POLITICS

[POLITICS][list]

SOCIETY

[समाज][bleft]

LITARETURE

[साहित्‍य][twocolumns]

CINEMA

[सिनेमा][grids]

शोध आलेख : आत्म निर्वासन का भारतीय स्वरूप

सारांश

आत्म-निर्वासन (Alienation) एक जटिल और बहुआयामी विषय है, जो व्यक्ति के मनोवैज्ञानिक, सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक पहलुओं से संबन्धित है। यह वह अवस्था है, जब कोई व्यक्ति स्वेच्छा से अपने समाज, परिवेश या मातृभूमि से दूर रहने का निर्णय लेता है। अस्तु, आत्म-निर्वासन के कारण विभिन्न हो सकते हैं। जैसे- व्यक्तिगत संकट, राजनीतिक दमन, सांस्कृतिक असहमति या गहरे आत्ममंथन की आवश्यकता। अतः यह अवधारणा मानवीय स्वतंत्रता, पहचान और अस्तित्व-संकट से जुड़े कई महत्वपूर्ण प्रश्नों को उठाती है।


बीज शब्द : आत्म-निर्वासन, सामाजिक, सांस्कृतिक, मनोवैज्ञानिक, पहचान, अस्तित्व, संकट, आध्यात्मिक, दार्शनिक इत्यादि।


शोध आलेख

आत्म-निर्वासन भारतीय संदर्भ गहरी ऐतिहासिक, सांस्कृतिक और दार्शनिक जड़ों से जुड़ा हुआ है। यह एक ऐसा विषय है, जो न केवल व्यक्तिगत जीवन के स्तर पर, बल्कि सामाजिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक संदर्भ में भी महत्वपूर्ण स्थान रखता है। भारतीय इतिहास, साहित्य और दर्शन में आत्म-निर्वासन का कई बार उल्लेख मिलता है, चाहे वह किसी व्यक्ति का राजनीतिक निर्वासन हो या किसी संत, विचारक, या लेखक का आत्मिक निर्वासन।


    भारत की प्राचीन परंपरा में आत्म-निर्वासन एक आध्यात्मिक और दार्शनिक प्रक्रिया के रूप में देखा जाता था। ऋषि-मुनियों और साधुओं ने अपने सांसारिक बंधनों से मुक्ति पाने के लिए स्वेच्छा से जंगलों में निवास किया। उदाहरणस्वरूप महाभारत और रामायण जैसे ग्रंथों में निर्वासन का रूप देखा जा सकता है। भगवान राम का चौदह वर्षों का वनवास न केवल राजनीतिक, बल्कि व्यक्तिगत और सांस्कृतिक निर्वासन का उदाहरण है, जो त्याग, कर्तव्य और आत्म-अनुशासन का प्रतीक बन गया। इसी तरह भारतीय दर्शन में संन्यास आश्रम को जीवन का अंतिम चरण माना गया है, जहां व्यक्ति स्वेच्छा से अपने भौतिक सुख-सुविधाओं का त्याग कर आत्म-ज्ञान की खोज करता है।


    मध्यकालीन भारत में ‘आत्म-निर्वासन’ का रूप अधिकतर धार्मिक और सामाजिक हो गया। कई संतों, जैसे- संत कबीर, गुरु नानक और मीराबाई ने सामाजिक परंपराओं और रूढ़ियों से अलग होकर अपनी धार्मिक और आध्यात्मिक पहचान बनाई। भक्ति आंदोलन ‘आत्म-निर्वासन’ का एक रूप था, जिसमें संतों ने सामाजिक रूढ़ियों को चुनौती दी और अपने विचारों के अनुसार जीवन जिया। ‘आत्म-निर्वासन’ की यह प्रक्रिया आधुनिक संदर्भ में विभिन्न अनुशासनों में प्रयोग होने लगी। जैसे- साहित्य, राजनीति, सांस्कृतिक, मनोवैज्ञानिक, समाजशास्त्र इत्यादि।


    भारतीय भाषायी साहित्य में आधुनिकता के भावबोध के अंतर्गत अलगाव, अकेलापन और अजनबीपन की समस्याओं का विश्लेषण हुआ है, जो काफी हद तक पश्चिमी अस्तित्ववादी विचारधारा से प्रेरित है। 19वीं शताब्दी में यूरोप में हुए वैज्ञानिक और औद्योगिक विकास के कारण बड़े पैमाने पर सामाजिक बदलाव आए। नए उद्योगों के विकास और मशीनों के आविष्कार से बड़े कारखाने स्थापित हुए, जहाँ अनजान लोग बिना किसी आपसी परिचय के साथ काम करने लगे। यह यांत्रिक सभ्यता की शुरुआत थी, जिसमें मनुष्य का योगदान केवल मशीनों को चलाने तक सीमित रह गया। इस परिवर्तन ने इंसान के जीवन में असुरक्षा, अलगाव और अकेलेपन की भावना को बढ़ावा दिया। ध्यातव्य हो कि पश्चिमी दृष्टिकोण में यह निर्वासन के रूप में देखा गया, जबकि भारतीय जीवन-दर्शन में आत्मा के अकेलेपन को उसका स्वाभाविक गुण माना गया है। विज्ञान और औद्योगिकीकरण ने परंपरागत मान्यताओं को कमजोर किया और व्यक्ति को मूल्यों के स्तर पर अकेला छोड़ दिया। औद्योगिक समाज में व्यक्ति के श्रम और उत्पादन पर उसका नियंत्रण खत्म हो गया, जिससे वह खुद को मशीनों का एक साधारण पुर्जा समझने लगा। विश्वनाथ प्रसाद तिवारी लिखते हैं कि- “आधुनिक विज्ञान, औद्योगिक सभ्यता और तकनीकी विकास ने आज के आदमी को अकेला और अजनबी बनाया है। वह एक ओर परम्परा और अतीत से अलग हुआ है तथा दूसरी ओर भविष्य से। परम्परा और अतीत से विच्छिन्न होने के कारण उसमें परायापन विकसित हुआ है। आज के औद्योगिक युग में मनुष्य के श्रम और उत्पादन पर उसका नियंत्रण न रहा... वह एक पराई चीज होकर रह गई। मशीनी संस्कृति ने मनुष्य को यंत्र का पुर्जा बनाकर छोड़ दिया है।”1 कहना न होगा कि आधुनिकता अमानवीयता और आत्म-निर्वासन का युग है। पहले, मनुष्य गुलामी से डरता था, लेकिन आधुनिक युग में वह मशीन का पुर्जा बनने के भय से ग्रस्त है।


    नगर जीवन और औद्योगिकीकरण ने साहित्य के विषयों को भी प्रभावित किया है। क्योंकि महानगरों में बढ़ती भीड़ और यांत्रिक जीवन ने व्यक्तियों के बीच मानसिक दूरी बढ़ाई है। लोग शारीरिक रूप से पास होते हुए भी भावनात्मक रूप से अलग-थलग महसूस करने लगे हैं। इससे सामाजिक संबंध कमजोर हो गए और आधुनिक साहित्य में अकेले, अजनबी और अलगावग्रस्त व्यक्तियों का चित्रण प्रमुखता से होने लगा। इसके अतिरिक्त देखा जाए तो युद्धों ने भी मानव अस्तित्व पर गहरा प्रभाव डाला है। प्रथम और द्वितीय विश्व युद्ध की विभीषिकाओं ने करुणा, भय, निराशा और मृत्यु-संत्रास का वातावरण बनाया और ईश्वरीय आस्था और नैतिक मूल्यों को कमजोर कर दिया। परिणामस्वरूप यूरोपीय साहित्य में निराशा, संत्रास और अलगाव का चित्रण बढ़ा, जिसका प्रभाव भारतीय साहित्य पर भी पड़ा।


    भारतीय संदर्भ में यह तर्क गलत है कि ‘आत्म-निर्वासन’ की भावना केवल विदेशी प्रभाव का परिणाम है। हिंदी के विद्वान मानते हैं कि भारतीय परिवेश में भी आत्म-निर्वासन के कारण मौजूद हैं। रघुनाथ जैन लिखते हैं कि- “यह नहीं कहा जा सकता कि आत्म-निर्वासन की धारणा विदेशी है और देश की मिट्टी एवं गंध से उसका कोई संबंध नहीं है। यह कहना भी कि भारतीय साहित्य में अलगाव को ढूँढना, पाश्चात्य दृष्टिकोण को भारतीय साहित्य पर थोपना है, तर्क संगत नहीं है। वस्तुतः कोई विशिष्ट धारणा किसी विशिष्ट साहित्य की बपौती नहीं होती तथा वे धारणायें अपनी परिस्थितियों के अनुरूप विशिष्टतायें रखती हैं। इसलिए यह तर्क देना कि भारतीय समाज में ऐसी जटिल परिस्थितियाँ ही नहीं हैं कि व्यक्ति को संत्रास, अलगाव या निरर्थकता से जूझना पड़े, यथार्थ से आँखें मूँद लेना है।”2 जाहिर है कि ‘आत्म-निर्वासन’ का संबंध भारत की प्राचीन परंपरा से रहा है, जिसका उल्लेख पूर्व में किया जा चुका है। इसलिए ‘आत्म-निर्वासन’ की प्रक्रिया पर संदेह करना बेमानी होगा।


    ध्यातव्य हो कि सन् 1947 के विभाजन के समय हुई मारकाट और विस्थापन की घटनाओं ने भी भारतीय जनमानस को प्रभावित किया। विभाजन, सांप्रदायिकता और युद्ध की भयावहता ने समाज में असुरक्षा और असंतोष का वातावरण पैदा कर दिया। भिन्न-भिन्न समुदायों के लोग साथ रहते हुए भी एक-दूसरे के प्रति विद्वेषपूर्ण दृष्टिकोण रखते रहे। यह स्थिति समाज में तनाव और संत्रास को बढ़ावा देती रही, जिससे व्यक्ति स्वाभाविक रूप से अकेलापन और असहायता महसूस करता रहा। इस संदर्भ में डॉ. शशिभूषण सिंघल लिखते हैं कि- “सह-अस्तित्व की बात भले ही निरन्तर दोहरायी जाती रहे, किन्तु उसे मानसिक स्वीकृति हम नहीं दे पाते हैं। फलतः बात-बात पर विद्वेष की भभक आये दिन फूट पड़ती है और भीषण मारकाट का अनायास रूप धारण कर लेती है। अपने ही देश में रहते हुए, क्या बहुसंख्यक और क्या अल्पसंख्यक, सभी अजीब तनाव की स्थिति में जी रहे हैं। यह संत्रास की स्थिति नहीं है तो और क्या? इनके कारण स्वतंत्र देश में स्वाभाविक आत्मबल नहीं जग सका है। उल्टे लोग अपने आप में सिमटकर अधिक आशंकित, स्वार्थी और बेईमान हो गए हैं। ऐसी अवस्था के बीच व्यक्ति का घबराकर असहाय और अकेला हो जाना अस्वाभाविक नहीं है।”3 कहना न होगा कि हिन्दी उपन्यासों ने व्यक्ति के अकेलेपन और अलगाव को बखूबी चित्रित किया है।


    औद्योगिकीकरण और मशीनीकरण भारतीय समाज में अलगाव के बड़े कारण बने। स्वतंत्रता के बाद औद्योगिक क्रांति और नए वैज्ञानिक आविष्कारों ने मनुष्य को यंत्र का एक पुर्जा बना दिया। उत्पादन व्यवस्था और यांत्रिक जीवन ने व्यक्ति को अपनी मानवता और रागात्मक संबंधों से दूर कर दिया। जगदीश नारायण श्रीवास्तव लिखते हैं- “औद्योगिक क्रान्ति की शुरुआत करने के लिए जिस संस्कृति का वरण हुआ, उसने हमारे उपभोग का आधुनिकीकरण तो अवश्य कर दिया पर प्रकारांतर से बेरोजगारी, गरीबी, काहिलापन, ऊब और कामुकता का प्रसाद देकर हमारी आंतरिकता से हमें विस्थापित कर दिया, जिसे सदियों पुराने, जड़ समाज के अंधविश्वासों से ग्रस्त करोड़ों देशवासियों का हमारा देश बर्दाश्त न कर सका।”4 कहना होगा कि साहित्यकारों ने इन्हीं स्थितियों का चित्रण अपनी रचनाओं में किया, जहाँ मनुष्य अजनबी, निर्वासित और अकेला महसूस करता है। इस प्रकार आधुनिकता के प्रभाव ने भारतीय साहित्य में भी अलगाव और आत्म-निर्वासन को एक प्रमुख विषय बना दिया है।


    भारतीय समाज में अलगाव-बोध और आत्म-निर्वासन की समस्या का एक महत्वपूर्ण कारण औद्योगीकरण और उसके परिणामस्वरूप शहरीकरण तथा महानगरीकरण की प्रक्रिया है। आज गाँव तेजी से कस्बों में, कस्बे शहरों में और शहर महानगरों में बदल रहे हैं। इस बदलाव का मानव जीवन पर गहरा प्रभाव पड़ा है। पश्चिमी सभ्यता में व्यक्ति स्वतन्त्र इकाई के रूप में विकसित हुआ, जबकि भारत में गाँव हमेशा एक सामूहिक इकाई रहा। जब तक गाँव का व्यक्ति गाँव से जुड़ा रहता है, वह अपनी पारम्परिक आस्थाओं के साथ सामंजस्य बनाए रखता है। वह अजनबीपन का शिकार नहीं होता। डॉ. विद्याशंकर राय का कहना है कि- “मजदूरी के लिए शहर जाने पर वही व्यक्ति जब तक मानसिक स्तर पर गाँव से सम्बद्ध रहता है, ऊब और तनाव का शिकार नहीं होता। लेकिन नई चेतना के संस्पर्श और नए विचारों की सुगबुगाहट से जब आस्थाएँ ढहने लगती हैं तब उन सारी मान्यताओं पर प्रश्नचिन्ह लग जाता है और अजनबीपन की समस्या धीरे-धीरे उसके मानस में गहराने लगती है।”5 हालांकि, यह कहना भी सही नहीं होगा कि ग्रामीण परिवेश में अलगाव नहीं है। स्वतंत्रता के बाद गाँवों में बदलाव आया है और ग्रामीण जीवन अब सरल और सामान्य न रहकर जटिल और विषम हो गया है। पूँजीवाद और सामन्ती व्यवस्था की कुरीतियों ने गाँव के सामूहिक जीवन को तोड़ दिया, जिससे व्यक्तिवाद को बढ़ावा मिला। परिणामस्वरूप यह हुआ कि ग्रामीण बुद्धिजीवी भी निर्वासित और पराया महसूस करने लगा। हालांकि, यह निर्वासन पूर्ण नहीं है, क्योंकि ग्रामीण बुद्धिजीवी अपनी भूमिकाओं के माध्यम से सम्मान पाता है। फिर भी जाति, धर्म और गुटबाजी के कारण अलगाव और अकेलेपन का अनुभव करता है। इस प्रक्रिया में वोट की राजनीति ने भी ग्रामीण समुदायों में अविश्वास, घृणा, और विद्वेष को बढ़ावा दिया है।


    शहरों और महानगरों में आत्म-निर्वासन और अजनबीपन की समस्या और भी जटिल है। शहरी जीवन में यांत्रिकता और भीड़ के बीच व्यक्ति अकेलापन महसूस करता है। महानगरों ने व्यक्तिवादी चेतना को बढ़ावा दिया है, लेकिन साथ ही साथ मनुष्य को अपने से और अपने संबंधों से दूर कर दिया है। भौतिक तकनीकी ने व्यक्ति को मशीन का साधारण पुर्जा बना दिया है, जिससे वह अपनी पहचान खो बैठा है।


    हिन्दी साहित्य में अज्ञेय जैसे लेखक इस समस्या को बड़ी गहराई से उजागर करते हैं। उनकी कृति ‘शेखर एक जीवनी’ आधुनिकता और आत्म-निर्वासन के भावों को प्रकट करती है। शेखर का विद्रोही स्वभाव, उसकी पारम्परिक मान्यताओं के प्रति अविश्वास और नए मूल्यों के अभाव ने उसे ‘रोमेंटिक आउटसाइड’ बना दिया है। अज्ञेय आत्म-निर्वासन को ‘मूल्यगत द्वंद्व’ और ‘अस्मिता के संकट’ के रूप में अनुभव करते हैं और स्वीकार करते हैं कि “संकटग्रस्त अस्मिता का बोध सब आधुनिकों को है।”6 कहना न होगा कि इस तरह का बोध होना आधुनिक समय की सबसे बड़ी त्रासदी थी। चूँकि आधुनिकता के बढ़ते हुए दाब से व्यक्ति बहुत ज्यादा द्वंद्व में रहने लगा। जिसकी परिणति अकेलापन और आत्म-निर्वासन के रूप में होने लगी।


    हालाँकि डॉ. रमेश कुन्तल मेघ ने ‘आत्म-निर्वासन’ के विभिन्न पहलुओं पर विचार करते हुए इसे आधुनिक युग की एक जटिल समस्या बताया है। उनके अनुसार मनुष्य अपने कार्य से अलग होकर अजनबी बन गया है। भारतीय समाज में व्याप्त ‘आत्म-निर्वासन’ विवश और ऊर्जस्वी मनुष्य का परायापन है, जिसे कर्म का अवसर नहीं मिला। आगे वे रास्ता सुझाते हुए कहते हैं कि समाजवादी व्यवस्था द्वारा ही ‘आत्म-निर्वासन’ पर विजय प्राप्त किया जा सकता है।


    निर्मल वर्मा और डॉ. रामस्वरूप चतुर्वेदी जैसे विचारकों ने आत्म-निर्वासन को सांस्कृतिक अवरोध और जातीय अस्मिता के संकट के रूप में देखा। डॉ. चतुर्वेदी इसे पूर्व और पश्चिम के मूल्यों के द्वंद्व का परिणाम मानते हैं, जबकि वर्मा इसे भारतीय और यूरोपीय संस्कृति के बीच अंतर के संदर्भ में समझते हैं। वर्मा जी का मानना है कि पश्चिमी तकनीकी (सभ्यता) को अपनाने से भारतीय समाज ने अपनी बहुमुखी प्रेरणाओं को खो दिया है। गाँव से शहर और शहर से महानगर में बदलाव ने जीवन को जटिल बना दिया है। पुराने सामाजिक ढाँचे अप्रासंगिक हो गए हैं। इस बदलाव से उत्पन्न मोहभंग, तनाव और अजनबीपन को हिन्दी साहित्य में गहराई से चित्रित किया गया है। मोहन राकेश जैसे लेखकों ने महानगरीय जीवन की विसंगतियों को अपनी रचनाओं में प्रमुखता से उभारा है। जबकि निर्मल वर्मा ने पारम्परिक ढाँचे को तोड़कर नये शिल्प और अभिव्यक्ति के माध्यम से इन समस्याओं को हल करने की कोशिश की।


    आधुनिक हिन्दी साहित्यकारों ने महानगरीय जीवन की जटिलताओं और उसमें व्याप्त अजनबीपन का सजीव चित्रण किया है। यह साहित्य उस युगबोध का प्रतिनिधित्व करता है, जहाँ परम्परा, आधुनिकता, और सांस्कृतिक संक्रमण के बीच का द्वंद्व स्पष्ट दिखाई देता है। नगरों की भौतिक और तकनीकी सभ्यता ने व्यक्ति को केवल एक वस्तु के रूप में देखा है। इस दृष्टिकोण के परिणामस्वरूप ‘आत्म-निर्वासन’ की वेदना का चित्रण हिन्दी साहित्य में स्पष्ट रूप से हुआ है। हिन्दी उपन्यासों के पात्र सामान्यतः शहरी व्यक्ति होते हैं और उपन्यासों का वातावरण दिल्ली, मुंबई और मद्रास जैसे महानगरों पर आधारित होता है। मोहन राकेश ने अपने उपन्यासों में महानगरों में रहने वाले मध्यमवर्गीय लोगों के ‘आत्म-निर्वासन’ को उकेरा है। इसी प्रकार निर्मल वर्मा और महेन्द्र मल्ला की रचनाओं में भी शहरी जीवन का यथार्थपूर्ण चित्रण मिलता है।


    महानगरीय जीवन की सबसे बड़ी त्रासदी है- बढ़ती हुई भीड़ में अकेलेपन का अनुभव, सहयात्री होकर भी अपरिचित बने रहने की संस्कृति और मानव के जड़ता और अमानवीयता की ओर बढ़ने की प्रवृत्ति। हिन्दी उपन्यास जैसे ‘वे दिन’, ‘एक चिथड़ा सुख’, ‘एक पति के नोट्स’, ‘अन्धेरे बन्द कमरे’, ‘मेरा दुश्मन’, ‘अंतराल’ आदि में शहरी जीवन की समस्याओं, अकेलापन, अजनबीपन, संत्रास, निरर्थकता और ‘आत्म-निर्वासन’ का गहन वर्णन किया गया है। इन कृतियों में दिखाया गया है कि नगरों और महानगरों में जीवन मानो अपरिचय, अजनबीपन और अनात्मीयता की बुनावट से निर्मित है।

महानगरीय जीवन में व्यस्तता और तनाव, भाग-दौड़ और प्रतिस्पर्धा ने नागरिकों को विभिन्न मुखौटे पहनने पर विवश किया है। इस कृत्रिमता और यांत्रिकता ने महानगरीय जीवन को कठोर और निर्मम बना दिया है। मानसिक अस्वस्थता का मूल कारण न केवल आर्थिक और सामाजिक विषमताएँ हैं, बल्कि भीड़-भाड़ और अलगाव के अनुभव भी इसमें योगदान देते हैं। डॉ. प्रेम कुमार लिखते हैं कि- “निकट के सम्बन्धों में भी तनाव और टूटन की स्थितियाँ यहाँ के व्यस्त जीवन में प्रायः बनती हैं। भाग-दौड़, उखाड़-पछाड़ और लाग-डांट में उलझा-झुंझुलाया नागरिक अनेक मुखौटे पहनने के लिए विवश होता है। कृत्रिमता और यांत्रिकता नगर-महानगर के जीवन के बोध को कठोर और निर्मम बनाते हैं। ...अलगाव की अनुभूति महानगरीय जीवन जीने वाले व्यक्ति को मानसिक रूप से बीमार बनाने के लिए पर्याप्त है। ...मानसिक अस्वस्थता के मूल में आर्थिक-सामाजिक विषमता के अतिरिक्त भीड़-भाड़ से उत्पन्न अव्यवस्था और अलगाव के संदर्भ विद्यमान है...।”7


    हिन्दी साहित्य के प्रमुख लेखकों जैसे रमेश बक्षी, जगदम्बा प्रसाद दीक्षित, कमलेश्वर, राजेन्द्र यादव, कृष्ण बलदेव वैद्य और उषा प्रियंवदा ने भी महानगरीय भीड़ में अपने अस्तित्व को खोजने वाले पात्रों की कहानियाँ लिखी हैं। इन लेखकों के अनुसार महानगर ‘आत्म-निर्वासन’ का प्रमुख कारण है, जहाँ व्यक्ति अपनी जड़ों को रोप नहीं पाता और अजनबीपन का अनुभव करता है। महानगर का मनुष्य मानो एक यांत्रिक पुर्जा बनकर अपनी निजता खो देता है। ईश्वर, धर्म और परंपराओं के लिए यहाँ कोई स्थान नहीं होता और सामाजिक संबंधों की अहमियत नगण्य हो जाती है।


    भारतीय संदर्भ में अलगाव के अन्य कारण गरीबी और अभाव भी हैं। जहाँ यूरोप में अलगाव वस्तुओं और पदार्थों की बहुतायत के कारण उत्पन्न हुआ, वहीं भारत में यह वस्तुओं की कमी से हुआ। यहाँ श्रम और अवकाश का असंतुलन, बेरोजगारी और भ्रष्टाचार से उत्पन्न कुंठा व्यक्ति के अलगाव में विशेष योगदान देते हैं। डॉ. रमेश कुंतल मेघ लिखते हैं- “हमारे देश में परायेपन की एक विलक्षणता और है। यह धारणा श्रम तथा उपज, अवकाश (लेजर) तथा कार्य (वर्क) से सम्बन्धित है। यूरोप में श्रम और अवकाश, उपज और कार्य की यथेष्टता विद्यमान है। लेकिन एशिया के देशों में श्रम की प्रतीक्षा करते हुए बेकार हाथ, बेरोजगारी में परेशान, अवकाश में घुटते हुए बुद्धिजीवी तथा उपज की कमी से अभाव, भ्रष्टाचार एवं चोरबाजारी में फंसे हुए बुद्धिकर्मी हैं। अतः हमारा परायापन दूसरे ढंग का है। यूरोप में इफरात (एफलुएंस) वाले अर्थ तंत्र, पूरे रोजगार, पूरी तुष्टि तथा अधिक अवकाश के बीच आत्मनिर्वासन विकसित होता है और हमारी परिस्थितियाँ ठीक विपरीत हैं। अतः हमारे यहाँ एक विवश और अपंग किन्तु ऊर्जस्वी मनुष्य का परायापन है, जो कर्म का अवसर नहीं पा सका है। अतः यहाँ आक्रोश और क्षोभ की प्रधानता है, न कि दर्शन की विरक्ति और मृत्यु की साधना।”8 यानी यह कहा जा सकता है कि अलगाव का एक मुख्य कारण बेरोजगारी, भूख, गरीबी से त्रस्त जीवन भी है।


    ध्यातव्य हो कि मूल्यक्षरण और सांस्कृतिक विरक्ति भी अलगाव का प्रमुख कारण है। स्वतंत्रता के बाद भारत में परंपरागत मूल्यों का क्षरण हुआ। ईश्वर और मानव निर्मित संस्थाओं पर विश्वास कम हो गया। आधुनिक युग में मनुष्य का जीवन शून्य और उद्देश्यहीन प्रतीत होता गया। विज्ञान, मनोविज्ञान और दर्शन ने मनुष्य को पशु सिद्ध कर दिया, जिससे आज का युग मूल्यहीनता का युग बन गया है। इस संदर्भ में साहित्य ने इन समस्याओं को पहचानना और उनका बोध कराना उचित समझा। देवेंद्र इस्सर कहते हैं कि- “जब विज्ञान, मनोविज्ञान और दर्शन द्वारा मनुष्य को पशु सिद्ध कर दिया गया है तो यह नारा लगाया गया कि यह युग मूल्यहीनता का युग है। आज हम एक ऐसी विकृत और विशाल दुनिया में सांस लेने पर मजबूर हैं जिससे हमारा कोई सम्बन्ध नहीं। सब अजनबी और पराये हैं। अजनबी और पराये लोगों की इस भीड़ में मनुष्य अकेला और निराश्रय है। विनाश का खतरा हमारे सिरों पर मंडरा रहा है। इसलिए कहा जाता है कि आज का साहित्य संकट का साहित्य है जिसमें अराजकता, प्रोटेस्ट का हिस्टीरिया और चीख पुकार है। केवल वही साहित्य सच्चा और प्रामाणिक है जो हमें इस एब्सर्ड और असहनीय परिस्थिति का बोध दे सकता है।”9


    गौरतलब है कि विभाजन के बाद भारत में सांप्रदायिक दंगे, शरणार्थी समस्या और असुरक्षा की भावना ने मोहभंग को जन्म दिया। स्वतंत्रता के बाद देश का विकास अपेक्षाओं के अनुरूप नहीं हुआ। स्वतंत्रता का लाभ केवल उच्च वर्ग को मिला, जबकि आम जनता आज भी गरीबी और भटकाव से जूझ रही है। राजनीतिक भ्रष्टाचार के कारण अलगाव प्रमुख कारण बना। नेताओं की स्वार्थपरता और आदर्शों की गिरावट ने नागरिकों को अलगावग्रस्त कर दिया। राजनेताओं के वादे केवल चुनाव तक सीमित रह गए और आज भी वही स्थिति है। आम जनता की समस्याएँ अनदेखी रह जाती हैं। इससे नागरिकों में आत्मकेन्द्रितता और परायेपन की भावना उत्पन्न होती है, जिससे परिवार, समाज, और राष्ट्र के ढाँचे टूटने लगते हैं।


    अतः यह स्पष्ट है कि प्रत्येक युग का साहित्य अपने समय की परिस्थितियों का दर्पण होता है। स्वातंत्र्योत्तर हिन्दी साहित्य ने समकालीन समस्याओं और आधुनिकता को अपने विषय के रूप में अपनाया है। उक्त उपन्यासों में अस्तित्ववादी दर्शन का प्रभाव स्पष्ट है, जिसमें निरर्थकता, घबराहट, अकेलापन, मृत्यु-बोध और असुरक्षा के भाव शामिल हैं। अधिकांश लेखकों ने भारतीय परिवेश के अनुरूप ‘आत्म-निर्वासन’ की भावना को उकेरा है। भारतीय संदर्भ में यह समस्या गरीबी, बेरोजगारी, और सांस्कृतिक व राजनीतिक विसंगतियों से जुड़ी हुई है, जो साहित्य के विषयों में प्रमुखता से स्थान पाती है।


निष्कर्ष 

रूप में यह कहा जा सकता है कि आत्म निर्वासन एक दार्शनिक, सामाजिक और व्यक्तिगत अवधारणा है, जो व्यक्ति को अपनी आंतरिक और बाहरी दुनिया को बेहतर तरीके से समझने का अवसर देती है। यह स्वतंत्रता और पहचान की खोज का माध्यम है, लेकिन साथ ही इसके नकारात्मक प्रभावों को भी अनदेखा नहीं किया जा सकता। आज के बदलते समाज में आत्म निर्वासन की भूमिका और महत्व बढ़ रहा है, जो अध्ययन की दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण विषय बनाता जा रहा है।


संदर्भ-सूची 

1. विश्वनाथ प्रसाद तिवारी, नए साहित्य का तर्कशास्त्र, मैकमिलन कंपनी ऑफ इंडिया, नई दिल्ली, 1975, पृ. सं. 116.

2. डॉ. रघुनाथ जैन, अलगाव की दृष्टि से नवगीत का अध्ययन, पृ. सं. 21

3. डॉ. शशिभूषण सिंगल, हिन्दी उपन्यास की प्रवृत्तियाँ, विनोद पुस्तक मंदिर, आगरा, 1970, पृ. सं. 146-47

4. जगदीश नारायण श्रीवास्तव, समकालीन कविता पर एक बहस, चित्रलेखा प्रकाशन, नई दिल्ली, 1978, पृ. सं. 76

5. डॉ. विद्याशंकर राय, आधुनिक हिन्दी उपन्यास और अजनबीपन, सरस्वती पुस्तक मंदिर, इलाहाबाद, 1981, पृ. सं. 24

6. सं. कृष्णदत्त पालीवाल, अज्ञेय रचनावली-7, भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली, 2015, पृ. सं. 90

7. सं. डॉ. रामदरश मिश्र, हिन्दी उपन्यास के सौ वर्ष, डॉ. प्रेमकुमार का लेख ‘समकालीन उपन्यास नगरबोध’ का संदर्भ से उद्धृत, पृ. सं. 112-113

8. डॉ. रमेश कुंतल मेघ, आधुनिकता-बोध और आधुनिकीकरण, अक्षर प्रकाशन, नई दिल्ली, पृ. सं. 238

9. देवेंद्र इस्सर, साहित्य और आधुनिक युगबोध, कृष्ण ब्रदर्स, अजमेर, 1973, पृ. सं. 15.

 
सौरभ सिंह
शोधार्थी- हिन्दी विभाग,
जामिया मिल्लिया इस्लामिया विश्वविद्यालय,
नई दिल्ली-110025



Post A Comment
  • Blogger Comment using Blogger
  • Facebook Comment using Facebook
  • Disqus Comment using Disqus

No comments :