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आज से सौ साल पहले लोग कैसे मानते थे सुहागरात? : महात्मा गांधी/डॉ राजेन्द्र प्रसाद

Mahatma Gandhi & Dr Rajendra Prasad

मैं चाहता हूं कि मुझे यह प्रकरण न लिखना पड़ता। लेकिन इस कथा में मुझको ऐसे कितने ही कड़वे घूंट पीने पड़ेंगे। सत्य का पुजारी होने का दावा करके मैं और कुछ कर ही नहीं सकता। यह लिखते हुए मन अकुलाता है कि 13 साल की उम्र में मेरा विवाह हुआ था। आज मेरी आंखों के सामने 12-13 वर्ष के बालक मौजूद हैं। उन्हें देखता हूं और अपने विवाह का स्मरण करता हूं, तो मुझे अपने ऊपर दया आती है और इन बालकों को मेरी स्थिति में से बचने के लिए बधाई देने की इच्छा होती है। तेरहवें वर्ष में हुए अपने विवाह के समर्थन में मुझे एक भी नैतिक दलील सूझ नहीं सकती। पाठक यह न समझें कि मैं सगाई की बात लिख रहा हूं। काठियावड़ में विवाह का अर्थ लग्न है, सगाई नहीं। दो बालकों को ब्याहने के लिए मां-बाप के बीच होने वाला करार सगाई है। सगाई टूट सकती है। सगाई के रहते वर यदि मर जाए, तो   कन्या विधवा नहीं होती। सगाई में वर-कन्या के बीच कोई संबंध नहीं रहता। दोनों को पता भी नहीं होता। मेरी एक-एक करके तीन बार सगाई हुई थी। ये तीन सगाइयाँ कब हुई, इसका मुझे कुछ पता नहीं। मुझे बताया गया था कि दो कन्याएं एक के बाद एक मर गई। इसीलिए मैं जानता हूं कि मेरी तीन सगाई हुई थी। कुछ ऐसा याद पड़ता है की तीसरी सगाई कोई सात साल की उम्र में हुई होगी। लेकिन मैं नहीं जानता कि सगाई के समय मुझसे कुछ कहा गया था। विवाह में वर कन्या की आवश्यकता पड़ती है, उसकी एक विधि होती है; और मैं जो लिख रहा हूं, सो विवाह के विषय में ही है। विवाह का मुझे पूरा-पूरा स्मरण है।




हम भाइयों को तो सिर्फ तैयारियों से ही पता चला कि ब्याह होने वाले हैं। उस समय मेरे मन में अच्छे-अच्छे कपड़े पहनने, बाजे बजने, वर- यात्रा के समय घोड़े पर चढ़ने, बढ़िया भोजन मिलने, एक नई बालिका के साथ विनोद करने आदि की अभिलाषा के सिवा दूसरी कोई खास बात रही हो, इसका मुझे स्मरण नहीं है। विषय भोग की वृति तो बाद में आई। वह कैसे आई इसके वर्णन मैं कर सकता हूं, पर पाठक ऐसी  जिज्ञासा न रखें। मैं अपनी शर्म पर पर्दा डालना चाहता हूं। मंडप में बैठे, फेरे फिरे, कंसार खाया-खिलाया और तभी से वर-वधू साथ में रहने लगे। वह पहली रात! दो निर्दोष बालक अनजाने संसार सागर में कूद पड़े। भाभी ने सीखलाया कि मुझे पहली रात में कैसा बर्ताव करना चाहिए। धर्मपत्नी को किसने सीखलाया, सो पूछने की बात मुझे याद नहीं। अब भी पूछा जा सकता है, पर पूछने की इच्छा तक नहीं होती। पाठक यह जान लें कि हम दोनों एक दूसरे से डरते थे, ऐसा भास मुझे है। एक-दूसरे से शर्माते तो थे ही। बातें कैसे करना, क्या करना, सो मैं क्या जानूँ? प्राप्त सिखावन भी क्या मदद करती? लेकिन क्या इस संबंध में कुछ सिखाना जरूरी होता है? जहां संस्कार बलवान हैं, वहां सिखावन सब गैरजरूरी बन जाती है। धीरे-धीरे हम एक दूसरे को पहचानने लगे, बोलने लगे। हम दोनों बराबरी की उम्र के थे। पर मैंने तो पति की सत्ता चलाना शुरू कर दिया।

 महात्मा गांधी 

 अपनी आत्मकथा में ऐसा लिखा है 



मुझे ठीक से याद नहीं है कि मैं पांचवे दर्जे में पढ़ता था या चौथे में आ चुका था जब मेरी शादी हुई- शायद मैं पांचवें में ही पढ़ता था। कुछ दिनों बाद तिलक आया जिसमें प्रथा के अनुसार कपड़े, बरतन इत्यादि के अलावा रुपए भी आये। जहां तक मुझे स्मरण है, रुपए के लिए बाबूजी ने कुछ ज्यादा जोर नहीं दिया था। तो भी उन लोगों ने प्रायः  दो हजार नगद और सामान मिला कर भेजा था। मेरी अवस्था
12 बरस से कुछ अधिक की थी। 



मेरी शादी बलिया जिले के दलन छपरा में जीरादेई से 18-20 कोस की दूरी पर होने वाली थी। जब मेरी स्त्री दुरागमन के बाद आई तो उनके साथ भी यही सब बखेड़ा रहा। यह बहुत दिनों तक चला और आहिस्ता-आहिस्ता कम हुआ। नैहर की लौडियाँ  चली गई। जीरादेई की एक लौंडी आने-जाने लगी। उससे कुछ-कुछ बातें करने की इजाजत हुई। जब तक मेरी मां जीती रही तब तक ना तो मेरी भौजाई और ना मेरी स्त्री ही कभी अपने कमरे से बाहर निकल आजादी के साथ आंगन में घूम फिर सखी या बैठ सकी। मेरी हालत यह थी कि मैं जब कभी गांव पर छुट्टियों में आता, बाहर ही सोता। रात के समय जब सब लोग सो जाते तो माँ दाई को भेजती कि जागा लाओ और वह जगाकर मुझे ले जाती है और उसी कमरे में छोड़ देती हूं जिसमें मेरी पत्नी रहती। नींद के मारे मुझे उस वक्त रात को जागना कठिन हो जाता है। अक्सर में जागते नहीं और बुलाने नींद के मारे मुझे उस वक्त रात को जागना कठिन हो जाता है। अक्सर मैं कितनी भी कोशिश होती, जानता ही नहीं। दूसरे दिन मां या चाची डांटती कि रात को जागते नहीं और बुलाने पर भी आते नहीं। सवेरे जब सब लोग सोए ही रहते उठकर चला आना होता और बाहर की चारपाई पर सो जाता जिससे किसी को यह पता ना चले कि रात को कहीं दूसरी जगह गया था। यहां तक कि साथ के नौकर को भी इसका पता कम ही लगता है। 



पर्दा के कारण इस तरह स्त्री-पुरुष की मुलाकात होती। मैं तो लड़कपन से अधिक घर के बाहर ही रहा। जब कभी घर पर छुट्टियों में जाता तभी मुलाकात का मौका होता और वह भी इसी प्रकार से। इसीलिए गरचे आज विवाह हुए प्रायः 44-45 बरस हो गए होंगे पर, शायद यहां सब दिनों के गिरने के बाद भी हम दोनों इतने महीने भी एक साथ रहे हों। पढ़ने के समय पटना, छपरा, कोलकाता में कटा। वकालत के जमाने में भी मैं  कोलकाता में बराबर अकेला ही रहा है और पटने आने पर भी दो ही एक बार घर के लोग साथ थोड़े दिनों के लिए रहे। असहयोग आरंभ होने के बाद तो घर जाने का समय और भी कम मिला है और घर के लोगों को साथ रखने का न तो सुविधा रहा और न काम की झंझटों में फुर्सत रही।

        डॉ राजेन्द्र प्रसाद, प्रथम राष्ट्रपति, भारत 

 अपनी आत्मकथा में ऐसा लिखा है 


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