शोध आलेख : स्त्री कविता की पृष्ठभूमि और संघर्ष
सारांश
प्रस्तुत शोध-पत्र में समकालीन साहित्य में उपस्थित स्त्री-कविता की पृष्ठभूमि का संक्षिप्त परिचय देने का प्रयास किया गया है। इस देश और समाज में स्त्रियों, दलितों और आदिवासियों ने अपनी पहचान और हक़ के लिए एक लंबी लड़ाई लड़ी है। यह शोध-पत्र उन तमाम स्त्री-कवियों और उन महत्वपूर्ण बिंदुओं को रेखांकित करने की कोशिश करेगा जिनमें स्त्री-साहित्य, स्त्री-अभिव्यक्ति, विशेष रूप से हिन्दी कविता के संदर्भ में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। इतिहास में कोई स्त्री-विमर्श जैसी अवधारणा विद्यमान नहीं थी। लेकिन आज है और कई साक्ष्य मिलते हैं जो यह बताते हैं कि स्त्री-साहित्य का मूल स्वर प्रतिरोध ही रहा है। पितृसत्ता ने स्त्री के व्यक्तित्व को इतनी परतों में तोड़कर रख दिया है कि उसे जोड़ने में अभी सदियों का संघर्ष शेष है। सिमोन द बोउवार की तरह हिन्दी में महादेवी वर्मा के निबंधों के संग्रह ‘श्रृंखला की कड़ियाँ’ (1942) को आज स्त्री समस्याओं और स्त्री-विमर्श से जोड़कर देखा जाता है। 19वीं सदी के नवजागरण में पंडिता रमाबाई की ‘द हाई कास्ट हिन्दू वीमेन’, ताराबाई शिंदे की ‘स्त्री-पुरुष तुलना’ और एक अज्ञात हिन्दू स्त्री द्वारा लिखित ‘सीमांतनी उपदेश’ ने अपनी कलम से समाज में स्त्री की दशा, स्त्री-दमन और पितृसत्ता के अत्याचारों से निकलने का रास्ता दिखाया है। स्त्री को ग़ुलाम बनाने के लिए धर्म ने स्त्री-जीवन को प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से प्रभावित किया है। सुमन राजे द्वारा लिखित ‘हिंदी साहित्य का आधा इतिहास’ में एक हज़ार साल की परंपरा और ऐतिहासिक संदर्भों का उल्लेख है, जिसमें वैदिक काल की ऋषिकाओं, बौद्ध भिक्षुणियों, मीरां, अंडाल से लेकर तार-सप्तक में संकलित कुछ स्त्री-कवियों का उल्लेख मिलता है। यहाँ हम मुंशी देवीप्रसाद का ‘महिला मृदुवाणी’ (1904), ज्योतिप्रसाद मिश्र के ‘निर्मल’ में संकलित ‘स्त्री कवि कौमुदी’ (1928) और ‘हिन्दी काव्य की कोकिलाएँ’ (1933) जैसे स्त्रियों की कविताओं के संपादित संकलनों से होते हुए नब्बे के दशक में राजेन्द्र यादव द्वारा संपादित ‘हँस’ पत्रिका में स्त्री-विमर्श पर छिड़ी बहस तक चर्चा करने का प्रयास करेंगे।
बीज शब्द : स्त्री लेखन, स्त्री साहित्य, स्त्री कविता, स्त्री संघर्ष, स्त्री-विमर्श, हिन्दी की स्त्री कविता, स्त्री-कवि, कविता का इतिहास, परंपरा और स्त्री लेखन.
शोध-आलेख
19वीं सदी का समय भारत में उथल-पुथल का समय था। रजवाड़ों का क्षरण हो रहा था और औपनिवेशिक सत्ता के विरुद्ध जनता का संघर्ष ज़ोर पकड़ रहा था। धर्म-सुधार और समाज-सुधार के इस दौर में “सुधारकों, पुनरुत्थानवादियों और राष्ट्रवादियों ने भारतीय तथा पाश्चात्य आधार पर आदर्श ‘आर्य’ स्त्री की मिश्रित परिभाषा निरूपित की।” प्रसिद्ध नारीवादी समाज-सुधारक पंडिता रमाबाई की किताब 'हिन्दू स्त्री का जीवन' जो सन 1886 में अंग्रेज़ी में प्रकाशित हुई थी, विस्तार और बारीकी से हिन्दू धर्म की आलोचना करती है। सवर्ण स्त्रियों के बचपन, वैवाहिक जीवन और उसके अधिकार, विधवा स्त्री की दुर्दशा आदि का तार्किक विश्लेषण करती है। उन्होंने मनुस्मृति में मौजूद उन वचनों को उद्धृत किया है जो स्त्री को 'घृणास्पद जीव' घोषित करते हैं। यह पहली बार था कि धर्म के शोषण और सामाजिक व्यवस्था का विरोध राष्ट्रीय स्तर पर हुआ। जब धर्म-सुधार आंदोलनों की झड़ी लग गई और कुरीतियों का बहिष्कार होने लगा तब धर्म ने कैसे समाज में औरत को दिल और दिमाग से ठग लिया है, इस पर भी चर्चा हुई। जन-जन के मन में उसके प्रति एक नफ़रत और अविश्वास का भाव सामाजिक कंडीशनिंग का नतीजा था और है। वह समर्पण की मूर्ति बन कदम-कदम पर आज्ञाओं का बोझ ढोती रही है; वह ताउम्र पतिव्रता बनकर पति और परिवार की दासता को ढोती है, तब भी उसके हिस्से में सिर्फ़ बेगारी, ग़ुलामी, शक, अविश्वास और अग्निपरीक्षा ही आती है। विश्व के इतिहास में ऐसा कोई धर्म-ग्रंथ नहीं है जिसे स्त्री ने रचा हो। सबके रचयिता पुरुष ही रहे हैं और अगर समाज में उसकी कोई सत्ता होती या धर्म में उसका कोई दख़ल होता तो क्या वह समस्त स्त्री-जाति के लिए घृणा, निंदा, द्वेष और निकृष्ट भाव रखती? क्या वह स्त्री को दासी बने रहने का सुझाव देती?
उत्तर भारत की औरतों को संबोधित करती और उनके जीवन की सच्चाई को बयान करती एक अन्य किताब है 'सीमांतनी उपदेश' जो 1882 ई. में 'एक अज्ञात हिन्दू औरत' ने 300 प्रतियाँ ख़ुद छपवाकर हिन्दी प्रदेश की औरतों में चेतना पैदा करने के उद्देश्य से मुफ्त बंटवाई थीं। यह बहुत पहले से स्त्री-साहित्य का एक महत्वपूर्ण दस्तावेज हो सकता था, जिसका इतिहास में कहीं कोई ज़िक्र तक नहीं मिलता। सीमांतनी उपदेश का समय वही हिन्दी नवजागरण का समय है, जिसमें भारतेंदु और उनके मंडल के लोगों ने स्त्री-शिक्षा, राष्ट्रवाद, गौरक्षा, हिन्दी-उर्दू के विवाद को लेकर भारी बहस छेड़ी थी। पर उनकी पत्रिकाओं में सीमांतनी उपदेश या पंडिता रमाबाई का कोई ज़िक्र नहीं मिलता। वास्तव में उन्नीसवीं शताब्दी से हिन्दू समाज में स्त्रियों को लेकर जितने आंदोलन, चर्चाएँ और बयानबाज़ी हुई हैं, इतनी शायद पहले कभी नहीं हुई। इस तहलके में जब महिलाएँ ख़ुद अपनी आवाज़ में बोल रही थीं तब उनका हिन्दी जगत में कहीं नाम तक नहीं दिखाई पड़ता। उनको राह दिखाने वाले, नेतृत्व का झंडा उठाकर चलने वाले पुरुष ही क्यों दिखाई देते हैं? इसका यही अर्थ है कि ‘ब्राह्मणवादी पितृसत्ता’ स्त्रियों के नाम पर राजनीति भी करती रही और स्त्री को स्वतंत्रता तक पहुँचने से भी महरूम रखा। हिन्दी साहित्य में सीमांतनी उपदेश का कहीं अता-पता ही नहीं था जब तक डॉ. धर्मवीर ने इसे 1988 ई. में पुनः प्रकाशित नहीं किया। इसी तरह पंडिता रमाबाई को उमा चक्रवर्ती ने इतिहास में से खोजकर निकाला है। ये दोनों महत्वपूर्ण पुस्तकें सन 1882 ई. और 1886 ई. में लिखी जा चुकी थीं, मगर हिन्दी साहित्य के महान इतिहास में इनकी क्या जगह?
अतः यह कहना गलत नहीं होगा कि स्त्री-शिक्षा और स्त्री-उत्थान के नाम पर एक 'आदर्श हिन्दू स्त्री' को गढ़ने में हिन्दी के 'महापुरुषों' ने अपना एड़ी-चोटी का ज़ोर लगा दिया था और वे इसमें सफल भी रहे। ‘स्त्रियों को ग़ुलाम क्यों बनाया गया’ किताब में पेरियार ई. वी. रामास्वामी का यह कथन स्त्रियों के साथ हुई इस साजिश को समझने के लिए काफी है — "पुरुषों द्वारा आरंभ किया गया कोई भी मुक्ति-आंदोलन, स्त्रियों को वास्तविक स्वाधीनता नहीं दे सकता। हम मानते हैं कि वर्तमान में स्त्री-स्वाधीनता के पक्ष में चलाए जा रहे आंदोलन निष्फल होंगे; बल्कि वे स्त्रियों को ग़ुलाम बनाने के लिए उन पर लगाए गए प्रतिबंधों को उत्तरोत्तर मजबूत करने का काम करेंगे।"2
अपनी किताब ‘रीतिकाल: सेक्सुअलिटी का समारोह’ में सुधीश पचौरी फ्रांसीसी मिशनरी द्वारा लिखित 'हिन्दू मैनर्स कस्टम्स एंड सेरेमनीज़' का ज़िक्र करते हुए एक रोचक प्रसंग पर बात करते हैं। वे मिशनरीज के यूरोपीय औरतों के विचार और यहाँ के पवित्रतामूलक विचारों में साम्य देखते हुए बताते हैं कि कैसे कैथोलिक और उच्च वर्ण हिन्दू में कुछ समानताएँ हैं। स्त्री शिक्षा और पाठ्यक्रम योजना पर पुरुषों का कब्ज़ा इसलिए किया गया था ताकि वे यौनिकता को नियंत्रित कर सकें। हमें नहीं भूलना चाहिए कि वह ज़माना तवायिफ़ों की रवायत का ही नहीं था बल्कि रीतिकाल का भी अंतिम चरण था। सामंती व्यवस्था का एक अंग होते हुए भी तवायिफ़ों का एक स्वतंत्र व्यक्तित्व हुआ करता था। वे सबसे ज़्यादा पढ़ी-लिखी और सांस्कृतिक रूप से समृद्ध महिलाएँ हुआ करती थीं। अंग्रेज़ों ने उन्हें जब सेक्स वर्कर में रिड्यूस कर दिया और शहर के बाहर खदेड़ दिया और स्त्री उत्थान की कमान पुरुष संभालने लगा उसी समय आदर्श हिन्दू औरत को गढ़ा गया। इन साज़िशों का नतीजा यही निकला कि नारीवादी चेतना कहीं खो गयी और हिन्दी और हिन्दू समाज वाकई में एक नई चाल में ढल गया।
कुछ दशकों बाद सन 1942 ई. में महादेवी वर्मा के निबंधों का संग्रह 'श्रृंखला की कड़ियाँ' आता है। कहा जाता है कि उनकी 'श्रृंखला की कड़ियाँ' स्त्री-विमर्श का पहला दस्तावेज़ है; इसके अलावा इसकी तुलना सिमोन द बोउवार के ‘द सेकंड सेक्स’ से भी की जाती है, मगर मेरा मानना है कि ‘श्रृंखला की कड़ियाँ’ में महादेवी वर्मा जिन स्त्री समस्याओं और प्रश्नों को लेकर आती हैं वे उसी आंदोलन का विस्तार हैं जिसकी प्रदेता सावित्री बाई, ताराबाई शिंदे, पंडिता रमाबाई, रख्माबाई आदि हैं।
‘श्रृंखला की कड़ियाँ’ महादेवी वर्मा के निबंधों का हिन्दी साहित्य में पहला ऐसा संग्रह है जिसमें उन्होंने "भारतीय नारी की विषम परिस्थितियों को अनेक दृष्टिबिन्दुओं से देखने का प्रयास किया है।" यह स्त्री-कवि के वैचारिक क्षणों का दस्तावेज़ है जिसमें वे एक स्त्री के रूप में अपने विचार प्रकट करती हैं और छायावाद की रहस्यवादी प्रवृत्ति से कोसों दूर यथार्थ की ज़मीन पर खड़ी नज़र आती हैं। महादेवी वर्मा की कविता में अत्यधिक अस्पष्टता होने के कारण उनकी कविता के धरातल को अमूर्त भावों और स्त्री-मन के साथ देखना एक कठिन प्रश्न रहा है, मगर उनके वैचारिक संसार यानी उनके निबंधों में रेखांकित नारीत्व का अभिशाप और उसकी समस्याओं से जब हम रू-ब-रू होते हैं तो उस असमर्थता का एहसास होता है जिससे एक स्त्री-कवि के रूप में वे जूझती रही हैं। जब वे कहती हैं कि— स्त्री अनुभव ग्रहण करने में हीन है, वह अनुसरण की विवशता में पशु के समान हो गई है और उसमें स्वतंत्र व्यक्तित्व का सम्पूर्ण अभाव है— तो हमारा ध्यान उन पहलुओं पर जाता है कि एक स्त्री के पास कितना कम स्पेस है अपनी अभिव्यक्ति को अंजाम देने के लिए। स्वतंत्रता और स्वायत्तता के बिना वह अपनी कामनाओं को शब्द कैसे दे? क्या यह पूरा भाषा तंत्र इस तरह नहीं बना कि स्त्री की आत्मानुभूति उसमें दब जाती है?
मेरी समझ में, जो व्यक्ति अपनी अस्मिता, अपनी सामाजिक स्थिति को इतना बारीकी से देखने में सक्षम हो वह आध्यात्मिक चादर ओढ़कर नहीं सो सकता। वह तो आंदोलन की ही बात करेगा। महादेवी ने लिखा भी है— "इस समय आवश्यकता है एक ऐसे देशव्यापी आंदोलन की जो सबको सजग कर दे, उन्हें इस दिशा में प्रयत्नशीलता दे और नारी की वेदना का यथार्थ अनुभव करने के लिए उनके हृदय को संवेदनशील बना दे जिससे मनुष्य जाति के कलंक के समान लगने वाले इन अत्याचारों के तुरंत अंत हो जाय, अन्यथा नारी के लिए नारीत्व अभिशाप ही तो है।"
परिवार और समाज का इतना महत्वपूर्ण अंग होते हुए भी परिवार के सदस्य के तौर पर ही नहीं बल्कि एक नागरिक के तौर पर स्त्री के पास कितने अधिकार हैं? ये सारी बातें भारत के स्वतंत्र होने से पहले की हैं, लेकिन आज़ादी मिलने और गणराज्य की स्थापना होने के बाद भी एक नागरिक के तौर पर स्त्री के राजनीतिक और सामाजिक अधिकारों की चेतना कितनी दिखाई देती है। वह आज भी पुरुष की सहयोगी और व्यक्तित्व की विकासहीनता से ग्रस्त है।
कमोबेश एक हज़ार साल की हिन्दी की काव्य परंपरा को यदि हम ऐतिहासिक संदर्भों में देखें तो एक तस्वीर स्पष्ट रूप से उभर कर सामने आती है। जिस प्रकार हिंदुस्तानी और विशेषकर हिन्दी समाज में पितृसत्ता और स्त्री-दमन की जड़ें बहुत मजबूती से विन्यस्त रही हैं, ठीक उसी प्रकार साहित्य और विशेषकर कविता में भी स्त्री-कवियों की उपस्थिति को पुरुषवादी आलोचना-दृष्टि ने उपेक्षित ही रखा है। हिन्दी साहित्य का इतिहास मोटे तौर पर स्त्री-कवियों की अवहेलना का इतिहास रहा है जिसमें सजावटी तौर पर कुछ स्त्री-कवियों का ज़िक्र करके इतिहासकारों ने इतिश्री कर ली है। इसी कमी को बहुत हद तक सुमन राजे की मशहूर कृति 'हिन्दी साहित्य का आधा इतिहास' में ज़ोरदार ढंग से रेखांकित करने का प्रयास किया गया है जो कि उल्लेखनीय है। अपने इस साहित्य-इतिहास में सुमन राजे बाकी इतिहासकारों से पृथक उस 'आधे इतिहास' पर प्रकाश डालती हैं जो समय के अंधकार में खो गया है। वे उन तमाम महिला रचनाकारों के बारे में और उनकी कविता के बारे में बात करती हैं जो वैदिक काल से लेकर आज तक लिख रही हैं। वैदिक ऋषिकाएँ गृहस्थ हैं, कहीं-कहीं अविवाहिताएँ भी हैं, परंतु उनके हृदय में विवाह संस्था के लिए विरोध नहीं है, जबकि थेरियाँ उसे छोड़कर, ठुकराकर या विद्रोह करके अपनी मुक्ति का मार्ग तलाश करती हैं। वैदिक दर्शन किसी एक व्यक्ति का दर्शन नहीं है, समूह के लिए समूह का दर्शन है, इसलिए उसमें विविधता है, बहुलता है। इसके विपरीत बौद्ध दर्शन एक व्यक्ति का दर्शन और समूह का अनुशासन है; और कर्मकांड-प्रदर्शन विरोधी तो है ही।
थेरी गाथाओं में सामूहिक रचनाएँ भी मिलती हैं, ये लोकगीतों के करीब भी नज़र आती हैं। थेरी गाथा में स्त्री की पहचान, अपने सम्मान के लिए गृहत्याग और संघर्ष के पथ पर चलने का अनोखा साहस दिखता है। यहाँ उस समय की स्त्री की भौतिक दुनिया में तरह-तरह के दुःख हैं— पति द्वारा अपमान, सपत्नियों के साथ रहने की पीड़ा, विधवा और निःसंतान होने का दु:ख, घरेलू हिंसा के दुख— और उनसे मुक्त हो जाने की बात भी की गई है।
थेरी गाथाओं के बाद कुछ प्राकृत और संस्कृत में स्त्री रचनाकारों की रचनाएँ 'संग्रह-ग्रंथकारों' की वजह से उपलब्ध होती हैं, जिनमें गाथा-सप्तशती, सेतुबंध आदि का नाम आता है। विज्जका, सुभद्रा, इंदुलेखा आदि का नाम मुख्य है। इसके बाद भक्ति आन्दोलन का समय आता है जिसे सुमन राजे तृतीय नवजागरण की संज्ञा देतीं हैं। पूरे भारत में महत्वपूर्ण स्त्री कवियाँ इस दौर में उभरीं, जो संत भी मानी जाती हैं। राजस्थान की मीरां का नाम इसमें सबसे ऊपर है। कश्मीर की ललदेद, कर्नाटक की अक्का महादेवी, दक्षिण भारत की अंडाल, महाराष्ट्र की जनाबाई और बहनाबाई, मुक्ताबाई, वेणास्वामी आदि प्रमुख हैं। इन कवियों ने भक्ति के माध्यम से न केवल ईश्वर की जय-जयकार की है बल्कि अपने समय में स्त्री की करुणिक स्थिति, परिवार में होते तमाम शोषणों और यंत्रणाओं पर भी प्रकाश डाला है। विकल्पहीनता के उस दौर में सामाजिक और पारिवारिक व्यवस्था के प्रति अपना विद्रोह दिखाने का एकमात्र रास्ता संत हो जाना ही था। यह कोई आसान रास्ता नहीं था। मीरा के बाद ताज, चन्द्रसखी, शेख आदि का नाम आता है।
हिन्दी साहित्य में आधुनिक काल के आरम्भ में भारतीय नवजागरण का जो एक माहौल तैयार होता है, उसमें कई स्त्री कवियों के नाम मिलते हैं। सन् 1904 में मुंशी देवीप्रसाद 'महिला मृदुवाणी' नामक एक संकलन तैयार करते हैं जिसमें 35 कवयित्रियों की कविताएँ शामिल हैं। इस किताब में कई स्त्री कवियों के नाम के साथ यह भी जानकारी मिलती है कि वे किसकी पत्नी, पुत्री या माँ हैं। जैसे कुछ नाम हैं — गिरिधर कविराय की स्त्री, कविरानी चौबे लोकनाथ जी की स्त्री अर्धांगनी, बिहारी सतसई के कर्ता की स्त्री, बिहारी दास की पुत्री आदि। ये उस समय की पढ़ी-लिखी महिलाएँ रही होंगी। उच्च कुल की होने के बावजूद उनका नाम उनकी दरिद्र सामाजिक स्थिति को रेखांकित करता रहेगा। इसके बाद सन् 1928 में ज्योतिप्रसाद मिश्र 'निर्मल' स्त्री-कवयित्रियों की कविताओं का संकलन 'स्त्री-कवि कौमुदी' के नाम से करते हैं, जिसमें 17 कवयित्रियों की कविताएँ संकलित हैं। 'स्त्री-कवि कौमुदी' के वक्तव्य में ज्योतिप्रसाद जी लिखते हैं — "यह ठीक है कि पुरुष कवियों की अपेक्षा स्त्री-कवियों की संख्या बहुत न्यून है। परंतु इस संबंध में खोज भी नहीं हुआ और न साहित्य के इस एक विशेष अंग की रक्षा करने और संचय करने की ओर प्रयत्न ही किया गया है। हिन्दी में अनेक संग्रह-ग्रंथ प्राचीन और अर्वाचीन हैं परंतु किसी ने स्त्रियों की रचनाओं को विशेष महत्व नहीं दिया।"6 आगे वे हिन्दी साहित्य के इतिहासकार जैसे शिवसिंह सेंगर और मिश्र बंधु के इतिहास पर प्रश्नचिन्ह लगाते हुए यह कहते हैं कि इनका काम उत्कृष्ट तो है मगर स्त्रियों की रचनाओं की तरफ़ इनका विशेष ध्यान नहीं गया है। सन् 1929 में जब हिन्दी शब्दसागर की भूमिका के तौर पर आचार्य रामचंद्र शुक्ल (जो कि हिन्दी के सबसे बड़े साहित्य-इतिहासकार माने जाते हैं) अपने इतिहास की किताब लिखते हैं, उसमें इन स्त्री कवियों के नाम का ज़िक्र तक नहीं मिलता, बस मीरां और महादेवी का उल्लेख कर इतिश्री करते हैं। वे मीरां और महादेवी के अलावा किसी को उल्लेखनीय क्यों नहीं समझते? जबकि तब तक कई स्त्रियाँ लिख रही थीं, जिनके पर्याप्त साक्ष्य मिल ही चुके हैं। सवाल यह बनता है — आधी आबादी का प्रतिनिधित्व करने वाली स्त्रियों को साहित्य-इतिहास से उपेक्षित क्यों रखा गया? जो भी लिख रही थीं, उनकी कमियों पर ही सही, आलोचना के लिए ही क्या उन्हें शामिल करना एक इतिहासकार की ज़िम्मेदारी नहीं है?
इसके बाद एक अन्य महत्वपूर्ण संकलन 'हिन्दी काव्य की कोकिलाएँ' नाम से सन् 1933 में प्रकाशित होता है, जिसका संपादन श्रीयुत गिरिजदत्त शुक्ल और श्रीयुत बृजभूषण शुक्ल करते हैं, जिसमें रामेश्वरी देवी, तारा देवी पांडेय, राजेश्वरी देवी 'नलिनी', श्री कमलकुमारी, महादेवी वर्मा, सुभद्रा कुमारी चौहान, विद्यावती कोकिल आदि का नाम प्रमुख है। स्वतंत्रता आन्दोलन और नवजागरण के दौर में महादेवी वर्मा, सुभद्रा कुमारी चौहान और सुशीला समद जैसी स्त्री कवियों के नाम देखे जा सकते हैं जिन्होंने राष्ट्रीय चेतना पर केंद्रित होकर भी लिखा तो अपने आत्म को केंद्र बना कर भी। स्वतंत्रता के बाद और भारतीय संविधान के लागू होने के बाद साहित्य और अकादमिक दुनिया में एक विशाल परिवर्तन देखने को मिलता है। जीवन का बोध पूरी तरह बदलने लगता है। शहरी मध्यवर्ग का उभार और विकास होता है जिससे सामाजिक ढांचे में, भावबोध में, मान्यताओं में और स्त्री-पुरुष संबंधों में भारी परिवर्तन नज़र आता है। इस दौर में शकुन्त माथुर (दूसरे सप्तक, 1951 में शामिल), कीर्ति चौधरी (तीसरे सप्तक, 1959 में शामिल) का ही नाम लिया जाता है, मगर उनकी कविताओं को किसी ने महत्व नहीं दिया, न ही उनकी पर्याप्त चर्चा हुई। उपेक्षा का आलम तो यह है कि शकुन्त माथुर ने अपने सप्तकीय वक्तव्य में लिखा है — "मैंने आरम्भ से यह कभी नहीं सोचा कि मैं कवि हूँ और मेरी रचनाएँ औरों के लिए भी कुछ महत्व रख सकती हैं। मैंने जब भी कुछ लिखा उसे मन की मौज समझकर छोड़ दिया और मेरे पति (श्री गिरिजाकुमार माथुर) ने भी सदा उसे हँसी में टाल दिया। इसके अतिरिक्त जब भी मैं कविता लिखती, इनकी कोई-न-कोई रचना मेरे सामने आ खड़ी हो जाती और मेरी रचना शर्मिंदा हो जाती।"7 इसके बाद रमा सिंह, किरण जैन, कान्ता, इंदु जैन, अमृता भारती, सुमन राजे, स्नेहमयी चौधरी, मणिका मोहिनी, सुनीता जैन आदि के नाम आते हैं।
नब्बे के दशक में स्त्री कवियों की एक ऐसी पीढ़ी की शुरुआत हुई जो स्त्रीवाद को केंद्र में रखकर, स्त्री के मन को स्वर देने लगीं। यह हिन्दी में पहली बार होता है कि स्त्रीवादी विचारधारा या उस चेतना के साथ स्त्रियों ने लिखना शुरू किया। इस भावबोध को तैयार होने में एक वक़्त लगा है और इसकी पृष्ठभूमि में हम उन तमाम असफल स्त्री कवियों को देख सकते हैं, जिन पर प्रकाश इसलिए भी नहीं पड़ा क्योंकि वे अपने रचना-संसार, अपनी संपूर्णता के साथ प्रवेश करने और आत्मालोचना करने में कहीं न कहीं कमज़ोर साबित हुईं। वे उस भाषा को प्राप्त ही नहीं कर पाईं जिसमें उनकी संवेदना को अभिव्यक्ति मिल पाती। राजेन्द्र यादव लिखते हैं — "दलित के मुकाबले स्त्री की मुश्किल यह भी है कि उसे उसी पुरुष की भाषा में दिन-रात अपने को परिभाषित करते रहना पड़ता है जो उसकी है ही नहीं, आत्यन्तिक (एक्सक्लूसिवली) पुरुष की है। वह तो शायद यह भी भूल गई है कि उसकी कोई निजी भाषा है या हो भी सकती है।"8 नब्बे के दशक के बाद दुनियाभर में हुए स्त्री-आंदोलनों के असर और भूमंडलीकरण के आने के बाद हिन्दी साहित्य में स्त्री-साहित्य का नया दरवाजा खुल गया। जिसकी शुरुआत राजेन्द्र यादव द्वारा स्त्री-विमर्श पर 'हंस' पत्रिका में छेड़ी गयी बहस से होती है।
सन्दर्भ सूची
1. कुमार, राधा, स्त्री संघर्ष का इतिहास, वाणी प्रकाशन, 2019, पृष्ठ संख्या — 25
2. रामासामी, पेरियार ई. वी., स्त्रियों को ग़ुलाम क्यों बनाया गया, सेतु प्रकाशन, संस्करण 2023, पृष्ठ — 112
3. वर्मा, महादेवी, श्रृंखला की कड़ियाँ, लोकभारती पेपरबैक्स, संस्करण 2015, पृष्ठ — 05
4. वही, पृष्ठ — 27
5. राजे, सुमन, हिन्दी साहित्य का आधा इतिहास, भारतीय ज्ञानपीठ, संस्करण 2022, पृष्ठ — 101
6. 'निर्मल', ज्योतिप्रसाद मिश्र, स्त्री-कवि कौमुदी, गाँधी हिन्दी पुस्तक भंडार, संस्करण 1931, पृष्ठ — 16
7. राजे, सुमन, हिन्दी साहित्य का आधा इतिहास, भारतीय ज्ञानपीठ, संस्करण 2022, पृष्ठ — 266
8. वर्मा, सं. अर्चना; कौर, बलवंत, राजेन्द्र यादव रचनावली, राधाकृष्ण प्रकाशन, संस्करण 2014, पृष्ठ — 186
समीक्षा दुबे
शोधार्थी, हिन्दी विभाग, जामिया मिल्लिया इस्लामिया
मौलाना मुहम्मद अली जौहर मार्ग, जामिया नगर, नई दिल्ली - 110025


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