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शोध आलेख : स्वाधीनता आंदोलन के दौरान अनूदित हिंदी रचनाओं में राष्ट्र चिंतन का स्वरूप

शोध सार

स्वाधीनता और राष्ट्र एक इकाई नहीं होने के बावजूद एक-दूसरे से परस्पर जुड़े हुए हैं। भारतीय सन्दर्भ में स्वाधीनता आन्दोलन के संघर्ष के दौरान ही राष्ट्रवाद का जन्म हुआ है। भारत में जैसे-जैसे स्वाधीनता आन्दोलन ने रफ़्तार पकड़ी वैसे-वैसे राष्ट्रीय चेतना का स्वर भारत में स्थापित होता चला गया। 1857 का प्रथम स्वतंत्रता संग्राम, भाषाई विमर्श, साहित्यिक विमर्श और भारतीय नवजागरण की लहर ने राष्ट्रीय अस्मिता को जाग्रत करने तथा अपनी खोई हुई पहचान प्राप्त करने के लिए प्रेरित किया। भारतीय पुनर्जागरण के आगोश में एक तरफ अतीत के गौरवगान से भारतीयों का मनोबल बढ़ाना आवश्यक था, दूसरी तरफ नए ज्ञान-विज्ञान से भारतीयों का परिचय करना अवश्यम्भावी हो चला था। इन दोनों उद्देश्यों की पूर्ति अनुवाद के सहारे की गई। अनुवाद ही वह माध्यम था जो हिंदी पट्टी में नवजागरण की लहर लाने और राष्ट्रीयता का भाव जगाने का कार्य एक साथ कर रहा था। बीसवीं शताब्दी में अनुवाद ने जनमानस की राष्ट्रीय चेतना को व्यापक स्तर पर आंदोलित किया। आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी, आचार्य रामचंद्र शुक्ल, गणेश शंकर विद्यार्थी, प्रेमचंद जैसे प्रतिष्ठित हिंदी अनुवादकों ने एक तरफ हिंदी साहित्य के रिक्त भण्डार को अनुवाद के सहारे भरने का प्रयास किया, वहीं दूसरी ओर स्वाधीनता आन्दोलन के लिए जिस राष्ट्रीय ऊर्जा की आवश्यकता थी, वह अनूदित रचनाओं के सहारे जनमानस में भरने का कार्य व्यापक पैमाने में किया जाने लगा। भारत की पराधीन पीढ़ी को स्वाधीनता का सपना दिखाने में अनूदित कृतियों की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। चाहे वह महावीर प्रसाद द्विवेदी द्वारा अनूदित रचना ‘स्वाधीनता’ हो या फिर अर्नेस्ट हैकल की पुस्तक ‘रिडल ऑफ़ यूनिवर्स’ का रामचंद्र शुक्ल द्वारा ‘विश्वप्रपंच’ नाम से अनुवाद हो, बीसवीं सदी में हिंदी में हुए ज्यादातर अनुवादों का प्रधान लक्ष्य राष्ट्रीय प्रेरणा रहा है। भारतीयों को स्वाधीनता आन्दोलन से जोड़ने के लिए भारतीय साहित्य (ख़ासकर बांग्ला साहित्य, मराठी साहित्य) के साथ-साथ अंग्रेजी पुस्तकों का व्यापक रूप से अनुवाद हुआ। बीसवीं सदी में अनुवाद का उपयोग सत्ता-विमर्श के पक्ष एवं विपक्ष दोनों ओर से हुआ। अंग्रेजों द्वारा भारतीयों के मानस हरण की प्रक्रिया भी अनुवाद द्वारा की गई और भारतीयों ने राष्ट्रीय चेतना के प्रचार का मुख्य साधन भी अनुवाद को ही बनाया। इस तरह दो धारी तलवार बनकर अनुवाद ने बीसवीं सदी के स्वाधीनता आन्दोलन को अंतिम अंजाम पर पहुँचाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।


बीज शब्द : (राष्ट्र, स्वाधीनता आन्दोलन, उपनिवेशवाद, सत्ता-विमर्श, अनुवाद नीति).


शोध आलेख

‘राष्ट्र’ वस्तुतः जाति, धर्म, परंपरा, संस्कृति, भाषा एवं विविध कला रूपों के आधार पर निर्मित एक राजनीतिक अवधारणा है। आधुनिक राष्ट्र की अवधारणा को लेकर लंबी बहस रही है, परन्तु मोटे तौर पर भौगोलिक एकता, सांस्कृतिक चेतना एवं आर्थिक स्वार्थों ने ही आधुनिक राष्ट्रीय इकाइयों को जन्म दिया है। राष्ट्र चिंतन की प्रक्रिया से गुजरते हुए इस बात पर भी गौर करना आवश्यक है कि दुनिया के ज्यादातर राष्ट्र किसी न किसी रूप में अपनी मुक्ति की लड़ाई लड़ते हुए ही अपना आकार पा सके हैं। भारत में राष्ट्र की संकल्पना का प्रारम्भिक आधार भी ब्रिटिश पराधीनता से मुक्ति की कामना से जुड़ा हुआ है।


    स्वाधीनता की पहली संयुक्त चिंगारी 1857 की क्रांति में देखने को मिलती है। स्वाधीनता के लिए किया गया पहला संयुक्त प्रयास था। ‘रोटी और कमल’ के प्रतीक चिन्हों से आम जनमानस को जोड़ने का सशक्त प्रयास था। विनायक दामोदर सावरकर ने अपनी पुस्तक ‘1857 का प्रथम स्वातंत्र्य समर’ में इसके उत्थान और प्रभाव को स्वाधीनता आन्दोलन के हित में परिभाषित किया है। “भले ही स्वाधीनता का यह पहला प्रयास अपने अंजाम तक नहीं पहुँच पाया हो परन्तु आम जनमानस को यह आन्दोलन एक मकसद देने में कामयाब रहा।”¹ विभिन्न राजाओं की शरणस्थली बनी जनता में नया जोश भरने में इस प्रथम स्वाधीनता आन्दोलन ने उत्तेजक का कार्य किया। अब जनता बिचौलिये राजा-महाराजाओं से बिना आस लगाए सीधे अंग्रेजों के दमन के ख़िलाफ़ आवाज उठाने की ताकत जुटाने लगी थी। स्वायत्तता के साथ पहचान का संकट भी आम जनमानस के सामने बड़ा प्रश्न बनकर खड़ा था। सैकड़ों वर्षों की शारीरिक और मानसिक पराधीनता से जूझती आम जनता को सही राह का इंतजार था। वे अपनी भूमि, अपने देश तथा खुद की पहचान के लिए तमाम आपसी मुद्दों को भूलकर एकजुट होकर पराधीन भावबोध से मुक्त होना चाहते थे। अपनी संस्कृति, अपने देश तथा खुद की स्वायत्त पहचान का अहसास जल्द ही भारतीय नवजागरण ने आम जनमानस को कराया। तत्कालीन समय में जनता को एकजुट करने तथा उनमें भारतीयता की भावना जगाने में भारतीय नवजागरण की महत्वपूर्ण भूमिका थी। रामविलास शर्मा की मानें तो “नवजागरण ही वह मंच था जहां से स्वाधीनता की चेतना प्रस्फुटित होकर आम जनता में प्रसारित हुई। राष्ट्रीय प्रेरणा के लिए सामाजिक एकता और अखंडता की अदद ज़रूरत थी जिसे नवजागरण के जातिगत चेतना ने पूरा किया।”²


    उन्नीसवीं सदी के मध्य में उभरी राष्ट्रीय भावनाएँ बीसवीं सदी के आरंभिक दशक तक परिपक्व हो चुकी थीं। उनके सामने स्पष्ट लक्ष्य था, साफ़ मंज़िल थी तथा उस तक पहुँचने के लिए आम जनता का सहयोग था। साथ ही लोगों को सही राह दिखाने के लिए स्वाधीनता आन्दोलन का मंच सजा था। सब कुछ था, परन्तु फिर भी जनता की भावनाओं को सही दिशा प्रदान करना इतना आसान नहीं था। इस कठिन कार्य की जिम्मेदारी एक बार फिर अनुवाद ने उठाई। बीसवीं सदी के प्रारंभ में देश के विभिन्न भागों में साहित्यिक अनुवादों ने आम जनता को स्वाधीनता आन्दोलन से जुड़ने के लिए प्रेरित किया, उनमें राष्ट्रीयता की ओजस्वी भावनाएँ भरीं। प्रेमचंद ने ‘सोज़े वतन’ की कहानियों में स्पष्ट रूप से ऐलान कर दिया था “खून का आख़िरी क़तरा जो वतन की हिफ़ाज़त में गिरे, वही दुनिया की सबसे अनमोल चीज़ है।”³ स्वाधीनता आन्दोलन के दौरान हिंदी में ऐसी कई पुस्तकों का अनुवाद किया गया जिन्होंने राष्ट्र चिंतन की विभिन्न दिशाओं से आम जनता को परिचित कराया। किसानों-मजदूरों की मार्मिक पीड़ा के वृत्तांत उभारे गए, व्यापारियों और उद्योग धंधों की ख़स्ता हालत के वास्तविक कारणों की व्यापक रूप से पड़ताल की गई। अंग्रेजों द्वारा थोपी गई औपनिवेशिक मानसिकता को विभिन्न अंग्रेजी पुस्तकों का हवाला देते हुए उजागर करने का प्रयास किया गया। महावीर प्रसाद द्विवेदी द्वारा जॉन स्टुअर्ट मिल की ‘On Liberty’ का हिंदी अनुवाद ‘स्वाधीनता’ नाम से करना, आचार्य रामचंद्र शुक्ल द्वारा हरबर्ट स्पेंसर की प्रसिद्ध पुस्तक ‘Riddle of Universe’ का ‘बुद्धिप्रपंच’ नाम से अनुवाद करना निश्चय ही अंग्रेजों की कथनी और करनी में छुपे भेद को उजागर करने के प्रयास का ही उपक्रम था। आचार्य द्विवेदी जी ने ‘स्वाधीनता’ की भूमिका में लिखा है- “जो बात पाश्चात्य देशों में धड़ल्ले से फैल रही है, वैचारिक स्वाधीनता की जो आंधी वहां आई हुई है, उसके कुछ छींटे भी हमारे देशवासियों पर पड़ जाएं तो मनोरथ सिद्ध हो।”⁴


    एक तरफ जेम्स मिल अपनी साम्राज्यवादी दृष्टिकोण से भारत के इतिहास को अंग्रेजी हितों अनुरूप बनाने में लगा हुआ था। भारत को सांप्रदायिक आग में झुलसाने के सारे प्रबंध इतिहास में कर चुका था, वहीं दूसरी ओर उनके सुपुत्र जॉन स्टुअर्ट मिल स्वाधीनता, व्यक्ति स्वतंत्रता और सामाजिक समानता पर डींगे हांक रहे थे। औपनिवेशिक देशों को बर्बर और असभ्य कहकर संबोधित कर रहे थे। “जो राष्ट्र अब भी बर्बरता की अवस्था में हैं उनके लाभ के लिए जरूरी है कि उन्हें पराजित किया जाए और वे दूसरों की अधीनता में रहे। ऐसे राष्ट्रों के लिए स्वाधीनता और राष्ट्रीयता आम तौर पर उपयोगी नहीं है।”5 औपनिवेशिक सत्ता-विमर्श की यह दोहरी मानसिकता नहीं तो और क्या है? जॉन स्टुअर्ट मिल एक तरफ ये सब लिख रहे थे दूसरी ओर स्वाधीनता और लोकतंत्र पर किताबें लिखकर दुनिया को स्वतंत्रता का उपदेश भी दे रहे थे। आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी ने अंग्रेजों की दोहरी चाल को अनुवाद के माध्यम से न केवल उजागर किया अपितु उन्हीं के सिद्धांतों को अनूदित कर जनता जागरण का कार्य किया। अपनी एक अन्य अनूदित पुस्तक संपत्तिशास्त्र में ब्रिटिश भारत के आर्थिक दोहन को संकेतात्मक रूप से प्रस्तुत किया। देश की स्वाधीनता की चिंता से उपजी आर्थिक विचार परंपरा को आचार्य द्विवेदी ने आंकड़ों सहित प्रस्तुत किया। कहना न होगा कि दादाभाई नरौजी और रमेशचंद्र दत्त के आर्थिक विश्लेषण का इस अनूदित पुस्तक पर गहरा प्रभाव था। रामविलास शर्मा की माने तो संपत्तिशास्त्र पूर्ववत् हुए विश्लेषणों का ही आत्मसातीकरण है। आचार्य द्विवेदी ने कुछ आंकड़े और साहित्यिक भाषा का अलंकरण कर इसे और जनता के करीब कर दिया था। बीसवीं सदी की अनुवाद नीति का मूल मकसद जनता के मस्तिष्क को आंदोलित कर स्वतंत्रता की ओर अग्रसर करना ही प्रमुख रूप से था। आचार्य द्विवेदी का अनुवाद-कर्म उसमें पूरी तरह कामयाब रहा।


    लार्ड मैकाले ने जिस सभ्यता-असभ्यता के द्वेषपूर्ण राग से भारत के सम्पूर्ण प्राचीन ज्ञान को यूरोप की एक अलमारी के बराबर भी नहीं माना था, उसी द्वेषपूर्ण अनुराग से ब्रिटिश इतिहासकारों ने भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति को बीसवीं सदी में भी तुच्छ सिद्ध करने का पूरा प्रयास किया। भारतीयों के भोले मन पर इन कुटिलों ने इस प्रकार अधिकार जमाया था कि भारतीयों की सोच-समझ, आचरण और व्यवहार सब अंग्रेजीपन के होते चले गए। जिसका परिणाम यह हुआ कि भारतीय लंबी पराधीनता के घेरे में धंसते गए। ‘सम्मोहन चित्त विजय’ का पूरा इतिहास सखाराम गणेश देउस्कर ने ‘देश की बात’ अनूदित पुस्तक में मार्मिक रूप से उद्धृत किया है। देउस्कर जी जानते थे कि अंग्रेजों के चित्त विजय के अभियान के कारण भारतवासियों में देश प्रेम की भावना, स्वाधीनता की चेतना और आत्मशक्ति का पतन हो रहा था, इन गुणों के अभाव में स्वाधीनता आन्दोलन सफल नहीं हो सकता था; इसीलिए उन्होंने चित्त-विजय के उपनिवेशवादी अभियान का विश्लेषण और विरोध किया।6


    सभ्यता संवरण का मोह जितना लंबा चला भारत पराधीनता की बेड़ियों उतना जकड़ता गया। सभ्यता सुधार के नाम पर अंग्रेजों ने भारतीय भाषाओं, साहित्य, इतिहास, संस्कृति यहाँ तक कि उनके पहनावे-ओढ़ावे तक में अंग्रेजीपन लाने में वे कामयाब हुए। भारतेंदु मंडल के कवियों ने इसे शोभापूर्ण और व्यंग्यात्मक ढंग से खूब वर्णित किया है –

“जग जाने इंग्लिश हमें, वाणी वस्त्राय ईजोई।
मिटे बदन का स्याम रंग, जनम सफल तब होई।। ”7


    बीसवीं शताब्दी की अनूदित रचनाओं में सभ्यता-विमर्श पर व्यापक परिचर्चा हुई है। सभ्यता-संस्कृति ही वे पहलू थे जिनका सीधा संबंध भारतीयों के मनोमस्तिष्क को प्रभावित करता था। आत्मस्वाभिमान और स्वाधीनता के बीज का प्रस्फुटन सभ्यता-विमर्श के देशीय पहलू से निकलने वाला था। भारतीय अनुवादकों ने समय की नब्ज को समझते हुए भारतीयों के मनोबल को बढ़ाने के लिए और अंग्रेजों के फैलाए झूठ का पर्दाफाश करने के लिए भारतीय सभ्यता को अतिरंजित हद तक वर्णित किया। संपत्तिशास्त्र की भूमिका में आचार्य द्विवेदी ने लिखा है- “कभी भारत सोने की चिड़िया कहलाता था। भारतवर्ष की शस्य-श्यामल धरती में इतनी बरकत थी कि सम्पूर्ण संसार का पालनहार हमारा देश था। हमारी चीजें उन्नत किस्म की थीं, हमसे व्यापार करने के लिए विदेशी हमेशा उत्सुक रहते थे... चहुंमुखी दृष्टि से भारत संभ्रांत और सुखी था। पिछले सौ सालों में देश की दुर्दशा बद से बद्तर हुई है।”8


    महात्मा गांधी का ‘हिन्द स्वराज’ सभ्यता-विमर्श का ही मूल विवेचन है। महात्मा गांधी ने अंग्रेजी सभ्यता में फंसे भारतीयों पर व्यंग्य करते हुए लिखा है- “नींद में आदमी जो सपना देखता है, उसे वह सही मानता है। जब उसकी नींद खुलती है तभी उसे अपनी गलती मालूम होती है। ऐसी ही दशा सभ्यता के मोह में फंसे आदमी की होती है।”9 जिस अंग्रेजी सभ्यता के गुणों के बल भारतीयों को जंगली और असभ्य कहकर उनके मनोबल को तोड़ने का कार्य जारी था, गांधी जी ने उसी सभ्यता की असलियत हिन्द स्वराज में सबके सामने खोल के रख दी। “मेरी पक्की राय है कि हिन्दुस्तान अंग्रेजों से नहीं बल्कि आजकल की सभ्यता से कुचला जा रहा है। शरीर का सुख कैसे मिले, यही आज की सभ्यता ढूंढती है; और यही देने की वह कोशिश करती है। यह सभ्यता तो अधर्म है और यूरोप में इतने दरजे तक फैल गयी है कि वहाँ के लोग आधे पागल जैसे देखने में आते हैं। यह शैतानी सभ्यता है।”10 हिन्द स्वराज के बीस छोटे-छोटे अध्यायों में गांधी जी ने उसी सभ्यता को खूब आड़े हाथों लिया जिसे अंग्रेज अपनी उपलब्धि बताते थे। पश्चिमी सभ्यता के भव्य चमक-दमक के पीछे छिपी भयावह त्रासदी से गांधी जी सतर्क थे। वो जानते थे कि यह कभी भी घटने वाली है। जीने की त्वरा और भोग की लिप्सा से ग्रस्त इस सभ्यता के पास ठहराव नहीं है। नीति और अनीति का ख्याल किये बिना मनुष्य मात्र के दोहन के संसाधनों को इकट्ठा करने की जल्दी आज के तथाकथित सभ्य राष्ट्रों में है। भौतिक साधनों से लेस इस सभ्यता में विज्ञान का चमत्कार, सफलता के दावे और युद्ध की विभीषिका के अलावा संसार को देने के लिए कुछ भी नहीं है। गांधी जी इसी सभ्यता से प्रभावित भारतीय युवाओं को देशहित में जाग्रत करने का पूरा जोर लगाते हैं। वे भारत को अंग्रेजों की साजिशों से बार-बार आगाह करते हैं। उनके अनुसार हिन्दुस्तान की सच्ची सभ्यता वहीं है जो हजारों वर्षों से गंगा की तरह निर्मल रूप से प्रवाहमान है। “मैं मानता हूं कि जो सभ्यता हिन्दुस्तान ने दिखाई है, वह श्रेष्ठ है। जो बीज हमारे पुरखों ने बोये हैं, उनकी बराबरी कर सके ऐसी कोई चीज देखने में नहीं आई। रोम मिट्टी में मिल गया, ग्रीस का सिर्फ नाम ही रह गया, मिस्र की बादशाहत चली गई, जापान पश्चिमी शिकंजे में फंस गया और चीन का कुछ कहा नहीं जा सकता। लेकिन गिरा-टूटा जैसा भी हो, हिन्दुस्तान आज भी अपनी बुनियाद में मजबूत है।”11


    गाँधी जी नीति के बल को हिन्दुस्तान की सभ्यता का आधार मानते हैं। पश्चिम की सभ्यता अनैतिक है, निरीश्वरवादी है, हानिकारक है। इसीलिए गाँधी जी चाहते हैं कि अपनी सभ्यता में श्रद्धा रखकर उससे वैसे ही चिपटे रहें, जैसे बच्चा अपनी माँ से चिपटा रहता है। भारत की स्वाधीनता और राष्ट्रीय एकता का सूत्र सभ्यता संवरण से ही निकलेगा। भारतीय सभ्यता और संस्कृति की श्रेष्ठता सिद्ध करने का दौर पूरे स्वाधीनता आन्दोलन में छाया रहा। मैथिलीशरण गुप्त ने मुद्दसे हाली का हिंदी आत्मसातीकरण करते हुए भारत भारती (1912) की रचना की। यह महाकाव्य विशुद्ध रूप से भारतीय सभ्यता और संस्कृति का उत्कृष्ट गुणगान है।

“यह पुण्य भूमि प्रसिद्ध है, जिसके निवासी आर्य हैं।
विद्या कला कौशल्य सबके, जो प्रथम आचार्य हैं।।
संतान उनकी आज यद्यपि, हम अधोगति में पड़े।
पर चिह्न उनकी उच्चता के, आज भी कुछ हैं खड़े।। ”12


    इस तरह बीसवीं सदी के आरम्भ से ही विभिन्न राष्ट्रीय मुद्दों पर खुलकर लिखने और अनुवाद करने की पद्धति विकसित हो चुकी थी। राष्ट्र को लेकर विभिन्न आयामों में सोचा जाने लगा था। अब राष्ट्र चिंतन की प्रक्रिया, एकत्रित होकर जन राष्ट्रवाद की तरफ मुड़ चुकी थी। उस समय के जन राष्ट्रवाद का एकमात्र लक्ष्य स्वाधीनता ही था।


    स्वाधीनता आन्दोलन के दौरान आम जनता को एकजुट करना तथा उनमें स्वाधीनता के लिए नया जोश जगाना आसान नहीं था। ब्रिटिश सरकार की दमनकारी नीतियों ने इसे और मुश्किल बना दिया था। बीसवीं सदी के आरम्भ से ही तमाम बड़े नेताओं को सरकार पहले ही चिह्नित कर चुकी थी। ऐसे समय में आवश्यक था कि अन्य माध्यमों से लोगों को स्वाधीनता के प्रति जागरूक किया जाए। बीसवीं सदी के आरंभिक दो दशकों को ध्यान से देखें तो हम पाते हैं कि विविध कलाओं ने जन चेतना तथा राष्ट्र की छवि निर्मित करने में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। उसमें भी साहित्यिक और अन्य विचारणीय पुस्तकों ने जनता की भावनाओं को सही दिशा प्रदान करते हुए राष्ट्र प्रेम के लिए प्रेरित करने में अहम भूमिका निभाई।


    स्वाधीनता आन्दोलन की मूल भावनाओं को समस्त उत्तर भारत में फैलाने में हिंदी अनूदित पुस्तकों का उल्लेखनीय योगदान रहा है। समग्रता में कहें तो स्वाधीनता आन्दोलन का प्रमुख संवाहक अनुवाद ही था। बंकिमचंद्र चटर्जी, तारानाथ बंदोपाध्याय, माइकल मधुसूदन, रविंद्रनाथ टैगोर जैसे कई बांग्ला रचनाकारों के राष्ट्रीय विचारों से आज हम परिचित हैं तो उसका श्रेय अनुवाद को ही जाता है। स्वाधीनता आन्दोलन की प्रेरणा ग्रन्थ आनंदमठ और उसमें उल्लेखित ‘वन्दे मातरम्’ गीत की प्रसिद्धि का आधार भी अनुवाद ही है। देशेर कथा जैसी संवेदनात्मक एवं विमर्शकारी पुस्तक ने अगर उत्तर भारत में पराधीनता के प्रति नया दृष्टिकोण बनाया तो उसका मूल कारण भी अनुवाद ही है। महावीर प्रसाद द्विवेदी, सखाराम गणेश देउस्कर, गणेशशंकर विद्यार्थी, विष्णु चिपलूनकर, महात्मा गाँधी, प्रेमचंद, निराला जैसे विद्वानों के राष्ट्रीय विचारों से अगर हम आज परिचित हैं तो इसका श्रेय भी अनुवाद को ही जाता है। भारत के प्राचीन ज्ञान एवं विश्व भर के नए ज्ञान-विज्ञान से स्वाधीनता आन्दोलन को जो प्रेरणा मिली उसके पीछे अनुवाद की महती भूमिका है। भारत के राष्ट्रीय आन्दोलन में शेक्सपियर, मेक्समूलर, हर्बर्ट स्पेंसर, विक्टर ह्यूगो, आस्कर वाइल्ड, जॉन स्टुअर्ट मिल जैसे पश्चिमी विचारकों के साहित्य और चिंतन ने क्रांतिकारी आंदोलनों को खूब हवा दी। गणेश शंकर विद्यार्थी का प्रताप में छपने वाली रूपांतरित विदेशी घटनाओं को पढ़-पढ़कर देश का युवा स्वाधीनता आन्दोलन में शामिल होने के लिए प्रेरित हुआ। स्वाधीनता आन्दोलन की प्रत्येक गतिविधि पर अनुवाद की गहरी छाप थी। स्वाधीनता आन्दोलन ने जैसे-जैसे गति पकड़ी, अनुवाद की जिम्मेदारी और बढ़ी। उस दौर के हिंदी अनुवादकों ने बड़ी मुस्तैदी से स्वाधीनता के गुलदस्ते में राष्ट्र की छवि निर्मित करने का प्रयास किया। इसको सही समय पर परवरिश तथा दिशा प्रदान की। यही राष्ट्र की संकल्पना आगे जाकर राष्ट्रीयता के रूप में परिवर्तित होकर अंततः स्वाधीनता के लक्ष्य तक पहुँचने में सहायक सिद्ध हुई।


निष्कर्ष 

स्वाधीनता आन्दोलन के दौरान अनूदित हिंदी रचनाओं में राष्ट्र चिंतन के विभिन्न पहलुओं का समावेश है। एक किसान के मस्तिष्क में ऐसे राष्ट्र की कल्पना थी जिसमें लगान का भार न हो तथा फसलों के उचित दाम मिल सकें। एक व्यापारी के लिए राष्ट्र का मतलब बिना भेदभाव रहित व्यापार करने की सुविधा से था। सैनिकों के लिए राष्ट्र का मतलब बिना भेदभाव किये मूलभूत सुविधाओं की प्राप्ति से था। समाज के वंचित वर्ग ऐसे राष्ट्र की परिकल्पना चाहते थे जिसमें सामाजिक रूप से बराबरी का भाव हो। छात्रों का राष्ट्र चिंतन बिना भेदभाव किये शिक्षा प्राप्ति से जुड़ा हुआ था। उस समय के राजनेताओं के लिए राष्ट्र चिंतन का मतलब राजनीतिक अधिकारों की प्राप्ति से था। कहने का मतलब स्वाधीनता आन्दोलन के दौरान राष्ट्र चिंतन के विभिन्न स्वरूप थे। समाज के विभिन्न वर्गों में राष्ट्र को लेकर अलग-अलग मान्यताएँ प्रचलित थीं। अगर कुछ समान था तो वह थी ‘पराधीनता’। ब्रिटिश गुलामी के नागपाश में पूरा भारतीय समाज जकड़ा हुआ था। इनके समस्त दुःख पराधीनता के अभिशाप से प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से जुड़े हुए थे। इससे मुक्त होकर ही समाज का प्रत्येक वर्ग उन्नति की राह पर आगे बढ़ सकता था। ऐसे चुनौतीपूर्ण समय में राष्ट्र चिंतन के विभिन्न पहलुओं को प्रकाश में लाने तथा उन्हें फैलाने में अनुवाद की महत्त्वपूर्ण भूमिका रही। ब्रिटिश साम्राज्य की करतूतों को आम जनमानस से परिचित कराने में उस समय के अनुवादकों ने भारतीय तथा विदेशी दोनों ही स्रोतों का प्रयोग किया तथा स्वाधीनता से संबंधित ज्ञान को प्रकाश में लाने में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया।


    भारत के राष्ट्रीय चिंतन को समग्रता में प्रसारित करने, जनता को स्वाधीनता के लिए आंदोलित करने और देश में एकता और अखंडता का सौहार्दपूर्ण माहौल तैयार करने में अनुवाद की मुख्य भूमिका रही है। मैनेजर पाण्डेय के शब्दों में कहें तो “स्वाधीनता आन्दोलन की नींव और रीढ़ दोनों अनुवाद ही था। भारत के राष्ट्रीय आन्दोलन का सम्पूर्ण स्वरूप उस दौर की अनूदित रचनाओं में प्रखर रूप से मुखर है।”13 आज़ादी की प्राणवान ऊर्जा का मुख्य संवाहक अनुवाद रहा है।


    अकादमिक दुनिया में अनुवाद को लेकर विभिन्न भ्रांतियाँ फैली हुई हैं। उनसे ऊपर उठकर अनुवाद के विविध पक्षों पर विचार करना आवश्यक है ताकि अनुवाद अध्ययन का विहंगम परिदृश्य स्थापित हो और अनुवाद सार्थकता का उचित मूल्यांकन किया जा सके।


सन्दर्भ सूची

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-मोहनपुरी

सहायक प्राध्यापक हिंदी
प्रधानमंत्री कॉलेज ऑफ एक्सीलेंस
शास. स्नातकोत्तर महाविद्यालय राजगढ़
मध्यप्रदेश। पिन - 465689



 

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