते हैं; वहीं तीसरे प्रकार के पात्र संघर्षरत पत्रकार हैं, जो सामाजिक सरोकारों की अनदेखी एवं अपनी असमर्थता से व्यथित हैं लेकिन इन विषम परिस्थितियों से समझौता करने के लिए विवश हैं। ‘शशिकांत मिश्र’ ने पांडे, त्यागी, रागिनी, बुल्ला (विनोद वर्मा), ठुल्ला (अमित मालवीय), गोवर्धन बाबा, गुप्ता जी, असाइनमेंट वाला लड़का, एंकर अमन जैसे पात्रों के माध्यम से इनके आपसी समझौतों और संघर्षों को दिखाने का प्रयत्न किया है। ‘मीडिया लाइफ’ उपन्यास मीडिया संस्थानों की यथास्थिति को उजागर करने का रचनात्मक प्रयास है। सिद्धांततः समाजहित की दुहाई देने वाला मीडिया व्यवहारिक अर्थों में किसका प्रतिनिधित्व कर रहा है, यह स्पष्ट है। मीडिया के इस पक्षपाती आचरण के कारण ही लोक की दृष्टि में इसकी विश्वसनीयता का निरंतर क्षरण हो रहा है।
यह चिंता का विषय है कि इस बाज़ारवादी व्यवस्था ने संस्थानों को संवेदनशून्य बना दिया है। आज सूचनाएं बेचे जाने लायक उत्पाद बन चुकी हैं और उन्हें बेचने के लिए संस्थान किसी भी हद तक गिरने के लिए तैयार हैं, केवल मुनाफा मिलना चाहिए।
मीडिया से सामाजिक सरोकारों से जुड़ी सूचनाएं तो पहले ही हाशिये पर जा चुकी हैं। जो कुछ बची हैं उन्हें सनसनी उत्पन्न करने के लिए इस्तेमाल में लिया जा रहा है। अर्थात सूचनाओं के वर्गीकरण की प्रवृत्ति मीडिया के दैनिक व्यवहार का हिस्सा बन चुकी है। और यह वर्गीकरण विषयी नहीं है, बल्कि इसका आधार बाज़ार है। आपराधिक घटनाओं को संवेदनात्मक धरातल पर नहीं, बाज़ार की माँग के अनुरूप प्रसारित किया जाने लगा है। अपराध की सूचना मिलने पर संस्थान की नीरसता यह प्रमाणित करती है कि संस्थान के लिए कोई घटना हृदयद्रावक नहीं रही।
मीडिया सेक्स जैसे निजी और हत्या, बलात्कार जैसे जघन्य कृत्यों को सामग्री बनाकर प्रस्तुत करने में व्यस्त है, अर्थात उत्पाद की तरह भावनाओं को बेचा जा रहा है। इस प्रकार वर्तमान मीडिया में नैतिक मूल्यों के लिए तो कोई अनिवार्यता बची ही नहीं है, उसकी संवेदनाएं भी मर चुकी हैं।
समकालीन मीडिया की संदिग्ध होती भूमिका के विषय में अशोक मिश्र का कथन प्रासंगिक है कि “खबरें अब निर्दोष नहीं रहीं । वे अब सायास हैं, कुछ सतरंगी भी । बाज़ार की मार, मांग और प्रहार इतने गहरे हैं कि हमारे सामने दिखती खबरों ने हमसे मुंह मोड़ लिया है ।”6
मीडिया सामाजिक शिक्षा के आधारभूत उद्देश्य को तिलांजलि दे चुका है । बाज़ार का अंधानुकरण करने वाले उपभोक्ता निर्मित करने का कार्य मीडिया के माध्यम से ही संभव हो पाया है । “लॉजिकल नहीं लग रहा है तेरा झूठ ।” “अब सर, लॉजिकल लोग न्यूज चैनल देखते कहाँ हैं?”7 असल में मीडिया ने समाज के साथ अगम्भीर एवं निरर्थक सामग्री परोसकर छल किया है। बुद्धिजीवी वर्ग इनके प्रपंच से चमत्कृत नहीं होता, लेकिन सामान्यतः समाज इनके भ्रमजाल से बचने में असमर्थ है ।
विज्ञापन प्रबंधन ने सबसे अधिक मीडिया संस्थानों को प्रभावित किया है । औद्योगिक इकाइयों, नौकरशाहों एवं राजनेताओं ने विज्ञापन के माध्यम से मीडिया को मैनेज करने का कार्य बड़ी कुशलता से किया है । जवाबदेही की प्रक्रिया इस विज्ञापन नियमन से अवरुद्ध हुई है । अवैध कृत्य निर्बाध गति से किए जा रहे हैं, क्योंकि मीडिया उनसे विज्ञापन रूपी रिश्वत लेकर संतुष्ट है । “ज्ञान मत दे। इतना पता है मुझे । जा, खबर ड्रॉप कर । परसों ही वहाँ से विज्ञापन मिला है। वापस कराएगा क्या? उसी भिखारी की तरह भूखों मरना चाहता है? अपने अन्नदाता के खिलाफ खबर चलाएगा!”8 वैश्वीकरण के दौर में धनार्जन की अंधी दौड़ ने मूल्यों के अवमूल्यन पर आत्मग्लानि की भी परवाह करनी छोड़ दी है । पूँजीवादी व्यवस्था ने संस्थानों के विज्ञापन प्रेम को न केवल पोषित ही किया है, बल्कि संस्थानों को विज्ञापन के माध्यम से नियंत्रित और निर्देशित करने का कार्य भी बखूबी किया है ।
यदि पत्रकार अपने दायित्व के प्रति प्रतिबद्धता दिखाने का प्रयास करता है तब संस्थान भी अपना वर्चस्व दिखाने से नहीं चूकता । उसकी दृष्टि में केवल बाज़ारवादी मान्यताएं ही क्रियान्वित रहती हैं, लोकाराधन की भावना नहीं । कनिष्ठ पत्रकार अपने वरिष्ठ पत्रकार को सुझाव देकर फंस जाता है । “*&^$# के, बॉस मैं हूँ या तू? ज्यादा ज्ञानी बन रहा है! सारा ज्ञान तेरे ^%$# में डाल दूँगा । आगे से मुझे ज्ञान देने की गलती भी मत करना । यहाँ तेरे जैसे कई तीसमारखां की $%^&** चुका हूँ मैं ।”9
विद्रोही प्रवृत्ति के पत्रकार अक्सर प्रबंधन के कोप के भागी बनते हैं जबकि प्रायः पत्रकारों को अंततः समझौते के लिए बाध्य कर दिया जाता है । “प्रोड्यूसर ने सरेंडर करने में ही भलाई समझी। बॉस भड़क गया तो इंक्रीमेंट छोड़ो, पीआईपी (परफॉर्मेंस इम्प्रूवमेंट प्लान) में भेज देगा। वहाँ एचआर वाले बन्दे उसे काम सुधारने के तरीके बताने के बहाने कान पकड़कर बाहर करने का प्लान बनाकर बैठे मिलेंगे ।”10
इस गलाकाट स्पर्धा ने पत्रकारों को संदेह से भर दिया है । उनके समक्ष जिजीविषा का प्रश्न उनके सामर्थ्य, आत्मबल और स्वाभिमानी चरित्र को हीनतर सिद्ध कर देता है । उन्हें दब्बू बने रहने और मालिक के निर्देशों की पैरवी करने के लिए विवश होना पड़ता है । “दोनों न्यूज चैनल नोएडा फिल्म सिटी में आसपास बसे हुए थे। दोनों के बीच हिन्दुस्तान-पाकिस्तान जैसा ही रिश्ता था। भारत-पाकिस्तान की तरह दोनों पड़ोसी ही नहीं, गुजरे जमाने में भाई-भाई भी थे, लेकिन अब दोनों चैनलों के बीच टीआरपी के लिए गला काट प्रतियोगिता चल रही थी।”11
छल से लाभान्वित होना सभी को भाता है, लेकिन जब यही छल अपने साथ होता है तब उद्गार हृदय की गहराइयों से निकलते हैं । “तब उन्हें पत्रकारिता का धर्म याद आने लगता है। राग अलापने लगते हैं कि मीडिया पथभ्रष्ट हो गई, पत्रकारिता पत्तलकारिता हो गई। अबे कमीनो, बोओगे बबूल तो आम कहाँ से पाओगे? चुन-चुनकर हरामियों की फौज तुमने ही तो मीडिया में खड़ी की है ।”12 संस्थान की दृष्टि में कोई पत्रकार अपरिहार्य नहीं होता, उसका महत्व तभी तक है जब तक कि वह संस्थान के हितसाधन में उपयोगी है, अन्यथा अवमूल्यन की इस प्रक्रिया में पत्रकार भी खामियाज़ा भुगतते हैं । अतः जब तक समाज और पत्रकारिता पेशे के साथ छल किया जाता रहा तब कोई हूक तक पत्रकार को महसूस नहीं हुई, पर जब निजी हानि होती है तब मूल्यों की दुहाई देने लगते हैं ।
पश्चिमी संस्कृति ने अर्थात वैश्विक व्यवस्था से सांस्कृतिक संक्रमण से विश्व की विभिन्न संस्कृतियों का बाज़ारीकरण कर दिया है । पश्चिमी संस्कृति ने भारतीय संस्कृति में सेंध आधुनिकीकरण की आड़ में नग्नता को प्रश्रय देकर लगायी है । वैश्वीकरण के दौर में ऐसी धारणा बन चुकी है कि प्रगतिशीलता का परिचय व्यक्ति के विचार और व्यवहार से नहीं बल्कि उसके खान-पान और उसके पहनावे से होता है । एक वरिष्ठ पत्रकार का स्मरण करते हुए पत्रकार रह चुके गुप्ता जी बताते हैं कि वे “इस बात पर अफसोस जाहिर करते थे कि इंडियन लड़कियाँ उतनी प्रोग्रसिव क्यों नहीं हैं, जितनी फॉरेन मीडिया की हैं। पुरानी लड़कियाँ तो उनका फोन ही नहीं उठाती थीं, लेकिन नई लड़कियाँ उनके चरके में आ जाती थीं ।”13 शोषण के मानक अब सूक्ष्म हो चुके हैं । यह विभिन्न स्तरों पर सक्रिय दिखता है जैसे नौकरी दिलाने, कभी अस्थायी नौकरी को स्थायी कराने, पद और यश दिलाने के नाम पर स्त्रियों को संस्थानों के भीतर ठगा जा रहा है तो वहीं इन स्त्रियों के माध्यम से समाज को सौंदर्य और कामुकता परोस कर ठगा जा रहा है । वास्तव में स्त्री बाज़ार की दृष्टि में मात्र दर्शनीय और उपभोग्य वस्तु है । उसके सौंदर्य, निष्छलता और उन्मुक्तता का इस व्यवस्था ने बाज़ारीकरण कर दिया है । “सर, ‘हिन्दुस्तान न्यूज’ वाले तो इसे लो कट चोली पहनाकर लोगों का भाग्य बताते थे, हम क्या पहनाकर बताएँ ?” *** “तु लो कट के साथ इसे बैकलेस कर दे। लोगों को आगे से भी तू भाग्य दिखा, पीछे से भी। दोनों तरफ से भाग्यफल और राशिफल देखने से पहले की तकदीर ज्यादा अच्छे से सँवर जाएगी।”14 वैश्वीकरण के दौर में स्वतंत्रता और यथार्थ का अर्थ वैचारिक स्वतन्त्रता और यथास्थिति से नहीं बल्कि उन्मुक्तता और नग्नता से लिया जाने लगा है ।
मीडिया सामाजिक समस्याओं को अपरिवर्तनीय सिद्ध कर अपने दायित्व से मुक्त हो चुका है जबकि इसकी स्थापना लोक को केंद्र में रखकर की गई थी। आज मीडिया में सामाजिक सरोकारों को बोझ समझते हुए उनके उपाय की बजाय उन्हें नज़रअंदाज़ करने की प्रवृत्ति पनप रही है। "ये इंडिया ऐसा ही था, है और रहेगा। इसी में जीने की आदत डाल लो। प्रॉब्लम का रोना बन्द करो, जस्ट इंज्वॉय। पब्लिक को खुश करनेवाली खबरें दिखाओ, देश से प्रेम जगानेवाली खबर दिखाओ, दुश्मन देश को तोड़ने-फोड़नेवाली खबर दिखाओ। पाकिस्तान की बदहाली दिखाओ। हिन्दुस्तानी उसे देखकर अपनी बदहाली भूल जाएँगे।"
निष्कर्ष
मीडिया में व्याप्त विषमताओं एवं अनियमितताओं का ब्यौरा देने की पहल कभी संस्थानों ने नहीं की। जबकि इनके कुकृत्यों की पोल राडिया कांड, अन्ना आंदोलन, कोयला घोटाला आदि से खुल ही चुकी है। समाज में इनके प्रति संदेह के लिए स्थान बना चुका है। जब भी मीडिया के नियमन का प्रश्न उठता है तब मीडिया आत्मनियमन का विकल्प इस धारणा के साथ प्रस्तुत करता है कि यह अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर प्रहार है। मीडिया कभी भीतरी वातावरण से समाज को अवगत नहीं होने देता है। यह कार्य साहित्यिक विधाओं विशेषकर उपन्यास जैसी सशक्त विधा के माध्यम से ही संभव हो सका है। अतः मीडिया की गिरती साख को मीडिया स्वयं लोकहितकारी भूमिका में वापसी कर बचा सकता है।
संदर्भ ग्रन्थ सूची
भानावत, डॉ. संजीव, पत्रकारिता के विविध परिदृश्य, रचना प्रकाशन, 1992, पृ. सं. 3
सिंह, पूनम, साहित्यिक पत्रकारिता और विशाल भारत, सामयिक बुक्स, 2017, पृ. सं. 18
मिश्र, शशिकांत, मीडिया लाइफ, राधाकृष्ण प्रकाशन, 2023, पृ. सं. 8
वही, पृ. सं. 13
वही, पृ. सं. 47
वही, पृ. सं. 43
मिश्र, अशोक, शिल्पायन पब्लिशर्स एण्ड डिस्ट्रीब्यूटर्स, 2014, भूमिका से अवतरित, पृ. सं. 9
मिश्र, शशिकांत, मीडिया लाइफ, राधाकृष्ण प्रकाशन, 2023, पृ. सं. 47
वही, पृ. सं. 64
वही, पृ. सं. 39
वही, पृ. सं. 33
वही, पृ. सं. 15
वही, पृ. सं. 93
वही, पृ. सं. 114
वही, पृ. सं. 95
वही, पृ. सं. 27


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