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स्वतंत्रता संग्राम और हिन्दी सिनेमा : डॉ अरुण कुमार

“कला प्रकृति का प्रतिबिंब है।अनादि काल से यह मानव प्रकृति के रम्य और विभिन्न रूपों को जीवन के विशाल 'कैनवास' पर उतारती चली आ रही है। चित्र कला,संगीत कला,साहित्य, शिल्पऔर नाट्यकला की भांति 'चित्रपट'उनमें एक नवीन रूपभिव्यक्ति है।" - महेन्द्र मित्तल, भारतीय चलचित्र, पृ.1


‘चित्रपट’, चलचित्र या‘सिनेमा’ कला केसभी प्रचलित रूपों कोअपने में समाहित कर जीवन की सजीव एवं मार्मिक अभिव्यक्ति करने वाली विधा है। जनमानस को कला के इस रूप नेसबसेअधिक प्रभावित किया है।सिनेमा ने विज्ञान कीसहायता सेअपना आकर्षण और प्रभावशीलता दोनों का विस्तार किया है। इसमेंचित्र,संवाद, गति,नाटक, कहानी,नृत्य, संगीत आदि सबकुछ है। यह एक ऐसा जनमाध्यम हैजो ‘सहृदय’ कोएकऐसी दुनिया में ले जाता हैजहां वह अपने सपनों को प्रत्यक्ष देखने लगता है। अपने प्रारंभ से अब तक सिनेमाने यह भी सिद्ध किया है कि वह जनशिक्षा काभी सशक्त माध्यम है।




‘कला के सामाजिक सरोकार’ विषय पर प्लेखानोवने लिखा है कि ‘कला मानवीय चेतना के विकास में मदद करती है,मानवीय सामाजिक प्रणाली को उन्नत बनाती है। कलाकेवल जीवन की पुनर्प्रस्तुतिनहीं है बल्कि उसकी व्याख्या भी करती है।वहमानव जीवन से संबंधित स्थितियों परअपना पक्ष भी रखती है। (कला के सामाजिक सरोकार, पृष्ठ 140)वहमानव मेंमानवता की संवेदनाउत्पन्न करती है और उसे समाज में एकजिम्मेदार नागरिकबनने के लिए प्रेरित करती है। प्लेखानोव का यह कथन सिनेमा पर भी अक्षरशः लागू होता है। सिनेमा की इस क्रांतिकारी भूमिका की पहचान जॉर्ज बर्नार्ड शॉ ने बीसवीं शताब्दी की शुरुआत में हीकर ली थी। उन्होंने कहा था कि – ‘आविष्कार के रूप में सिनेमा प्रिंटिंग प्रेस से ज्यादा महत्वपूर्ण साबित होगा क्योंकि यहमनुष्य के आचरण को भी प्रभावित करेगा। देश की चेतना,आदर्श और आचरण की कसौटी वही होगी जो सिनेमा की होगी।‘किसी भी देश का इतिहास,सांस्कृतिक चेतना, पर्व-उत्सव,मेले-प्रदर्शनियां, रीति-रिवाजआदि सिनेमा मेंअत्यंत प्रभावशाली ढंग से अभिव्यक्त होता है।यह राष्ट्रीय एकता और विश्व बंधुत्व की भावना काभी पोषण करता है। किसी देश की सामाजिक, सांस्कृतिक, धार्मिक एवं राजनीतिक परंपरा का परिचय प्राप्त करने के लिए जिन साधनों का सहारा लिया जाता है। उनमें नाट्यकला और सिनेमा का विशिष्ट स्थान है।" (अमृत लाल नागर, संकलन एवं संपादन,डॉ शरद नागर, फ़िल्म क्षेत्र, पृष्ठ 39)सिनेमा समाज के परिवर्तनकारी आंदोलनों कीभी अभिव्यक्ति है।




भारत के स्वतंत्रता संग्राम में हिन्दी सिनेमा का अमूल्य योगदान रहा है।स्वतंत्रता संग्राम के दौर में सिनेमा के महत्व को स्वीकार करते हुए डॉ राममनोहर लोहिया नेकहा था कि- भारत को एक करने वाली दो ही शक्तियां हैं, पहला गांधी और दूसरी फिल्में। (ओंकार शरद, लोहिया: एक जीवनी, पृष्ठ, 12)भारत में सिनेमा और स्वतंत्रता संग्राम दोनों सहयात्री रहे हैं। देश में महात्मा गांधी और सिनेमा में दादा साहब फाल्के लगभग एक ही समय सक्रिय होते हैं। 1914 में महात्मा गांधी दक्षिण अफ्रीका में अपने महान संघर्ष की सफलता के बाद स्वदेश लौटते हैं और इसी के आस-पास घुंडीराज गोविंद फाल्के भी इंग्लैंड से फिल्म निर्माण की तकनीक लेकर लौटते हैं। यह केवल संयोग नहीं है कि महात्मा गांधी को ‘राष्ट्रपिता’ और दादा साहेब फाल्के को ‘भारतीय सिनेमा का पिता’ कहा जाता है। महात्मा गांधी और दादा साहेब फाल्के की सक्रियता से स्वतंत्रता संग्राम और हिन्दी सिनेमा एक-दूसरे से प्रभावित होते हुए अपनी गति से आगे बढ़ता है।


उस समय देश के समक्ष अनेक महत्वपूर्ण सवाल थे जिन्हें गांधी ने सम्बोधित करना प्रारंभ किया तो सिनेमा ने भी उन सवालों को जनता के समक्ष रखा। स्वतंत्रतासंग्राम,गांधीवादी विचारधारा तथा समाज में चल रहे सुधारवादी आंदोलन में एक उत्प्रेरक का काम करने की दृष्टि सेहिन्दी सिनेमा ने प्रारंभ से ही अपनी भूमिका निभाई है।देश की जनता ने चाहे स्वतंत्रता प्राप्ति से पहले का समय हो या उसके बाद का समय,हमेशा हिन्दी सिनेमा में अपनी रुचि दिखाई है क्योंकि हिन्दी सिनेमा ने उनके अन्तःकरण को जागृत करके उन्हें सामाजिक, धार्मिक एवं राजनैतिक कुरीतियों से लड़ने एवं उन्हें दूर करने के योग्य बनाया। ((अमृतलाल नागर, संकलन एवं संपादन, डॉ शरद नागर, फ़िल्म क्षेत्र, पृष्ठ 49) मूक सिनेमा का युग (1913 से 1930) दादा साहब फाल्के नेकठिन परिश्रम और दृढ़ इच्छा शक्ति के बल पर 21 अप्रैल 1913 को मुम्बई के ओलंपिया सिनेमा हॉल मेंपहली भारतीय फिल्म‘राजा हरिश्चन्द्र' का प्रदर्शन किया।उनके प्रयासों से सिनेमा शीघ्र ही भारतीय समाज, संस्कृति, धर्म और इतिहास को अभिव्यक्त करने लगा। फाल्के ने 19 अक्टूबर 1913 को 'केसरी’ समाचार पत्र' को दिए एक साक्षात्कार में कहा था कि - मैं सभी विषयों पर फिल्में बनाऊंगा, पर विशेषकर प्राचीन संस्कृत नाटकों और नए मराठी नाटकों पर। (सिनेमा की संवेदना,डॉ विजय अग्रवाल,पृष्ठ 40)उनके इस कथन का अर्थ यही है कि वे भारत के लोगों को धार्मिक रूप से परिष्कृत करनाचाहते थे।देश गुलाम था और वह अपनी सामाजिक, सांस्कृतिक और ऐतिहासिक विरासत को मुक्त कराने का प्रयास कर रहा था। देश में समाज सुधार आंदोलन भी चल रहा था। यह नवजागरण का समय है। सिनेमा इन सामाजिक स्थितियों से प्रभावित हुए बिना कैसे रह सकता था? यही कारण है कि मूक युग में धार्मिक, ऐतिहासिक, सामाजिक और स्वतंत्रता आंदोलन से संबंधित विषयों और कथानकों के आधार पर फिल्में बनी। इस युग की अधिकांश फिल्मों में प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष ढंग से स्वतंत्रता संग्राम की अनुगूँज दिखाई देती है।




आत्मगौरव की भावना उस युग की महत्वपूर्ण आवश्यकता थी। साहित्य में जब मैथिली शरण गुप्त ‘हम क्या थे, क्या हैं, क्या होंगे अभी..’ जैसे सवाल उठा रहे थे, मूक युग का सिनेमा भी देश के स्वर्णिम इतिहास का चित्रण कर रहा था। मूक युग का सिनेमा देशवासियों को यह संदेश दे रहा था कि हमारा गौरवशाली इतिहास रहा है और सदियों की गुलामी के कारण हमारी स्थिति दयनीय हो गई है। भारत में 1912 से 1930 तक लगभग 1300 फिल्मों का निर्माण हुआ। इनमें अधिकतर फिल्मों की कथाओं का आधार भारतीय जीवन में रचे-बसे ऐतिहासिक और पौराणिक पात्रों के जीवन और उनसे जुड़ी घटनाएं ही थीं।‘लंका दहन’ (1917),‘कालिया मर्दन’ (1919), ‘नल दमयंती’ (1920), ’शकुंतला’ (1920),  ‘वीर अभिमन्यु’ (1922), ‘सावित्री’ (1923) जैसी फिल्में बनीं। इनके अतिरिक्त भक्त चरित्रों और संतों जैसे प्रह्लाद,ध्रुव,विदुर,तुकाराम,ज्ञानेश्वर आदि के जीवन और विचारों पर फिल्में बनीं।इसके अतिरिक्त सती सावित्री,शकुंतला,सुलोचना, द्रौपदी,अनुसूया आदि महिला चरित्रों के जीवन पर भी फिल्में बनीं।


ये फिल्में भारत के गौरवशाली इतिहास को अभिव्यक्त कररही थीं। तत्कालीन समाज में अनेक बुराइयाँ जैसे धार्मिक अंधविश्वास, जाति प्रथा, पितृसत्ता, सामंतवाद विद्यमान थीं। फिल्मों ने धार्मिक आस्था के माध्यम से लोगों को इन बुराइयों के खिलाफ जागरूक किया। इस युग की फिल्मों में जिन स्त्रियों की छवि चित्रित की गई थी वे परिवार और सामाजिक परंपराओं के आदर्श रूप को प्रस्तुत करती थीं। इसी समय गांधी भारतीय स्त्रियों को स्वतंत्रता संग्राम में सम्मिलित करने का प्रयास कर रहे थे तो मूक सिनेमा ने भी इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए भारतीय स्त्रियों के ऐतिहासिक रूप को अभिव्यक्त किया। ‘नूरजहां’ (1923), ‘रजिया बेगम’ (1924), ‘मुमताज महल’ (1926), ‘पन्ना-रत्ना (1926), ‘अनारकली’ (1928), ‘सम्राट अशोक’ (1928) आदिफिल्मों ने स्त्रियों के बीच स्वतंत्रता संग्राम की चेतना का प्रचार किया।



मूक सिनेमा केयुग मेंपाश्चात्य संस्कृति के कुप्रभावोंसे जनता को बचाना भी एक महत्वपूर्ण जिम्मेदारी थी। पाटणकर बंधुओं द्वारा निर्मित फिल्में 'शिक्षा तथा वासना'एवं 'कबीर कमाल'ने पाश्चात्य संस्कृति के कुप्रभावों के प्रति जनता को सचेत किया। समाज सुधार आंदोलन से सिनेमा भीजुड़ गया।1920 के दशक में'आज़ादी'फ़िल्मका प्रदर्शन हुआ। इस फिल्म में देश में फैली गुलामी की मानसिकता को उखाड़ फेंकने कासंदेश छिपा था।भारत में अंग्रेजों नेशोषण पर आधारित जिस आर्थिकव्यवस्था की नींव रखी थी उस महाजनी-जमींदारी व्यवस्था को 1925 में बाबूराव पेंटर नेअपनी फिल्म‘सावकारी पाश’ में चित्रित किया था। वी. शांताराम ने इस फ़िल्म से अपने फिल्मीजीवन की शुरुआत की थी।उन्होंने इस फ़िल्म में विद्रोही किसान युवककी भूमिका निभाई थी।


अंग्रेज सरकार ने प्रथम विश्वयुद्ध के दौरान हुए अपने अनुभवों से सिनेमा कीशक्ति और समाज पर पड़ने वाले उसके प्रभाव को पहचान लिया था।उन्होंने स्वयं भी प्रथम विश्वयुद्ध के दौरान सिनेमा का अपने पक्ष में प्रोपेगैंडा के रूप मेंखूब उपयोग किया था। 1917 में रूसी क्रांति केबाद रूस द्वाराभीबोल्शेविज़्म केविरोध में प्रचार के लिएसिनेमा काएक हथियार की तरह उपयोग किया गया था। भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में सिनेमा की किसी भी तरह की भूमिका को रोकने के उद्देश्य से प्रथम विश्वयुद्ध केदौरान ही यानी 5 मार्च 1918को अंग्रेजोंने'इंडियन सिनेमेटोग्राफी एक्ट'लागू किया। इसकेअंतर्गत सार्वजनिक प्रदर्शन सेपहले किसी भी फिल्म को सेन्सर बोर्ड से प्रमाण पत्र लेना आवश्यक था।इस एक्ट का संबंध देश की राजनीतिक चेतना से था,न कि सांस्कृतिक चेतना से। सेन्सर बोर्ड कोयह लगता किअमुक फिल्म से स्वतंत्रता का संदेश फैलने कीसंभावनाहै,वहफिल्म सेंसर की कैंची का शिकार हो जाती थी।




सेंसरबोर्ड पूरी तरह सरकार के अधीन काम करता था। वह किसी भी राजनीतिक आन्दोलन,व्यक्ति, घटना का चित्रण अथवा व्यवस्था पर प्रश्न चिन्ह लगाने वाले कथानकों पर बनी फिल्मों कोप्रदर्शित नहीं होने देता था। जब भारत में स्वतंत्रता संग्राम जन आंदोलन का रूप ले रहा था, उसी समय सिनेमा पर सेंसरबोर्ड ने कई तरह की पाबंदियां लगादीं। सिनेमा एक खर्चीला माध्यम है।इस कारण फ़िल्म निर्माताओं के लिएसरकार से शत्रुता मोल लेना एक महंगा सौदा था।सरकारी प्रतिबंधों का स्पष्ट प्रभाव सिनेमा पर पड़ा जिसके कारण स्वतंत्रतासंग्राम से प्रत्यक्ष रूप से जुड़ी फिल्में कम बनीं। इसके बावजूदकई फ़िल्मकारों ने अपने व्यावसायिक हितों के ऊपर राष्ट्रीय हितों को महत्व दिया और स्वतंत्रता संग्राम से जुड़े संदर्भों को चित्रित करने वालीफिल्में बनाईं।


सन 1921 में फ़िल्म बनी थी- ‘भक्त विदुर’। इस फ़िल्म में द्वारका दास संपत ने विदुर की भूमिका निभाई थी। वे दुबले-पतले और लम्बे कद के थे। फ़िल्म में उन्होंने धोती पहनी थी और उनके हाथ में एक लाठी थी।सेंसर बोर्ड ने भक्त विदुर को महात्मा गांधी की छाया मानकर उस फिल्म पर प्रतिबंध लगा दिया। कुछ इसी तरह की घटना ‘वन्दे मातरम’ फ़िल्म के साथ भी हुई। अंग्रेजों के अनुसार ‘वन्दे मातरम’ शब्द देशभक्ति की भावना जगाने वाला शब्द था। इसलिए इस फ़िल्म के शीर्षक में आश्रम शब्द जोड़ना पड़ा। वी. शांताराम की फ़िल्म ‘स्वराज तोरण’स्वतंत्रता संग्राम की चेतना का प्रसार करने वाली थी। सेंसर बोर्ड ने  इस फिल्म के उस दृश्य को हटादिया जिसमें शिवाजी के सैनिक शत्रुओं से अपने किले को स्वतंत्र कर उस पर राष्ट्रध्वज फहराते हैं। यह फ़िल्म बाद में ‘उदय काल’ के नाम से प्रदर्शित हुई।




सवाक सिनेमा का युग (1931-1947) 1931 में 'आलमआरा' फ़िल्म के प्रदर्शन के साथ ही भारत में बोलती फिल्मों का युग शुरू हुआ। यह वह समय था जब राष्ट्रीय आन्दोलन, गोलमेज सम्मेलन के दौर से गुजर रहा था। ‘आलम आरा’ के प्रदर्शन के 9 दिनों के बाद ही 23 मार्च 1931 को भगत सिंह और उनके साथियों को फांसी हुई थी।देश की जनता गांधी के नेतृत्व में स्वतंत्रता के संकल्प को पूरा करने के उद्देश्य से तैयार हो गई थी। इस समय हिन्दी सिनेमा ने जनता की भावनाओं को पर्याप्त अभिव्यक्ति दी। हिन्दी सिनेमा की दूसरी सवाक फ़िल्म 'जागरण' थी। यह फिल्म स्वतंत्रता संग्राम से प्रत्यक्ष रूप से जुड़ी थी जिसके कारण इसे सेंसर बोर्ड के कोप का सामना करना पड़ा।सेंसर बोर्ड को फ़िल्म के नाम पर आपत्ति थी। इसी समय कांग्रेसपार्टी को आधार बनाकर 'कॉंग्रेस गर्ल' फ़िल्म बनी जिसे नेशनल थिएटर मद्रास ने बनाया था। इसे भी सेंसर बोर्ड ने प्रदर्शित नहीं होने दी। 1934 में प्रेमचंद द्वारा लिखित फ़िल्म ‘द मिल’ या ‘मजदूर’ नाम से प्रदर्शित हुई थी। यह फ़िल्म मिल मजदूरों के संघर्ष को रेखांकित करती है। इस फ़िल्म को देश के कुछ हिस्सों मेंप्रतिबंधित कर दिया गया था।


सेंसर बोर्ड फ़िल्म के संवादों पर सबसे कड़ीनजर रखता था। उस समय एक फ़िल्मप्रदर्शित हुई थी- डच ऑफ द यूएसए। इस फ़िल्म में एक संवाद था- ‘उन्होंने उस दिन का सपना देखा जब उनकी सरकार जनता द्वारा चुनी जाएगी और जनता के लिए काम करेगी।‘ सेंसर बोर्ड ने स्वतंत्रता की भावना से ओत-प्रोत इस संवाद को बदल दिया। अब यह संवाद हो गया- उन्होंने सपना देखा कि उनके देश में शांति और संतोष छा गया है। इसी प्रकार'दी फ्लाइट कमांडर' फिल्म के इस वाक्य को पूरी तरह से हटा दिया गया था- ‘साथियों,हम कब तक इन विदेशियों का हस्तक्षेप बर्दाश्त करते रहेंगे।‘




1930 और 1940 के आसपास प्रभात,न्यू थिएटर्स एवं बॉम्बे टॉकीज द्वारा निर्मित फिल्मों नेराष्ट्रीय चेतना जगाने का महत्वपूर्ण कार्य किया। इन फिल्मों नेस्वतंत्रता संग्राम के कारणउत्पन्न विभिन्न सामाजिक-सांस्कृतिक आंदोलनों को न केवल चित्रित किया बल्कि उन्हें गति भी दी। नितिन बोस,वी शांताराम,गजानन जागीरदार, सोहराब मोदी,के ए अब्बास,चेतन आनंद,चंदूलाल साह,मेहबूब खान, बी एन रेड्डी, विमल रॉय,  विजय भट्ट,मास्टर विनायक आदि की फिल्मों नेतमाम प्रतिबंधों के बावजूद स्वतंत्रतासंग्राम में उत्प्रेरक का काम किया। शांताराम ने जब ‘महात्मा’ शीर्षक से महाराष्ट्र के प्रसिद्ध संत एकनाथ के जीवन पर फ़िल्म बनाई तो सेंसर बोर्ड ने इसका नाम बदलनेको बाध्य कर दिया। इस फ़िल्म के मुख्य पात्र की कार्यविधि और कार्यक्रम महात्मा गांधी से मिलते-जुलते थे। बाद में यह फ़िल्म 'धर्मात्मा'नाम से प्रदर्शित हुई थी। वी शांताराम का नाम राष्ट्रवादी फिल्मकारों में अग्रणी है। उन्होंने सामाजिक और राजनीतिक चेतना जगाने वालीकई कालजयी फिल्में बनाईं। उनकी 1937 में प्रदर्शित'दुनिया न माने'बेमेल विवाह की समस्या का चित्रण करती है। 1939 में उन्होंने 'आदमी' फ़िल्म बनाई जिसमें वेश्या पुनर्वास की समस्या का समाधान बताया गया था। 1941 में बनी 'पड़ोसी'हिन्दू-मुस्लिम एकता की बात करती है।


शांताराम की सर्वाधिक महत्वपूर्ण फ़िल्म 'डॉ कोटनीस की अमर कहानी (1946) है।उन्होंने कांग्रेस द्वारा डॉक्टरों का एकदल चीन भेजने की समकालीन घटनाको  पहली बार सिनेमा का विषय बनाया। फ़िल्म ने फासिस्ट जापान के खिलाफ चीनी राष्ट्रवादियों को दिखाया था।सेंसर बोर्ड को लगा कि यह फिल्म जापान के खिलाफ है इसलिए उसने प्रतिबंध नहीं लगाया। कॉंग्रेस नेता मोतीलाल नेहरू ने इसदल को प्रायोजित किया था,अतः कांग्रेसभी प्रसन्न हो गई। फ़िल्म में माओ की लाल सेना कोअत्यंत बहादुरी से लड़ते हुए दिखाया गया थाइसलिए भारत की कम्युनिस्ट पार्टी नेभी इस फिल्म की खूब प्रशंसा की। फ़िल्म के माध्यम से शांताराम ने यह संदेश दिया था कि जोअंग्रेज दूसरे राष्ट्रचीन की राष्ट्रीयता को समर्थन कर रहा है वह स्वयं भारत की स्वतंत्रता के प्रति कितना प्रतिबद्ध है?




असहयोग आंदोलन के दौरान उग्र जनता ने चौरी चौरामें थाने में आग लगा दी जिसमें कई पुलिसवाले की जलने से मृत्यु हो गई। हिंसा की इस घटना से महात्मा गांधी इतने अधिक आहत हुए कि उन्होंने असहयोग आंदोलन को वापस लेनेकी घोषणा कर दी। गांधी के इस फैसले की कुछ लोगों ने आलोचना की। हिन्दी सिनेमा भी इस मामले में पीछे नहीं रहा। पी के अत्रे और मास्टर विनायक जैसे फिल्मकारों ने 'ब्रह्मचारी', 'व्हिस्की की बोतल' और 'धर्मवीर' जैसी फिल्में बनाकर गांधी केइस फैसले की आलोचना की। इन फिल्मों में गांधी की आलोचना की गई थी इसलिए सेंसर बोर्ड ने आसानी से पास कर दिया।


1935 में संगीतकार नागरदास नायक ने प्रफुल्ल राय निर्देशित 'भारत लक्ष्मी पिक्चर्स' की फ़िल्म 'बलिदान' में ‘जागो जागो भारतवासी, एक दिन तुम थे जगद्गुरु, जग था उन्नत अभिलाषी' गीत बनाकर भारत के स्वर्णिम इतिहास की ओर जनता का ध्यान आकर्षित कियाथा। 1940 के आसपास सोहराब मोदी नेभी भारत के स्वर्णिम इतिहास को चित्रित करने के उद्देश्यसे‘पुकार’ (1939) और ‘सिकन्दर’ (1941) फ़िल्म बनाई। ‘सिकंदर’ फिल्म में पोरस के जीवन को चित्रित किया गया था। इस फिल्म का कथानक पोरस द्वारा विश्व विजेता सिकंदर को प्रभावित करने की घटना पर आधारित था। सेंसर बोर्ड ने इस फिल्म के कुछ दृश्यों पर आपत्ति दर्ज की थी। इस फ़िल्म को सैनिक छावनियों में प्रदर्शित नहीं होने दिया गया था क्योंकि इसमें सैनिकों को विद्रोह करते हुए दिखाया गया था।इन फिल्मों ने राष्ट्रवादी भावनाओं के प्रचार-प्रसार में महत्वपूर्ण योगदान दिया। 1939 में तमिल भाषा में के सुब्रमण्यम ने ‘त्यागभूमि’ फ़िल्म बनाईथी। यह फ़िल्म एक मुकदमे पर आधारित थीजिसका मुद्दा यह था कि क्या एक महिला अपने पति से अलग हो सकती है? मुकदमे का निर्णय महिला के विरुद्ध आता है लेकिन वह पति के साथ रहने के बजाय कॉंग्रेस के आंदोलन में सक्रिय होकर देश के लिए जेल जाना पसंद करती है।इसमें विद्यालय में महात्मा गांधी का जन्मदिन मनाए जाने का दृश्य है। पूरी फिल्म पर गाँधी और कांग्रेस का प्रभाव है।‘दुनिया न माने (1937), देवदास (1931), अछूत कन्या (1936), पुकार (1939), सिकन्दर (1941), आदमी (1939), पड़ोसी (1941) तथा नीचा नगर (1946) जैसी प्रतिबद्ध एवं सफल फिल्मों के द्वारा धार्मिक,मिथकीय एवं सामाजिक कथानकों के माध्यम सेस्वतंत्रता संग्राम के युग को अभिव्यक्त किया गया।




राष्ट्रीय भावनाओं को इस दशक में ‘आज़ादी’, ‘जन्मभूमि’ और ‘वहां’ नामक फिल्मों में प्रदर्शित किया गया। बॉम्बे टॉकीज के 'जन्मभूमि' और प्रभात फिल्म्स के 'वहां' (बियॉन्ड द होराइज़न) में दासता के विरुद्ध क्रांतिकारी स्वरों को चित्रित किया गया था और युवाओं के हृदय की बेचैनी को प्रदर्शित की गई थी। ये फिल्में उस समय देश में चल रहे स्वतंत्रता आंदोलन से प्रेरित होकर निर्मित की गई थी। स्वतंत्रता संग्राम के युग की ये महत्वपूर्ण फिल्में हैं। भारतवासियों के हृदय में देशभक्ति औरस्वतंत्रता संग्राम के प्रतिउत्पन्न भावनाओं की अभिव्यक्ति प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष ढंग से ये फिल्में कर रही थी। कई फिल्मों ने अप्रत्यक्ष ढंग से स्वतंत्रता की चेतना को अभिव्यक्त किया तो उसके मूल में ब्रिटिश सत्ता का तत्कालीन कठोर अंकुश ही था,जो सेंसर बोर्ड के रूप में कार्य कर रहा था।


स्वतंत्रता संग्राम के दौर में चल रहे समाज सुधार के कार्यक्रमों को भी फिल्मों में व्यापक रूप से चित्रित किया गया है। महात्मा गांधी के अछूतोद्धारकार्यक्रम को कई फिल्मों ने प्रमुखता से चित्रित किया था। गांधी द्वारा मद्यनिषेध पर चलाए गए आंदोलन का प्रभाव 'ब्रांडी की बोतल'फ़िल्म पर देखा जा सकता है। देवकी बोस ने अपनी फिल्म 'अपना घर'में प्रगतिवादी विचारों को अभिव्यक्ति दी। इस फ़िल्म में अत्याचार, हिंसा और दमन के विरुद्ध आवाज उठाई गई थी। इसके संवाद और गीत स्पष्टतः राष्ट्रीय भावनाओंको अभिव्यक्त करते हैं। इस फ़िल्म में एक गाना था- मिटे गुलामी, लेंगे आज़ादी, /देश का झंडा ऊंचा कर/ अपना देश है अपना घर।।'चालीस करोड़' फ़िल्म में चालीस करोड़ भारतवासियों की स्वाधीनता तथा समाज के नवोत्थान की भावनाओं को चित्रित किया गया था।'पहला आदमी' और 'समाधि'फिल्मों का सम्बन्ध ‘आज़ाद हिन्द फौज’ के राष्ट्रीय अभियानोंपर आधारित था। इन फिल्मों में देश के प्रति भारतीयों के प्रेम की भावना का चित्रण किया गया था।प्रभात फिल्म्स की 'पड़ोसी' और 'हम एक हैं' तथा 'सेमल का फूल' फिल्में सांप्रदायिकता की भावना के विरोध में बनी थी।फ़िल्मकारों का स्पष्ट मानना था कि हिन्दू-मुस्लिम एकता की बुनियाद पर ही स्वतंत्रता संग्राम को मजबूती से खड़ा किया जा सकता है।


बॉम्बे टॉकीज की 'जन्मभूमि', कृष्णा फ़िल्म कम्पनी की 'हिन्दुस्तान हमारा है' और चन्द्रा आर्ट की 'वतन की पुकार' तथा रंजीत मूवीटोन की 'छीन ले आज़ादी' महत्वपूर्ण हैं।ज्ञान मुखर्जी ने1943 में'किस्मत' फिल्म बनाई। इसी फ़िल्म में 'दूर हटो ऐ दुनिया वालों हिन्दुस्तान हमारा है...गाना था। गीतकार रामचन्द्र नारायण जी द्विवेदी उर्फ कवि प्रदीप के खिलाफ गिरफ्तारी वारंट जारी किया गया था। विमल राय की 'हमराही' (1945)में रवीन्द्र नाथ टैगोर का गीत जन 'गण मन अधिनायक' पहली बार प्रयोग किया गया था। यही गीत स्वतंत्रता के बाद भारत का राष्ट्रगान बना। 1947 में देश के स्वतंत्रत होने से पहलेकुमार मोहन की '1857' फ़िल्म प्रदर्शित हुई थी। यह फ़िल्म 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम की पृष्ठभूमिपर आधारित एक प्रेम कहानी थी।1947 मेंस्वतंत्रता की खुशी भी फ़िल्मी गीतों में अभिव्यक्त होने लगी थी। 'जीवन यात्रा' फ़िल्म में मनमोहन कृष्ण और साथियों ने ‘आओ आज़ादी के गीत गाते चलें,इक सुनहरा संदेशा सुनाते चलें।सन 1947 में रंजीत मूवीटोन की 'छीन ले आज़ादी'फ़िल्म के प्रदर्शन के साथ ही देशस्वतंत्र हो गया। 15 अगस्त 1947 कोदेश स्वतंत्र हुआ और उसी दिन 'फिल्मिस्तान' के बैनर तले 'शहनाई'फ़िल्म प्रदर्शित हुई। इस फिल्म में अमीर बाई और शमशाद बेगम की आवाज में यह गाना था- ‘हमारे अंगना हो हमारे अंगना, आज बाजे, बाजे शहनाई।‘


लेखक- पूर्व पत्रकार डॉ अरुण कुमार भारतीय सामाजिक विज्ञान अनुसंधान परिषद, नई दिल्ली में सीनियर फ़ेलो रहे हैं। वर्तमान में दिल्ली विश्वविद्यालय के लक्ष्मीबाई महाविद्यालय में असिस्टेंट प्रोफेसर हैं। सम्पर्क- 8178055172, 9999445502, arunlnc26@gmail.com










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