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आदिवासी कविता का वैशिष्ट्य: दिनेश कुमार यादव

कोई भी साहित्यिक आन्दोलन किसी तिथि विशेष से अचानक शुरु नहीं हो जाता। उसके उद्भव और विकास में तमाम परिस्थितियाँ अपनी भूमिका निभाती हैं। जहाँ तक आदिवासियों के अस्तित्व की बात है, ये आदिकाल से इस धरती पर निवास करते आये हैं। इनकी एक विशिष्ट संस्कृति होती है, लेकिन इनका कोई लिखित साक्ष्य नहीं मिलता है। ये केवल लोककथाओं, मिथकों में ही जिन्दा है। असुर, राक्षस या दानव की जितनी भी खराब छबि बनायी गयी हो, उन छबियों और देवासुर संग्राम जैसे मिथकों से इतना तो संकेत मिलता ही है कि एक ऐसी जनजाति थी, जिसने देवताओं को कदम-कदम पर चुनौती दी। आदिवासियों के बारे में इतिहासकारों का मानना है कि “भारत में आर्य-जन कई खेपों में आए। सबसे पहले की खेप में जो आए वे हैं ऋग्वैदिक आर्य, जो इस उपमहादेश में 1500 ई.पू. के आस-पास दिखाई देते हैं। उनका दास, दस्यु आदि नाम के स्थानीय जनों से संघर्ष हुआ।”  इससे स्पष्ट है कि यही दास, दस्यु यहाँ के मूल निवासी रहे होगें। आर्यों के भारत आने के लगभग 400-500 वर्ष पूर्व जो असीरियन लोग सिंधु घाटी में आ बसे थे, इन्हीं लोगों को ऋग्वेद में असुर कहा गया। सच्चाई जो भी हो, पहले देव और असुर साथ ही रहे होगें।



जहाँ तक आदिवासी साहित्य की बात है। इसकी लम्बी मौखिक परंपरा मिलती है। समकालीन आदिवासी लेखन और विमर्श की शुरुआत, हम 1991 ई. के बाद से मान सकते हैं। इसका कारण यह है कि भारत की केन्द्रीय सरकार द्वारा शुरु की गई आर्थिक उदारीकरण की नीति ने बाजारवाद का रास्ता खोला। मुक्त बाजार और मुक्त व्यापार के नाम पर मुनाफे और लूट का खेल आदिवासियों के जंगल, जमीन और जल से भी आगे जाकर उनके जीवन को दाँव पर लगाकर खेला जा रहा है। आँकड़े गवाह है कि पिछले एक दशक में अकेले-झारखण्ड राज्य से 10 लाख से अधिक आदिवासी विस्थापित हो चुके हैं, इनमें से अधिकांश लोग दिल्ली, मुंबई और कोलकाता जैसे महानगरों में घरेलू नौकर या दिहाड़ी पर काम करते हैं। आज जो आदिवासी अपने जंगली आवासों में बचे भी हैं, वे भी विस्थापित होने की कगार पर हैं। इन्हीं सब स्थितियों के परिणामस्वरूप अपने अस्तित्व और अस्मिता की रक्षा के लिए आदिवासी साहित्य की रचना हुई। इसमें आदिवासी और गैर आदिवासी रचनाकार बढ़-चढ़कर हिस्सा ले रहे हैं। इस साहित्य की संवेदना उसी तरह पृथक है जैसे स्वयं आदिवासी समाज और यही अलगाव इसकी मुख्य विशेषता है। 
साहित्य की अन्य विधाओं की तरह जब हम कविता के सन्दर्भ में समाज के किसी विशेष वर्ग को लेकर चर्चा करते हैं, तो सवाल उठ सकता है कि कविता तो कविता होती है, आदिवासी और गैर-आदिवासी कविता का यह भेद क्यों? आदिवासी के सन्दर्भ में यह बात महत्त्वपूर्ण है कि अन्य मानव समूह भी समाज की मुख्यधारा के ही अंग रहे हैं, चाहे वह हाशिए पर पड़ते रहते आये हों। इसके विपरीत आदिवासी मुख्यधारा के इर्द-गिर्द न रहकर सदैव से भौगोलिक स्तर पर अलग-थलग ही नहीं बल्कि दूर-दराज के जंगली पहाड़ी क्षेत्र का वाशिंदा रहा है और दूसरी बात भाषा के स्तर पर भी वह शेष जगत से पृथक रहता आया है। इसीलिए यह जरूरी है कि आदिवासी जीवन के हर क्षेत्र पर पृथक से विमर्श होना चाहिए, चाहे वह कविता ही क्यों न हो।
आदिवासी जीवन को लेकर जब हम कविता की बात करते हैं, तो वाचिक परंपरा ही हमारे सामने आती है, जो प्रमुख रूप से गेय परम्परा रही है। समकालीन कविता की दृष्टि से आँचलिक भाषाओं में अवश्य कविता के माध्यम से जीवन के विविध पक्षों की अभिव्यक्ति होती रही है, लेकिन हिन्दी भाषा में आदिवासी कविता अभी शुरुआती दौर में चल रही हैं।
अब हम आदिवासी कविता की विशिष्टताओं की चर्चा करते हैं तो हम पाते हैं कि यह कविता मुख्यतः जंगल, जीव, जल और जमीन से जुड़ी हुई है। अपने अस्तित्व और अस्मिता को पहचानना आदिवासी कविता की प्रमुख विशेषता है। भोले-भाले आदिवासियों के जीवन में स्वार्थी सभ्य (जिन्हें वे दिक्कू कहते हैं) मनुष्य ने प्रवेश कर उनको प्रदूषित कर दिया है। वे अब शोषकों को पहचानने लगे हैं। शोषक के रूप में पूँजीपतियों, महाजनों, प्रशासनिक वर्ग के अधिकारियों आदि दिनोंदिन उनको दीमक की तरह चाट रहे हैं। आदिवासी इलाके में बाहरी तत्त्वों की घुसपैठ सबसे बड़ी समस्या रही है। यही से आदिवासी जीवन की पवित्रता में प्रदूषण शुरु होता है, और अंत में आदिवासी अस्तित्व का संकट। गे्रस कुजूर अपनी कविता ‘एक और जनी शिकार’ में यही कहती हैं-
“...ए संगी / क्यों घूमते हो / झुलाते हुए खाली गुलेल
जंगल-पहाड़ नदी-ढ़ोढ़ा / तुम्हारी गुलेल का गेढ़ा
डूबते हुए लाल सूरज की तरह / अटक गया है / टहनी में
क्या तुम्हें अपनी धरती की / सेंधमारी सुनाई नहीं दे रही ...”


आदिवासी प्रारम्भ से ही प्रकृति प्रेमी रहे हैं। यह प्रकृति प्रेम इनकी कविताओं में सरल, सहज रूप में दिखाई पड़ता है। जंगल की कटाई के फलस्वरूप कंदमूल आदि उनके भोजन नष्ट हो गए, जिससे उनके जीवन पर ही संकट आग गया। वे प्रकृति की गोद में स्वच्छन्द विचरण कर रहे थे कि सभ्य समाज ने उनसे उनका सुखी जीवन बड़ी बेरहमी से छीन लिया। क्या प्रकृति के बिना उनकी कल्पना की जा सकती है, प्रकृति के साथ बेरहम छेड़खानी आदिवासियों के अस्तित्व का संकट ही नहीं है बल्कि सम्पूर्ण मानवता व मानवेतर प्राणी जगत के लिए खतरा है। पर्यावरण प्रेमियों के साथ आदिवासी कविता भी सुर मिलाती है। ग्रेस कुजूर अपनी कविता ‘हे समय के पहरेदारों’ में कहती हैं-
“क्या तुमने कभी देखा है / पर्वत को रोते?
उसके हृदय की आवाज / क्या कभी देखा है
उसका टुकड़े-टुकड़े होकर / बिखर जाना?” 
× × ×
“एक बूंद पानी के लिए / तडप-तडप / जाएंगी
हमारी पीढ़ियाँ / इसलिए / मैं सच कहती हूँ?
हे समय के पहरेदारों”




ग्रेस कुजूर ने जहाँ अपनी कविताओं में झारखण्ड के अँचल को व्यक्त किया है, वहीं भुजंग मेश्राम ने महाराष्ट्र के अँचल को अपनी कविता में व्यक्त किया है। लेकिन दर्द दोनों कवियों का समान है। जिस संकट से आदिवासी गुजर रहा है, उसका निवारण नहीं होता देखकर कवि आदिवासियों के महानायक बिरसामुण्डा को आह्वान करता है जो अपनी कर्मभूमि झारखण्ड एवं मध्यभारत के हृदय में रमे बसे हैं-
“सिंहभूम, मंडला, वसई / चन्द्रपुर को करने को आजाद
बचाने के लिए हरे-भरे जंगल / आज ना गोरे हैं / न सपने की आजादी
आज ना घने बीहड हैं / ना तू है / है केवल बीहड़ो में फैला असन्तोष
...बिरसा तुम्हें कहीं से भी
आना होगा”   (ओ मेरे बिरसा)

सभ्य समाज का जब से आदिवासियों के जीवन में अनाधिकार प्रवेश हो रहा है, तब से बड़ी समस्या उनके घर की स्त्रियों को हो रही है। पुलिस, प्रशासन वर्ग के अधिकारी, ठेकेदारों, महाजनों और अन्यान्य सबल लोगों की पहली निगाह उनके घर की असहाय महिलाओं पर पड़ती है। निर्मला पुतुल अपनी कविता ‘सन्थाली लड़कियों के बारे में कहा गया है’ में कहती है-
“ये वे लोग हैं / जो हमारे बिस्तर पर करते हैं
हमारी बस्ती का बलात्कार / और हमारी ही जमीन पर
खड़े होकर पूछते हैं हमसे हमारी औकात”

आदिवासी स्त्री के विषय में लखनलाल पाल अपनी कविता ‘तीखी नोकों के पद चिन्ह’ में कहते हैं-          
“समाज की मुख्यधारा से अलग-थलग आदिवासी स्त्रियाँ
बकरियों को चराकर लकड़ियाँ बीनकर
हाड़ तोड़ मेहनत करके जुटा लेती दो जून की रोटी
साँझ को हड़िया में लिपटा पुरुष चीथता है माँस पका या गदराया
सह लेती जगह बुझी साँसों को” 

यह है आदिवासी स्त्री की दयनीय स्थिति जिसे आदिवासी कविता व्यक्त करती है। यह कविता आपसी भाईचारा, प्रेम, रिश्तों के लिहाज को भी व्यक्त करती है। कवि हरिचरण अहरवाल अपनी कविता ‘तुम क्या समझते हो?’ में कहते हैं-
“बहुत कम हैं वस्त्र हमारे शरीर पर यों होने को तो
पर समा जाती है इनमें हमारी इज्जत
... हममें आपस में पे्रम भाईचारा, इंसानियत और रिश्तों का लिहाज है
जबकि सभ्य समाज जो तुम समझते हो। खुद को श्रेष्ठ हमसे
एक ही छत के नीचे एक ही कमरे में एक ही टेबल पर भी
तुममें देखी है हमने दूरियाँ” 

आदिवासियों ने तो सपने में भी यह नहीं सोचा कि उनके साथ ऐसा होगा। वे तो स्वच्छन्द प्रकृति की गोद में रहे हैं। इसी स्वच्छन्दता के रहते अभावों भरी जिन्दगी की भी उन्होंने परवाह नहीं की। समृद्ध प्राकृतिक परिवेश में सीमित आवश्यकताओं के साथ एक लम्बी सांस्कृतिक परंपरा रही है। जीवन का आधार रही यह प्राकृतिक संपदा सांस्कृतिक धरोहर उनसे छीनी जा रही है ग्रेस कुजूर अपनी कविता ‘एक और जनी शिकार’ में कहती है-
“अब कहाँ है वह अखरा / किसने उगाए हैं वहाँ विषैले नागफनी
...हवा में नहीं तैरते अब / अंगनई और डमकच के गीत
सिल गए हैं होठ मेरे / धतूरे के कांटों से...” 

इस संबंध में दामोदर मोरे का कहना है कि “एक अच्छी और सच्ची कविता वक्त की पहचान होती है। वह समय के साथ चलने से समय का शिलालेख बनती है। शोषण के खिलाफ संघर्ष का ऐलान करना आदिवासी चेतना की विशेषता है। 

आदिवासियों के लिए चुनाव मतदान का क्या औचित्य है, इसे भी आदिवासी कविता व्यक्त करती है। आदिवासी पढ़े-लिखे तो हैं नहीं ऐसे में वे किसका चुनाव कर सकते है? आदिवासी कवि हरिचरण अहरवाल अपनी कविता ‘समाज के हाशिये पर’ में कहते हैं-
“दो जून की रोटी ही इक्कीसवीं सदी का सपना
हाँ डिग्री के नाम पर उनके पास मतदाता फोटो पहचान पत्र बने हैं
...जब कुछ युवा मोटर साइकिल पर बिठाकर / ले जाते वोट डालने
कहते है मतदान के बाद / जाओ अब इसे रख देना 
बहुत काम आता है...”


इन कविताओं को देखने से स्पष्ट पता चलता है कि आज आदिवासी अस्तित्व का संकट गहरा रहा है। मनुष्य ने मनुष्य को बहुत सताया है। स्त्री के रूप में आधी मानवता और दलितों के रूप में एक बड़ा वर्ग जीता जागता उदाहरण है हमारे सामने। दलित वर्ग के लिए बहुत कुछ लिखा बोला गया है, इसी में हम अब तक मानते रहे आदिवासियों को भी। लेकिन ऐसा नहीं है। दलित शोषण और आदिवासी दो बिल्कुल अलग-अलग समस्याएँ हैं। दलित वर्ग उसी वर्ग के साथ रहा जो उसका शोषण करता रहा। खोने के लिए भौतिक रूप से इस वर्ग के पास कुछ नहीं था, जबकि आदिवासी अपनी जमीन जंगल और शेष संसाधनों से खदेड़े जा रहे हैं। यह दुष्चक्र आज भी जारी है विस्थापितों में सर्वाधिक संख्या आदिवासियों की ही है। मीडिया ने आदिवासी समाज की एक नकली और मनोरंजक छबि बना दी है जिसको टी.वी. पर या पत्र-पत्रिकाओं में देखकर नई पीढ़ी यह सोचती है कि ये आदिवासी तो बड़े रंगीन मिजाज हैं। हमेशा नाचते गाते रहते हैं। इस भ्रम को तोड़कर यह बताने की जरूरत है कि कैसे उनको खदेड़ा जा रहा है, वे क्या-क्या भुगत रहे हैं। जाहिर है यह काम वही ज्यादा अच्छे ढंग से कर सकता है, जिसने यह देखा भुगता हो या इस वर्ग से जुड़ा रहा हो।

इस प्रकार हम अन्त में कह सकते हैं कि आदिवासी कविता में अपनी संस्कृति, समाज और जीवन मूल्यों के प्रति गहरा लगाव व्यक्त होता है। इनकी कविताओं में आई प्रकृति परम्परागत प्रकृति चित्रण से भिन्न यह आदिवासी जीवन और संस्कृति का मूलाधार है। इनकी कविताओं में अपने युग की पीड़ा, प्रकृति प्रेम, अपने अस्तित्व को बचाये रखने की समस्या, अपने पूर्वजांे के प्रति पूज्यभाव-ईश्वरवादी भावना से मोहभंग दिखाई देता है। इसी बात को राजेन्द्र अंकरे के शब्दों में कहे तो “कुल मिलाकर आदिवासी कविता से स्वतंत्रता समानता बंधुता, भूख, वर्ण जाति का अंत, मानवता आदि मूल्यों का विकास धीरे-धीरे हुआ दिख रहा है।”  वर्तमान समय की सामयिक पत्र-पत्रिकाओं में भी आदिवासी कविता का स्वर आता जा रहा है, जरूरत सिर्फ इस बात की है कि हम उसे कितना सही तरीके से समझ पाते हैं। रमणिका गुप्ता कहती हैं कि “यह (कविता) उनकी अस्मिता का विकास ही नहीं बल्कि उनके बदले हुए आदिवासी स्वर का द्योतक है।”  इस प्रकार स्पष्ट है कि ये आदिवासी स्वर की कविताएँ केवल आदिवासी जीवनानुभव में सीमित रचनाएँ ही नहीं है, बल्कि सम्पूर्ण मानवीय सरोकारों की अभिव्यक्ति हैं।

-दिनेश कुमार यादव
हिंदी विभाग
दिल्ली विश्वविद्यालय दिल्ली


आधार ग्रन्थ
समकालीन आदिवासी कविता - संपादक हरिराम मीणा - अलख प्रकाशन (जयपुर), प्रथम संस्करण-2013.
सन्दर्भ ग्रन्थ
   प्रारंभिक भारत का परिचय - रामशरण शर्मा - ओरियंट ब्लैकस्वाॅन प्राइवेट लिमिटेड, संस्करण-2009, पृष्ठ 110
  समकालीन आदिवासी कविता, पृष्ठ 20
  समकालीन आदिवासी कविता, पृष्ठ 23
  समकालीन आदिवासी कविता, पृष्ठ 25
  समकालीन आदिवासी कविता, पृष्ठ 34
  समकालीन आदिवासी कविता, पृष्ठ 31
  समकालीन आदिवासी कविता, पृष्ठ 49
  समकालीन आदिवासी कविता, पृष्ठ 99
  समकालीन आदिवासी कविता, पृष्ठ 19
  आदिवासी साहित्य यात्रा - संपादक रमणिका गुप्ता - वाणी प्रकाशन, पृष्ठ 78
  समकालीन आदिवासी कविता, पृष्ठ 100
  आदिवासी साहित्य यात्रा, पृष्ठ 72
  आदिवासी स्वर और नई शताब्दी - संपादक रमणिका गुप्ता, वाणी प्रकाशन, 2008, पृष्ठ 11


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