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फिल्म समीक्षा : स्वीकार और नकार की कहानी है ‘पिंक’ - अनुराधा पाण्डेय

इधर बीच हिंदी सिनेमा में स्त्रियों को लेकर जो संजीदगी उभर रही है वह बहुत ही महत्वपूर्ण है. हालांकि इस आधी आबादी को दिखाने में सिनेमा की जो भूमिका रही है, वह बहुत ही सकारात्मक नहीं है लेकिन हालिया कुछ लेखकों निर्देशकों द्वारा जो पहल किए जा रहे हैं वे महत्वपूर्ण है और सराहनीय भी. अनिरुद्ध रॉय चौधरी द्वारा निर्मितपिंकस्त्री के विषय पर दो कदम आगे बढ़कर बात करती है. स्त्री के देह विमर्श को प्रस्तुत करने का हिंदी सिनेमा के पास केवल एक ही ढांचा रहा है जो कि भारतीय सामंती समाज बाजार की दृष्टि से निर्मित हुआ है. इस बात का संदर्भ हम अभी हाल ही में सोना महापात्रा द्वारा दिए गए एक बयान से भी जोड़ सकते हैं जिसमें वह कहती हैं कि आजकल गाने केवल पुरुषों को ध्यान में रखकर लिखे जा रहे हैं. इस प्रकार की स्थितियों मेंपिंकको देखना सुखद ही है कि हिंदी सिनेमा में इस तरह के संजीदे मुद्दों को उठाया जा रहा है और दुखद भी है कि आज के समाज में जहां महिलाओं ने अपने हिसाब से जीना शुरू किया है वहीं पर इस प्रकार की समस्याओं ने रास्ता रोकना शुरू कर दिया है और इन समस्याओं की स्थितियां विकराल भी होती जा रही हैं.

    


यह फिल्म तीन लड़कियों की कहानी है. तीनों लड़कियां वर्किंग विमेन हैं, ये केवल एक साथ एक अपार्टमेंट में रहती हैं बल्कि एक दूसरे की सबसे अच्छी दोस्त भी हैं. मीनल, फलक और एंड्रिया तीनों ही समाज के अलग अलग समुदाय विशेष से हैं और अलग-अलह जगहों से भी. यह भिन्नता की स्थिति या दिखाती है कि आप चाहे जहां कहीं से भी हों, लेकिन यदि आप लड़कियां हैं तो आपको देखने का नजरिया इस समाज में एक ही है. ये तीनों लड़कियां दिल्ली में रहती हैं और अपने तरीके से अपने जीवन को खुलकर जीना चाहती हैं. सारे लड़के बद्तमीज नहीं होते इस उदहारण के तौर पर ये अपने एक पुराने दोस्त के जान-पहचान पर लड़कों के एक समूह से दोस्ती कर लेती हैं, जो लड़के उन्हें पहली मुलाकात पर साधारण भी लगते हैं. लेकिन एक रात पब में खाने के बाद जब तीनों लड़कियों को लड़के अपने पूर्व योजना के तहत अलग-अलग कमरे में ले जाते हैं और उनके साथ बद्तमीजी करते हैं. तभी मीनल, राजवीर (जो कि रसूखदार है) के सर पर अपनी बचाव में बोतल से मारकर उसे घायल कर देती है और इस घटना के बाद तीनों लड़कियां वहां से भाग जाती हैं. इस भूमिका के बाद इस फिल्म की शुरुआत होती है. फिल्म का पहला आधा हिस्सा इस घटना से उनके जीवन में आए असंतुलन और तनाव को दर्शाता है. वो कैसी थीं और कैसी हो गयीं हैं, जबकि उनकी कोई गलती भी नहीं होती है. वे हंसना भूल गई हैं. पुलिस, परिवार और सोसायटी का डर उन्हें खाए जाता है. लड़कों समूह उनसे बदला लेना चाहता है, जिससे वे डरी हुई भी हैं. लड़ने और हार जाने के कई सारे दृश्य इस पहले हिस्से में हैं, लेकिन एक सबसे खुबसूरत दृश्य वह है जिसमें ये तीनों अपनी हंसी भूल गई हैं और हंसना चाहती हैं. फिर तीनों एक दूसरे को गले लगाकर खूब हंसती हैं और एक दूसरे से कहती हैं ऐसा लग रहा है जैसे हम हंसना ही भूल गए थे. इस घटना के बाद परेसान किए जाने पर मीनल पुलिस के पास शिकायत दर्ज कराने जाती है तो पुलिस वाले कानून और स्त्री चरित्र का भय दिखाकर उसे वापस कर देते हैं. फिर बाद में उसके एक प्रभावी मित्र के सहयोग से मामला दर्ज होता है लेकिन लड़कों के खिलाफ कोई कार्रवाही नहीं होती है. बल्कि बाद में रसूखदार राजवीर की तरफ से केस दर्ज होता है और मीनल को पुलिस ब्लेकमेल, हत्या के प्रयास वेशावृत्ति के मामले में गिरफ्तार कर लेती है. यहां पर पुलिस और जेल के अंदर के अमानवीय व्यवहार के दृश्य उद्वेलित कर देने वाले हैं. इसी पहले हिस्से में अमिताभ का प्रवेश होता है.

    

    इसके पश्चात्त फिल्म का दूसरा महत्वपूर्ण हिस्सा शुरू होता है जो लगभग कोर्ट में ही चलता है. यहां पर पियूष मिश्रा की दमदार एंट्री होती है, जो कि राजवीर के वकील हैं. कोर्ट रूम के सारे संवाद सारे दृश्य ही फिल्म की जान हैं. एक-एक करके सबसे पूछताछ होती है और एक स्त्री के चरित्र का निर्धारण किया जाना शुरू होता है. राजवीर द्वारा यह कहा जाना किवह हिंट दे रही थी’, जिसमें एक लड़की का मुस्कुराना, बात करते हुए छूना और साथ में बैठना, शराब पीना ही हिंट समझ लिया जाता है. यह राजवीर की ही नहीं बल्कि आज के इस पूरे समाज की ही मानशिकता को दर्शाता है. ‘हंसी तो फंसीकी मानसिकता के लोगों का लड़कियों के प्रति दृष्टिकोण इसी बयान से समझा जा सकता है. इसहंसी तो फंसीके स्वीकार और नकार की ही बहस चलती है. स्वीकार यह है कि हम स्त्री हैं, तो क्या हम हंस नहीं सकतीं, दोस्त नहीं बना सकतीं, और नकार यह कि हमारी का मतलब होता है चाहे वह हमारी देह का नकार हो या हमारी इच्छा का. इस स्वीकार और नकार के और भी दृशा आते हैं जैसे कि एक दृश्य में अमिताभ जो कि लड़कियों की तरफ से वकील हैं, मीनल से पूछते हैं कि क्या आप वर्जिन हैं? ऐसा सवाल हिंदी सिनेमा में जिस मुखरता संवेदना के साथ पूछा गया है, वह बहुत कम ही दिखता है. वर्जिनिटी को लेकर जिस तरह की मानसिकता का निर्माण किया गया है वह हमको यहां से समझ में जाता है, और उसको लेकर लड़कियों को किस तरह का व्यवहार करना चाहिए इस बात को भी यह दृश्य बहुत ही खूबसूरती से दर्शाता है. डरते-सहमते यह कहना कि नहीं मैं वर्जिन नहीं हूं यह जवाब केवल कोर्ट में एक वकील को नहीं दिया गया है बल्कि उस पूरे समाज को दिया गया है जो इसको लेकर कुंठित मानसिकता से ग्रसित है. उससे आगे जाकर यह भी स्वीकार करना कि मैंने अपने और भी संबंध बनाए लेकिन अपनी इच्छा से अपनी सहमति से, संवेदनाओं से, भावनाओं से कि किसी जोर-जबरदस्ती से. लेकिन यह नकार जबरदस्ती के खिलाफ का नकार है. राह चलते हुए घूरने, भींड में जबरदस्ती छूने और हमारी हंसी या उन्मुक्तता को हमारे चरित्र को नकारात्मक समझ लेने के खिलाफ का नकार है. अमिताब बच्चन का एक संवाद इस पूरी स्थिति को और भी बेहतर रूप में प्रस्तुत करता है कि केवल एक शब्द नहीं होता, बल्कि वह एक पूरा वाक्य होता है. का मतलब होता है भले ही वह कोई आपकी दोस्त हो, प्रेमिका हो, कोई सेक्स वर्कर को या फिर आपकी पत्नी ही क्यूं हो.’


    मीनल के साथ-साथ यह फिल्म फलक और एंड्रिया के चरित्रों को भी यथार्थ तक ले जाने में सहायक हुआ है. पियूष मिश्रा का फलक से बार-बार यह पूछे जाने कि आपने वेश्यावृत्ति के रूप में राजवीर से पैसे लिए. इस बात का कोई स्पष्ट प्रमाण होने के कारण और इसी प्रश्न पर तीनों को बारी-बारी से घेरने की कोशिश करने पर फलक चाहते हुए भी यह स्वीकार कर लेती है कि हां हमने पैसे की बात की और पैसे लिए भी लेकिन इसके बाद भी मीनल का मन बदल जाता है और वह ना कहती है. इसके बाद डील के मुताबिक भी अगर उसने ना कह दिया तो उसके साथ जबरदस्ती करना क्या है? अगर उसका मन नहीं है तो, नहीं है. इतनी सी बात किसी को क्यूं नहीं समझ में आती.

    

एंड्रिया जो कि मेघालय से है, उसे भारत का आम नागरिक समझकर नार्थ-ईस्ट समझा जाता है.फिल्म में एंड्रिया से पूछताछ के लिए पियूष मिश्रा जब एंड्रिया से उसका पूरा नाम, कहां से है वह, इन सबके बारे में पूछते हैं तो इस दृश्य के माध्यम से नार्थ-ईस्ट के लोगों को लेकर दूसरे प्रदेश के लोगों की क्या मानसिकता है, उनकी सोच को भी बहुत अच्छे से दिखाया गया है.

    

हम सबके आस-पास ऐसी कहानियां होती ही रहती हैं, जिसका बहुत ही शानदार तरीके से फिल्मांकन किया गया है. किसी संजीदे मुद्दे को संवादों दृश्यों के माध्यम से कैसे महत्वपूर्ण बनाया जा सकता है वह यह फिल्म बखूबी दर्शाती है. प्रस्तुतीकरण के लिए बहुत अधिक संवादों का प्रयोग करके दृश्यों अभिनय का प्रयोग किया गया है. इस संवेदनशील विषय के लिए जीतनी मांग है उतने ही परिपक्व रूप में इसके संवाद लिखे गए हैं. सिनेमा कोरा विमर्श नहीं है, निर्देशक ने इसका भी पर्याप्त ध्यान रखा है. अमिताभ के अभिनय में बहुत ज्यादा विविधता की आवश्यकता नहीं है, इस कारण से वे एक समान रूप में दिख सकते हैं लेकिन जिस गंभीरता की आवश्यकता है वे निश्चित ही उसे परिपक्व रूप में निभाते हैं. उनके सामानांतर पियूष मिश्रा ने भी अच्छा अभिनय किया है, बल्कि पियूष के सामने रहने पर अमिताभ और भी ज्यादा विस्तार पाते हैं. अमिताब फिल्म के बीच-बीच में एक-एक करके लड़कियों के लिए चार नियम भी बताते हैं, जो कि फिल्म की परिस्थितियों से निर्धारित होते हैं. यह व्यंग्य केवल समाज पर है बल्कि उस कोर्ट रूम पर भी है जहां ऐसे मामलों में न्याय प्रक्रिया सरल नहीं होती. इस फिल्म में कोर्ट रूम की बहस में ठीक वैसा नहीं दिखता जैसा कि आम हिंदी फिल्मों में होता है, जहां पर कोर्ट दलीलों गवाहों से भरा रहता है. यहां पर क़ानूनी दलीलों गवाहों से ज्यादा स्त्री की संवेदनाओं अधिकारों का प्रस्तुतीकरण है. फिल्म का निर्देशन बहुत ही अच्छा है, जो अंत तक कौतूहलता को बनाए रखता है. बस अमिताब का लड़कियों के पक्ष में होना ही यह संकेत करता है कि जीत लड़कियों की ही होगी. हालांकि बीच-बीच में अमिताब अपने संवाद अभिनय से इस संकेत को तोड़ते भी रहते हैं. फिल्म के बीच में आया एक दृश्य जिसमें अमिताभ मीनल एक पार्क में टहलते होते हैं तभी उनके बगल से कुछ लोग गुजरते हैं और मीनल के बारे में बात करते हैं कि ये तो वही वाली लड़की है, इस पर मीनल अपने जैकेट कैप से अपने सिर को ढंक लेती है. इस पर अमिताभ उस कैप को खींचकर हटा देते हैं. इस दृश्य को फिल्म के जिस्ट के रूप में समझा जाना चाहिए     

-अनुराधा पाण्डेय

शोधार्थी, जेएनयू 

 

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