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शोध आलेख : द्विवेदी युग में दलित स्त्री लेखन की अनसुनी गूंज : ‘छोटके चोर’ का एक आलोचनात्मक अध्ययन

सारांश

हिंदी साहित्य का इतिहास यदि किसी चीज़ का प्रमाण है, तो वह यह कि इसमें समाज की वर्चस्वशाली शक्तियों का प्रभाव हमेशा रहा है। साहित्यिक धारा के मुख्य प्रवाह में वही रचनाएँ शामिल की जाती रहीं, जो किसी न किसी रूप में स्थापित सामाजिक संरचनाओं के अनुकूल थीं। इसके चलते दलित और स्त्री लेखन को उचित स्थान नहीं मिल सका। द्विवेदी युग, जिसे हिंदी गद्य और काव्य के परिष्कार और परिमार्जन का काल कहा जाता है, उसमें भी यह प्रवृत्ति स्पष्ट रूप से दिखाई देती है।


    महावीर प्रसाद द्विवेदी द्वारा संपादित सरस्वती पत्रिका ने इस काल में हिंदी साहित्य के भाषा-संस्कार को गढ़ने का कार्य किया, किंतु यह मुख्यतः सवर्ण लेखकों की बौद्धिक गतिविधियों तक सीमित रहा। इसी समय एक स्त्री, जो स्वयं दलित वर्ग से थी, उसने हिंदी गद्य में अपनी उपस्थिति दर्ज कराई। श्रीमती मोहिनी चमारिन द्वारा लिखित कहानी ‘छोटके चोर’ इस संदर्भ में ऐतिहासिक महत्त्व रखती है। यह कहानी केवल एक साहित्यिक कृति नहीं, बल्कि तत्कालीन समाज के भीतर मौजूद सामाजिक विषमता और सत्ता-संरचनाओं के अन्यायपूर्ण स्वरूप का सशक्त दस्तावेज़ भी है।


बीज शब्द : हाशिए का साहित्य, सामाजिक यथार्थ, बाल मनोविज्ञान, दलित और स्त्री-लेखन, न्याय व्यवस्था की विडंबना, साहित्यिक उपेक्षा, गरीबी और शोषण, ग्रामीण जीवन, सत्ता और न्याय, हिंदी नवजागरण, कथा संरचना, साहित्यिक पुनर्पाठ, सामाजिक विषमता, नैतिक द्वंद्व


शोध आलेख

 महावीर प्रसाद द्विवेदी के दौर में उनके द्वारा सम्पादित 'सरस्वती' पत्रिका में सन् 1914 में प्रकाशित कविता 'अछूत की शिकायत' जिसके रचनाकार हीरा डोम माने जाते हैं। वह पटना, बिहार के निवासी थे। यह कविता दलित साहित्य की पहली रचना मानी जाती है और इसकी भाषा भोजपुरी है, जिससे यह भोजपुरी की भी प्रथम रचना मानी जा सकती है।


    द्विवेदी युग में स्त्री साहित्य की ही तरह दलित साहित्य को भी पहचान नहीं मिली थी, किन्तु इन विमर्शों की शुरुआत मानी जा सकती है। इसी कड़ी में श्रीमती मोहिनी चमारिन द्वारा रचित कहानी 'छोटके चोर' है। एक दलित स्त्री द्वारा तत्कालीन समय में गद्य की रचना करना एक अत्यन्त हर्ष का विषय है। जहाँ सदियों से स्त्री साहित्य महारानियों व सवर्ण स्त्रियों द्वारा रचा गया, वहीं एक दलित स्त्री की कहानी भी उपस्थित है और वह भी बेजोड़ व बेहतरीन कथ्य व शिल्प को लिए हुई है। जहाँ स्त्रियों की रचनाओं में आदर्श स्त्री व 'आचरण पुस्तकें' जैसी रचनाएँ मिलती हैं, वहीं समाज के निचले तबके की एक स्त्री सबसे हटकर विषय का चुनाव करती है — वह यथार्थ को चुनती है।


    ‘छोटके चोर' सन् 1915 में एक अल्पज्ञात पत्रिका 'कन्या मनोरंजन', इलाहाबाद में छपी थी; इसके सम्पादक ओंकारनाथ बाजपेयी थे। यह कहानी 1915, अगस्त में ग्यारवें अंक में (भाग दो) पृष्ठ 307 से पृष्ठ 310 में छपी है। उस दौर में जब शिक्षा पुरुषों तक सीमित थी, स्त्रियों के लिए शिक्षित होना अत्यन्त सोचनीय बात थी और यदि कुछ स्त्रियाँ शिक्षित भी हुईं तो वह सवर्ण स्त्रियाँ थीं जिनके पास सारे संसाधन मौजूद थे; किन्तु एक दलित स्त्री का शिक्षित होना उस समय की यह बात अपवाद ही माना जा सकता है। मोहिनी चमारिन द्वारा रची गई 'छोटके चोर' कहानी अपवाद ही मानी जा सकती है क्योंकि यह वह तबका है जिसे रोजमर्रा की चीज़ें जुटाने में भी बहुत से कष्टों का सामना करना पड़ता है; फिर लिखाई-पढ़ाई तो दूर की बात है।


    'छोटके चोर' कहानी लोक की भाषा में रची गई है, अर्थात् एक क्षेत्रीय भाषा (अवधी) में रची गई है। जिस समय में स्त्रियाँ नाम बदलकर नकली नामों अथवा अपने पति के नाम से रचनाएँ करती थीं, वहीं लेखिका ने अपनी अभिव्यक्ति खुलकर की है — उन्होंने अपने असली नाम से रचना की। किसी भी तरह का आवरण वे नहीं ओढ़ती। श्रीमती मोहिनी चमारिन ने अपनी कहानी में यथार्थ चित्रण किया है। किसी भी तरह का संकोच उन्हें नहीं छू पाता। कहानी को पढ़कर ऐसा प्रतीत होता है कि उन्होंने अपने जीवन संघर्षों व सामाजिक परिस्थितियों और विषमताओं के अंतर्विरोधों की कथा इस कहानी में उकेरी है।


    कहानी कुछ यूँ शुरू होती है कि एक गाँव में बहुत दिनों से चोरियाँ हो रही थीं। किसी का लोटा, किसी की थाली चोरी हो जाती थी; किसी के घर में सेंध (यानी किसी के घर की दीवारों में छेद करके या दीवार तोड़कर चोर घर में घुस जाना) लग जाती थी। आदमी के पीने तक का लोटा नहीं छोड़ते थे — “जहँ देखौ उधरै यही सुनाय — बजार माँ, जेब माँ पैसा रखके हाथे से दबाये जाउ औ तनीसा गाफिल भये कि पैसा नदारद; चोर का कि आंखी के काजर काढ़ लेत रहै। हाकिमों, पुलिस आरी रहें; बहुत तलाश तहकियात करे मुदा कुछ पता चलै न।”[1] जब चोर पुलिस के भी हाथ नहीं लगे, तब हाकिम ने चोर को पकड़े जाने पर 100 रूपयों का इनाम रखा। यह कहानी अंग्रेज़ों के दौर में आम लोगों के जीवन को व्यक्त करती है। उसी गाँव में एक अहिरिन थी। उसके पति की छह वर्ष पहले मृत्यु हो जाती है और जैसे-तैसे वह अपने तीन छोटे बेटों को पाल रही है। “लड़कवन छोटे-छोटे रहैं, उनका ख्याब पियाब कपड़ा-लत्ता का अकेले महेराख के कमाई में कहां अटै; तीन बिचारी दिन ज्ञभ् मजूरी करै और रात के पिसौनी, इतना मेहनत करत करत ओकर देहीं के बल बिल्कुल टूट गया और बेराम रहै।”[2]


    बच्चों के लिए वह बहुत मेहनत करती है और दिन भर मजदूरी और रात में चक्की पर अनाज पीसने का काम करती है, जिसके कारण वह खटिया पकड़ लेती है। फिर उसका छोटा बेटा लल्लू और मंझला बेटा द्वारका छोटा-मोटा काम करते हैं, किन्तु उनके थोड़े से काम से घर नहीं चल सकता। लेखिका कहती है कि कहीं थूक से सत्तू नहीं बन सकता — अर्थात् छोटे बच्चे बहुत ज्यादा मेहनत नहीं कर सकते। यहाँ लेखिका समाज में हो रही बाल मज़दूरी को दिखाती हैं। मजबूरी की वजह से छोटे बच्चों का काम करना तत्कालीन समाज में गरीब वर्ग की कथा है। यह आज भी प्रासंगिक है।


    इस कहानी में बाल मनोविज्ञान को दिखाया गया है। छोटे बच्चे बड़ी मासूमियत के साथ यह बात करते हैं कि गाँव में चोरियाँ हो रही हैं तो ये चोर कैसा दिखता है। वे हाकिम (अंग्रेज़ अफ़सर) को भी सोचते हैं कि वह कैसे होते हैं। उन्होंने अपने जीवन में कभी हाकिम और चोर नहीं देखा था। वे सोचते हैं कि माँ बीमार है और यदि चोर इनको मिल जाएँ तो इनाम की राशि से उनकी माँ ठीक हो जाएगी।


    इस तरह का बाल मनोविज्ञान प्रेमचन्द की 'ईदगाह' में भी देखा जा सकता है, जब हामिद अपनी दादी के लिए चिमटी खरीद कर लाता है जिससे उनका हाथ रोटियाँ बनाते हुए न जले। 'छोटके चोर' कहानी में भी कुछ ऐसा ही है। लल्लू अपनी माँ की दवा के लिए चोर बन जाता है ताकि उसके भाई को इनाम के 100 रूपये मिल जाएँ और वे अपनी माँ का इलाज करा सकें। उस समय की एक दलित स्त्री लेखिका प्रेमचन्द के टकर की कहानी लिख रही है — यह एक अद्भुत बात है।


    छोटका बेटा लल्लू कहता है — "हेराम एक ठो चोर कहुं से मिल जाय तो बहुत अच्छा।"[3] तभी लल्लू के सबसे बड़े भाई के साथ बुआ आती है। बच्चे बड़ी उत्सुकता से अपनी बुआ से पूछते हैं कि आखिर चोर और हाकिम कैसे दिखते हैं। बच्चे सोचते हैं कि हाकिम कोई जानवर है जो उन्हें काट लेगा। यहाँ बच्चों की मनःस्थितियों का चित्रण बड़े ही मार्मिक ढंग से किया गया है। बच्चों की बुआ उन्हें बताती है कि चोर और हाकिम एक जैसे दिखते हैं; वे भी इंसान होते हैं, बस फर्क इतना है कि एक बुरा व्यक्ति है जो चोरी करता है, दूसरा हाकिम उस चोर को पकड़ता है। तभी द्वारका कहता है कि उसने सुना है कि हाकिम लोगों को पकड़ता है, मारता है। तब बुआ कहती है — "बिना कसूर के हाकिम के बाप दहि जरा तो सजा दैय दई।"[4] अर्थात् बिना कसूर के वह लोगों को पकड़ नहीं सकता; वह कसूरवारों को पकड़ता है — "हाकिम चोर-बदमाश का मारत और सजा देत है, कुछ भले मनई का नहीं।"[5]


    तत्कालीन समय में अंग्रेज़ों की न्याय व्यवस्था तथा न्यायप्रियता का जिक्र किया गया है। यहाँ गुलाम भारत की न्यायव्यवस्था का चित्रण हुआ है। तब की न्याय व्यवस्था और आज की न्याय व्यवस्था में कितना फर्क है — लेखिका तत्कालीन समय में यह बात कह रही हैं कि हाकिम के बाप में दम नहीं है कि वह किसी आम आदमी को तंग करे। न्याय व्यवस्था बनी है अपराधियों को पकड़ने के लिए; वह भले आदमी को नहीं पकड़ता। कानून व्यवस्था पर इतना विश्वास हम आज की न्याय व्यवस्था में आम आदमी के अन्दर नहीं देखते।

लेखिका तत्कालीन अंग्रेज़ी व्यवस्था से लोहा लेती नजर आती हैं — वह यह जानती हैं कि अंग्रेज़ी पुलिस व्यवस्था का कार्य आम जनता को तंग करना नहीं होना चाहिए; वह अपराधियों को पकड़ने के लिए है।


    मंझलका लड़का द्वारका सोचता था कि हाकिम कोई जानवर है; वह कहता है — “हाँ बुआ होई ऐसन, परसों, हियां हाकिम आये रहें तौन उनके खातिर तीन-चार दिन पहिलेन से बहुताया खूटा उंटा गाड़े जातर रहैं, मैं सोचऊं कि कौनौं बड़ा जनाउर होई तौ तो हतने खूटा माँ बाँधा जात है। नहीं, भैंस-गाय बिचारी तो एके खूंटा मां रहती हैं। तौन बुआ, मैं रस्ता मां खेलत रहेउ कि मनई कहेन भाग-भाग हाकिम आवत है। सब कौनों इधर-उधर लुकै दिपाय लागें।”[6]


    यहाँ बालमन की जिज्ञासा दिखाई गई है और उस समय की सत्ता पर व्यंग्य किया गया है कि यदि पुलिस व्यवस्था या सत्ता प्रशासन के लोग चाहें तो आम जनता का भला कर सकते हैं; किन्तु यदि वह भ्रष्ट है तो वह जानवर के रूप में लोगों को काट भी सकती है।

    

    छोट का लल्लू अपने मंझले भाई द्वारका से कहता है कि वह किसी काम आता नहीं, कोई नौकरी पर भी नहीं रखता तो वह घर का खर्च नहीं चला सकता, इसलिए वह चोर बन जाएगा और द्वारका उसे जेल में हाकिम के पास दे आएगा जिससे उन्हें 100 रुपये इनाम राशि मिल जाएगी और उनकी माँ का इलाज उन पैसों से हो जाएगा। यह घटना इस कहानी की आत्मा है। इसमें दो छोटे बच्चे इस तरह की बात करते हैं जो स्वाभाविक जान नहीं पड़ता, किन्तु यह यथार्थ है। गरीबी व परिस्थितियाँ व्यक्ति को मजबूर कर देती हैं। इसी गरीबी और बदहाल हालातों की वजह से बच्चों का इस तरह से फैसला लेना स्वाभाविक जान पड़ता है। यहाँ प्रेमचन्द की कहानी कफन के यथार्थवादी दृष्टिकोण 'छोटके चोर' कहानी में भी नज़र आता है। 'छोटके चोर' कहानी आदर्शोन्मुख यथार्थवादी कहानी है।


    अंत में लल्लू चोर बन जाता है और द्वारका उसे हाकिम के पास ले जाता है, जिससे द्वारका को इनाम की राशि मिल जाती है और लल्लू को जेल हो जाती है। द्वारका डरा-सहमा घर तो आ जाता है किन्तु अपनी माँ के आगे झूठ नहीं बोल पाता। बच्चों की बीमार माँ अपने छोटे बच्चे लल्लू के विषय में मंझलके लड़के द्वारका से पूछती है कि लल्लू कहाँ है, उसे बुला लो। दिन से शाम हो जाती है। अब द्वारका को उसकी माँ धमकाती है कि लल्लू को लाओ, लल्लू कहाँ है? द्वारका –
"महतारी पूछेस कि लल्लू का कहां छोड़ आये– अब सो बहकाव के तरकीब भूल गै जो कौनों कबहूं झूठ न ही बोलत का जनी कहो ओके मुंहना से झूठ निकरते नहीं, बुलुक रोय दिहेन औ सब हाल सच-सच कहिं दिहेन। अब तौ महतारी बहुत रिसान कहेस।" [7]


    द्वारका के अपनी माँ को सब सच बताने पर उसकी माँ ने खाना-पीना छोड़ दिया। अच्छा करने गए हो गया बुरा – "क्रेन तौ अच्छे का होईगै बुराई होम करत हाथ जरगा" अर्थात् गए थे हवन करने हो गया बुरा। यहाँ लेखिका इतनी खूबसूरती से घटना का जिक्र कर रही हैं, इतनी रोचकता व लोक की भाषा का इस्तेमाल करते हुए बड़े ही स्वाभाविक ढंग से यह कहानी आगे बढ़ती है।


    हाकिम ने अपना जासूस द्वारका के पीछे लगाया था और सब कथा पता चलने पर वह डिप्टी छोटे से बच्चे लल्लू के ऊपर बहुत प्रसन्न होता है। वह उसे चूमने लगता है और खजांची से उसे पैसे और अनाज के साथ घर भेजता है – “महतारी के दवा-धरमत के खातिर इ सब हुत भेई। हाकिम बड़े खुशी थे। मारे पियाह के लल्लू का गोदी मों बैठाय के मुंह चुमंन कि भगवान हमहूं का ऐसेन लड़का दिहेव और कहेंन कि बेटा तुम ऐसे काम किहे वह कि तुम्हारे हस लड़का पाय हे। तुम्हारा गरीब महतारी सातें मुलुक के राजा से भी बढ़के अमीर है।” [8]
लेखिका यहाँ बता रही हैं कि एक गरीब के बेटे ने अपनी माँ के इलाज के लिए मासूमियत में जो कदम उठाया वह बड़े-बड़े राजा के बेटे भी न करें। उस गरीब की माँ को सातों मुल्कों के राजा से भी अमीर बताया क्योंकि उसके ऐसे बच्चे हैं जो बेहद मासूम और सच्चे तथा अपनी माँ से प्रेम करने वाले हैं।

लल्लू और द्वारका की इस घटना से, व हाकिम जब लल्लू को प्रेम करता है, कहानी का यह दृश्य पाठकों के मन में वात्सल्य भर देता है।

बहुत सा धन व महीने भर का अनाज पाकर लल्लू बेहद खुश होता है और उसकी माँ खुशी से अपने आप ही आठ दिनों में भली-चंगी हो जाती है।

अतः यह कहानी छोटके चोर छोटे से चोर अर्थात् लल्लू की मासूमियत पर केन्द्रित है, जो बेहद रोचक व तत्कालीन साहित्य में जगह पाने वाली कहानी है। बेहद छोटी सी यह कहानी लेखिका के भोगे हुए यथार्थ की कहानी प्रतीत होती है।


    छोटके चोर एक सुखान्त कहानी है। इसमें आदर्श व यथार्थ दोनों एक साथ विद्यमान हैं। यह प्रेमचन्द की कफन कहानी की तरह आदर्शोन्मुख यथार्थवादी कहानी है। द्विवेदी युग में कहानी में इस तरह का शिल्प लाना और वह भी उस समय की दलित स्त्री द्वारा, यह अपने आप में एक बड़ी बात है। इस कहानी में 'यथार्थ' गरीब वर्ग के जीवन की सच्चाइयाँ, उनका संघर्ष, दवाइयों के लिए पैसे न होना, इधर-उधर बंजारों की भाँति काम करना आदि जैसी परिस्थितियों के रूप में दिखाया गया है। लेखिका ने इस कहानी की कथा को कुछ इस प्रकार रचा है मानो यह कहानी नहीं बल्कि भोगा हुआ यथार्थ हो।


    कहानी की शुरुआत कुछ ऐसे होती है मानों कोई अदृश्य चोर नहीं, अपितु कोई रहस्यमयी शक्ति हो जो गाँव से चोरी कर रहा हो। इन चोरी की वारदातों की किसी को कानों-कान खबर नहीं होती। लेखिका कहती है कि चोर तो ऐसे हैं जो आँखों से काजल भी चुरा लें और पता भी न चले। यहाँ एक रहस्य बुनने की कोशिश की गई है, जैसे कोई अदृश्य चोर सामान गायब कर रहा हो। ये चोर सिपाही के हाथ भी नहीं आते। यह कहानी स्वाभाविक रूप से रोचक बन पड़ी है। इसमें कुछ गढ़ा हुआ प्रतीत नहीं होता। पाठक 'इस कहानी में आगे क्या होगा' जानना चाहते हैं।


    अहिरिन के छोटके लड़के लल्लू को यह पता नहीं होता है कि चोर कैसा दिखता है? वह अपने मंझलके भाई द्वारका से पूछता है कि चोर कैसा होता है? बच्चों की इस तरह की जिज्ञासा बड़ी ही मनोरम लगती है।


    इस कहानी में अंग्रेज़ी सत्ता पर कटाक्ष किया गया है कि उस समय में हाकिम को लोग क्या समझते हैं? लोग इस कहानी में पुलिस पर पूर्ण रूप से विश्वास नहीं करते, उन्हें शक की निगाह से देखते हैं कि कहीं सिपाही उन्हें बेफिजूल तंग न कर दे। बच्चे बड़ी ही जिज्ञासा से अपनी बुआ से पूछते हैं कि हाकिम कैसा दिखता है। बुआ कहती है कि वह भी मनुष्य ही है, वह आम लोगों को नहीं सताता, उसका काम चोरों को पकड़ना है न कि आम जनता को तंग करना। गुलाम भारत की न्याय व्यवस्था को आईना दिखाया गया है कि उसका कार्य न्यायव्यवस्था को बनाए रखना है, न कि उसे भंग करना। बच्चे बड़े ही मासूम हैं। वह हाकिम को जानवर समझते थे क्योंकि उन्होंने कभी जीवन में सिपाही (हाकिम) नहीं देखा था –"परसों हियां हाकिम आये रहें तौन उनके खातिर तीन-चार दिन पहिलेन से बहुतसा खूटा-ऊंटा गाड़े जातर रहैं। मैं सोचऊं कि कौनौं बड़ा जनाउर होई तौ तो इतने खूंटा मां बांधा जाता है। नहीं, भैंस-गाय बिचारी तो एकय खूंटा मं रहती है। तौन बुआ मैं रस्तां मां खेलत रहेउं कि मनई कहेन भाग-भाग हाकिम आवत है। सब कौनों इधर-उधर लुकै-दिपाय लागें। मैं तो भैया पहिलेन से डेरान रहेऊं, भागेऊं जिव लैके कि कहुं काट न लेय। पे तनी साह पिछउंड होय के मैं देखऊं तौ नोका निनार मनईहस लाग। ऐसे न चोरै निनार मनइन के तरह होत है?" [9]


    यहाँ लेखिका कटाक्ष कर रही है अंग्रेज़ी सत्ता पर। हाकिम जब गाँव में आता है तो खूंटे गाड़े जाते हैं। बच्चे सोचते हैं कि हाकिम कोई जानवर है। क्या वह काट लेगा? यानी हाकिम यदि भ्रष्ट हो तो वह आम लोगों को तंग कर सकता है, वह अपने व्यवहार से जानवर बन सकता है। यहाँ हास्य-व्यंग्य के माध्यम से लेखिका अपनी बात रख रही हैं।


    इस कहानी में बाल-मनोविज्ञान का चित्रण मिलता है। प्रेमचन्द की ईदगाह कहानी के छोटे पात्र हामिद की भाँति छोटके चोर में लल्लू अपनी संवेदना को व्यक्त करते हुए नज़र आता है। लल्लू अपनी माँ की बीमारी के लिए मेहनत-मजदूरी करता है। यहाँ बाल मजदूरी को दिखाया गया है। लल्लू की माँ बीमार है, उसकी दवाइयों के लिए पैसे नहीं हैं। परिस्थितियों से विवश होकर लल्लू और द्वारका दोनों बच्चे इतना बड़ा फैसला लेते हैं कि लल्लू चोर बन जाएगा और इनाम की राशि द्वारका को मिल जाएगी, जिससे माँ का इलाज हो जाएगा।


    छोटका लड़का लल्लू और मंझलका लड़का द्वारका जैसा चरित्र गढ़ा हुआ प्रतीत नहीं होता। मानो यह सच के पात्र हों। इस कहानी में हाकिम, चोर, बुआ, अहिरिन (बच्चों की माँ), छोटका लड़का लल्लू और मंझलका लड़का द्वारका – ये सभी पात्र इस छोटी-सी कहानी के पात्र न होकर असल ज़िंदगी के पात्र प्रतीत होते हैं। यह लेखिका का लेखन कौशल ही है जिसमें यह सभी पात्र परिस्थितियों के अनुसार अपना रोल अदा करते हैं।


    इस कहानी के संवाद बहुत ही प्रभावशाली हैं। पात्रों का चरित्र-चित्रण संवादों के रूप में हुआ है। संवादों का प्रयोग बहुत ही सटीक है। इस कहानी के संवाद कहानी को सुचारू रूप से आगे बढ़ाते हैं, साथ ही यह संवाद पाठकों को बाल-मन में उठने वाली जिज्ञासाओं और आकांक्षाओं से जोड़ते हैं। जब बच्चे जिज्ञासावश अपनी बुआ से चोर के बारे में प्रश्न करते हैं, तब यह संवाद कहानी में बेहद अहम भूमिका निभाते हैं। कहानी को खूबसूरत बनाने में इन संवादों का अहम रोल है।


"छोटा लड़का- आओ जी चली कहूँ चोर ढूंढी काजानी मिलन जाया तौ, नारायन दै दें, चोर केह तरह के होत है,

मझिलका– चोर काला-काला होत है, मोट के ओकर लाल आंखी होत है।

छोटा- तौ फिर चोर केह तरह के होत है?

मझिलका– अबग! चोर चोरी करत थे, रात के निकरत हैं, उनका देखे बड़ी डर लागत थी, मुरदानी माटी रहत थें, जहाँ घर मां घुस के फेंक दिहेन कि मनई बेहास सोवे लागें।

छोटा- तैं चोर देखे हस?

मझिलका– मैं देखौं तो नहीं, एक्का कि सुनेउ है, ननका देखेस ही तीन मोसे बता वह रहा।

छोटा- ओ ननका कहां देखेस?

मझिलका– एक दिन ऊ अपने बाप के साथ रात के पंचायत से आवत रहा तौ चोर तलाब मां पानी पियर रहें, तीन ऊ मोका झुटकावे कि चोर मनईन के तरह होत है?" [10]


    इस कहानी की भाषा की यह खूबसूरती है कि यह अपने लोक की भाषा को लिए हुए है। इसे शिल्प के आधार पर अच्छे से गढ़ा गया है। और इस कहानी की कमजोरी भी भाषा ही है क्योंकि इस कहानी की भाषा बहुत दूर के पाठकों को समझ नहीं आऐगी। हिन्दी के पाठकों के लिए समझना भी मुश्किल होगा जो हिन्दी के क्षेत्रीय बोली जैसे अवधी, ब्रज, खड़ी बोली आदि को नहीं जानते हैं। इस कहानी को इसकी भाषा से पूर्ण हद तक नहीं समझ सकते। वहीं दूसरी ओर इस कहानी की विशेषता ही यही है कि इसमें लोक तत्व विद्यमान हैं। लोक की बोलियों के शब्द, कहावतें, गालियाँ आदि इस बोली की मिठास है।

इस कहानी में लोकोक्तियों व कहावतों का प्रयोग एकदम सटीक जगह पर हुए हैं। जिससे कहानी बहुत सुगठित बन पड़ी है। देसी कहावतें ही इस कहानी की भाषा की खूबसूरती हैं-

  1. “करेन तो अच्छे का हो गई बुराई"

  2. "होम करत हाथ जल गया"

  3. "साँप के हेराईन माणि"


    इस कहानी की भाषा कहीं भी कमज़ोर नहीं पड़ती, न स्थितियों को बताने में और न घटनाओं के चित्रण में। भाषा कहीं भी अवरोध के रूप में नहीं आती। इस कहानी में कम शब्दों में अधिक विवरण दिया गया है। कहानी को खींचने की कोशिश नहीं की गई है। यह कहानी पाठकों को बहुत दूर तक ले जाती है, पाठक गरीब तबके की स्थितियों के बारे में सोचने पर मजबूर हो जाता है। यह कहानी अन्त में सुखान्तता को लिये हुए है और पाठकों के नेत्रों में खुशी के आँसू ला देती है। पाठकों का हृदय लल्लू के प्रति वात्सल्य से भर जाता है। यह कहानी पाठकों को तत्कालीन समय की स्थितियों से साक्षात्कार कराती है। सन् 1915 में जो अहिरिन के परिवार के साथ हो रहा था, वह उस तबके के सभी परिवारों की कथा प्रतीत होती है।


    यह कहानी पाठक के हृदय को अन्दर से झकझोर देती है। जो वात्सल्य हाकिम के हृदय में उमड़ता है वही वात्सल्य लल्लू और द्वारका के लिए पाठकों के मन में भी उमड़ पड़ता है और साथ ही साथ उनकी मजबूरियों पर रोना भी आता है। अपनी परिस्थितियों में वह बच्चे इतने मजबूर हैं कि वह अपनी माँ के इलाज के लिए इतना बड़ा कदम उठाते हैं। यह कहानी कहीं-कहीं गुदगुदाती भी है, हँसाती भी है, रुलाती भी है और पाठकों को सोचने पर मजबूर भी करती है। यह कहानी अब तक क्यों सामने नहीं आई और इसे हिन्दी साहित्य की कहानियों के इतिहास में जगह क्यों नहीं मिली यह अत्यन्त सोचनीय विषय है और दुखद भी।


    सन् 1915 में इस शिल्प के साथ इतने बढ़िया कथ्य के साथ उस समय इतनी बेहतरीन कहानी लिख पाना, वो भी समाज के उस तबके की औरत के द्वारा जो वंचित तबका है, जो सदियों से शिक्षा से वंचित रखा गया, हर चीज़ से वंचित रखा गया— उसकी कलम इतनी जोरदार है, उसकी लेखनी इतनी धारदार है कि तुलना करना भी मुश्किल है।

यह कहानी अन्त तक भोगा हुआ यथार्थ लगने लगती है। उस समय की यह कहानी ‘छोटके चोर’ प्रेमचन्द की कहानियों— ईदगाह, कफ़न जैसी कहानियों को टक्कर देती नज़र आती है।


निष्कर्ष

दलित स्त्री चेतना की अनसुनी गूंज 'छोटके चोर' सिर्फ कहानी नहीं, बल्कि हिंदी साहित्य के इतिहास में दलित स्त्री-लेखन की सशक्त पहचान है। यह न केवल एक दलित स्त्री की रचनात्मकता को प्रमाणित करती है, बल्कि यह भी दिखाती है कि साहित्य केवल आदर्शवाद या समाज सुधार का माध्यम नहीं, बल्कि यथार्थ को उभारने की ताकत भी रखता है।

इस कहानी का पुनर्पाठ जरूरी है, ताकि हिंदी साहित्य में दलित लेखन को उचित स्थान मिल सके और हाशिए के समाज की कहानियाँ केवल उपेक्षित दस्तावेज़ बनकर न रह जाएँ।


संदर्भ सूची

[1] छोटके चोर, मोहिनी चमारिन, स्त्रीकाल.com
[2] वही, स्त्रीकाल.com
[3] वही, स्त्रीकाल.com
[4] वही, स्त्रीकाल.com
[5] वही, स्त्रीकाल.com
[6] वही, स्त्रीकाल.com
[7] वही, स्त्रीकाल.com
[8] वही, स्त्रीकाल.com
[9] वही, स्त्रीकाल.com
[10] वही, स्त्रीकाल.com

डॉ. पूनम प्रसाद
पी.डी.एफ शोधकर्ता, भारतीय भाषा केंद्र,
जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, दिल्ली




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