शोध आलेख : नागार्जुन के काव्य में ऐतिहासिक चरित्र
सारांश
हिन्दी कविता की परंपरा में आदिकालीन कविताओं से लेकर भक्तिकालीन कविताओं पर अगर नज़र डालें तो चरित्र सृष्टि-संबंधी कविताओं की पूरी एक लीला-गान परंपरा मौजूद है। जहाँ आदिकाल में धिरोदत्त चरित्र की सृष्टि की गई है, तो वहीं भक्तिकाल में मर्यादावादी चरित्र की सृष्टि। इन चरित्रों के प्रति कवि का समर्पण-भाव, दास्य-भाव और वात्सल्य-भाव स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। जबकि आधुनिक हिन्दी कविता में मुख्य रूप से प्रगतिशील कविता (प्रगतिशील कवि — नागार्जुन, केदारनाथ अग्रवाल, शमशेर, मुक्तिबोध, त्रिलोचन) में चरित्र सृष्टि-संबंधी कविताओं का रूप दरबारी संस्कृति और लीला-गान परंपरा से अलग हटकर ऐतिहासिक, राजनीतिक और सामाजिक चरित्रों के रूप में प्रस्तुत हुआ है। प्रगतिशील वर्ग के कवियों ने अपने भावबोध और संवेदना के धरातल पर यथार्थ-सृष्टि की व्याख्या करते हुए चरित्रों को अपनी कविता का विषय बनाया है। वे समाज में घट रही घटनाओं को जब तक अपने ज्ञानबोध के आधार पर समझ-बूझ नहीं लेते, तब तक उस पर अपनी रचना करने से दूर निकल जाते हैं। नागार्जुन उन्हीं कवियों में से एक मात्र ऐसे कवि हैं जो चरित्र सृष्टि की कविताओं का एक कोलाज हमारे समक्ष प्रस्तुत करते हैं। नागार्जुन के इस कोलाज में ऐतिहासिक, राजनीतिक और सामाजिक प्रकृति की बहुसंख्यक कविताएँ मिलती हैं, जो नागार्जुन के प्रगतिशील सौन्दर्य-बोध को यथार्थ का नया आयाम देती हैं। हालाँकि यह यथार्थ तभी संभव हो पाता है, जब कवि की प्रगतिशीलता का दायरा बढ़ने लगता है। तब कवि चरित्र-प्रधान कविताएँ लिखना शुरू कर देता है। यही पथ नागार्जुन ने अपनाया है। वे अपने समायातीत और इतिहासबोध की गहन जानकारी रखते हुए चरित्र-प्रधान कविताओं की रचना जमकर करते हैं — नाम ले-ले कर, पूरे वाचाल प्रकृति के साथ, एक-एक गुण-अवगुण को बता-बताकर। नागार्जुन, कालिदास, भारतेन्दु, लू-शुन से लेकर मार्क्स, लेनिन, गाँधी, इन्दिरा गाँधी, मायावती, फूलन देवी, बस ड्राइवर और लालू साहू से होते हुए मास्टर तक की यात्रा तय करते हैं। नागार्जुन की यह समधर्मी चेतना समाज के हर वर्ग और समुदाय तक पहुँचती है और उनकी शिनाख्त करते हुए उसे अपने काव्य का विषय बनाते हैं। इसलिए उनके काव्य में आए हुए ऐतिहासिक चरित्रों की उपादेयता समाज में किस तरह रही है — उसकी पड़ताल प्रस्तुत आलेख में की गई है।
बीज शब्द : प्रगतिशील, चरित्र, ऐतिहासिक, अनुभूति, परंपरा, साम्राज्यवाद, सामंतवाद, नौकरशाही।
शोध आलेख
नागार्जुन की काव्य-भूमि बहुरंगी है। इसमें कोई भी अपना अश्क आसानी से ढूँढ़ सकता है, क्योंकि वे अपनी कविताओं में समाज को पूरी संपूर्णता और ऐतिहासिकता के साथ लेकर उतरते हैं। इसलिए उनके यहाँ ऐतिहासिक चरित्रों का स्वरूप अपनी उत्कृष्टता और स्नेह की वजह से आया है, जिसका नागार्जुन और समाज के लिए कुछ मूल्य है। नागार्जुन ऐतिहासिक चरित्रों के सम्पूर्ण जीवन-गाथा और साहित्य से परिचित थे। तभी उनके साहित्य का रस पान करते हुए अपने भावबोध के स्तर पर उनके जातीय ज़िंदगी का अवलोकन करते हैं। विजय बहादुर सिंह लिखते हैं, “नागार्जुन ने निराला, राजकमल चौधरी, कवि शैलेन्द्र पर भी कविताएँ लिखी हैं। इनमें उनकी आत्मीयता, उनका स्नेह और सहृदयता का सौन्दर्य झिलमिला रहा है। यहाँ उनके व्यक्तित्व की अपार तरलता और अथाह गहराइयों की परख की जा सकती है।”1 जाहिर है कि रचनाकारों पर नागार्जुन का यह अवलोकन उनके अंध-भक्ति को न दर्शा कर, बल्कि उनके काव्य-चेतना के यथार्थ-दृष्टि और स्नेह को दर्शाता है, जिससे यह तय किया जा सकता है कि कवि उस रचनाकार को किस स्तर तक अपनी कविता में उतार पाया है? कहीं कवि चरण-वंदन की परंपरा में आकर उनका गुणगान तो नहीं किया है? बहरहाल, नागार्जुन ने ऐतिहासिक चरित्रों (कवियों) पर जितनी भी कविताएँ लिखीं हैं — उनसे उन्होंने एक सौंदर्यशास्त्र तैयार किया है। इसके अलावा उन कविताओं के माध्यम से वे कई सवालों पर विचार करते हैं; प्रश्न पूछते हैं।
नागार्जुन की ऐतिहासिक चरित्र-सृष्टि की कविताओं में कालिदास का स्थान सर्वोपरि है। उन्होंने ‘कालिदास’ कविता में कालिदास के प्रेम-रूपी जीवन-चरित्र का एक अंश उद्धृत किया है जो कालिदास के प्रेम का उत्कृष्ट नमूना है। प्रेयसी-विरह की प्रत्यक्ष अनुभूति का यह विवरण कालिदास के जीवन का कोरा चरित्र ही नहीं बल्कि उनके निजी जीवन का अंग भी है। कवि कालिदास का पूरा स्केच खींचते हुए उनकी पर-पीड़ा से युक्त जीवन को दर्शाया है। थक-थककर चूर-चूर हो जाने और अमल-धवल के पहाड़ों पर सोने और रोने का जिक्र करते हुए उसे अपनी कविता का आधार बनाया है। मूल चरित्र के इर्द-गिर्द पहुँच कर कालिदास के प्रेयसी-विरह का चरित्र उभारा है। कवि प्रकृति का अनावरण करते हुए कालिदास और प्रकृति को एक रस में पिरोया है। कालिदास की प्रेम-पीड़ा-रूपी चरित्र को देखकर कवि उनसे प्रश्न करता है कि —
“कालिदास, सच-सच बतलाना
परपीड़ से पूर-पूर हो
थक-थककर औँ चूर-चूर हो
अमल-धवल गिरि के शिखरों पर
प्रियवर, तुम कब तक सोए थे?
रोया यक्ष कि तुम रोए थे?
कालिदास, सच-सच बतलाना!”2
नागार्जुन की यह संवेदना कालिदास के प्रति देखते ही बनती है। कवि ने कालिदास के जीवन-चरित्र का जो अंश ‘कालिदास’ कविता में उतारा है, वह कालिदास के चरित्र का महत्वपूर्ण अंश है। कालिदास प्रेम के सजग चितेरे थे। कवि उनकी ‘प्रेम का विरह अंग’ से भली-भाँति परिचित है। तभी उनकी विरह-वेदना को समझकर अपनी कविता का आधार बनाया है। कवि कल्पना से परे होते हुए उनकी असल ज़िंदगी का वर्णन किया है। कालिदास के जीवन-चरित्र के एक अंश को जस का तस प्रस्तुत किया है। नागार्जुन कालिदास के प्रेयसी-विरह को लेकर मेघदूत (काव्यानुवाद) में लिखते हैं, “प्रेयसी-विरह की प्रत्यक्ष अनुभूति का यह विवरण कोरा कवि-कर्म नहीं, बल्कि कालिदास की निजी संवेदनाओं का सहज परिपाक था।”3
नागार्जुन के ऐतिहासिक चरित्र-सृष्टि का दायरा बहुत विस्तृत नहीं है। परंतु आधुनिक कविता में ऐसा कोई भी कवि नहीं है जो उनके जितना चरित्रों पर कविता लिखा हो। नागार्जुन जितने यथार्थवादी हैं — उतने ही सजग। उनके चरित्र-सृष्टि के गुहागृह में अनायास कोई प्रवेश नहीं पा सकता। वे एक खास दायरा बनाते हैं — अपने मन मुताबिक और मिज़ाज के लायक। उनको जो भाता है, उस पर कविताएँ लिखते हैं। बहरहाल, ‘भारतेन्दु’ कविता में नागार्जुन की यथार्थवादी दृष्टि के कोर में भारतेन्दु हरिश्चंद्र का जो चरित्र समाया है, उसकी स्पष्ट व्याख्या देखिए कि किस तरह नागार्जुन हरिश्चंद्र को सामंती समाज और उपनिवेशी साम्राज्य का विरोध करते हुए लक्षित किए हैं। भारतेन्दु को शोषित जनता का प्रतिनिधि मानते हुए उजागर करते हैं। कहना न होगा कि भारतेन्दु सरल स्वभाव के साथ-साथ अति व्यंग्यात्मक भी थे। उनका व्यंग्य-बाण उपनिवेशी साम्राज्यवाद के खिलाफ था, जो भारतीय जनता को गुलाम बनाकर उनका शोषण-दमन करता था। नागार्जुन ने भारतेन्दु के इसी क्रांतिकारी चरित्र को अपनी कविता में उभारा है। मानों जैसे वे भारतेन्दु को आँखों से देखे हों। इतना ही नहीं, नागार्जुन ने भारतेन्दु के कलावंत चरित्र को लेकर कला और संस्कृति के प्रति जो भावबोध दिखाया है — वह भारतेन्दु के चरित्र का महत्वपूर्ण अंग है। भारतेन्दु ने इसी कलावंत चरित्र के माध्यम से हर पुतले में नव-जीवन का रस फूँक दिए। एक उदाहरण देखिए —
“सरल स्वभाव सदैव, सुधीजन संकटमोचन
व्यंग्य-बाण के धनी, रूढ़ि-राच्छसी निसूदन
अपने युग की कला और संस्कृति के लोचन
फूँक गए हो पुतले-पुतले में नव-जीवन
हो गए जन्म के सौ बरस, तउ अंततः नवीन हो!
सुरपुरवासी हरिचंद जू, परम प्रबुद्ध प्रवीण हो!”4
नागार्जुन ने हरिश्चंद्र के प्रबल-प्रवीण चरित्र-तेज को दिखाया है कि भारतेन्दु दरबारीपन-संस्कृति और अंग्रेज़ी ऑफिसरों के लोभ-मोह को त्याज्य मानकर जनता के प्रतिनिधि रचनाकार हो गए थे। वे जनता के लिए लिखते थे। शिष्ट जनों की भाषा त्याग कर भाषा को सहज-सरल बनाकर पेश करते थे। जनता के प्रति उनका यह प्रेम-भाव दरबारी संस्कृति, दास्य परंपरा और समर्पण-भाव को धिक्कारने की वजह से आया है। भारतेन्दु की यह खूबी उनके साहित्य में भी देखी जा सकती है। जहाँ उन्होंने हिन्दी साहित्य में खड़ी बोली का प्रयोग करके आम जनता के लिए द्वार खोला है, वहीं दरबारी संस्कृति में जड़ हो गई हिन्दी साहित्य को बाहर निकाल कर जनता में देश-प्रेम का स्वर तेज किया है। उन्होंने ‘कला, कला के लिए’ जैसे सिद्धान्त को त्याग कर कला को आम जनता के लिए मुहैया कराया है। यह सार्थक पहल उनके दरबारीपन-संस्कृति को त्यागने का प्रमाण है। नागार्जुन ने भारतेन्दु द्वारा तोड़े गए दरबारीपन के दुर्ग को बहुत सही चरितार्थ किया है। देखिए —
“बाहर निकले तोड़ दुर्ग दरबारीपन का
हुआ नहीं परिताप कभी फूँके कंचन का
राजा थे बन गए रंक दुख बाँट जगत का
रत्ती-भर भी मोह न था झूठी इज्जत का
चौंतीस साल की आयु पा, चिरंजीवी तुम हो गए!
कर सदुपयोग धन-माल का, वर्ग-दोष निज धो गए!”5
नागार्जुन की यह चारित्रिक दृष्टि भारतेन्दु के चरित्र की सटीक व्याख्या करती है। कल्पना का स्तर निस्सहाय होते हुए, यथार्थ की परत खोलती है। नागार्जुन ने इस कविता में जहाँ एक तरफ भारतेन्दु के चरित्र की व्याख्या की है, वहीं दूसरी तरफ इसी कविता में उनके न रहने का दंश झेलते हुए भारतीय लोकतन्त्र की खोखली व्यवस्था की शिनाख़्त कर भारतेन्दु का ध्यान करते हैं, क्योंकि इस कविता के दो मुहाने हैं। पहला, भारतेन्दु द्वारा किया गया साहित्यिक-सामाजिक कार्य। दूसरा, आज़ादी के बाद भारतीय राजनीतिक तंत्रों द्वारा किए जा रहे कार्यों का लेखा-जोखा, जिससे जनता का बुरा हाल है। कवि जनता का बुरा हाल देखकर मानों भारतेन्दु से शिकायत कर रहा हो। कवि यह शिकायत देशी राज्य को देखकर ही कर रहा है, क्योंकि देशी राज्य में अपने ही बाबू-भइया की गवर्नमेंट है — फिर भी अंधेर नगरी छाई हुई है। देश के सामंत जोंक की भाँति आज भी चिपके पड़े हैं। दीमक की तरह आम जनता का खून चूस रहे हैं। कवि कहता है, ‘यह दुर्दशा देखकर तुम्हारी याद आ रही है।’ कविता की चंद पंक्तियाँ देखिए —
नागार्जुन के काव्य में केवल चरित्रों का चित्रण ही नहीं है, बल्कि देश के सामाजिक-आर्थिक पहलुओं की भी चर्चा की गई है। विश्व शांति की चर्चा से लेकर मानव मात्र की एकता पर बल दिया गया है। जिसे नागार्जुन ने ‘रवि ठाकुर!’ कविता में उनके चरित्र के साथ-साथ मानवतावादी दृष्टि को भी लक्षित किया है। नागार्जुन रवीन्द्रनाथ ठाकुर के चरित्र की ख़ूबी बताते हुए उनके रहन-सहन, पठन-पाठन और यशगान का चित्रण करते हैं। मूल चरित्र के करीब जाते हैं। इसके अलावा उनके महामानव चरित्र को उद्घाटित करते हुए उनकी स्वयं की अनुभूतियाँ — जो पीड़ित मनुष्य की है — उसे भी उजागर करते हैं। नागार्जुन यह सवाल करते हैं कि इतना सम्पन्न होने के बावजूद भी आपकी चेतना इस वर्ग के प्रति कैसे आयी और अगर ऐसी चेतना आपके भीतर नहीं भी होती तो आपको कोई हानि नहीं होती। दरअसल, नागार्जुन का यह सवाल जायज़ है, लेकिन सवाल यह भी है कि क्या किसी के धनाढ्य हो जाने या गरीब हो जाने से उसकी मानवीय संवेदना विलुप्त हो जाएगी? जबकि नागार्जुन स्वयं अपने को दरिद्र घोषित करते हुए मानवीय संवेदना के फलसफ़ा से परिचित हैं। नागार्जुन ने रवीन्द्रनाथ ठाकुर के मानवतावादी चरित्र को अपनी कविता में दर्ज किया है। वे रवीन्द्रनाथ ठाकुर के ‘विश्वबन्ध भारतीय महाकवि’ से लेकर ‘गुरुता का ध्वजपट’ और ‘मानवता के सपने’ को केंद्र में रखे हुए हैं। एक उदाहरण देखिए —
नागार्जुन ने इस तरह से उनके चरित्र को कविता में रचा है। उनके यूरोपीय विचारों के अनुसरण के प्रति भी अपनी दृष्टि दौड़ाई है, जिसे रवीन्द्रनाथ ठाकुर प्रगति और समता में सहायक मानते थे। नागार्जुन की श्रद्धा उनके मानवतावादी दृष्टिकोण के प्रति बनी रही क्योंकि नागार्जुन खुद समतावादी और मानवतावादी दृष्टिकोण के हिमायती थे।
ध्यातव्य हो कि नागार्जुन की काव्य दृष्टि एशिया से लेकर यूरोप तक फैली हुई है — उसी प्रकार चरित्र-प्रधान कविताओं को लेकर भी नागार्जुन सजग रहे हैं। वे चीन के महान लेखक ‘लू-शुन’ के संघर्षशील जीवन को केंद्र में रखकर कविता रचे हैं। लू-शुन प्रेमचंद की तरह मजदूरों, किसानों और शोषितों के लेखक थे। उन्होंने चीनी सामंतवाद और नौकरशाही के खिलाफ मोर्चा खोला। मार्क्स और लेनिन के विचारों से प्रभावित हुए और उत्पीड़ितों के दुख-दर्द में शरीक होकर उनके साथ संघर्ष किया। वे समाज में घट रहे राजनीतिक और सामाजिक घटनाओं को जिस रूप में देखते थे, उसे अपने व्यंग्य के माध्यम से जनता के सामने उघाड़कर रख देते थे। “लू-शुन का व्यंग्य समाज के अंधेरे पक्ष को संक्षेप में उघाड़कर सामने रख देता है”8। इसी व्यंग्य बाण को केंद्र में रखकर नागार्जुन ने लू-शुन का चरित्र-निर्माण किया है। देखिए ‘लू-शुन’ कविता की पंक्तियाँ —
नागार्जुन ने लू-शुन के चरित्र-सृष्टि में जनता के प्रति निष्कलुष प्रेम और संघर्ष को चित्रित किया है। वे लू-शुन के व्यंग्य, क्रांति और वामछद्म को सामंती समाज के विरुद्ध हूबहू अपनी कविता में उतारते हैं। लू-शुन का यह व्यंग्य और क्रांति भाव मजदूरों/किसानों को उनके करीब लाता है। मजदूरों/किसानों को सामंती और नौकरशाही दासता से मुक्त होने के लिए क्रांति भाव पैदा करता है। लू-शुन कहते हैं, “जो यह कहे कि मजदूरों और किसानों को दास बनाया जाना चाहिए, उन्हें मारा जाना चाहिए और उनका शोषण किया जाना चाहिए।”10। जाहिर है कि नागार्जुन कल्पनाओं से परे होते हुए लू-शुन की मूल चरित्र-सृष्टि को पूरे यथार्थवादी दृष्टि से उकेरा है। पूरी संवेदना के साथ, जो लू-शुन के जीवन-चरित्र का महत्वपूर्ण पक्ष है।
कवि नागार्जुन की ऐतिहासिक चरित्र-सृष्टि में महाकवि निराला भी अपना उचित स्थान पाते हैं। नागार्जुन ने ‘महाकवि निराला’ कविता में निराला के चरित्र का जो रेखाचित्र खींचा है — वह हिन्दी साहित्य के अध्येताओं से छुपा नहीं है। लेकिन नागार्जुन का समर्पण भाव और संवेदना निराला के प्रति जिस तरह दिखती है — वह कल्पना रूपी जाल को अनछुआ करते हुए अपनी कविता की बस्ती में यथार्थ रूप-चित्र प्रस्तुत करते हैं। असल में नागार्जुन ने निराला के चरित्र के जिस अंश को छुआ है — वह नागार्जुन के व्यक्तित्व में भी मौजूद है। नागार्जुन के भीतर जो जनवादी चेतना समाई है — उसका स्रोत कबीर और निराला से होकर गुजरती है, जिसमें नागार्जुन अपने को भी पाते हैं। वे निराला के साहित्य-सर्जना और शोषित समाज के प्रति लगाव को केंद्र में रखकर निराला की जीवन-यात्रा को पूरी संवेदना के साथ चित्रित किए हैं। निराला की जनवादी चेतना जो आम जनता के लिए उठ खड़ी हुई थी और आम जनता की चेतना को आँच दे रही थी उसे नागार्जुन ने तनिक भी गड़-मड़ नहीं होने दिया है। बल्कि उनकी चेतना का अनुशीलन करते हुए जनता तक पहुँचते हैं। नागार्जुन ने निराला की प्रगतिशील चेतना का ज़िक्र करते हुए उन्हें शोषक समाज के खिलाफ खड़ा किया है, जो निराला के व्यक्तित्व की खूबी है। निराला अपनी प्रगतिशील चेतना के सहारे सामंतशाही की नींव पर बार-बार चोट करते रहे। क्योंकि निराला अपने समय की सामाजिक संरचना और सामंती व्यवस्था से भलीभाँति परिचित थे। परिचित ही नहीं बल्कि उस व्यवस्था के भुक्तभोगी भी थे। इसलिए उन्होंने शोषक समाज के खिलाफ खड़ा होने में तनिक भी संदेह नहीं किया। निराला के इसी प्रखर चेतना को नागार्जुन अपनी कविता में स्थान देकर आम जनता के प्रति उनके लगाव को चित्रित किया है। वे निराला के बोलने, हँसने, रोने, डाँटने और आँख फाड़-फाड़कर देखने तक का चित्र खींचे हैं। निराला का यह हँसना, बोलना, डटे रहना और आँख फाड़-फाड़कर देखना शोषक समाज की कैफ़ियत को हिला देता है। उनसे हिसाब माँगता है। इसी हिसाब माँगने और जवाबदेही को नागार्जुन ने निराला के भीतर देखा है। देखिए ‘महाकवि निराला’ कविता का एक अंश —
ऐतिहासिक चरित्रों के क्रम-विन्यास में नागार्जुन ने इन सब के अतिरिक्त ‘शैलेन्द्र’ और ‘राजकमल चौधरी’ पर भी कविता लिखी है। ‘शैलेन्द्र’ कविता में नागार्जुन ने शैलेन्द्र के प्रति साहचर्य भाव से अपने मीत को याद किया है। उनकी कवि-छवि को उभारा है। उभारा ही क्यों — उसका सामाजीकरण भी किया है। उनके गीतों का ज़िक्र करते हुए लाख-लाख होठों की मुस्कान, जन-मन का हुलसित होना और थिरकन को अपनी काव्य-संवेदना में दर्ज किया है। नागार्जुन ने इसी तरह ‘राजकमल चौधरी’ कविता में राजकमल चौधरी के चरित्र को खड़ा करते हुए उनके छलनामय और निश्छल चरित्र की व्याख्या की है। साथ ही-साथ नागार्जुन ने उनके अद्भुत और विरोधाभासी व्यक्तित्व की एक रेखा भी खींची है।
निष्कर्ष
नागार्जुन का भावबोध और निश्छल प्रेम ऐतिहासिक चरित्रों के प्रति उनके अपने व्यक्तित्व के भीतर भी दिखाई देता है। वे अपने को भी उनके भीतर पाते हैं। वे ऐतिहासिक चरित्रों को केंद्र में रखकर महज कविताएँ ही नहीं लिखे हैं, बल्कि उनकी संघर्ष-गाथा को स्मरण किया है। अतः नागार्जुन कवियों के ऊपर कविताएँ लिखकर एक सौंदर्यशास्त्र गढ़ते हैं। अरुण कमल का कहना है, “विभिन्न कवियों पर लिखी अपनी अनेक कविताओं में नागार्जुन साहित्य का एक सौंदर्यशास्त्र तैयार करते हैं”।12
संदर्भ-सूची
1. विजय बहादुर सिंह, नागार्जुन अनभिजात का क्लासिक (भूमिका से उद्धृत), वाणी प्रकाशन, दिल्ली, 2017.
2.
3. संपादक— शोभा-कांत, नागार्जुन रचनावली-1, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, 2011, पृ. सं. 22.
4. वही, पृ. सं. 461.
5. वही, पृ. सं. 177–178.
6. वही, पृ. सं. 178.
7. वही, पृ. सं. 178.
8. वही, पृ. सं. 30.
9. संपादन — कर्णसिंह चौहान, कला, साहित्य और संस्कृति, वाणी प्रकाशन, दिल्ली, 1994, पृ. सं. 18.
10. संपादक— शोभा-कांत, नागार्जुन रचनावली-2, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, 2011, पृ. सं. 291.
11. संपादन — कर्णसिंह चौहान, कला, साहित्य और संस्कृति, वाणी प्रकाशन, दिल्ली, 1994, पृ. सं. 58.
12. संपादक— शोभा-कांत, नागार्जुन रचनावली-1, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, 2011, पृ. सं. 185–186.
13. अरुण कमल, कविता और समय, वाणी प्रकाशन, दिल्ली, 2014, पृ. सं. 32.
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