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हम भारतीयों का चरित्र कैसा है? How is the character of us Indians?




  1. Come è il personaggio di noi indiani?
  2. How is the character of us Indians?
  3. આપણા ભારતીયોનું પાત્ર કેવું છે?
  4. మన భారతీయుల పాత్ర ఎలా ఉంది?
  5. हामी भारतीयको चरित्र कस्तो छ?
  6. ਸਾਡੇ ਭਾਰਤੀਆਂ ਦਾ ਕਿਰਦਾਰ ਕਿਵੇਂ ਹੈ?
  7. আমাদের ভারতীয়দের চরিত্রটি কেমন?
  8. आपल्यातील भारतीयांचे पात्र कसे आहे?
  9. ഇന്ത്യക്കാരുടെ സ്വഭാവം എങ്ങനെയുണ്ട്?
  10. ଆମ ଭାରତୀୟଙ୍କ ଚରିତ୍ର କିପରି?
  11. ಭಾರತೀಯರಾದ ನಮ್ಮ ಪಾತ್ರ ಹೇಗಿದೆ?
  12. இந்தியர்களான நம் பாத்திரம் எப்படி இருக்கிறது?

Babar


हिंदुस्तान में लुत्फ कम है। लोग न देखने-सुनने में अच्छे हैं, न मिलने-जुलने में। न सूझ- बुझ में, न कामों की तरकीब में। उनमें न मुरौवत है, न अदब। कारीगरी और दस्तकारी में कोई तरतीब, कोई गढ़न, कोई ढंग या माल का कोई बढ़ियापन नहीं है। न घोड़े अच्छे हैं, न कुत्ते, न अंगूर, न खरबूजा या कोई और उम्दा फल, न बर्फ, न ठंडा पानी, न बाजारों में कोई अच्छी रोटियाँ, न खाने। हम्माम, मदरसे, शमा, मशाल, या शमादान का नाम नहीं। ... ... ... बड़ी नदियां और खातों बीहड़ों के सिवा यहाँ कोई बहता-पानी (नहरें) नहीं। बागों और इमारतों में बहता पानी लाना यहां वाले जानते ही नहीं। इमारतों की बनावट में न कोई मोहनी है, न  हवादारी, न तरतीब, न कायदा-करीना।

किसान और छोटे लोग लगभग नंगे ही डोलते हैं। ढोंढी से दो मूठ नीचे एक कपड़ा बांधते हैं, जिसे लंगूता कहते हैं।  आड़े लिपटे इस कपड़े का एक कोना आगे लटकता रहता है, दूसरा दोनों रानों के बीच लेकर पीछे घूरस देते हैं। औरतें लुंग बांधती हैं, जिसका आधा हिस्सा कमर को घेरकर लटकता है, आधा सिर से ओढ़ती हैं।

हिंदुस्तान की अच्छाइयों में एक यह है कि मुल्क बहुत ही लंबा चौड़ा है। सोना-चांदी बहुत है।  बरसाती हवा उंजा होती है। निहायत ही अच्छी हवा है वह। उस मौसम में कभी-कभी तो पंद्रह-बीस दौंगरे पड़ जाते हैं। ऐसी रौ आती है कि जहां बूंद न थी, वहां दरिया बढ़ने लगता है। पानी बरसाती बेर और और बरसात के पूरे मौसम में बड़े मजे की हवाएं चलती हैं। ठंडी-ठंडी। न बहुत धीमे, न बहुत तेज। हां, नम बहुत होती है। उन मुल्कों की कमान यहां की एक ही बरसात के बाद बेकार हो जाती है। वही क्यों, जीबा- हबीबा, लिबास, किताब बर्तन-बासन और असबाब, सब में इस नम-नरम हवा से सील दौड़ जाती है। मकान सारे चूढ़े हो जाते हैं। जाड़े और गर्मी में भी मजे की हवाएं चलती हैं। हां, पवन-कोने की चलने पर वह धूल पड़ती है कि पास के चेहरे भी दिखाई नहीं देते। इसे यहाँ आंधी कहते हैं। आंधी सुर और जौजा में आती है। उन दिनों तपिश बहुत रहती है, पर बल्ख या कंदहार जैसी बेपनाह नहीं। गर्मी की मुद्दत भी यहाँ उधर से आधी  है।
-बाबर, बाबरनामा, पृष्ठ संख्या 333-334

कार्ल मार्क्स 
भारत दूसरों द्वारा जीते जाने के दुर्भाग्य से बच नहीं सकता और उसका संपूर्ण पिछला इतिहास अगर कुछ भी हो, तो वह उन लगातार जीतों का इतिहास है जिनका शिकार उसे बनना पड़ा है। भारतीय समाज का कोई इतिहास नहीं है, कम से कम ज्ञात इतिहास तो बिलकुल ही नहीं है। जिसे हम उसका इतिहास कहते हैं, वह वास्तव में उन आक्रमणकारियों का इतिहास है जिन्होंने आकर उसके उस समाज के निष्क्रिय आधार पर अपने साम्राज्य कायम किए थे, जो न विरोध करता था, न कभी बदलता था।
-कार्ल मार्क्स, न्यूयार्क डेली ट्रिब्यून, 22 जुलाई 1853

-स्वामी विवेकानंद
मैंने दुनिया में घूमकर देखा है कि इस देश की तरह इतने अधिक से तामस स्वभाव के लोग दुनिया भर में अन्यत्र कहीं भी नहीं हैं- बाहर सात्विकता का ढोंग, पर अंदर बिल्कुल ईंट-पत्थर की तरह जड़- इनसे जगत का क्या काम होगा? ऐसी अकर्मण्य, आलसी, घोर विषयी जाति दुनिया में और कितने दिन जीवित रह सकेगी? देह में शक्ति नहीं, हृदय में उत्साह नहीं, मस्तिष्क में प्रतिभा नहीं। भारत भीतर और बाहर से एक सड़े हुए मुर्दे के समान है। श्री गुरुदेव रामकृष्ण के आशीर्वाद से हम इसे पुनः जीवित कर देंगे। 
-स्वामी विवेकानंद, मेरी जीवनकथा, पृष्ठ संख्या 226, 207

शहीद भगत सिंह
दरअसल भारत के आम लोगों की आर्थिक दशा इतनी खराब है कि एक व्यक्ति दूसरे को चवन्नी देकर किसी और को अपमानित करवा सकता है। भूख और दुख से आतुर होकर मनुष्य सभी सिद्धान्त ताक पर रख देता है।

-शहीद भगत सिंह, ‘किरती’, जून, 1928


पूर्व राष्ट्रपति डॉ एपीजे अब्दुल कलाम
बेंगलुरु शहर कानपुर के मुकाबले ठीक उल्टा था। दरअसल मेरा मानना है कि हमारे देश ने लोगों को बड़ा अतिवादी बना दिया है। मैं मानता हूं कि यह इसलिए है, क्योंकि कई शताब्दियों तक विदेशी आक्रमणों के चलते इस देश में उजड़ने-बसने का लगभग अंतहीन सिलसिला चलता रहा और इसने हमारी एक साथ रहने की क्षमता को नष्ट कर दिया। बजाय विद्रोही हो जाने के हमने अपने भीतर जहां सहृदयता एवं दयालु बनने की असाधारण क्षमता विकसित कर ली, वही हम, कहीं भीतर क्रूर, संवेदनहीन और निर्दई भी हो गए। साधारण दृष्टि से तो हम सजीव नजर आते हैं, परंतु इसी दृष्टि आलोचनात्मक हो तो हम विलक्षण हो जाते हैं। कानपुर में मैंने लोगों को पान चबाने में वाजिद अली शाह की नकल करते देखा और बेंगलुरु में अंग्रेज साहबों की तरह लोगों को कुत्ते घुमाते पाया। यहां भी मैं रामेश्वरम जैसी शांति और निस्तब्धता के लिए तरस गया। भारतीयों में मन और मस्तिष्क के बीच जो संबंध है, उसको भी हमारे शहरों की खंड खंड होती संवेदनशीलता ने खत्म-सा कर दिया है।
पूर्व राष्ट्रपति डॉ एपीजे अब्दुल कलाम, अग्नि की उड़ान, पृष्ठ संख्या 44 

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