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फ़िल्म “पाकीज़ा” का नारीवादी विश्लेषण: अब्दुल कादिर सिद्दीक़ी

 फिल्‍म समीक्षा 
पिछली एक डेढ़ सौ वर्ष स में जहां फ़िक्री (वैचारिक) हवाले से बहुत सी तबदीलीयां हुईं हैं। इसी तरह संस्कृति और कल्चर ने भी अपनी बहुत सी जगहों को ख़ाली क्या है, या पहले से मौजूद अनुष्ठान को तबदील कर नई चीज़ों का इज़ाफ़ा किया है। ये सब अचानक नहीं हुआ और ना ही ये किसी स्वाभाविक मन्सूबा-साज़ी का नतीजा था। एक संस्कृति जब किसी दूसरी संस्कृति को अपने अंदर (चाहते या ना चाहते हुए भी) दख़ल अंदाज़ी करने दे तो पहली वाली संस्कृति या समाजी ढांचे में रद्दोबदल होना शुरू हो जाता है। सबसे पहले ये तबदीली फ़िक्री सतह पर स्वाकृत होती है जो अमली सतह पर अपना रास्ता तराशती है।

तवाइफ़ का समाजी संस्थान हमारे समाज में शास्त्रीय का दर्जा रखता था। इस पेशे से चार बड़ी रस्में जुड़ी थीं, पहली रक़्स, (नृत्य) दूसरी गाना बजाना यानी गायकी, तीसरी जिस्मफरोशी और चौथी  तहज़ीब का वो एक हवाला भी इसी पेशे के सपुर्द था जिसे मयारी इन्सान साज़ी का दर्जा दिया गया था। औरत सिर्फ अपने जिस्म को फ़रोख़त नहीं करती थी बल्कि कला के नाज़ुक मराहिल पर भी  रखती थी। उमूमन ऐसी औरतें जो फ़ुनून-ए-लतीफ़ा (कला) से परिचित नहीं होती थीं वह तवाइफ़ कल्चर में जगह नहीं पा सकतीं थीं। आला गायका जिस्मफरोशी में भी आला मुक़ाम रखती थीं और उसे तहज़ीबी तौर-तरीकों की  समझ भी बेहतर होटी थी। ये कल्चर कोई ज़्यादा दूर की बात नहीं, आप उमराओ जान-ए-अदा वाली तवाइफ़ ही को देख लें। जिस्मफरोशी उस का मुख्य पेशा नहीं था। लेकिन रफ़्ता-रफ़्ता समाजी सतह पर तुबिदलियाँ हुईं तो तवाइफ़ कल्चर में भी तबदीलीयां होना शुरू हो गईं। तवाइफ़ का मुख्य और एकमात्र पेशा सिर्फ़ जिस्मफरोशी क़रार दे दिया गया। समाज तबदीली ने तवाइफ़ से वाबस्ता गायकी, रक़्स और तहज़ीबी संस्थायें अलग कर दिए गए। अब गायकों और रक़्क़ासाओं का जिस्म फ़रोश होना दोषपूर्ण समझा जाने लगा और आर्ट को एक अलग मुक़ाम दिया जाने लगा। ये तबदीली एक दम पूरी की पूरी नहीं आई। मंटो के अह्द तक तवाइफ़ से ये संस्थायें तक़रीबन छिन चुके थे। मंटोइस्मत की तवाइफ़ या आनंदी वाली तवाइफ़ में सिर्फ यही एक तबदीली आई वर्ना अनुष्ठान इसी तरह क़ायम रहीं। अलबत्ता मुख्य पेशा जिस्मफरोशी बन गया। साहित्य की तरह फिल्मों ने भी तावईफ़ genre को जगह दी और उसे कभी समाज की सताई हुई औरत के संदर्भ में पर्स्तुत किया तो कभी समाज दोस्त बना के प्रस्तुत किया ।


हिन्दुस्तानी सिनेमा के इतिहास में जिन फिल्मों ने फ़िल्म दर्शकों के दिल-ओ-दिमाग़ पर अपने अन-मिट नुक़ूश (छाप) छोड़े हैं उनमें फ़िल्म पाकीज़ा (1972 और फ़िल्म उमराऊ जान) 1982 (अहम हैं। ये फिल्में तवाइफ़ों की ज़िंदगी पर निर्धारित हैं। एक का किरदार अफ़सानवी है तो दूसरी का हक़ीक़ी। इन फिल्मों के निर्देशक कमाल अमरोही और मुज़फ़्फ़र अली ख़ान अपने सौंदर्य की दृष्टि और फ़िल्मी समझ केलिए अलग पहचान रखते हैं। इन फ़िल्मों के गीत और संवाद आज भी लोगों की ज़बान पर है। इन फिल्मों में जिस अंदाज़ में तवाइफ़ की ज़िंदगी को फ़िल्माया गया है उसने फ़िल्मी तवाइफ़ के ताल्लुक़ से पुराने तसव्वुर (कल्पना) को चुनौती दी है और तवाइफ़ के तसव्वुर (कलपना) की  नई राह हमवार की। फ़िल्म पाकीज़ा (१९७२) की लोकप्रियता ने हिन्दी सिनेमा में कोठा और तवाइफ़ कल्चर (Genre) को बढ़ावा दिया, जिसके नतीजे में सादा और पाकीज़ा दिल रखने वाली समाज दोस्त तवाइफ़ protagonist की रस्म चल पड़ी और उन ही ख़्यालात को थोड़ी तब्दीली के साथ कई फिल्मों में फ़िल्माया गया। जैसे मुकद्दर का सिकन्दर (1978), उमराव-जान ओ अदा, दीदार-ए-यार (1982), तवाइफ़ (1985) इतिअदी में। वैसे तो बॉम्बे सिनेमा में तवाइफ़ genre की शुरूआत ख़ामोश (silent) फिल्मों के ज़माने में ही हो गया था। और हिन्दी फिल्मों की दूसरी दहाई में दो फिल्में जे. जे मदन की नार टिक्की तारा Nartaki Tara (1922) और मणि लाल जोशी की देवदासी या The Bride Of God (1925) पर्दा पर आईं । लेकिन जैसा कि ईरा भास्कर लिखती है इन फिल्मों ने तवाइफ़ के उस Genre को नहीं उभारा जो आज़ादी के बाद पाकीज़ा 1971 ने दिया। देव्दासी genre वाली फ़िल्मों में तहज़ीब-ओ-तमद्दुन नशिस्त-ओ-बर्ख़ास्त की वो शाइस्तगी और नाज़-ओ-अदा,और दिलरुबाई की वो झलक नहीं थी जो बाद में मुस्लिम सिनफ़ तवाइफ़ (courtesan Genre) वाली फ़िल्म पाकीज़ा और उमराओ जान-ओ-अदा में आई।

फ़िल्म पाकीज़ा का प्लाट:
कमाल अमरोही की निर्देशक में बनी फ़िल्म पाकीज़ा (1971) का मर्कज़ी ख़्याल (Theme) एक तवाइफ़ की ज़िंदगी और उसकी मुहब्बत है। इस फ़िल्म की protagonist साहिब-जान नामी एक तवाइफ़ है जिसके ज़िंदगी के इर्द गिर्द फ़िल्म की कहानी गर्दिश करती है। फ़िल्म की शुरूआत साहिब जान की माँ नर्गिस (दोनों ही किरदार की अदायगी मीना कुमारी ने की थी जबकि शहाब उद्दीन का किरदार अशोक कुमार और सलीम का किरदार राज कुमार ने अदा किया है।) और शहाबउद्दीन के इश्क़ से होती है। फ़िल्म के पहले सीन में दिल्ली की एक तवाइफ़ नर्गिस (मीनाकुमारी) विशाल शम्मा (मोम-बत्ती) के दहकते लो के सामने नाचती  होती है, जैसे कि वो इशक़ की आग में जल रही हो। और इसी बीच शहाबउद्दीन की इंट्री होती है। आशिक़ और माशूक़ा का परिचय फ़िल्म मुग़लआज़म की तरह वाइस-ओवर से होती है, वहां परिचय मुहिब-ए-वतन अकबर और हिन्दोस्तान का होता है यहां नर्गिस और उसके आशिक़ शहाब का और उनके इशक़ का। नर्गिस जहां एक तवाइफ़ होती है वहीं शहाबउद्दीन एक शरीफ़ ज़मींदार घराने से ताल्लुक़ रखता है। नर्गिस इस उम्मीद में कि शहाबउद्दीन उसे बाजारू ज़िंदगी से निकाल ले जाये गा, उसे अपना तन-मन सौंप देती है। शहाबउद्दीन भी इस से बेवफ़ाई नहीं करता है और एक दिन इस से शादी रचा के असे लाल-जोड़े में अपने घर ले जाता है। लेकिन उस का बाप एक तवाइफ़ को अपनी बहू के तौर पर क़बूल करने से इनकार कर देता है। इस इनकार को नर्गिस बर्दाश्त नहीं कर पाती है और वहां से भाग के इन्सान की आख़िरी मंज़िल क़ब्रिस्तान में पनाह लेती है और इस को अपना घर बना लेती है। जहाँ बीमार नर्गिस दम तोड़ने से पहले एक बच्ची को जन्म देती है और अपने आशिक़ और शौहर शहाबउद्दीन (को गली-क़ासिम जान, दिल्ली के पते पर) अपनी बेटी के बारे में ख़त लिखती है। मगर ये ख़त शहाबउद्दीन तक पहुंचने में 17 साल लग जाते हैं। अलबत्ता उस की बहन नवाब जान अपनी बहन का सुराग़ पा के क़ब्रिस्तान पहुंच जाती है। लेकिन उस से पहले नर्गिस एक बच्ची को जन्म देकर मर चुकी होती है। नवाब जान बच्ची को अपने साथ ले जाती है और इस का नाम साहिब जान रखती है। साहिब जान की परवरिश कोठे के माहौल में होती है और जो इन हो कर अपने माँ की तरह एक हुसैन तवाइफ़ के तौर पर सामने आती है। शहाबउद्दीन को जब 17 बरस के बाद नर्गिस का ख़त मिलता है तो वो ख़त पढ़ कर वो अपनी बेटी और ना काम मुहब्बत की निशानी को ढूँढने की जुस्तजू में यहां वहां फिरता है और आख़िर में नवाब जान के कोठे पर पहुंच जाता है। लेकिन साहिब जान की ख़ाला नवाब जान उसे ये कि कर टालने में कामयाब हो जाती है कि अभी तो साहिब जान मुजरे के लिए बैठ चुकी है आपकी इज़्ज़त पर आँच आजाएगी कल सुबह आ के ले जाइएगा और फिर वह रात में ही साहिब जान को लेकर लखनऊ भाग जाती है। और वहां एक नया कोठा ले लेती है। जहाँ से साहिब जान की इश्क़ और तवाइफ़ वाली पहचान के बीच संघर्ष शुरू होती है जो अंत तक चलती है.

फ़िल्म का सिनेमेटिक और फेमिनिस्टिक विश्लेषण:
पाकीज़ा की कहानी का प्लाट कई लाक्षणिक या semiotic इशारों  पर आधारित है जैसे रेल की सीटी जहां उम्मीद की अलामत है वहीं पिंजरा में पर कतरे हुए फड़फड़ाते परिंदे साहिब जान की ज़िंदगी की अलामत है जो कोठे और तवाइफ़ के माहौल में पर कतरे हुए परिंदे की तरह क़ैद है। ख़ुद फ़िल्म पाकीज़ा का शीर्षक दारसल औरत की पाकीज़गी और अच्छी होने अलामत है और ये मर्दाना समाज के तवाइफ़ दुश्मनी को चैलेंज भी है. कमाल अमरोही ने दानिस्ता तौर पै फ़िल्म के हीरो (जो के मरदना समाज का नुमाइंदा है) के दुआरा एक तवाइफ़  को पाकीज़ा कहलवाया है। साहिब जान जब ट्रेन के सफ़र में सफ़र कर रही होती है तब एक मुसाफ़िर (सलीम) ग़लती से ट्रेन के इस के कम्पार्टमेंट में आजाता है जहां उस की नज़र सोई हुई साहिब जान पर और इस के ख़ूबसूरत पांव पर पड़ती है तो वो एक पर्ची पर एक ख़ूबसूरत जुमला “माफ़ कीजीएगा इत्तिफ़ाक़ से आपके कम्पार्टमंट में चला आया था, आपके पांव देखे बहुत हसीन हैं, उन्हें ज़मीन पर मत उतारियेगा मैले हो जाएं गे। आपका एक हमसफर” लिख कर उसे के पंजे में रख देता है। जहां पर ट्रेन रुकती है और साहिब जान की आँख खुलती है वो सुहागपूर स्टेशन होता है। साहिब जान पर्चा पढ़ कर ख़ुशी के आलम इधर उधर झाँकती है इस दौरान सीन के बैक ग्राउंड में शहनाई बजती है जो कि खुशियों की प्र्तीक है और साहिब जान के आइन्दा सुहागन वाली ज़िंदगी की पैशन गोई होती है। वैसे पांव वाला जुमला से मुराद सफ़र भी हो सकता है और उन्हें पैर में घुंघरू बांध कर मर्दों की हवस की तसकीन भी ली जाती है। साहिब जान इस पर्चा को और इस के पैग़ाम को अपने दल के क़रीब महसूस करती है और रूमानी तसव्वुर में खो जाती है, कि ये मुसाफ़िर उस के हचकोले खाती ज़िंदगी का मल्लाह साबित होगा और इस की ज़िंदगी के कश्ती को इस गंदगी के समंदर में ग़र्क़ होने से बचा लेगा। इस पारकरये सफ़र और इस का गुमनाम मुसाफ़िर साहिब जान के लिए उम्मीद की किरण बन जाती है। कमाल अमरोही ने पूरी फ़िल्म में ट्रेन की सीटी को बतौर उम्मीद की अलामत के दिखया है। साहिब जान के कोठे से कुछ फ़ासिला रेल्वे ट्रैक पर रोज़ाना रात में एक ट्रेन भाप इंजन शों शों करती, सीटी बजाती कुछ देर रुक कर गुज़रती है। जिसकी आवाज़ साहिब-जान बेताब कर देती हैवो अपने कमरा से भाग कर उस जानिब लपकती है कि शायद उसका हमसफर आता हो और उसे उस को कोठे की ज़िंदगी से निकाल कर ले जाये। फ़िल्मी भाषा में ट्रेन के इंजन की आवाज़ दल के धड़कने की अलामत है और सीटी (80 और 90 की दहाई में बालीवुड फिल्मों में हीरो का हीरोइन की गलीयों में सीटी बजाना उसे बुलाने की अलामत रही है। साहिब-जान तसव्वुराती दुनिया में अपने ख़ाबों के शहज़ादा का इंतिज़ार तकती रहती है। गीत “कोई मिल गया था यूँही सर-ए-राह चलते चलते” उस के अपने ख़्वाबों के शहज़ादे के इंतिज़ार और भविष्य की उम्मीद और मंज़िल तक ना पहुंचने पाने के डर की तर्जुमानी है। साहिब जान उस पर्ची का जो उसके पांव के बारे में लिखा गया था का तावीज़ बनवा के अपने जुल्फों में लगा लेती है। उसे यक़ीन होता है कि इस का हमसफर उसे इस क़ैद से आज़ाद करने एक दिन ज़रूर आएगा। जब वो अपने इस ख़ूबसूरत सफ़र और सफ़र के साथ अपनी तसव्वुराती मुहब्बत का और इस के इंतिज़ार का ज़िक्र अपनी सहेली से करते हुए कहती है कि बहुत दिन से ऐसा लगता है कि मैं बदलती जा रही हूँ जैसे कि मैं अनजाने सफ़र में हूँ, साहिब जान भी मुझसे छूट रही है, और मैं साहिब जान से, रोज़ रात तीन बजे एक रेल-गाड़ी मेरे दल के पटरियों से गुज़रती है और मुझे एक पैग़ाम दिए जाती है। और फिर उसे वो पर्चा दिखाती है तब उस की सहेली उसे उसके ख़्वाब से जागते हुए कहती है कि साहिब जान! ये पैग़ाम तेरे लिए नहीं है! जब साहिब जान ज़ोर देकर कहती है कि नहीं ये मेरे ही लिए है उसे मैंने अपने ही पांव में रखा हुआ पाया था। तब उस की सखी कहती है हाँ क्यों कि तेरे पांव में इस वक़्त घुंघरू बंधे हुए नहीं थे, अगर तेरे पांव में घुंघरू बंधे होते तब कोई कैसे कहता कि उन्हें ज़मीन पर मत रखिए मैले हो जाऐंगे। इस जुमला से वह साहिब जान को इस की हक़ीक़त की दुनिया में लाना चाहती है और स के माँ का अंजाम याद दिलाना चाहती है। लेकिन साहिब जान अपने ख़ाबों के शहज़ादे की उम्मीद में जीती रहती है। इस दरमयान में कमाल अमरोही ने बड़े माहिराना अंदाज़ में साहिब जान के कमरा में टँगे हुए पिंजरा में बंद परिंदा को देखा या है जो अपने पास मौजूद साँप को देखकर फड़फड़ाता होता है। साहिब जान उसे पिंजरा से निकाल के आज़ाद कर देती है। जिसका अर्थ यह है कि साहिब जान भी कोठे पर हवसनाक नागों (ग्राहकों) के बीच घिरी हुई है और वो भी आज़ाद होजाएगी।




कमाल अमरोही ने ये फ़र्क़ बहुत ख़ूब रखा है कि जब तक साहिब जान दिल्ली में होती है उसे को खरीदने  कोई ग्राहक नहीं आता है सब सुनने आते हैं। कियोंकी वहां जो ग्राहक आते हैं वो मध्य-वर्ग या फिर कम दर्जे के होते हैं जिनकी माली हालतइतनी नहीं होती कि वो साहिब जान को मुँह-माँगी क़ीमत पर ख़रीद कर उसे अपनी लौंडी बना ले। जो कि दिल्ली के आर्थिक दिवालियेपन की तर्जुमानी है और इस की भी ग़म्माज़ी है कि अब दिल्ली में नवाबियत नहीं रही। लेकिन लखनऊ पहुंचते ही साहिब जान के हुस्न और जवानी के की सौदाई सामने आने लगते हैं। और फ़िल्म उमरा-ओ-जान के नवाब सुलतान की तरह जब फ़िल्म पाकीज़ा के पानी-पत के नवाब को साहिब जान के साहिराना हुस्न-ओ-अदा की ख़बर लगती है तो उसे अपनी मिल्कियत बनाने के लिए आ धमकता है। नवाब पानीपत जब उस का पहला मुजरा ‘’ठारे रहियो’’ सुनने आता है और मुजरे के बाद जब एक कम रुतबे वाला शख़्स पैसे की पोटली फेंकता है तब पानी-पति नवाब के चेहरे पर ग़ुस्से के रंग को साफ़ तौर से पढ़ा जा सकता है और जब वह अदमी दोबारा पैसे की पोटली निकालता है तब नवाब अपनी जेब से पिस्तौल निकाल लेता है और इस की पोटली पर गोली चला देता है जिसके नतीजे मैन पैसे ज़मीन पर बिखर जाते हैं। नवाब पानीपत का पिस्तौल निकाना और फ़ायर करना फ्राइड के लिंगी Phallic पावर को दर्शाता है और पैसे का ज़मीन पर बिखर जाना तवाइफ़ के जिस्म की मिल्कियत हासिल करने की मर्दाना समाज के दौलत और शान की लड़ाई का प्रतीक है। फ्राइड के इस लिंगी तसव्वुर को फेमिनिस्ट सिमोन दे ब्यूवोयर और लारा मुल्वे का मानना है कि औरत के साथ ये सब सिर्फ एक लिंगना होने और पुरुस लिंगी (phallus) ग़लबा की वजह से होता है। पानी-पति नवाब की कामुक नज़र साहिब जान का पीछा करती होती है और बिल आख़िर वो हीरे जवाहिरात के बदले में पानी-पति नवाब को बेच दी जाती है। भरी नदी में कश्ती नुमा घर में नवाब साहिब जान से कहता है ऐसा क्यों लगता है जैसे तुम साहिब जान नहीं कोई और हो! साहिब जान कहती है मगर आपने तो मुझे इसी नाम से ख़रीदा है? हाँ ख़रीदा तो है लेकिन ऐसा लगता है कि नुक़्सान हो गया जैसे तुम ख़रीदी नहीं चुराई हुई चीज़ हो। इस दृश्य में कमाल अमरोही ने मर्दाना समाज पर भरपूर चोट लगाई है, जो इब्तदा ए तहज़ीब (आरंभ) से ही औरतों की ख़रीद-ओ-फ़रोख़त करता आया है। नवाब पानीपत, साहिब जान से ग़ज़ल “यूँही सर-ए-राह चलते चलते” गाने की फ़र्माइश करता है तो साहिब जान गाते गाते रोहांसी हो जाती है उसे उस के हमसफर के मिलने और अपनी इज्ज़त के बचने की उम्मीद अब ख़त्म होती नज़र आती है। लेकिन अचानक हाथियों के हमले से सारा मंज़र-नामा बदल जाता है। इस हादिसा के बाद नदी में बेहती हुई साहिब जान इत्तिफ़ाक़ से एक जंगल में पहुंच जाती है जहां उस की मुलाक़ात उस गुमनाम मुसाफ़िर से होती है जिसके ख़ाबों ख़यालों में वो जीती है. वो जंगल का अफ़्सर आला होता है और इस का नाम सलीम होता है। वो उस की ग़ैर मौजूदगी में उसकी डायरी पढ़ कर समझ जाती है कि ये वही मुसाफ़िर है जिसने ट्रेन में दौरान-ए-सफ़र उस के पांव देखे थे। और वो आशिक़ाना जुमला लिखा था कि: ‘’आपके पांव देखे बहुत हसीन हैं, उन्हें ज़मीन पर मत अतारईए गा मैले हो जाएं गे’’। यहां एक दृश में साहिब जान खे़मे में सलीम के बिस्तर पर दुल्हन के लिबास में सूई होती है और सलीम जब लौट कर खे़मे के दरवाज़े पर पहुँचाता है तब वो अपने बिस्तर पर साहिब जान को सोया देखकर हैरत में पड़ जाता और जब उसकी नज़र साहिब जान के पैरों पर पड़ती है और वही मेहंदी रचे तलवे नज़र आते हैं तो वो देर तक इस को टिक-टिकी बांधे देखता रहता है इस बीच कैमरा का क्लोज़ अप साहिब जान के सीने के ज़ेर-ओ-बम (ऊपर नीचे) पर होता है जो Male Gaze अर्थात कामुक लज़ज़त और लारा मुल्वे के वीज़ोल पलीज़र का प्रतीक है। ये दृश एक्टर सलीम, डायरेक्टर और कैमरा मैन के लिए पहले और फिर मर्द दर्शकों के लिए कामुक लुत्फ़ फ़राहम करता है। जैसा कि लारा मलवे (1975) Visual Pleasure and Narrative Cinema में लिखती है। कि फिल्मों में औरत का चित्रण (depiction) मर्द तमाशाई के लिए नुमाइश का दर्जा रखता है। हैरोइन की कामोत्तेजक (erotic) उपस्थिति मर्द दर्शकों के लिए यौनिकलज़्ज़त वाला होता है और ये दोहरी सतह पर काम करता है पहले शूटिंग के दौरान मर्द डायरैक्टर ऐक्टर और कैमरा टीम के लिए और दुबारा फ़िल्म देखने वाले नाज़रीन के लिए।

ताहम साहिब जान की ये ख़ुशी आरिज़ी होती है और एक दिन बाद ही वो कोठे वालियों के दुअरा ढूंढ ली जाती है। साहिब जान कोठे पर लौटने का बाद मुजरा करने से इनकार कर देती है और महफ़िल बर्ख़ास्त होजाती है। और कोठे की बाई गौहर जान उसे सबक़ सीखाने का सोचती है। जिसे कमाल अमरोही ने बड़े ही महारत से दिखाया है कि गुलाबी कोठे की बाई गौहर-जान परिंदे का पर कतर कर उसे पिंजरे में बंद करती है, जो इस बात का इशारा है कि वो साहिब जान के भी पर काटने का अरदा रखती है। और दूसरे ही दृश्य में दिखाया जाता है कि एक ग्राहक साहिब जान के ख़्वाब-गाह (सोने का कमरा) में दाख़िल हो कर इसके साथ ज़बरदस्ती करना चाहता है लेकिन कमरे में टंगे पिंजरा के पास बैठे साँप के अचानक नीचे आ जाने से पूरा माहौल बदल जाता है और साहिब जान को फ़िरार होने का मौक़ा मिल जाता है। इस मौक़ा पर तकिया पर लिखा हुआ शेअर हुस्न हिफ़ाज़त करता है जवानी सोती है बहुत ख़ूब है। जिसे कमाल अमरोही ने बड़ी खूबसूरती से पेश किया है।

अब की मुलाक़ात में साहिब जान जब सलीम से बताती है कि वो कोई आम लड़की नहीं बल्कि एक तवाइफ़ है तो सलीम इस हक़ीक़त को जानने के बाद भी उसे अपनी शरीक-ए-हयात के तौर पर क़बूल करने के लिए तय्यार हो जाता है। लेकिन रास्ते में लोग साहिब जान को पहचान लेते हैं और फ़िक्ऱाबाज़ी करने लगते हैं अरे ये तो कोई तवाइफ़ है, कोई तवाइफ़ है।’ अरे क्या नक़द माल है यारो’’ ये सब सुनकर साहिब जान सलीम से कहती है ‘’तुम मुझे जहां भी ले जाओगे मेरी बदनामी मुझे ढूंढ ही लेगी, मेरा ये दुश्मन आसमान कहीं ख़त्म नहीं होगा’’। लेकिन सलीम अपने फ़ैसला पर अटल रहता है। वो साहिब जान को लेकर एक मस्जिद में पहुंचता है और इमाम साहिब से निकाह पढ़ाने को कहता है। निकाह के ख़ुतबा के बाद जब क़ाज़ी दुल्हे से लड़की का नाम पूछते हैं तो सलीम बजाय साहिब-जान कहने जानबूझकर ‘पाकीज़ा’ यानी साफ़-शफ़्फ़ाफ़ पवित्र या पाक बताता है। लेकिन यह नाम सुनते ही साहिब जान अपनी असल ज़िंदगी को भुला नहीं पाती है और अचानक चौंक कर अपने कानों पर हाथ रखकर चीख़ते हुए वहां से भाग खड़ी होती है। क्योंकी निकाह क़बूल के वक़्त साहिब जान के ज़हन में लोगों की आवाज़ें ये तवाइफ़ है! ये तवाइफ़ है! गूँजती रहती है। इसलिए वहवहां से नहीं! नहीं!! कि कर भाग खड़ी होती है। और वापस कोठे पर आकर पनाह लेती है। कमाल अमरोही ने यहां ये दिखा ने की कोशिश की है कि मर्दाना समाज में तवाइफ़ की पुनर्विचार ज़िंदगी शुरू करना आसान नहीं है। तवाइफ़ का माज़ी (अतीत) उस के साथ चिमटा रहता है वो इस भूलना चाहती और एक नई पहचान चाहती है लेकिन समाज उसे नई पहचान देने को तैयार नहीं है। दूसरी अहम बात ये है कि पहले शहाबउद्दीन का और फिर सलीम का घर और ख़ानदान के इजाज़त के बग़ैर किसी तवाइफ़ से शादी करने का फ़ैसला उस वक़्त के मुस्लिम समाजी तबदीली पर दलालत करता है क्यों कि 19वीं और 20 वीं शताब्दी के आरंभ तक बग़ैर ख़ानदानी इजाज़त और रसूम-ओ-रिवाज केशादी का तसव्वुर मुहाल था और सलीम का किरदार रिवायत-शिकनी (परंपरा का हनन) करता नज़र आता है। जब साहिब जान वापिस कोठे पर लौट आती है तब वो अपने सखी से जो कुछ कहती है वो फ़िल्म के ज़रीया कोठा कल्चर और मर्दाना समाज पर सख़्त चोट है, वो कहती है: हाँ! मेरा ये आवारा जिस्म फिर से इस गुलाबी मक़बरा में दफ़न होने के लिए वापिस लौट आया है, हाँ बब्बन! हर तवाइफ़ एक लाश है! में भी और तुम भी! हमारा ये बाज़ार एक क़ब्रिस्तान है, ऐसी औरतों का जिनकी रूहें (आत्मा) मर जाती हैं और जिस्म ज़िंदा रहते हैं। ये हमारे बाला ख़ाने और कोठे हमारे मक़बरे हैंजिनमें हम मुर्दा औरतों के जनाज़े सजा के रख दिए जाते हैं। हमारी क़ब्रें पाटी (बंद) नहीं जातीं खुली छोड़ दी जाती हैं ताकी .....  में ऐसे ही खुली क़ब्र की एक बेसबर लाश हूँजिसे बार-बार ज़िंदगी वरग़ला (उकसा) कर भगा ले जाती है। लेकिन अब में इस आवारगी और धोके बाज़ी से थक गई हूँ। इस मौक़ा पर कमाल अमरोही ने साहिब-जान की ज़िंदगी एक कटी पतंग से तुलना की है और फ़िल्म में दिखाया गया है कि कोठे से सटे एक पेड़ पर एक कटी फटी पतंग लटकी होती है। जो किसी मंझे धागे से कट कर अपनी परवाज़ से महरूम हो कर पेड़ के शाख़ों में उलझ कर रह जाती है। और अब ना ऊपर जा सकती है और ना ज़मीन पर आ सकती है। साहिब जान की ज़िंदगी की भी यही हालत होती है। जो ना तो सलीम की शरीक-ए-हयात बन सकती है और ना हैं ज़मीन पर क़दम रखकर आम समाज में ज़िंदगी बसर कर सकती है। यानी ना तो वो कोठे पर रहना चाहती है और ना मर्दाना समाज उसे क़बूल करने को तैयार होता है और यूं उस की ज़िंदगी किसी कटी और किसी झाड़ में फंसी पतंग जैसी हो जाती है। साहिब जान इस पतंग की तरफ़ इशारा करते हुए अपने बब्बन से कहती है: देख ना बब्बन! वो पतंग कितना मिलती जुलती है मुझसे ,मेरी ही तरह कटी हुई...।




साहिब जान के बेवफ़ाई से बद-दिल सलीम अपनी बेइज़्ज़ती का इंतिक़ाम कुछ इस तरह से लेता है कि वो अपनी शादी कहीं और तै कर लेता है और साहिब जान को एक ख़त लिखता है कि : साहिब जान!अगले महीने की 26 तारीख़ को तुम्हें भूल जाने की रस्म मै बड़ी धूम धाम से मना रहा हूँ और यही दिन मेरी शादी का भी टहरा है। इस ख़ास मौक़ा पर तुमसे एक मुजरे की फ़र्माइश है। सुना है तुम्हारे नाच-गाने के चर्चे दूर दूर तक हैं... तुम्हरा एक सनाशा (जाननेवाला)। सलीम के इंतिक़ामी ख़त को पढ़ने के बाद वो आह भर कर रह जाती है, और वो पर्चा जो सलीम ने दौरान-ए-सफ़र रेल में उसके पैर की तारीफ़ में लिखे थे और जो अब तक साहिब जान के ज़ुल्फ़ों की तावीज़ बना हुआ था फ़िल्मी metonymy के तौर पर खुल कर नीचे गिर जाता है। जो इस बात की इशरा होता है कि उस का आशिक़ अब इस से मुँह मोड़ लिया है। इसके इलावा कमाल अमरोही ने यह भी दिखाया है कि सबसे पहले उस शाम को सलीम अपने जंगल के खे़मे को शोलों के हवाले कर देता है। जो इशक़ के ख़रमन को फूँकने की प्रतीक ठहरा और रात में वो तीन बजे वाली ट्रेन भी जो हमेशा सीटी देके कुछ देर रुक के गुज़रती थी, इस बार नहीं ठहरती है। मतलब सलीम की मुहब्बत उस के दिल की पटरियों से गुज़रती ज़रूर है मगर अबकीकी बार उस के लिए ठहरती नहीं है। सलीम की शादी के रोज़ वो मुजरे लेलिये उस के घर सफ़ैद लिबास में पहुँचती है जैसे की इशक़ अपने कंधों पर माशूक़ा का जनाज़ा और फ़र्याद ले के आया हो। इस मौक़ा पर पेश किया जानेवाले मुजरा की ग़ज़ल के बोल भी बहुत मानी-ख़ेज़ होते हैं  “आज हम अपनी दुआओं का असर देखेंगे... तीर-ए-नज़र देखेंगे ज़ख़्म-ए-जिगर देखेंगे ... जान लेवा है मुहब्बत का समां आज की रात... शम्मा हो जाएगी जल जल के धुआँ आज की रात... आज की रात बचेंगे तो सहर (सुबह) देखेंगे।

सलीम साहिब-जान के इस तंज़ को बर्दाश्त नहीं कर पाता है और अपने घर के अंदर चला जाता है। और साहिब जान वहीं पर पड़े कांच के शमादान को गिरा चकना-चूर कर देती है और शीशे के किर्चेंयों पर लहू-लुहान पैरों के साथ दीवाना-वार रक़्स (नाच) करती है और ग़श खा के ख़ाला नवाब-जान की बाहोँ में झोल जाती है। नवाब-जान जो शहाब उद्दीन (सलीम के चचा और साहिब जान के बाप) को देखकर ज़ेर-ए-लब मानी-ख़ेज़ मुस्कराहट के साथ उसे देखती रहती है। इस मौक़ा ग़नीमत जान कर मर्दाना समाज के शरीफ़ घराने पर चोट करने से वह चुकती नहीं है : “शहाब उद्दीन आओ अपनी बे-आबरू ई का तमाशा देखो ये तुम्हारी ही आबरू है जो तुम्हारे घर की आँगन में तुम्हारी बिरादरी के सामने नाच रही है.... ये तुम्हारी ही ग़ैरत का ख़ून है.... तुम्हारी बेटी का ख़ून ....जिस पर तुम्हारा पावं रखा हुआहै। ... देखा उस मज़लूम औरत का ख़ून क्या रंग लाया जिसका दाग़ तुम्हारी आस्तीनों पर सूख गए थे .... ये इल्ज़ाम नहीं है हकीम साहिब! ये तो फ़िरऔनों के ग़रूर की सज़ा है ।

फ़िल्म में नवाब जान का किरदार हक़ीक़त से क़रीब-तर है। और बज़ाहिर ख़ुद गर्जी वालाभी लगता है ख़ास कर जब साहिब-जान का बाप उसे लेने उसके कोठे के नीचे पहुंचता है तो वो साहिब जान को उस के हवाले नहीं करती बल्कि जली-कटी सुनाती है। जैसा कि वो कहती है : “अब किस गुनहगार की तलाश है आपको! अब किस तवाइफ़ को दोज़ख़ की आग से बचाने के लिए परहेज़गारी का कफ़न लेकर आए हैं? और फिर खुले आम इस बदनाम बाज़ार से बेटी को ले जाना यूं भी आपके ग़ैरत के ख़िलाफ़ है... और उसे धोका देकर लखनऊ भाग जाती है। ये एक तरफ़ उस की ख़ुदग़रज़ी को दिखाता हैलेकिन इसे यूं भी लिऐसे भी देखा जा सकता है कि शायद उसे अपनी बहन का अंजाम याद हो और वो साहिब जान के साथ भी पुरुष-पर्धान समाज के ज़ुलम का शिकार नहीं बनना देना चाहती हो। और आख़िर में बहन के बेइज़्ज़ती का बदला यूं शरीफ़ों को भरी महफ़िल में ज़लील कर के निकाली  हो।

फ़िल्म के गीतों की बात की जाये तो सब से मानी-ख़ेज़ गाना इन ही लोगों ने ले ली ना दुपट्टा मेरा है जिसमें पुरुष-पर्धान समाज के दोगलेपण की ओरखुला इशारा है कि इन लोगों की वजह से ही औरत के पैरों में घुंघरू बंधते हैं और उनका दुपट्टा (इज्ज़त) उनसे छिन जाता है। लेकिन यह गीत  मर्दाना समाज के दोहरे पन पर तमांचा है, की एक जानिब वो अपने घरों में अपनी बहू बेटीयों को पर्दा में रखते हैं और बाज़ार-ए-हुस्न में किसी और की बेटी का दुपट्टा छीनते हैं। दुपट्टा हिन्दुस्तानी समाज और ख़ास कर मुस्लिम समाज में इज़्ज़तइफ़्फ़त और ग़ैरत का मज़हर है। लेकिन डाक्टर फरहा अपनी तहक़ीक़ मैन दास की semiotic तशरीह में कुछ आगे जाते हुए उसे नामूस और बकारत से ताबीर किया है.

In Pakeeza performance red Dupatta is a thinly valid is reference to virginity and sexual honour, the colour red is to remind one of virginal blood and the colour of the dress of must Hindu and Muslim brides, with both possibly connected symbols. ( Farhad Khoyratty, 2015, pg 60)
अगर फेमिनिस्टिक थियूरी के सन्दर्भ में पूरी फ़िल्म की बात की जाये तो ये फ़िल्म पुरुष नाज़रीन (दर्शक) के लिए तफ़रीह का सामान तो है लेकिन समाज में तवाइफ़ की मौजूदगी और इस के मसाइल की गुत्थी सुलझाने में नाकाम नज़र आती है। फ़िल्म में मर्दाना समाज पर चोट भी है लेकिन औरत के आवारा होने का प्रतीक भी है, फ़िल्म में नर्गिस को सुनहरे बालों और बादामी आँखों वाले मेक-अप और कॉस्ट्यूम में पेश किया गया है, दास गुप्ता और (Hedge 1988) के अनुसार सुनहरे बालों वाली नर्गिस की उपस्तिथि बहुत मानी-ख़ेज़ है जो मग़रिब के आवारा औरत पर दलालत करता है। वो कहता है कि बाली वुड फ़िल्म की आदर्श सत्री रिवायत-परस्त होती है जो ताबेदारी, करने वाली हुक्म मानने वाली होती है। जो घर परिवार केलिए ज़िंदगी गुज़ारती है और अपने ख़ुशीयों की क़ुर्बानी देने से गुरेज़ नहीं करती। और इस के उलट आवारा या ख़राब औरत की तस्वीरकशी पश्चमी तहज़ीब की वेशभूषा और सुनहरे बालों के साथ होती है। जो व्यक्तित्व में यक़ीन रखती है और अपनी ख़ुशी और मुफ़ाद के लिए मर्द को तबाह-ओ-बर्बाद कर देती है। और इस में शहाबउद्दीन का किरदार ऐसे ही शरीफ़ घराने के नुमाइंदा की अक्कासी है जिसे एक सुनहरी बालों वाली आवारा तवाइफ़ अपने दाम-ए-मोहब्बत में फंसा लेती है। जिसका प्रतीक गुलाबी महल में मौजूद एक मुजस्समा है जिसमें एक हसीन दोशीज़ा (के पावं में पड़ा हुआ मर्द भी प्रासंगिकता से भरपूर है जिसमें दीखाया गया है कि इशक़ मैं किस तरह से लोग अपनी अना अपनी जान और दौलत हार के माशूक़ा के क़दमों में आजाता है।

अगर एक वेश्या की उताड़ चढ़ाव वाली ज़िंदगी पर ये सोच कर नज़र डाली जाये कि वह पैदाइशी तवाइफ़ नहीं थी बल्कि हालात और माहौल ने उसे इस दल दिल में फंसा दिया। तब भी साहिब जान के किरदार से किसी दूसरी औरत या तवाइफ़ को कोई हौसला अफ़्ज़ा पैग़ाम नहीं मिलता है क्योंकि साहिब-जान उस माहोल और हालत से निकलने के लिए ख़ुद कोई जद्द-ओ-जहद करती नज़र नहीं आती है। बल्कि उसे सलीम निकाल के ले जाता है, और हक़ीक़ी ज़िंदगी में हर तवाइफ़ को कोई सलीम नहीं मिल सकता है।
 -अब्दुल कादिर सिद्दीक़ी 
रिसर्च स्कॉलर, जान संचार एवं पत्रकारिता
मौलना आज़ाद नेशनल उर्दूयूनिवर्सिटी- हैदराबाद

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