ग़ज़ल समीक्षा : तेलुगु में प्रकाशित ‘योग रेखाएँ’, ‘राग रेखाएँ’, ‘विश्वरागम’ और ‘हृदयांजलि’ की समीक्षा
प्रस्तुत संग्रह विदुषी कवयित्री डॉ. पी. विजयलक्ष्मी पंडित की तेलुगु में प्रकाशित चार ग़ज़ल कृतियों ‘योग रेखाएँ’, ‘राग रेखाएँ’, ‘विश्वरागम’ और ‘हृदयांजलि’ का अत्यंत सुसंवेदित हिंदी अनुवाद है, जो भारतीय काव्य-जगत में एक युगांतकारी पहल का प्रतीक है। इस अनूदित रूप में तेलुगु ग़ज़ल का सांस्कृतिक और दार्शनिक वैभव हिंदी पाठकों तक पहुँचता है, जिससे न केवल भाषाई सेतु निर्मित होता है, बल्कि ग़ज़ल की आत्मा भी अक्षुण्ण बनी रहती है। अरबी-फारसी परंपरा से उत्पन्न होकर ‘प्रेमालाप’ की संकीर्ण परिधि तक सीमित रही ग़ज़ल जब भारतीय भाषाओं में पहुँची, तो उसने प्रेम के साथ-साथ सामाजिक, राजनीतिक और आध्यात्मिक चेतना को भी अपनी संवेदना में समाहित किया। डॉ. पी. विजयलक्ष्मी पंडित इसी विकास-यात्रा की वह सृजनशील कड़ी हैं, जिन्होंने ग़ज़ल को भक्ति और सूफी दर्शन के आलोक में एक नये आयाम से परिचित कराया। उनकी ग़ज़लें प्रेम को लौकिक अनुभूति से ऊपर उठाकर आत्मा-परमात्मा के मिलन की साधना में रूपांतरित करती हैं, जहाँ भक्ति, दर्शन और मानवीय सरोकार एकाकार होकर जीवन के आध्यात्मिक अर्थ को उद्घाटित करते हैं। डॉ. पंडित ने तेलुगु ग़ज़ल परंपरा को जिस दार्शनिक गहराई और भाव-संपन्नता से समृद्ध किया, वह उन्हें आधुनिक भारतीय ग़ज़ल-जगत की अग्रणी कवयित्री के रूप में प्रतिष्ठित करता है। उनके सृजन में ग़ज़ल केवल काव्य-विधा नहीं, बल्कि आत्मानुभूति की वह भाषा बन जाती है जो प्रेम, भक्ति और मानवता के शाश्वत संबंध का साक्षात्कार कराती है।
उनकी रचना की संकल्पना केवल साधना का रूप नहीं, बल्कि आत्मा-परमात्मा के अनिर्वचनीय रागबंध का रूपक बन जाती है। इस संग्रह में कवयित्री ने रवींद्रनाथ टैगोर की विचारधारा से प्रेरित होकर ‘सत्यम्, शिवम्, सुंदरम्’ जैसे सार्वभौमिक मूल्यों को अपनाया है। इस दृष्टि से उन्होंने ग़ज़ल को भावुकता के संकुचित घेरे से निकालकर बौद्धिक और दार्शनिक ऊँचाई दी है, जहाँ उनकी ग़ज़लें भावनात्मक कोमलता और स्त्रीसुलभ संवेदनशीलता से परिपूर्ण हैं, वहीं उनमें वैचारिक गहराई और आत्मानुभूति का सूक्ष्म संतुलन भी है। हालाँकि आलोचनात्मक दृष्टि से देखें तो डॉ. पंडित की ग़ज़लें अपने शिल्प और छंद संरचना के स्तर पर पारंपरिकता और प्रयोगधर्मिता के बीच संतुलन साधने का प्रयास करती दिखाई देती हैं। उन्होंने मतला, काफिया, रदीफ़ और मक्ता जैसी संरचनात्मक विशेषताओं को बनाए रखते हुए भी विषयगत विस्तार किया है। किंतु कुछ स्थानों पर यह शिल्पात्मक अनुशासन भक्ति और दार्शनिक भावों की अधिकता के कारण ढीला पड़ता दिखाई देता; यहाँ दोनों संदर्भ प्रस्तुत हैं —
उक्त पंक्तियों के आधार पर कहा जा सकता है कि डॉ. पी. विजयलक्ष्मी पंडित ने अपनी ग़ज़लों में मतला, काफिया, रदीफ़ और मक्ता जैसी पारंपरिक संरचनाओं का प्रयोग उर्दू ग़ज़ल की परंपरा के अनुरूप अत्यंत कुशलता से किया है। उनकी कई रचनाओं में यह शिल्पगत अनुशासन पूर्ण रूप से दृष्टिगोचर होता है, जिससे यह स्पष्ट होता है कि उन्होंने ग़ज़ल की मूल संरचना के सौंदर्य और अनुशासन को गहराई से आत्मसात किया है। आलोचनात्मक दृष्टि से देखने पर कुछ ग़ज़लों में यह भी परिलक्षित होता है कि वे बहर (छंद) के कठोर अनुशासन से कभी-कभी थोड़ा विचलित हो जाती हैं। यह विचलन यद्यपि शास्त्रीय दृष्टि से एक तकनीकी कमी मानी जा सकती है।
उन्होंने ग़ज़ल को पारंपरिक बंधनों से मुक्त करते हुए भावनाओं की सहजता और विचारों की प्रवाहशीलता को अधिक महत्त्व दिया है। इस प्रकार उनकी ग़ज़लों में शिल्प और भाव दोनों के बीच एक सृजनात्मक तनाव दिखाई देता है, जो उन्हें आलोचनात्मक रूप से और भी महत्त्वपूर्ण बनाता है। उनकी रचनाओं में प्रेम, भक्ति और आत्मानुभूति के संगम से जो काव्य-विश्व निर्मित होता है, वह पारंपरिक सूफी और भक्ति साहित्य की याद दिलाता है; इसी उपलक्ष्य में ग़ज़ल का अंश प्रस्तुत है —
इन पंक्तियों में कवयित्री का प्रेम लौकिक सीमाओं से परे जाकर अस्तित्व की गहराई में उतरता है। यहाँ ईश्वर किसी मूर्त सत्ता के रूप में नहीं, बल्कि अनंत आकाश, समुद्र और ज्योति जैसे प्रतीकों में अनुभव होता है। यह प्रतीकात्मकता ग़ज़ल को महज संवेदनात्मक नहीं रहने देती, बल्कि उसे दार्शनिक विमर्श में रूपांतरित कर देती है।
यह पंक्ति ईश्वर और आत्मा के बीच के स्नेहपूर्ण संवाद को अभिव्यक्त करती है। इस भावभूमि में भक्ति की औपचारिकता समाप्त हो जाती है और प्रेम की सहजता का प्रवेश होता है। प्रकृति से संवाद उसकी भक्ति को और व्यापक बना देता है। जब वह कहती हैं कि—
तो प्रकृति उसके लिए ईश्वर का जीवंत रूप बन जाती है। पेड़, फूल, पक्षी, पहाड़ सभी उस ब्रह्मांडीय नृत्य के सहभागी हैं, जिसमें आत्मा और परमात्मा का मिलन घटित होता है। यह भाव रवींद्रनाथ ठाकुर की ‘गीतांजलि’ की तरह प्रतीत होता है, जहाँ प्रकृति और ईश्वर के बीच कोई भेद नहीं रहता।
डॉ. विजयलक्ष्मी पंडित की ग़ज़लें भावनात्मक गहराई, सौंदर्य और दार्शनिक गंभीरता का अद्भुत संगम हैं। यद्यपि कुछ स्थानों पर अत्यधिक भावुकता या शिल्प की परंपरागत मर्यादा से विचलन दिखाई देता है, परंतु यही विचलन उनकी मौलिकता का संकेत भी देता है। उन्होंने ग़ज़ल को नारी-संवेदना, सूफ़ी दर्शन और भारतीय भक्ति परंपरा से जोड़कर उसे नया सौंदर्य और जीवन प्रदान किया। उनके काव्य में स्त्री की भक्ति, पारवश्य भावनाएँ और कोमल संवेदनाएँ उस तरह चमकती हैं, जो न केवल ललित है बल्कि आध्यात्मिक भी।
डॉ. पी. विजयलक्ष्मी पंडित की ग़ज़लें भारतीय और विशेषतः तेलुगु ग़ज़ल परंपरा में एक गहन और विशिष्ट परिवर्तन का संकेत देती हैं, जिसने ग़ज़ल को उसकी पारंपरिक प्रेमाभिव्यक्ति की सीमाओं से निकालकर आध्यात्मिक और दार्शनिक ऊँचाइयों तक पहुँचाया है। उन्होंने ग़ज़ल को केवल भावनात्मक उद्गार का माध्यम नहीं रहने दिया, बल्कि उसे आत्मा और परमात्मा, मनुष्य और प्रकृति, व्यक्ति और समाज के बीच रागात्मक संवाद का साधन बना दिया। उनकी रचनाओं में प्रेम और भक्ति का जो अद्भुत समन्वय है, वह ग़ज़ल को केवल भावनाओं के क्षेत्र में नहीं, बल्कि अस्तित्व के गूढ़ रहस्यों की खोज में भी एक प्रभावशाली विधा के रूप में प्रतिष्ठित करता है। उनके काव्य में ‘प्रेम’ केवल लौकिक संबंध का प्रतीक नहीं, बल्कि आत्मा के अपने स्रोत की ओर लौटने की व्याकुलता का दार्शनिक रूप है, जहाँ ईश्वर को ‘प्रभु’, ‘सखा’ और ‘प्रिय’ जैसे विविध रूपों में संबोधित कर आत्मीयता की नई परिधि रचता है।
डॉ. पंडित का यह सृजनात्मक दृष्टिकोण उन्हें पारंपरिक ग़ज़लकारों से भिन्न करता है। उन्होंने तेलुगु ग़ज़ल के प्रेमतत्व को एक नई आध्यात्मिक दिशा दी, वहीं ‘योगरेखाएँ’ जैसी कृतियों के माध्यम से सूफ़ी और भक्ति दर्शन की सांद्रता को आधुनिक भावबोध के साथ जोड़ा। यह ग़ज़लें किसी संकीर्ण भक्ति भावना की पुनरावृत्ति नहीं हैं, बल्कि उनमें जीवन के सार्वभौमिक मूल्य, सत्य, सौंदर्य और शिव की अनुभूति अंतर्निहित है। भाषा के स्तर पर उनकी ग़ज़लें संस्कृतनिष्ठ, मधुर और लयपूर्ण हैं, जिनमें अनुप्रास, आवर्तन और ध्वन्यात्मकता की सहजता पाठक को भावानुभूति की गहराई तक ले जाती है। यह शैली कहीं प्रार्थना की कोमलता लिए होती है, तो कहीं आत्मसंवाद की तीव्रता के साथ सामने आती है।
उनकी ग़ज़लों की एक विशेषता यह भी है कि उनमें प्रतीकों और बिंबों के माध्यम से ईश्वर का स्वरूप स्थूल नहीं, बल्कि तत्व रूप में उद्घाटित होता है — कभी ज्योति के रूप में, कभी समुद्र या आकाश के रूप में। इस प्रतीकात्मक संरचना में कवियत्री का उद्देश्य ईश्वर की खोज नहीं, बल्कि उसकी अनुभूति है। यही अनुभूति ग़ज़ल को उसके दार्शनिक चरम तक पहुँचाती है। जहाँ पारंपरिक ग़ज़ल में प्रेम की तृष्णा और वियोग की वेदना थी, वहीं डॉ. पंडित की ग़ज़ल में आत्मा की मुक्ति की अभिलाषा और ब्रह्म से एकत्व की साधना है।
उनकी रचनाओं में गुण और अवगुण दोनों ही स्पष्ट दिखाई देते हैं। गुणों की दृष्टि से उनकी ग़ज़लों की विषय-विस्तारिता, भाव-संपन्नता, दार्शनिक गहराई और लयात्मक संरचना उन्हें समकालीन ग़ज़लकारों से विशिष्ट बनाती है। वहीं आलोचनात्मक रूप से देखें तो कहीं-कहीं ग़ज़ल की पारंपरिक संरचना जैसे—मतला, मक्ता, क़ाफ़िया और बहर की सीमाओं के प्रति उनकी स्वतंत्र शास्त्रीय दृष्टिकोण से भी प्रश्न उठाती हैं। किंतु यही स्वतंत्रता उनके सृजन की सबसे बड़ी शक्ति भी है, क्योंकि उन्होंने ग़ज़ल को एक लचीले और समकालीन रूप में ढाला, जहाँ अभिव्यक्ति किसी नियम की दासी नहीं, बल्कि संवेदना की स्वामिनी बन जाती है।
डॉ. पंडित का योगदान केवल सृजनात्मक नहीं, बल्कि संगठनात्मक भी है। ‘विश्वपुत्रिका ग़ज़ल फ़ाउंडेशन’ के माध्यम से उन्होंने दक्षिण भारत में ग़ज़ल के प्रचार-प्रसार का जो कार्य किया, वह ग़ज़ल को भाषाई सीमाओं से परे एक राष्ट्रीय स्वर प्रदान करता है। इस प्रयास से उन्होंने तेलुगु ग़ज़ल को हिन्दी के समानांतर प्रतिष्ठा दिलाने का कार्य किया और यह दिखाया कि ग़ज़ल किसी एक भाषा की संपत्ति नहीं, बल्कि अनुभूति का वैश्विक रूप है।
अंततः कहा जा सकता है कि डॉ. पी. विजयलक्ष्मी पंडित की ग़ज़लें आधुनिक समय की उस काव्यधारा का प्रतिनिधित्व करती हैं, जहाँ भक्ति और दर्शन का संगम मनुष्य के भीतर छिपे ईशत्व की पहचान बन जाता है। उन्होंने ग़ज़ल को आत्मा की साधना, प्रेम की अनुभूति और समाज की चेतना से जोड़कर उसकी नई परिभाषा गढ़ी है। उनकी रचनाएँ यह सिद्ध करती हैं कि ग़ज़ल आज भी केवल प्रेम की भाषा नहीं, बल्कि जीवन के समग्र अनुभव की भाषा है, जहाँ भाव, चिंतन और साधना — तीनों का संगम होता है। यही उनकी ग़ज़लों की स्थायी विशेषता और भारतीय साहित्य के प्रति उनका अमिट योगदान है।



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