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हिन्दी दलित कहानियो में दलित नारी का अवलोकन: आशीष कुमार/कामिनी

हिन्दी दलित कहानी की वास्तविक चिन्ता अपने समाज को पराधीनता की उन परंपराओ से मुक्ति दिलाने के लिये है, जिसने उन्हे सदियों से भारतीय समाज की मुख्यधारा में ‘अस्पृश्य’ और कमजोर बनाये रखा हैं। यही भारतीय सामाजिक व्यवस्था दलितो का निम्न स्थान तय करती है, इस व्यवस्था में दलित समाज अपने को ‘ज्ञान’ से निकृष्ट, ‘शक्ति’ से कमजोर तथा सांस्कृतिक दृष्टि से अपने को ‘पिछड़ा’ समझता है इतना ही नही इसे सर्वण समाज ‘असुर’ समझता है, व्यवस्था में असभ्य और सबसे अधिक इनकी जिंदगी को पिछले जन्म के निकृष्ट कर्मो (पापों) का प्रतिफल घोषित करता है और यह दुर्भाग्य है कि उनके अंदर इस समझ को विकसित करने में वे अपना मानते है वही सर्वण समाज इन्हे ‘अस्पृश्य’ करार देते है।




आज हिन्दी में लिखित दलित कहानियॅा इसी ‘अस्पृश्यता’ के खिलाफ संघर्ष की आवाज उठाती है तथा भारतीय सामाजिक जीवन की मुख्यधारा में दलित समाज को एक निश्चित अर्थ देते हुये उनके ज्ञान, पानी और जमीन के लिये किये जा रहे संघर्ष को आज के राष्ट्रीय जीवन का एक अहम् सवाल घोषित करती है।

दलित शब्द का शाब्दिक अर्थ है जिसका ‘दलन’ और दमन हुआ है, दबाया गया है। दलित लेखको ने दलित शब्द की अलग-अलग परिभाषायें दी है- डॅा. श्योराज सिंह बेचैन के अनुसार- ‘दलित वह है जिसे भारतीय समाज में अनुसूचित जाति का दर्जा दिया है’।

कंवल भारतीय के अनुसार- दलित वह है जिस पर अश्पृश्यता का नियम लागू हो एंव जिसे शिक्षा ग्रहण करने एंव स्वतंत्र व्यवसाय करने से रोका गया और जिस पर अछूतों ने वायाजिक नर्योग्यताओं की सहिता लागू की, वही और वही दलित है तथा इसके अंतर्गत आने वाली जातियां अनुसूचित जातियॅा कहलाती है।

भारतीय समाज का एक बहुत बड़ा हिस्सा ‘दलित’ वर्ग है इस वर्ग की पहचान साकार करने वाले साहित्य को ही दलित साहित्य कहा जा सकता है। दलित शब्द शोषित, पीड़ित समाज और समाज के सबसे निचले स्तर के उपेक्षित जन-समूह का विशेष है, जो अपने अर्थ में उसकी सम्पूर्ण पहचान समाहित किये हुए है। दलित साहित्य की मान्यता लगभग सातवें दशक के आस-पास प्राप्त हुई है, जब महाराष्ट्र में ज्योतिबाफूले, डॅा. अम्बेडकर के प्रभाव में उठे व्यापक सामाजिक आन्दोलन से दलित साहित्य भी एक सास्कृतिक आन्दोलन के रूप में उभरा।

दलित स्त्री साहित्यकारों की संख्या कम होने के कारण (केवल २%) शिक्षित और स्वालम्बी स्त्रियों को छोड़कर शेष की स्थिती आज भी पिछड़ेपन की शिकार है। समाज में वर्णव्यवस्था, जातिव्यवस्था के समान ही नारी भी दलित स्थिती है यह बात बिल्कुल सत्य है। जिस तरह ये समाज में स्त्री के प्रति मनुवादी अवधारणा स्त्री को पुरूषों से हमेशा छोटा या निम्न बनाये रखने की धारणा है। इस धारणा व्यवस्था में शोषित स्त्री शुरू से लेकर वर्तमान तक धर्म, कर्म, पाप और पुण्य के नाम पर लोक व्यवहार के गढ़े आधार पर अत्याचार अनाचार और दुराचार सहकर भी इस व्यवस्था को धारण करते हुए आई है। जिसमे शिक्षा तथा आर्थिक सामाजिक स्वावलंबन ने वंचित नारी इस शोषण का डरकर मुकाबला भी नही कर पाती है’।

मानवतावादी विद्दानों का नारीवादी चिन्तन-
ज्योतिबा फूले के अनुसार- स्त्री के अनकहे दर्द को महसूस करने के साथ-साथ नारी के उस सवेदना को महसूस किया जिसे स्त्रिया सदियों से सीता, द्रोपदी और अहल्या इत्यादि के रूप सहती आ रही थी। लेकिन फूले ने अपने क्रान्तिकारी कदम में विधवा नारियों के सन्तानों को अनाथालय की व्यवस्था की तथा साथ ही साथ अपनी धर्म पत्नी ‘सावित्री बाई फूले’ की शिक्षीत कर भारत की पहली नारी शिक्षिका बनाया।

डॅा. बी.आर. अम्बेडकर के अनुसार- कालान्तर में बाबा साहब ने स्त्रीयों के पक्ष में हर सम्भव प्रयास किये है बाबा साहब जब वित्त मंत्री थे तब २४ फरवरी १९५१ ई. को ‘हिन्दु कोड बिल’ केन्द्रीय असैम्बली में पेश किया था जिसमें नारीवाद चेतना के संघर्ष की बात सन्निहत थी। बाबा साहब से प्रभावित होकर श्री सोहन लाल शास्त्री ने उनके पक्ष में लिखा है कि- एक मानवतावादी महापुरूष जिसका अपना जीवन सामाजिक विषमता की चक्की में पिसता रहा हो, वह हिन्दु कोड बिल बनाकर लाखो निरीह महिलाओं को जालिम पतियों के चंगुल से छुड़ाकर सामाजिक न्याय दिलवाना चाहते थे। बाबा साहब अक्सर कहॅा करते थे कि- ‘मुझे भारतीय सविधान के निर्माण में भी अधिक दिलचस्पी और कुशी हिन्दु कोड बिल पारित कराने में है।


प्रोफेसर श्योराज सिंह ‘बेचैन’ के अनुसार- नारीवादी चिन्तन पर सर्वप्रथम विचार बेचैन जी ने पहली बार १९८२ ई. में ‘कुख्यात दस्यु सुन्दरी फूलन देवी’ शीर्षक से काव्यबद्ध कृति को शब्दबद्ध किया। इस कृति में नारी के लाचारी को व्याव्पाति किया है। फूलन देवी दलितों के प्रति असम्वेदनशील रहे सवर्ण समाज और सरकारी (पुलिस) तंत्र के अमानवीय व्यवहारों में फसकर शोषण का शिकार बन जाती है जिससे ‘उसके कोमल हाथ, बन्दूक चलाने वाले हाथ बन जाते है’ ‘बेचैन’ जी ने कृति की इस पंक्तियों में फूरन देवी की आवाज को प्रस्तुत करने का प्रयास किया है-
           
सामन्तो का आन भी जिन्दा प्रभाव।
      फूलन क्यों डाकू बनी पढ़िये जरा जनाब।
      मुफलिसी में पली, व्यवस्था का शिकार बनी।
      ठाकुरो की सामन्ती प्रवृत्तियों से तंग।
      पुलिस जुल्म भी संग।
नारि के दुखद वेदना के प्रति संवेदनशील साहित्यकार ‘बेचैन’ जी ने फूलन देवी के द्दारा आहवान कराया कि स्त्रीयॅा समाज में रहकर ही समाज को बदले जिसमे नारिवादी चिन्तन मानव समाज को स्वस्थ एंव सभ्य विकास हेतु प्रांसगिग हो।
            ‘‘नारियो मत समान छोड़ो
      उसमे ही रहकर के उन हालातों को बदलों।’’
विमल थोराट के अनुसार- इंदिरा गाँधी मुक्त विश्वविधालय में प्रवक्त्ता पद पर कार्यरत थोराट कहती है कि दलित स्त्री के वास्तविक जीवन पर प्रकाश डालते हुये कहती है कि ‘अधिकाश दलित समाज की महिलाएं खेतिहर मजदूरी करने वाली है जो बहुत कम मजदूरी पर कार्य करती है’।

      आज ‘दलित’ अपने साथ किए गये दुराभाव, अन्याय, शोषण, अत्याचार के विरेध में अपनी बात, अपनी लेखनी से ‘दलित साहित्य’ के रूप में कहने लगे है। इस क्षेत्र में अनेक दलित साहित्यकार सामने आये है। आज एक सफल साहित्यकार/लेखिकाए अपने युगीन परिस्थितियों के सन्दर्भ में नवीन जीवन तथ्यों और सत्यों के साथ संबंध स्थापित करता है और नवीन जीवन-शक्ति सम्पूर्ण सामाजिक मूल्यो तथा मान्यताओ को ग्रहण कर संवेदनाओं के सहारे उन्हें अवने साहित्य में व्यक्त करता है।

सामाजिक स्थितियाँ- आज समाज में सबसे दयनीय स्थिति दलित नारियों की है। नारी सच्चे अर्थो में अबला थी उसका सारा जीवन माँ, बाप, भाई और पति के आश्रय में व्यतित होता था। वह पुरूष की दासी थी और उसके जीवन का लक्ष्य बच्चे पैदा करना था और उसका पालन-पोषण करना मात्र। माता-पिता के लिये पुत्री की जन्म एक अभिशाप समझा जाता था। शिक्षित होना एक अशुभ और अपरिहार्य दोष समझा जाता था नारी के लिये। दलित नारियो के लिये उच्च वणों की उचितानुचित आज्ञाए शिरोधार्य करना ही उनके लिये कल्याणकारी था। उनकी कोई प्रतिष्ठा नही थी बेगार उनका भाग्य था, अशिक्षा उनका जन्म सिद्ध अधिकार था।

सांस्कृतिक परिस्थितियाँ- सांस्कृतिक विशेषताओ में व्यक्ति का जीवन धर्म से परिचालित होना लौकिक जीवन की अपेक्षा, पारलौकिक जीवन को अधिक महत्व देना, भौतिक सुख के सुख के स्थान पर आध्यात्मिक सुख के लिए प्रत्यत्नशील रहना, कर्मवाद और पुनर्जन्म की दुर्गम उपत्यकाओ में भ्रमण करना आदि प्रमुख था। अतः आस्थाह मनः स्थिति के कारण समाज और संस्कृति के वैज्ञानिक विश्लेषण और पुनर्मूल्यांकन सम्भव हो सका। संस्कृति तथा नैतिक मूल्य सदैव समाज सापेक्ष होते है। लेकिन समाज में परिवर्तन लाये बिना ही सांस्कृतिक मूल्यों की स्थापना की जाने लगी। बिना सामाजिक आधार के ये नवीन मूल्य न तो सर्व स्वीकृत हो सकते थे और न उनमें स्थिरता आ सकती थी। फलतः इन बौद्धिक अन्वेषको ने जिन मूल्यों की उन्होनें स्वंय स्थापना की वे स्वतः ध्वस्त होते गये। परिस्थितियाँ समाज तथा संस्कृति की उपज होती है, लेकिन वैज्ञानिक विश्लेषण नही किया जाता, बल्कि उन्हें ही नियति का खेल मान लिया जाता है। परिणामतः प्रेत्येक परिस्थिति में वह अपने अस्तित्व रक्षण के लिये सचेष्ट रहता है और परिस्थितियों के अनुसार ही अवने को ढालने लगता है। इस दशा में उसका नैतिक दृष्टिकोण भी परिवर्तिति और प्रायः परस्पर विरोध बन जाता है।

साहित्यिक आधार- जनवादी प्रगतिवादी साहित्य की तरह ‘दलित साहित्य’ भी मानसिकता, बदलने वाला साहित्य हैं। यह समाज की गलतियों को चिन्हित करने और बदलने का साहित्य है। यह मानव मानव की बराबरी और न्याय की मांग करने वाला, सामाजिक दमन के विरूद्ध तर्क करने वाला विज्ञान पर आधारित विद्रोह का प्रतिबद्ध नायक है।

      नारी मुक्ति आन्दोलन ने एक नई दृष्टि स्त्री लेखन को दी है। वे अपने शोषण के खिलाफ खासकर यौन शोषण के खिलाफ मुखर हुई है। आज हिन्दी पट्टी में दलित नारी भी सुगबुगाने लगी है। चाहे ‘सुशीला टाकमौरे’ की एकल पर तीक्षण आवाज हो, चाहे ‘हेमलता महेश्वर’ के सूक्ष्म और कंटीले व्यंग्य, ‘ग्रेस कुजूर’ के बौने पर नुकीले ‘तीर’ या ‘कौशल्या बैसेन्ती’ के सत्तर वर्षो के स्वानुभव की गंभीर चुनौती, अब वे दलित नारी की ओर से साहित्य के दरवाजे पर दस्तक देने लगी है। ‘रजनी तिलक’ की पत्रकारिता और ‘रजत रानी’ ‘मीनू’ के शोध से दलित नारी के बंद दरवाजे को खोलने का प्रयास शुरू हो चुका है।


धार्मिक परिस्थितियाँ- मनु जैसे शास्त्रकारों ने नारियों को शिक्षित करने को पाप और अपराध करार दिया। इसी कारण परम्पराओं, अंधविश्वासों और अज्ञानता की प्रतिमूर्ति नारियां आज भी अशिक्षित है इन्हें शिक्षा से दूर रखने के पीछे उनकी यही मंशा थी कि वे अज्ञानतावश मूल पशुओ की भांति पुरूषों के सभी क्रूरतम अत्याचार एंव अन्याय सहती रहें। इसलिये बाबा साहब ने हिन्दू धर्म के पाखंड को खत्म कर दलित स्त्रियो/पुरूषो को वैज्ञानिक आधार पर सम्मानपूर्वक जीने का रास्ता दिखाया। हिन्दू धर्म की विकृतियों से मुक्ति पाने के लिये उन्होनें तीन बाते कही......... ‘‘शिक्षित हो, संघर्ष करो और संगठित हो।’’

राजनीतिक परिस्थितियाँ- भारतीय संविधान के तहत अनेक कानून बनाए गए है पर आज भी महिलाओं का शोषण निरंतर जारी है। महिलाओ के इस शोषण के कुछ मूलभूत स्त्रोत हैं। इन श्रोतों में अशिक्षा, पति और परिवार पर आर्थिक निर्भरता, धार्मिक प्रतिबंध, जाति बंधन, महिला नेतृत्व का अभाव, पुरूषो का महिलाओं के प्रति उदासीन एंव भावहीन रवैया आदि प्रमुख है। इस शोषण एंव उत्पीड़न के कारण सन् १९६२ में दलित पैंथर्स आन्दोलन ने दलितो की परिभाषा में महिलाओं को भी दलित घोषित कर इस कथन को और मदबूत किया परन्तु इन दलितों में भी कुछ दलित है जिनका जिक्र अक्सर आम महिलाओं के शोषण के आवख तले दब जाता है। अतः दलित महिलाओ की जागृति को अखिल भारतीय रूप देने का समय आ गया।

आर्थिक परिस्थितियाँ- दलित महिलाओं की अपनी पारिवारिक अनेक समस्याएं होती है जिन्हें वह अपने सहयोग से सलझाती है। आर्थिक समस्या के लिये वह स्वंय श्रम करके नौकरी करके घर परिवार को आर्थिक सहयोग देती है। घरेलू समस्याओ को सुलझाने की अधिक जिम्मेदारी स्त्रियों पर ही होती है, जिसमें वह हमेशा उलझी रही है अतः वह दलित आन्दोलन से जुड़कर समाज को लाभ नही दे पाती है। अतः दलित स्त्रियों से जुड़े अनेक प्रश्न है। इन प्रश्नो का समाधान तभी हो सकता जब हम बाबा साहेब के विचारो को समझकर दलित स्त्रियाँ अपने भविष्य की योजनाएं बनाये और आगे बढ़ने का प्रयत्न करे साथ दलित समाज में जन-जागृति फैलायें।

      बाबा साहेब ने नारी को ‘मुक्तिदाता’ कहा हैं। आपने दलित, शोषित, पीड़ित एंव अशिक्षित स्त्रियों में क्रान्ति करने की चेतना जाग्रत की। जिन्हे सदियों से सामाजिक, आर्थिक, शैक्षिक एंव राजनीतिक अधिकारों से वंचित रखा गया था, उनकी अस्मिता से परिचित कराया तथा नारी मुक्ति आंदोलन को गति प्रदान की ओर उन्हे समानता, स्वतंत्रता एंव मौलिक अधिकार दिलाकर शक्तिशाली भी बनाया वही प्रत्येक क्षेत्र को बिना लिंग भेद किये समानाधिकार के अवसर प्रदान किए, ताकि स्त्रियाँ हीनता एंव दासता की बेड़ियों को तोड़कर स्वतंत्र और हीनता एंव दासता की बेड़ियों को तोड़कर स्वतंत्र और निर्भीक जीवन जी सके। आपसे प्रेरणा लेकर अनेक दलित स्त्रियों सामाजिक, आर्थिक, शैक्षिक एंव राजनैतिक गतिविधियों के अन्तर्गत अग्रणी होकर आंदोलन किया साथ ही समाचार पत्रों का प्रकाशन एंव लेखन कार्य भी किया।

हिन्दी दलित कहानियाँ

      साहित्य में कला की अपेक्षा चोट करने की क्षमता यदि अधिक हो तो यह अधिक सार्थक होता है। ‘दलित साहित्य’ आनन्द के लिये नही बल्कि परिवर्तन के लिये लिखा जाता है। ‘कहानी’ में कलात्मकता की बजाय हकीकत, द्दष्टि, दिशा एंव वर्तमान व्यवस्था के प्रति घृणा आवश्यक है, तभी उनमें एक ऐसी सृजनात्मक शक्ति उत्पन्न होगी जिससे एक नई संस्कृति और नई दुनिया की पृष्ठभूमि तैयार होगी। पुरानी लकीरों को पीटने से संतुलन भले ही हिलडुल जाये पर परिवर्तन नही आयेगा। ‘दलित कहानी’ पुरानी लीक से हटकर चलने की मुहिम चलाने के लिये कटिबद्ध है।

दलित वर्ग की कहानियाँ-
      आज दलित कहानियाँ मानव पक्ष को लेकर सामने आई है इसलिये वह मानव को समर्पित मानव अभिव्यक्ति है जो अनेक युगीन संभावनाएँ लिये हुये है, जिसके शब्द-शब्द में मेहनत, परिश्रम और मुसीबतों भरा जीवन संघर्ष बोलता है। सामाजिक परिवेश और दलित जीवन मूल्य, दलित वर्ग की कहानियो में कुछ विशेष संकेत देते है। जहॉ एक ओर वह राजनीतिक मूल्यो में वह परम्परागत वंशवाद, जातिवाद व अलोकतान्त्रिक प्रवृत्तियों के विरूद्ध लोकमत के पक्ष में है। सांस्कृतिक मूल्यो की दृष्टि से दलित कहानी हैं। इस प्रकार दलित कहानी मानव संवेदना से ओत-प्रोत कहानी हैं। बाबा साहेब कहते ‘हम अनुभव करते है कि कोई दूसरा हमारे दुःख-दर्द को दूर नही कर सकता और जब तक हमारे हाथो में राजनीतिक शक्ति नही आ जाती, हमारे दुःख-दर्द भी दूर नही हो सकते।’


      सर्वप्रथम ओमप्रकाश वाल्मीकि की कहानी ‘जंगल की रानी’ में डिप्टी साहब के चंगुल से स्कूल की शिक्षिका कमली अपनी अस्मिता तो बचा लेती है पर अपनी जान नही बचा पाती है। ओमप्रकाश वाल्मीकि की ‘अंधेरी बस्ती’ और ‘यह अंत नही’ कहानियों में नयी पीढ़ी के युवाओं में अपने परिवार और समाज की नारियों पर हो रहे दैहिक आक्रमणों के विरूद्ध संघर्ष करने की शक्ति है तो कहानी ‘रीत’ का नायक अपने पूर्वजों से चली आ रही उस सांमती रीत को तोड़ता है जिसमें नवविवाहित को पहली रात जमीदार के घर गुजारनी पड़ती है। ‘यह अंत नही’ में नायिका बिरमा के साथ बलात्कार करने के इरादे से की गयी छेड़खानी को उजागर किया है। यहाँ नारी, नारी होने के कारण अपमानित नही हो रही। उसके पीछे दलित स्त्री होना प्रमुख है।

      डॉ. कुसुम मेघवाल की ‘मंगली’ और ‘अंगारा’ की कहानियों में, विपिन बिहारी की ‘पहचान’ में लाजो, डॉ. कुसुम मेघवाल की ‘अंतिम बयान’ रत्नकुमार सांभरिया की ‘क्षितिज’, जय प्रकाश कदर्भ की ‘सांग’ सूरजपाल चौहान की ‘आज की अहिल्या’, इत्यादि कहानियों की नायिकाओ ने अपने साथ हुये अनैतिक आक्रमणों के प्रति जबर्दस्त विद्रोह है ये दलित नारियाँ बलात्कारी पुरूषों पर शेरनी की भाँति जवाबी हमला करती है।

गैरदलित वर्ग की कहानियाँ- जिस प्रकार दलित कहानीकारों ने अपनी कहानियों में दलित जीवन के कई कोण बताये है- जीवन से जूझने के, जिंदा रहने के, पीड़ा सहने के और उससे उबरने के वैसे ही गैर-दलित कहनीकारो के कहानियों में रूढ़ि, रीति एंव परम्पराओं से जकड़े समाज को मुक्ति दिलाने तथा दलित वर्ग की पीड़ा और वेदना से द्रवित होकर उसे सम्मानित करने का प्रयास भी किया है। गैर दलित कहानीकारों में रामदरश मिश्र, उमाकान्त, मधुकर सिंह, अभय कुमार सिंह, गिरीराज शरण अग्रवाल, स्वंयप्रकाश, संजीव, मुद्राराक्षस, रमेश चन्द्र शाह, जगदीश दीक्षित, पुन्नी सिंह, दूधनाथ सिंह एंव उदय प्रकाश शामिल है।

      ‘बलात्कारी’ कहानी में दलितों का स्पर्श उच्च वर्ग के लिये घोर पाप है किन्तु उसके साथ बलात्कार करना सुखद है। उसी प्रकार ‘पैशाचिक’ कहानी में ‘जात’ शब्द को ‘पैशाचिक’ विशेषण देना एक अत्यंत ही दलितो के शोषण की मार्मिक अभिव्यक्ति है। ‘डाँगर’ कहानी में दलितो का समाज का घृणित कार्य करना यह उसकी वर्तमान परिपेक्ष्य में नियति है। ‘सुमंगली’ कहानी में दलित पात्र सुमंगली की तुलना एक कुतिया से करना वर्तमान समाज का कटु सत्य है, ‘सती’ कहानी में दलित नारी की शोषण की पराकाष्ठा की अभिव्यक्ति देखने को मिलती है। ‘बिरादरी का कटघरा’ कहानी में एक दलित व्यक्ति द्दारा किसी विधवा स्त्री से शादी करने पर उसे दण्डस्वरूप समाज एंव गाँव से अलग कर दिया जाता है। ‘अस्वीकृति’ कहानी में अस्वीकृति शब्द दलितों की पीड़ा का एक सांकेतिक भाव है। ‘सड़क’ कहानी राजनीतिक मूल्यों पर आधारित दलित शोषण की कहानी है। ‘सर्पदंश’ कहानी में दलितों के प्रति अमानवीता पूर्ण व्यवहार को दर्शाती है। इस प्रकार ‘बिच्छूघास’ कहानी में दलितो की तुलना मवेशियों से की हैं।

      अतः गैर-दलित साहित्यकारो ने दलित समाज की सामाजिक-आर्थिक समस्याओं का मर्म स्पर्शी चित्रण प्रस्तुत कर उनके प्रति सहानुभूति दिखाते हुये अपने आपको मानवतावादी साहित्यकार की संज्ञा से शोभित किया हैं।

      अतः  आज नारी ने शिक्षा, साहित्य, ज्ञान, विज्ञान, राजनीतिक इत्यादि तमाम बौद्धिक और तकनीकी क्षेत्रो में अपनी योग्यता तथा क्षमता का सफल परिचय दिया किन्तु पुरूषो की तुलना में अभी भी पिछली हैं। आज ३३ फीसदी आरक्षण की मांग उठना यह सिद्ध करता है राजनीति ही क्या अन्य क्षेत्रो में नारी यहभागिता अभी कम है। प्रश्न उठता है कि क्या अभी तक महिलाओ ने सभी क्षेत्रो में जो भी अपनी उपस्थिति दर्ज करायी है गैर दलित स्त्रियो के साथ-साथ क्या दलित स्त्रियाँ भी है तो दलित स्त्रियाँ इन सभी क्षेत्रो में अपवाद में ही मिलती है। कहा जा सकता है इनकी भागीदारी नगण्य है। वर्तमान समय में दलित लेखिकाएं अपनी कहानियो में सामाजिक बदलाव लाने का आहवान करती है। इनकी कहानियों में आक्रोश है, आग है, लावा है, गुस्सा है तो साथ-साथ संवेदना, मानवीयता और सब्र भी है। न्याय की उत्कट लालसा है तो समानता की तीव्र ललक भी है। भाई चारे की भावना है तो उसके साथ आदर पाने की इच्छा भी बलवती है।

सन्दर्भ ग्रन्थ सूची:-
१.     हिन्दी दलित कथा साहित्य (अवधारणा और विधाएं)- रजत रानी ‘मीनू’- संस्करण २०१४- अनामिका पब्लिशर्स- नई दिल्ली
२.     दलित नारी एक विमर्श- संकलन डॉ. मंजू सुमन- संपादक ज्ञानेन्द्र रावत- संस्करण २०१४- सम्यक प्रकाशन- नयी दिल्ली
३.      दलित महिलाए- संकलन डॉ. मंजू सुमन- संपादन- ज्ञानेन्द्र रावत- संस्करण २०१३- सम्यक प्रकाशन- नई दिल्ली
४.      दलित चेतना साहित्यिक एंव सामाजिक सरोकार- रमणिका गुप्ता- संस्करण २०११- समीक्षा पब्लिकेशन्स- गाँधीनगर दिल्ली
५.      दलित दखल- डॉ. श्यौराज सिंह ‘बेचेन’, डॉ. रजत रानी ‘मीनू’- संस्करण २०११- आकाश पब्लिशर्स एण्ड डिस्ट्रीब्यूटर्स- गाजियाबाद
६.      स्त्री मुक्ति संघर्ष और इतिहास- रमणिका गुप्ता- संस्करण २०१४- सामयिक प्रकाशन- नई दिल्ली
७.      दलित साहित्य में प्रमुख विधाएं- माता प्रसाद- संस्करण २०१४- सम्यक प्रकाशन- नई दिल्ली
८.      समकालीन हिन्दी कहानियो में दलित चेतनाः एक अध्ययन- डॉ. रमेश कुमार- संस्करण २०१४- सिद्धार्थ बुक्स- दिल्ली
९.      दलितः चितन्दन की दिशाएँ- डॉ. सुरेश चन्द्र- संस्करण २०१३- क्वालिटी बुक्स पब्लिशर्ष एण्ड डिस्ट्रीब्यूटर्स- कानपुर (उ.प्र.)
१०.  दलित चेतना की कहानियाँ बदलती परिभाषाएँ- राजमणि शर्मा- संस्करण २०१०- वाणी प्रकाशन- दिल्ली
११.  हिन्दी दलित साहित्य- मोहनदास नैमिशराय- संस्करण २०११- सविन्य एकेडमी- इलाहाबाद
१२.  दलित चिन्तन अनुभव एंव विचार- डॉ. एन सिंह- संस्करण २०१५- वाणी प्रकाशन- नई दिल्ली
१३.  दलित साहित्य परम्परा और विन्यास- डॉ. एन सिंह- संस्करण २०११- साहित्य संस्थान- गाजियाबाद
१४.  दलित साहित्य की विकास यात्रा- डॉ. रामचन्द्र- संस्करण २०१३- साहित्य संस्थान- गाजियाबाद
१५.  दलित साहित्य का सौन्दर्यशास्त्र- ओम प्रकाश वाल्मीकि- संस्करण २०१४- राधा कृष्ण प्रकाशन- नई दिल्ली
१६.  मुख्य धारा और दलित साहित्य- ओम प्रकाश वाल्मीकि- संस्करण २०१४- सामायिकी प्रकाशन- नई दिल्ली

सहायक पत्र-पत्रिकाएँ-
१.      आजकल (स्त्री लेखन और समाज)- राजेन्द्र भट्ट, फरहत परवीन- नई दिल्ली
२.      युद्धरत आम आदमी- रमणिका गुप्ता- नई दिल्ली
३.      दलित साहित्य (वार्षिकी) २०१३- डॉ. जयप्रकाश कर्दम- नई दिल्ली
४.      दलित साहित्य (वार्षिकी) २०१४- डॉ. जयप्रकाश कर्दम- नई दिल्ली
५.      दलित साहित्य (वार्षिकी) २०१५- डॉ. जयप्रकाश कर्दम- नई दिल्ली
६.      दलित अस्मिता- विमल थोराट- नई दिल्ली

                                -आशीष कुमार/कामिनी
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