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सामाजिक न्याय की पहचान से पिंड क्यों छुड़ा रहे हैं नेता : अनिल चमड़िया, वरिष्ठ पत्रकार



प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने भारतीय जनता पार्टी के मुख्यालय में 2019 के लोकसभा चुनाव के नतीजों के बाद कार्यकर्ताओं के बीच कहा कि लोकसभा चुनाव के प्रचार की खास बात यह थी कि किसी भी पार्टी ने धर्म निरपेक्षता का नाम नहीं लिया। भारतीय लोकतंत्र के लिए होने वाले चुनावों के बारे में अब यह कहा जा सकता है कि वे उस पहचान से पिंड छुड़ाने के प्रयासों के बीच हो रहे हैं जिनसे 1947 के बाद के भारत का परिचय कराया जाता रहा है। यह एक तथ्य हैं कि धर्म निरपेक्षता के उद्देश्यों पर आधारित संविधान की शपथ लेने वाली राजनीतिक पार्टियां चुनाव में हिन्दूकी पहचान के साथ जाने की होड़ में लगी हुई हैं। शायद हर चुनाव में यह देखने की जरूरत महसूस होने लगी है कि भारत में पार्टियों के द्वारा राजनीति करने के जो उद्देश्य बताए जाते रहे हैं उनमें किन उद्देश्यों को वे छोड़ने के प्रयास में लगे हैं। बिहार विधान सभा के चुनाव में भी  राजनीतिक पहचानों से पिंड छुड़ाने के प्रयास दिख रहे हैं।




सामाजिक न्याय की पहचान से पिंड छुड़ाती पार्टियां

बिहार के चुनाव में गैर हिन्दू उम्मीदवारों को कम से कम खड़ा करने का सिलसिला आगे बढ़ा हैं। अब बारी सामाजिक न्याय की है। बिहार की पहचान पिछले तीस वर्षों में जिस धर्म निरपेक्ष सामाजिक न्यायकी राजनीति के रुप में बनी हैं उससे पिंड छुड़ाने की कोशिश में पार्टियां लगी है।1990 में भारत सरकार की नौकरियों में पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षण लागू करने के फैसले के बाद से धर्म निरपेक्ष सामाजिक न्यायबिहार की राजनीति के केन्द्र में रहा है। पहले दौर में धर्म निरपेक्षता एवं आरक्षण विरोधी पार्टियों ने खुद को सामाजिक न्याय की विरोधी न दिखने की कोशिश करती रही है। लेकिन उनकी सोशल इंजीनियरिंग के औजार ने पूरी राजनीति को उलटे सिरे खड़ा कर दिया है। सामाजिक न्याय की अगुवाई करने वाली पार्टियों ने पहले धर्म निरपेक्षता को छोड़ा और जातियों में सिमट गई है और जो नहीं सिमटी है वे जातियों में सिमटने की पूरी कोशिश  रही है । ये सभी सामाजिक न्याय की धारा से निकली है। राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन( एनडीए) में भाजपा के साथ नीतिश कुमार की पार्टी जनता दल यू है। लेकिन इन दोनों के साथ राम विलास पासवान द्वारा स्थापित लोक जनशक्ति  पार्टी नहीं है। वह केवल भाजपा के साथ है, जनता दल यू के साथ नहीं। लोक जनशक्ति पार्टी जनता दल यू के उम्मीदवारों के खिलाफ उम्मीदवार खड़े कर चुकी है। उन उम्मीदवारों में भाजपा के नेता भी हैं जिनमें से नौ के बारे में यह दावा किया जा रहा है कि उन्हें भाजपा से निकाल दिया गया है। भाजपा ही मुकेश सहनी की पार्टी विकासशील इंसान से डील कर रही है क्योंकि राजद ने उन्हें ऐन मौके पर ठेंगा दिखा दिया तो मुकेश सहनी ने भाजपा से विधानसभा के लिए सीटें मांग ली  और भाजपा ने उनके केस को सुनकर अपने साथ शामिल कर लिया। दूसरा गठबंधन लोकतांत्रिक धर्मनिरपेक्ष महागठबंधन है जो कि बहुजन समाज पार्टी, समाजवादी जनता दल ( लोकतांत्रिक) , ऑल इंडिया इत्तेहादुल मुस्लिमिन और राष्ट्रीय लोक समता पार्टी ने महागठबंधन से सौटा नहीं हो पाने के कारण अपना अलग मोर्चा बना लिया। तीसरा मोर्चा पप्पु यादव की जन अधिकार पार्टी और भीम आर्मी का गठबंधन है। लालू यादव की राजद का गठबंधन कांग्रेस और वाम धड़े की तीन पार्टियों, सीपीआईएमएल, सीपीआई और सीपीएम के साथ बना हैं। इस तरह सामाजिक न्याय की राजनीतिक धारा नालों की तरह सिमटती गई हैं और इनसे डील करने की अगुवाई भाजपा कर रही है। राजद अपनी इस पहचान से पिंड छुड़ाने के लिए लगातार कोशिश कर रही है और विधानसभा का यह चुनाव उसकी इस छवि को सर्वजन की छवि में पहुंचने में मदद कर सकता है। राजद ने अपनी पेकंजिंग इस तरह से  है कि नेतृत्व के पास सामाजिक न्याय की विरासत है लेकिन विधानसभा में आरक्षण का समर्थन नहीं करने वालों को भी उतारा गया हैं। भारत की अतीत की राजनीति में मिसालें भरी पड़ी है कि दलित, पिछड़ा, बहुजन आदि पर आधारित पार्टियां जल्दी ही सर्वजन दिखने की कोशिश करने में जुट जाती है , यह सर्वजन अब हिन्दुत्व के नेतृत्व की तरफ झुका हुआ हैं।  

 


शाइनिंग सामाजिक न्याय का विज्ञापन

लोकतंत्र और समानता के लिए राजनीति के अर्थो में बदतर होती भारत की सूरत को सुनहला महसूस कराने के लिए चुनाव के लिए शाइनिंग इंडिया और गुड़ फील का विज्ञापन तैयार किया गया था। सामाजिक न्याय उस विज्ञापन का अगला विषय बना हैं। जो सरकारी नौकरियों में आरक्षण की बात करते थे वे आर्थिक रुप से बदत्तर हालात में पहुंच चुके बिहार में सबके लिए रोजगार पैदा करने का दावा करने लगे हैं और जिनके सत्ताधारी रहने के दौरान रोजगार कम होते चले गए हैं वे सामाजिक न्याय फीलिंग का ऐहसास कराने की कोशिश में लगे हैं। विकास का दावा सही साबित करने के बजाय भविष्य में विकास का दावा कर रहे हैं।




 गठबंधन के अविश्वसनीय मौहाल

भारतीय राजनीति में चुनावी गठबंधन का होना नतीजों के बाद की स्थितियों के प्रति विश्सनीय बने रहने का भरोसा खत्म हो चुका है। वाम दलों को छोडकर सभी पार्टियां एक ही तरह की विचारधारा की पेकेजिंग का हिस्सा दिख रही है। बिहार में नीतिश कुमार ने 2015 का विधानसभा चुनाव राजद के साथ लड़ा लेकिन उन्होंने भाजपा के साथ सरकार बना ली। महाराष्ट्र में शिव सेना भाजपा के साथ विधानसभा चुनाव लड़ा लेकिन कांग्रेस के साथ मिलकर सरकार बना ली। दूसरा मध्य प्रदेश के पिछले विधानसभा चुनाव के बाद यह संस्कृति संस्थाबद्ध हो गई है कि विधानसभा के चुनाव में जितने सीटें  बहुमत के लिए चाहिए यदि वह संख्या पच्चीस प्रतिशत तक कम रहती है तो डंडे के नीचे झुलती थैली के जादू से उसे अपने बहुमत में तब्दील किया जा सकता है। दरअसल बिहार में गठबंधन के बीच हो रहा यह चुनाव राजनीतिक अविश्वसनीयता के माहौल में हो रहा है। यह भारतीय राजनीति की एक नई अपसंस्कृति के रुप में देखती है। लोगों के बीच अविश्विसनियता के स्तर का यह आलम हैं कि महागठबंधन के भीतर वाम मोर्चा ही शक के दायरे से बाहर है। अविश्वसनीयता तीन स्तरों पर दिख रही है। जन प्रतिनिधियों का चुनाव नतीजों के बाद की भूमिका अविश्वसनीय दिख रही है। दल की भूमिका अविश्वसनीयता से घिरी है और तीसरा गठबंधन के सहयोगी के रुप में अविश्वसनीयता का माहौल बना हुआ है। यह निश्चित रुप से कह पाना संभव नहीं है कि किसी एक गठबंधन को दूसरे गठबंधन से ज्यादा सीटें मिलती है तो ज्यादा वाला सरकार बना सकता है। 

जब चुनाव में सफलता के लिए राजनीतिक मुद्दों के बजाय प्रबंधन की कौशलता पर टिक जाता है तो जाहिर सी बात हैं कि राजनीतिक भाषा की दृष्टि से चुनाव के हालात को नहीं पढ़ा व लिखा जा सकता है। चुनाव इंटरनेट आधारित तकनीक और उसकी जरूरतों व आर्थिक संसाधनों की ताकत के आधार पर होता दिख रहा है। 2020 के चुनाव में सोशल मीडिया के कमांडो और स्मार्ट फोन के चौकीदारों से लोगों को लोकतंत्र की लोरियां सुननी है जिसमें मनुष्य व समाजगत मुद्दे नहीं, परिवारों पर एहसान की भाषा में महानता के गुणगान हैं। परिवारों को बिजली पहुंचा दी, बैंक खाते में रुपये ट्रांसफर कर दिए गए, यह महानता के गुण हैं। मुद्दा यह है कि सरकार किसकी बनेगी?

 अनिल चमड़िया, वरिष्ठ पत्रकार 



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