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शाेध आलेख : हिंदी उपन्यासों में किन्नर जीवन की अभिव्यक्ति

सारांश

साहित्य और समाज का परस्पर संबंध होता है। कॉडवेल का कथन है कि “साहित्य का मोती समाज की सीपी में ही जन्म लेता है।”1 अतः समाज में जो कुछ भी घटित होता है, साहित्य में उसकी अभिव्यक्ति होती है। कहा जाता है कि समाज में जो कुछ भी व्याप्त है वह साहित्यकार की संवेदना, चिंता और चिंतन का विषय होता है। लेकिन जब हम हाशिए के समाज की बात करते हैं तो साहित्य की प्रासंगिकता कटघरे में आ जाती है। साहित्य-सर्जना आदिकाल से हो रही है, लेकिन जिन हाशिए के समाज की समस्याओं को आज के दौर में उठाया जा रहा है, अगर उन पर दृष्टिपात डालें तो साहित्यकार की पैनी दृष्टि का भेद खुलने लगता है। यदि साहित्यकारों की दृष्टि इतनी ही पैनी थी तो उन समस्याओं को पूर्व में क्यों नहीं उठाया गया? क्या पहले स्त्री, दलित, आदिवासी, किन्नर आदि की समस्याएँ नहीं थीं? इससे एक बात तो स्पष्ट हो जाती है कि साहित्य में भी उन्हीं को वरीयता मिलती है जिनकी समाज में साख हो। क्योंकि अगर ऐसा नहीं होता तो आज हमारे पास इस विपुल हिंदी साहित्य में हाशिए के समाज के भी दुःख–दर्द, उनकी समस्याएँ, उनकी आवश्यकताओं को केंद्र में रखकर लिखा गया साहित्य भी उपलब्ध होता। आश्चर्य की बात है कि जिस देश की विविध भाषाओं के साहित्य में उसके स्वर्णिम अतीत की, पौराणिक गाथाओं की, नायक-नायिकाओं के भाव-भंगिमाओं, उनके केलि-कथाओं का अकूत वर्णन मिलता है, यहाँ तक कि पशु-पक्षियों, पेड़-पौधों, जानवरों तक के वर्णन मिलते हों, उसी साहित्य में आज के दौर में हाशिए के समाज द्वारा उठाए गए वाजिब प्रश्नों, उनके हल के लिए कोई स्थान नहीं था। लेकिन आज जब हाशिए के समाज के लोग स्वयं अपने अधिकारों के प्रति जागरूक हो रहें हैं और अपने अधिकारों के लिए स्वयं लड़ रहे हैं तो साहित्य में भी उनकी समस्याओं को केंद्र में रखकर लिखा जाने लगा है।


    आज का दौर अस्तित्व की पड़ताल का दौर है। उत्तर-आधुनिक दौर में हाशिए के अस्मिता समूहों ने अपने अस्तित्व और अधिकारों को लेकर जिस तरह आन्दोलनकारी संघर्ष चलाया है, उसने मुख्यधारा की केन्द्रीय राजनीति में स्त्री, दलित, आदिवासी, अल्पसंख्यकों के साथ-साथ एक ऐसे समूह को भी जगह दिलाई है जिसके इंसानी वजूद को लंबे समय तक इसलिए नकारा जाता रहा है क्योंकि जेंडर और जाति के श्रेणीबद्ध विभाजन में इनकी गणना कहीं नहीं होती है और इसी के चलते समाज से लगभग बहिष्कृत और अभिशप्त जीवन जीने को मजबूर है। स्त्री-पुरुष से इतर यह वह समाज है जिसे ‘थर्ड जेंडर’ या ‘हिजड़ा’ समाज कहा जाता है। भारतीय समाज में हिजड़ा समुदाय के आगमन और आशीर्वाद को मांगलिक अवसरों पर शुभ माना जाता है, पर विडंबना यह है कि उसके वजूद को किसी अशुभ वस्तु की तरह नकार दिया जाता है।


    यदि हिंदी साहित्य में थर्ड जेंडर समुदाय की अभिव्यक्ति की बात की जाए तो सन् 2002 (यमदीप-नीरजा माधव) से पूर्व उनके जीवन और संघर्ष को आधार बनाकर कोई स्वतंत्र साहित्य नहीं मिलता है जबकि उससे पूर्व ही (1994) थर्ड जेंडर समुदाय को वोट करने का अधिकार मिल चुका था। जिसके परिणामस्वरूप सन् 1998 में शबनम मौसी नामक किन्नर मध्य प्रदेश के शहडोल जिले के सोहागपुर विधानसभा क्षेत्र से विधायक भी बन चुकी थीं, जो किन्नरों के अपने संघर्ष का ही परिणाम था। प्रस्तुत शोध आलेख में हिंदी उपन्यासों में किन्नर जीवन का अवलोकन प्रस्तुत किया गया है।


बीज शब्द : किन्नर, अस्मिता, विमर्श, संवैधानिक अधिकार, असमानता, लैंगिक भेदभाव, शोषण, मुख्यधारा, सामाजिक विडंबना इत्यादि।


शोध आलेख 

हिंदी साहित्य लम्बे समय से ‘थर्ड जेंडर’ यानी ‘किन्नरों’ के लिए बंजर सा रहा है। जिस तरह अन्य विषयों को साहित्य में स्थान मिला है उसके समक्ष लिंग निरपेक्ष एवं समाज से बहिष्कृत किन्नर समुदाय साहित्य का विषय नहीं बन पाए। यह विडंबना है कि सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक क्षेत्रों के साथ ही कला और साहित्य में भी इस वर्ग की उपेक्षा की गई है। जहाँ कहीं भी इनका उल्लेख हुआ भी है तो बहुत हल्के और नकारात्मक प्रसंगों में हुआ है। आज जिस विमर्शीय समय में हम रह रहे हैं वहां कुछ भी स्थिर नहीं है, न वाद, न विवाद और न ही संवाद। ऐसे समय में जब हाशिए के विषय मुख्यधारा में आ रहे हैं, उनके मूलभूत अधिकारों पर बात हो रही है और विविध दृष्टियों से उन पर चर्चा की जा रही है, फिर भी एक मलाल रह जाता है कि थर्ड जेंडर पर उतनी बातें क्यों नहीं हो पायी है जितनी अब तक होनी चाहिए थी। आज भी इस विषय पर साहित्य की बात की जाय तो वह उँगलियों पर गिनने लायक मात्र है। इधर कुछ समय से साहित्य में इसकी आमद देखी जा सकती है। कुछेक साहित्यकार हैं जिन्होंने बेबाकी से इस समाज के यथार्थ को हमारे सामने लाने का प्रयास किया है। साहित्य की विविध विधाओं में यह प्रयास देखा जा सकता है।


    किन्नर जीवन से संबंधित अब तक हिंदी में जितनी भी साहित्य-सर्जना हुई है उनमें सबसे समृद्ध कथा साहित्य ही रहा है। हिंदी साहित्य में अब तक किन्नर जीवन की समस्याओं पर आधारित जो भी उपन्यास लिखे गए हैं उनमें ये आठ उपन्यास प्रमुख और सर्वाधिक चर्चित रहे हैं– नीरजा माधव कृत ‘यमदीप’ (2002), अनुसूया त्यागी कृत ‘मैं भी औरत हूँ’ (2005), प्रदीप सौरभ कृत ‘तीसरी ताली’ (2011), महेंद्र भीष्म कृत ‘किन्नर कथा’ (2011) एवं ‘मैं पायल’ (2016), निर्मला भुराड़िया कृत ‘गुलाम मंडी’ (2014), चित्रा मुद्गल कृत ‘पोस्ट बॉक्स नं. २०३ नाला सोपारा’ (2016) तथा भगवंत अनमोल कृत ‘जिंदगी 50-50’ (2017) । इन्हीं उपन्यासों को केंद्र में रखकर नीचे की जा रही है।


यमदीप 

सांस्कृतिक दृष्टि संपन्न लेखिका नीरजा माधव कृत ‘यमदीप’ उपन्यास हिंदी साहित्य में अब तक ज्ञात प्रकाशित उपन्यासों में पहला स्वतंत्र उपन्यास माना जा सकता है, जिसमें किन्नर जीवन को कथा का आधार बनाते हुए उनके संवेदनात्मक जीवन को जन-सामान्य के समक्ष प्रस्तुत करने का सराहनीय कार्य किया गया है। नीरजा माधव ने ‘तीसरे लिंग’ की समूची त्रासदी को, उसके प्रति समाज की उपेक्षा और क्रूरता को, उस उपेक्षा से उपजे उसके दुःख, क्षोभ और आक्रोश तथा इस सबके बावजूद उसकी सदाशयता को, उसकी मानवीय करुणा और उसकी निर्भीकता को व्यंजित करने के लिए एक बहुत ही सार्थक प्रतीक चुना है–‘यमदीप’। क्या है यह ‘यमदीप’? दीपावली की पूर्व संध्या में एक दीये को यम से संवाद करने के लिए उठाकर घर से बाहर ‘घूर’ (कूड़ा-करकट) पर रख दिया जाता है– वह दीपक ‘यमदीप’ कहलाता है। नीरजा माधव लिखती हैं– “नहीं छूटती उसके प्रदीप्त होने पर फुलझड़ियाँ और पटाखे, नहीं होती पूजा-अर्चना या चढ़ते थाल पर भोग, पर काली रात के विरोध में वह टिमटिमाता रहता है चुपचाप, निःशब्द। सूखता रहता है अंतसरस बूँद-बूँद।”2


    ‘यमदीप’ को घूरे पर रख देने के बाद उधर मुड़कर भी नहीं देखा जाता है। नीरजा माधव इसी घूर के दीये की तुलना किन्नर समुदाय के लोगों से करती हैं। क्योंकि घूर के दीये के समान ही ‘तीसरे लिंग’ में जन्में बच्चे को निर्वासित करने के बाद कभी उस बच्चे की खोज-खबर भी नहीं ली जाती। ‘यमदीप’ उपन्यास एक मेजर के घर तीसरी संतान के रूप में जन्मी ‘नंदरानी’ की जीवन–यात्रा को चित्रित करती है। माँ की लाडली का ‘नंदरानी’ से ‘हिजड़ा नाजबीबी’ में रूपांतरण अत्यंत हृदयविदारक है। लेखिका ने नंदरानी के माध्यम से परिवार, शिक्षण संस्थाएं, धर्म के ठेकेदार, मीडियाकर्मी, पुलिस, राजनेता आदि सबकी भूमिका की निर्मम पड़ताल की है।


    ‘यमदीप’ उपन्यास में मेजर के घर में जन्मी नंदरानी वस्तुतः किन्नर है। जिसके जन्म लेने से परिवार के सिर पर जैसे दुखों का पहाड़ टूट पड़ा हो। थर्ड जेंडर के बारे में फैली नकारात्मक मानसिकता के कारण ही नंदरानी को घर में छिपाकर रखा जाता है। लेकिन जन्म के चार-पांच सालों बाद उसकी एक कटु सच्चाई लोगों के सामने विद्यालय में आ ही जाती है। घर-परिवार अपनों के बीच परायापन का एहसास नंदरानी के लिए जब असह्य हो जाता है तब वह उस तथाकथित घर को सदा के लिए त्यागकर ‘हिजड़ा जमात’ में शामिल हो जाती है। यह उपन्यास नाजबीवी की त्रासदी को चित्रित तो करता ही है साथ में ऐसे माता-पिता और परिवार को भी कठघरे में खड़ा करता है जो अपनी संतान को केवल इसलिए त्याग देता है क्योंकि वह तथाकथित जेंडर की अवधारणा के अनुकूल नहीं है। ‘यमदीप’ का पाठ यह भी स्पष्ट कर देता है कि किन्नर समाज पुलिस तंत्र द्वारा किए जाने वाले यौन हिंसा के भी शिकार होते हैं। केवल पुलिस ही नहीं ‘सेक्स’ की भूख से पीड़ित कई-कई पुरुषों के साथ उन्हें यौन-संबंध बनाने पड़ते हैं। आजीविका के अभाव में वे देह व्यापार करने को भी विवश होते हैं। एकाधिक पुरुषों के साथ संबंध बनाने के कारण वे कई भयंकर रोगों से भी ग्रसित हो जाते हैं।


    उपन्यास के मंच पर पर्दा उठते ही जिस मार्मिक घटना से पाठक का साक्षात्कार होता है वह सामान्य मनुष्य समाज की हृदयहीनता तथा स्वार्थ वृत्ति का वीभत्स प्रदर्शन करने वाली तथा नाजबीवी, शबनम, चमेली, मंजू आदि के माध्यम से किन्नर समुदाय में रची-बसी करुणा, संवेदनशीलता आदि के द्वारा उनकी मनुष्यता का अभिषेक करनेवाली है। सड़क किनारे प्रसव पीड़ा से कराहती एक पगली! न जाने किस हैवान की काम वासना का शिकार! आस-पड़ोस का सभी समाज उसकी प्राणान्तक चीखों को नजरंदाज कर आगे बढ़ जाता है। अंततः संवेदनशील हिजड़ों की टोली द्वारा उसका प्रसव कराया जाता है। कन्या को जन्म देकर पगली के मर जाने के कारण हिजड़ों के ऊपर ही उस कन्या के पालन-पोषण का संकट आ जाता है लेकिन वहां पर उपस्थित लोगों द्वारा उस कन्या के पालन-पोषण के लिए राजी न होने के कारण अंततः नाजबीबी यह कहते हुए उसे अपने साथ ले जाने का निर्णय करती है कि “अब कोई पूछनहार नहीं इसका तो क्या हम भी छोड़ जाएंगे? अरे हम हिजड़े हैं, हिजड़े...इन्सान हैं क्या जो मुंह फेर लें।”3 लेकिन नाजबीबी का यह संकल्प इतना आसान नहीं था। पुलिस को खबर पहुंचते ही उस बच्ची (सोना) को हिजड़ों से छीनकर नारी उद्धार गृह भेज दिया जाता है। लेकिन इस नारी उद्धार गृह की सच्चाई यह है कि मजबूर, मासूम लड़कियों को देह व्यापार में धकेल दिया जाता है और उसका विरोध करने पर हत्या तक कर दी जाती है। एक अखबार द्वारा यह खबर मिलते ही नाजबीबी सोना को उस कुचक्र से मुक्ति दिलाने के लिए कमर कस लेती है।


    उपन्यास के अंत में ‘मानवी’ नामक पात्र की प्राण रक्षा के लिए नाजबीबी साहसिक प्रयास करती है। लेखिका नीरजा माधव ने उपन्यास का अंत मानवी के उस संकल्प के साथ किया है जिसमें वह भ्रष्ट राजनीतिज्ञ मन्ना बाबू के विरोध में नाजबीबी को चुनाव में खड़ा करना चाहती है। डी.एम. आनन्द का सहयोग उसे प्राप्त है ही। इस प्रकार, उपन्यास का अंत तीनों लिंगों के सहयोगी प्रयास की मधुर कल्याणकारी संकल्पना के साथ होता है। जिसमें आनंद ‘पुल्लिंग’ के प्रतिनिधि हैं, मानवी ‘स्त्रीलिंग’ की और नाजबीबी ‘तीसरे लिंग’ की। स्त्री-पुरुष के अद्वैत की बात तो साहित्य में बार-बार दोहराई गई है, मगर इस सहयोगी-संकल्पना में कभी भी ‘तीसरे लिंग’ को शामिल नहीं किया गया था। उनके सम्मिलन के बिना ‘सम्पूर्ण एकता’ का दावा कितना झूठा, कितना अधूरा था। नीरजा माधव के ‘यमदीप’ के माध्यम से मानों साहित्य ने इस त्रुटि का परिमार्जन कर लिया। नाजबीबी, मानवी और आनन्द का त्रिक सम्पूर्ण मानवता का प्रतीक है। इन तीनों के सहयोग और परस्परता में ही समय के संवादी स्वर गूंजेंगे–नीरजा माधव की यह सुन्दर और मधुर कल्पना शीघ्र ही पूरी तरह साकार हो, तभी तो ‘यमदीप’ की रचना सार्थक होगी।


मैं भी औरत हूँ

किन्नर जीवन से मुक्ति, सम्मानपूर्ण जीवन-संबंधी सामाजिक, चिकित्सकीय, धार्मिक अवधारणाओं एवं तथ्यात्मक सत्यों पर आधारित है। डॉ. अनुसूया त्यागी का उपन्यास ‘मैं भी औरत हूँ’ (2005) का कथानक दो लड़कियों के जीवन के विसंगतिपरक पक्ष को लेकर बुना गया है। उपन्यास का कथ्य रोशनी और मंजुला की जन्मजात शारीरिक विकृतियों पर केन्द्रित है। उनकी ये विकृतियां ना परिवार को मालूम होती है ना ही स्वयं उन्हें ही। रोशनी के साथ बचपन में सुबह घूमने जाते समय घटा एक हादसा, जिसमें कुछ मनचले उसके साथ बदतमीजी का प्रयास करते हैं उसे अपनी शारीरिक कमजोरियों का एहसास होता है। उनके कहे शब्द ‘अरे! यह तो हिजड़ा है’, उसके बाल-मन पर गहरी चोट करते हैं। उसकी बड़ी बहन मंजुला के समय पर मासिक स्राव नहीं आने पर उसकी माँ अपनी दोनों बेटियों को डॉक्टर के पास ले जाती हैं और वहीं पहले-पहल उनके समक्ष अपरिपक्व जननांगों की बात सामने आती है। डॉक्टर उन्हें ऑपरेशन और प्लास्टिक सर्जरी की सलाह देती हैं, जिसके बाद वे वह तमाम सुख भोग सकेंगी जिसे एक साधारण व स्वस्थ महिला भोगती है। रोशनी का केस कुछ जटिल होता है क्योंकि उसका गर्भाशय ही नहीं बना होता है। रोशनी इस सच को जानकर आहत होती है। रोशनी की शारीरिक तौर पर कमी को ऑपरेशन द्वारा कृत्रिम योनि बनाकर तो पूरा कर दिया गया था लेकिन गर्भाशय की कमी की बात ने उसके जीवन को मातृत्व सुख से वंचित कर रखा था। नामी कंपनी की सी.ई.ओ. रोशनी अपनी मेहनत और लगन से सफलता के कीर्तिमान स्थापित करती है। इन सबके बावजूद एक अकेलापन और निरर्थकता बोध उसके जीवन में घर कर जाता है। लेकिन वह अपनी शारीरिक अक्षमता के चलते किसी की दया का पात्र नहीं बनना चाहती। इस बीच रोशनी के जीवन में कई लड़के आए लेकिन उसके जीवन के तल्ख़ यथार्थ को जानकर उससे दूरी ही बना लेते। अंत में ओंकार, जो उसी कंपनी की दूसरी शाखा का वी.पी. है, से विवाह कर, एक बच्ची को गोद लेकर सुख-पूर्वक जीवन व्यतीत करती है। अन्ततः उपन्यास की नायिका के इस कथन से कि इस मंच की सबसे बड़ी नायिका मैं, मैं रोशनी पटेल हूँ, से उपन्यास का सुखद अंत होता है।


    समाज में शारीरिक विकृतियों के प्रति अनुदार दृष्टि ही ‘मैं भी औरत हूँ’ उपन्यास के कथानक की प्रेरणा है। अनुसूया त्यागी दो ऐसी जिंदगियों की समस्याओं को इस उपन्यास का आधार बनाती हैं, जो शारीरिक विकृतियों से परेशान हैं। रोशनी और मंजुला, दो चरित्रों के माध्यम से उपन्यास उनके जीवन के अनेक कटु अनुभवों को सामने लाता है। यह उपन्यास स्त्री जीजिविषा को तो दर्शाता ही है, साथ में, ऐसी परिस्थितियों से निजात पाने के लिए उन्हें हौसला भी देता है। इस तरह, इस उपन्यास में इस बात पर जोर दिया गया है कि विज्ञान मनुष्य के जीवन को सुलभ बनाता है। अनेक सामाजिक भ्रांतियों का निवारण कर वह समाज को नई दृष्टि प्रदान कर सकता है। मानवता के बरअक्स खड़ा होकर विज्ञान अनेक जिंदगियों को खुशनुमा बना सकता है।


तीसरी ताली

 किन्नर जीवन को आधार बनाकर लिखे गए उपन्यासों में प्रदीप सौरभ कृत ‘तीसरी ताली’ एक महत्त्वपूर्ण उपन्यास है। जो थर्ड जेंडर, समलैंगिक संबंधों–गे, लेस्बियन को केंद्र में रखकर लिखा गया है। यह उपन्यास इन समुदाय के लोगों की कथा बहुत यथार्थपरक तरीके से उठाता है और हमें एक वृहत्तर समुदाय से परिचित कराता है। ‘तीसरी ताली’ में जिस हाशिया पर रहने वाले लोगों को कथा के केंद्र में रखा गया है, वह उपन्यासकार की दृष्टि में- “उभयलिंगी सामाजिक दुनिया के बीच और बरक्स हिजड़ों, लौंडों, लौंडेबाजों, लेस्बियनों और विकृत-प्रकृति की ऐसी दुनिया है जो हर शहर में मौजूद है और समाज के हाशिए पर जिन्दगी जीती रहती है। ....जिसका अस्तित्व सब ‘मानते’ तो हैं लेकिन ‘जानते’ नहीं। समकालीन ‘बहुसांस्कृतिक’ दौर के ‘गे’, ‘लेस्बियन’, ‘ट्रांसजेंडर’, अप्राकृत-यौनात्मक जीवन शैलियों के सीमित सांस्कृतिक स्वीकार में भी यह दुनिया अप्रिय, अकामी, अवांछित और वर्जित दुनिया है। ...असामान्य लिंगी होने के साथ ही समाज के हाशियों पर धकेल दिए गए, इनकी सबसे बड़ी आजीविका है जो इन्हें अन्ततः इनके समुदायों में ले जाती है। इनका वर्जित लिंगी होने का अकेलापन ‘एक्स्ट्रा’ है और वही इनकी जिंदगी का निर्णायक तत्त्व है। अकेले-अकेले बहिष्कृत ये किन्नर आर्थिक रूप से भी हाशिए पर डाल दिये जाते हैं। कल्चरल तरीके से ‘फिक्स’ दिए जाते हैं। यह जीवनशैली की लिंगियता है जिसमें स्त्री लिंगी-पुलिंगी मुख्यधाराएँ हैं जो इनको दबा देती हैं। नपुंसकलिंगी कहाँ कैसे जिएंगे? समाज का सहज स्वीकृत हिस्सा कब बनेंगे?”4 इसी प्रश्नचिह्न के साथ ही लेखक कथाभूमि को एक आधार प्रदान करता है।


    ‘तीसरी ताली’ असामान्य लिंगधारियों की कथा है। इस उपन्यास में हिजड़ा होने की व्यथा बहुत मार्मिक तरीके से उकेरी गई है। गौतम साहब के घर एक बच्चे का जन्म हुआ। कुछ दिनों के अन्दर ही परिवार को पता चल जाता है कि वह किसी काम का नहीं है। बढ़ने के साथ उसका पुरुषांग विकसित नहीं हुआ। दरअसल, बच्चे में स्त्री और पुरुष दोनों के लक्षण थे। इस खबर के बाद से ही गौतम साहब उखड़े-उखड़े रहने लगे थे। इसीलिए एक दिन जब डिम्पल की मण्डली (हिजड़ों की टोली) ने उनके घर दस्तक दी तो उन्होंने दरवाजा ही नहीं खोला।


    प्रदीप सौरभ ने इस उपन्यास में एक बालक विनीत के विनीता में बदलने को बहुत मार्मिक तरीके से लिपिबद्ध किया है। समय के साथ विनीत के शरीर में जब हार्मोनल बदलाव आते हैं तो वह इन सबसे आक्रांत हो, घर से भाग जाता है और घर से भागने के बाद उसका सामना एक ऐसी गलीज दुनिया से होता है जिसकी उसने कल्पना भी नहीं की थी। तमाम मुश्किलों के बाद वह विनीता के रूप में पार्लर की दुनिया में एक बड़ा मुकाम हासिल करती है।


    इस उपन्यास में सुविमल भाई की एक अवांतर कथा भी है जो ‘गे’ हैं और जब उन्हें इसका पता चलता है तो वह ‘गे’ समुदाय के लोगों के हित के लिए आंदोलनरत लोगों में शामिल हो जाते हैं। यास्मीन और जुलेखा की कथा में लेस्बियन संबंध केंद्र में हैं। इस उपन्यास में डिम्पल, मंजू, रजा और कुछ अन्य हिजड़ों की कथा भी है। इसमें हिजड़ा समुदाय के रीति-रिवाज, उनकी परम्परा, मान्यता और संस्कार भी कथा का अंग बनकर आया है। ‘तीसरी ताली’ उपन्यास में आए हिजड़ों, गे आदि की कथा में सबसे महत्त्वपूर्ण है आर्थिक और सामाजिक चुनौतियाँ। हाशिए पर जीवन जीने के लिए अभिशप्त यह समुदाय अपनी आजीविका को लेकर परेशान हैं और सामाजिक स्वीकार्यता के लिए जद्दोजहद कर रहे हैं। इस उपन्यास के पात्रों के बहाने उपन्यासकार ने यह दिखाने की भी कोशिश की है कि आर्थिक और सामाजिक स्वतंत्रता हासिल करने के बाद यह समुदाय राजनीतिक हिस्सेदारी के लिए भी सजग हो रहा है।


किन्नर कथा

महेंद्र भीष्म कृत ‘किन्नर कथा’ उपन्यास की सबसे बड़ी विशेषता यही है कि यह एक ऐसी लड़की की कहानी के ताने-बाने पर आधारित है जो महल में जन्म लेती है, परंतु एक पूर्ण स्त्री नहीं होने के कारणवश ठाकुर जगतराज सिंह बुंदेला के द्वारा बच्ची की हत्या के लिए दीवान पंचम सिंह को सौंप दिया जाता है, जिसकी मासूमियत और भोलेपन से प्रभावित होकर पंचम सिंह किन्नरों के मुखिया तारा को पालन-पोषण के लिए समर्पित कर देता है। जिसका नाम सोना की बजाय चन्दा रख दिया जाता है और उसकी किन्नर समाज में परवरिश होती है। इस उपन्यास में किन्नर समाज के बाहर-भीतर की समस्त जानकारियों के साथ उपन्यासकार ने अपने स्तर से बेहद उपयोगी परामर्श और आवश्यक संदेश भी देने की पूरी कोशिश की है, जो प्रशंसनीय है।


    किन्नरों की सबसे बड़ी समस्या परिवार द्वारा उनका परित्याग कर देने की है। प्रत्येक हिजड़ा अभिशप्त है, अपने परिवार से बिछुड़ने के दंश से। समाज का पहला घात यहीं से उस पर शुरू होता है। अपने ही परिवार से, अपने ही लोगों द्वारा उसे अपनों से दूर कर दिया जाता है। परिवार के विस्थापन का दंश सर्वप्रथम उन्हें ही भुगतना होता है। किन्नर समुदाय मुख्यधारा के समाज से जुड़ना चाहता है। देश के विकास में वे भी अपना योगदान सुनिश्चित करना चाहते हैं।

   

    इस उपन्यास में किन्नर से संबंधित तथ्यपरक सूचनाएं और जानकारियां भी दी गई हैं। जिसके अनुसार विश्व में 30 प्रतिशत किन्नर ऐसे हैं जो मामूली ऑपरेशन द्वारा पुरुष या स्त्री बनाये जा सकते हैं। आवश्यकता है जागरूकता की, शिक्षा की। उन्हें त्यागने नहीं अपनाने की। हम उनका दर्द व उन्हें इन्सान के तौर पर समझें, न कि हिजड़े के तौर पर। इस तरह इस शोधपरक किन्नर कथा के बहाने लेखक ने उनके जीवन शैली और सामाजिक-पारिवारिक संघर्ष को बेहतरीन अंदाज में चित्रित किया है। ‘किन्नर कथा’ में इस तथ्य का भी खुलासा लेखक ने किया है कि हिजड़े के तौर पर पहचान रखने वालों में अधिकांश लोग वास्तव में हिजड़े नहीं होते बल्कि वर्तमान में बहुतेरे पुरुष भी इसी बहाने रोजी-रोटी कमाने के लिए किन्नर का रूप धारण कर सार्वजनिक स्थानों पर वसूली करते दिखते हैं। इस तरह लेखक ने ‘किन्नर कथा’ के माध्यम से किन्नरों की सामाजिक, पारिवारिक, आर्थिक, सांस्कृतिक एवं धार्मिक तमाम मुद्दों पर गंभीरतापूर्वक कलम चलाई है और पूरी ईमानदारी और निष्ठा से अपने लेखकीय दायित्व का निर्वाह किया है।


मैं पायल 

उपन्यासकार महेंद्र भीष्म द्वारा writित दूसरा उपन्यास ‘मैं पायल...’ लखनऊ की किन्नर गुरु पायल सिंह के जीवन संघर्ष पर आधारित है। यह आत्मकथात्मक उपन्यास है जिसे पायल से सुनकर उपन्यासकार द्वारा प्रस्तुत कलेवर दिया गया है। महेंद्र भीष्म इस उपन्यास के विषय में लिखते हैं– “मैं पायल...का आधार किन्नर गुरु पायल सिंह के जीवन-संघर्ष की गाथा है, जिसमें प्रत्येक किन्नर के अतीत के संघर्ष की झलक परिलक्षित होती है। विस्थापन का दंश कष्टकारी होता है, फिर वह चाहे परिवार, समाज या अपनी मिट्टी से किया हो।”5


गुलाम मण्डी

निर्मला भुराड़िया कृत ‘गुलाम मण्डी’ देह व्यापार हेतु की जाने वाली मानव तस्करी का वैश्विक आख्यान है। इसके समानान्तर मुख्य कथा के सहायक कथा के रूप में हाशिया-कृत हिजड़ों के विमर्श को भी प्रस्तुत किया गया है। उपन्यास की सृजन-प्रक्रिया, प्रेरणा और उद्देश्यों पर प्रकाश डालती हुई लेखिका ने प्रस्तावना में लिखा है कि विभिन्न देशों में आज मानव तस्करी के खिलाफ कानून बने हैं पर कुछ व्यक्ति उस कार्य को करने के लिए नए-नए रास्ते ईजाद कर ही लेते हैं। आज के ज़माने में भी इंसानों की खरीद-फरोख्त होती है, देह-व्यापार के लिए भी, बेगार के लिए भी, जिसे अब ‘ह्यूमन ट्रैफिकिंग’ या मानव तस्करी कहा जाता है। देह की ही मंत्रणा से गुजरते हुए किन्नर समुदाय की कथा को समानान्तरता देते हुए लेखिका कहती है– “बचपन से ही देखती आयी हूँ उन लोगों के प्रति समाज के तिरस्कार को, जिसे प्रकृति ने तयशुदा जेंडर नहीं दिया। इनमें इनका क्या दोष? ये क्यों हमेशा त्यागे गए, दुरदुराए गये, सताए गये और अपमान के भागी बने? इन्हें हिजड़ा, किन्नर, वृहन्नला, कई नामों से पुकारा जाता है मगर हमेशा तिरस्कार के साथ ही क्यों? आखिर ये बाकी इंसानों की तरह मानवीय गरिमा के हक़दार क्यों नहीं? बस यही प्रश्न दिमाग में था। इसलिए नॉवेल में किन्नरों के पात्र रचे गये हैं और उनके बारे में उनकी तरफ से लिखा गया है, समाज की ओर से नहीं। मुख्य कथा के समानान्तर यह कथा चलती है, बल्कि यूँ कहें एक मोड़ पर आकर उसी में घुल-मिल जाती है।”6 उपन्यास के किन्नर प्रसंग में अंगूरी मुख्य भूमिका में है। अंगूरी, हमीदा व रानी जैसे किन्नरों की कथा के माध्यम से लेखिका हिजड़ा समाज के सांस्कृतिक परम्पराओं, रीतियों, रूढ़ियों की गहरी पड़ताल करती है। इसके साथ ही रामायण, महाभारत की कथा के माध्यम से उनके इतिहास पर भी नजर दौड़ाया है।


पोस्ट बॉक्स नं. 203 नाला सोपारा 

सन् 2016 में प्रकाशित इस उपन्यास में चित्रा मुद्गल ने समाज में रहने वाले एक ऐसे वर्ग की त्रासदी को मार्मिकता से उभारने का प्रयास किया है जिसे समाज का हिस्सा माना ही नहीं जाता। लेखिका ने किन्नर समुदाय को इस उपन्यास का विषय बनाया है। यह उपन्यास विनोद उर्फ़ बिमली और उसकी बा बंदना बेन के माध्यम से हिजड़ा समाज व उसके त्रासदीपूर्ण जीवन का बड़ी ही मार्मिकता से बयां करता है। एक मध्यमवर्गीय परिवार में जन्में विनोद के हिजड़ा होने का पता हिजड़ों को लग जाता है। अंततः वे विनोद को अपनी टोली में शामिल कर ही लेते हैं लेकिन विनोद चोरी-छिपे अपनी बा से पोस्ट बॉक्स के जरिये से बात करता है। इन पत्रों के माध्यम से विनोद अपने जीवन की त्रासदियों, अपने संघर्ष, अपनी तकलीफों को माँ से साझा करता है। कभी अतीत में बिताए मधुर पलों को याद करता है तो कभी भविष्य की योजनाएं बनाता है और कभी अपने जीवन की निरर्थकता को प्रकट करता है। विनोद लिंगदोषी होने के बावजूद भी हार नहीं मानता है। वह शिक्षा ग्रहण करने के साथ-साथ कंप्यूटर टाइपिंग का कार्य सीखता है और अपने पैरों पर खड़ा होता है। साथ ही राजनीति के जरिये वह हिजड़ा समाज को जागरूक करने का भी प्रयत्न करता है। इसके अलावा यह उपन्यास हिजड़ा समाज के साथ होने वाले बलात्कार जैसे जघन्य अपराध को भी पूनम नामक पात्र के माध्यम से अत्यंत मार्मिकता से प्रस्तुत किया है। इस तरह यह उपन्यास एक बड़े कैनवास पर पत्र-शैली में गढ़ा गया है।


‘जिंदगी 50-50’ 

ज़िन्दगी 50-50 सन् 2017 में युवा लेखक भगवंत अनमोल द्वारा लिखा गया उपन्यास है। यह उपन्यास उत्तर प्रदेश के गाँव, बेंगलुरु और मुंबई के बीच फ़्लैशबैक वाली और वर्तमान कहानी के साथ-साथ किन्नरों के जीवन पर भी प्रकाश डालता है। यह एक ऐसे व्यक्ति की कहानी है जो गाँव से निकलकर एक मेट्रो शहर में अपना करियर बनाने के बीच कहीं अपनी जड़ों को भूल जाता है तो कहीं अपने प्यार को। पर जो नहीं भूलता, वो है उसकी संवेदनशीलता। बचपन से ही अपने किन्नर भाई को अपने पिता के हाथों बेवजह अपमानित और प्रताड़ित होते देखना उपन्यास के नायक को बहुत व्यथित करता है। पर तब वह कुछ नहीं कर पाता लेकिन आगे जब परिस्थितियां दूसरी मोड़ लेती हैं तो वह अपनी गलतियों को कतई नहीं दोहराता। यह उपन्यास कुछ प्रश्न भी उठाता है कि आखिर क्यों जेनाइटल डिफॉर्मिटीज़ (जनन-सम्बन्धी विकृति) के साथ पैदा हुए बच्चों को अलग-अलग कर किन्नर के समूह में त्रासदपूर्ण जिंदगी जीने के लिए भेज दिया जाता है? क्यों उन्हें सामान्य मनुष्य या परिवार के सदस्यों की तरह प्यार नहीं किया जाता है?


    इस प्रकार, इक्कीसवीं सदी के आरम्भ में हिंदी उपन्यासों की वृहद् परम्परा में किन्नर समुदाय और उनके जीवन को केंद्र में रखकर उपन्यास लिखने की जो कवायद शुरू हुई वह वर्तमान समय में विशेष स्थान प्राप्त कर रहा है। इस विकसनशील परम्परा को ध्यान में रखते हुए हिंदी के कुछ अन्य उपन्यासकारों ने भी किन्नर जीवन सम्बंधित उपन्यास की सर्जना की है। जिसमें ‘अस्तित्व’ (गिरिजा भारती), ‘दरमियाना’ (सुभाष अखिल), ‘आधा आदमी’ (राजेश मलिक) आदि प्रमुख हैं।


निष्कर्ष 

इस तरह उपरोक्त हिंदी उपन्यासों में किन्नर समाज को केंद्र में रखते हुए उनकी मूलभूत समस्याओं के साथ-साथ उनकी संस्कृति, परम्परा, रीति-रिवाज आदि के बारे में अत्यंत विस्तार से विचार-विमर्श किया गया है। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि इक्कीसवीं सदी के आरम्भ में किन्नर समाज और उनके जीवन-संघर्ष संबंधी उपन्यासों को लिखने की जिस परंपरा का सूत्रपात हुआ, वह निरंतर समृद्ध हो रहा है। यद्यपि किन्नर समाज, उनकी अस्मिता एवं मूलभूत समस्याओं पर हिंदी उपन्यास ही नहीं, बल्कि हिंदी साहित्य में भी बहुत देर से लेखन शुरू हुआ। किन्तु वर्तमान समय में हिंदी साहित्य की कई विधाओं में किन्नर समुदाय के साथ-साथ एलजीबीटी समूह के अन्य सभी तरह के पहचान रखने वाले लोगों पर लेखन शुरू हो रहा है, जो इन सभी समुदायों की बेहतरी के लिए एक सकारात्मक पहल है।


सन्दर्भ-सूची

1. अजय तिवारी, आधुनिकता पर पुनर्विचार, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, 2012, पृ. 103.

2. नीरजा माधव, यमदीप, सामयिक प्रकाशन, दिल्ली, 2017, पृ. 6.

3. वही, पृ. 12.

4. प्रदीप सौरभ, तीसरी ताली, वाणी प्रकाशन, दिल्ली, 2011, फ्लैप से

5. महेंद्र भीष्म, मैं पायल, अमन प्रकाशन, कानपुर, 2016, पृ. 16

6. निर्मला भुराड़िया, गुलाम मण्डी, सामयिक प्रकाशन, नई दिल्ली, 2016, पृ. 7-8.


-डॉ. केएम प्रतिभा

भारतीय भाषा केंद्र,

जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय,

नई दिल्ली-110067



 

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