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विचारधाराओं की तकनीक की तरफ चेतना को उन्नत करना बेहद जरूरी है : अनिल चमड़िया



हाथरस की घटना यह भी जाहिर करती है कि ऐसी घटनाओं के खिलाफ जो भी कार्यक्रम व कार्यक्रमों की शक्ल में आंदोलन होते रहे हैं। वे हाथरस को रोकने का कोई ढांचा बनाने में असफल रहे हैं। हाथरस जैसी घटनाओं के बाद अक्सर यह होता है कि उस घटना से जुड़े पीड़ितों के पक्ष में सहानुभूति व आर्थिक सुविधाएं की बहाली को लोकतंत्र की उपलब्धि के तौर पर प्रस्तुत कर दिया जाता है। लोकतंत्र को और बर्बर बनाने की तरफ ले जाने के लिए घटनाएं इस्तेमाल कर ली जाती है। क्या बर्बरता के खिलाफ बर्बरता के इंतजाम के हक में खड़े होने से क्या समाज का वह ढांचा और विचारधारा का कोई हल निकल सकता है जो कि घटना के लिए मजबूती से बरकरार हैं। यदि बर्बरता इस रुप में हम देखते हैं कि हाथरस की पीड़िता की लाश को देर रात बिना किसी को बताए जला दी जाती है तो यह उस तरह की किसी फांसी की सजा का समर्थन करने का दुष्परिणाम है जो कि बिना बताए दी गई थी। संवैधानिक ढांचे को लोकतांत्रिक बनाने का उद्देश्य भूल जाते हैं। विरोध मूल्य एवं  संस्कृति के निर्माण की प्रक्रिया होनी चाहिए न कि उस सरकारी ढांचे के हाथों में बर्बरता के लिए एक और हथियार देने की मांग करने के लिए होनी चाहिए। लेकिन घटना को तात्कालिक भावनाओं का केन्द्र बना दिया जाता है। यह भावना वास्तविक अर्थों में बर्बरता के लिए होती है जिसका अनुभव अपने देश में धार्मिक भावनाओं का इस्तेमाल करने के दौरान भी किया जाता है। विरोध एक भीड़ की शक्ल में बदल जाता है।   




बर्बरता की विचारधारा पर टिका ढांचा ऐसी भावनाओं को प्रोत्साहित करता है जो कि तार्किक और चेतना शून्य हो। इसीलिए हम यह पाते हैं कि वह ढांचा बिना किसी खरोच के यथावत बना हुआ हैं। इस अंतर्विरोधी पहलू को समझने की जरूरत है कि जिस दौर में सबसे ज्यादा डा. आम्बेडकर का नाम लिया जाता है उस दौर में वीभत्स और बर्बरता की सारी सीमाएं लांघी जा रही है। तो क्या यह कोई ऐसा रिश्ता है कि ऊपर से कुछ दिखता रहता है लेकिन वह होता रहता है जिसे विचारधारा का अंतिम उद्देश्य कह सकते हैं। दरअसल विचारधारा की अपनी तकनीक होती है, उसकी अपनी एक कार्य प्रणाली होती है, उसका अपना एक तरीका होता हैं। भारतीय समाज में यह अध्ययन किया जाना चाहिए कि वह कैसी विचारधारा है जिसने कि लोकतंत्र की बहाली के लिए बनाई गई पूरी संसदीय प्रणाली को अजगर की निगल लिया है। अकसर पार्टियों व विचारधारा में यह अंतर नहीं किया जाता है कि एक विचारधारा की कई पार्टियां हो सकती है या फिर कई पार्टियों में एक विचारधारा अपनी गहरी पैठ बना सकती है। किसी बदलाव के लिए भारतीय समाज में विचारधाराओं की तकनीक की तरफ चेतना को उन्नत करना बेहद जरूरी लगता है।

अनिल चमड़िया, वरिष्ठ पत्रकार

 

 


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