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कविताएं: चेतना, एकलव्य सुनो, नहीं सुनना, इतिहास का सच और संहार -रामबचन यादव 'सृजन'

  चेतना  

हमारी चेतना
सिर्फ एक बार नहीं जलाई गई
हर वर्ष जलाई
जाती है और हम
हर्षोल्लास में जाते हैं
डूब।

हमारे जननायकों, विभूतियों
की हत्या
साज़िशन एक बार नहीं हुई
हर रोज, हर वर्ष
होती है और हम
मनाते हैं हत्याओं पर
जश्न।

महान जननायक महिषासुर, हिरण्य कश्यप
के सपूतों जागो
जागो होलिका व फूलन के
वंशजों
मानसिक गुलामी की दासता
से ग्रसित प्रह्लादों
जागो।

जागो कि तुम्हारी चेतना
अब न जल सके
जागो कि तुम्हार अस्तित्व
अब न मर सके।

  एकलव्य सुनो  

एकलव्य सुनो!
हमें संदेह नहीं है
तनिक भी तुम्हारे हुनर पर
फिर भी
तुम नहीं हो जिंदा
हमारी चेतना में
न हमारे संघर्ष में
नहीं मानते हम तुम्हें
अपना मुक्तिदाता व नायक।

हम मानते हैं
लम्पट द्रोणाचार्य ने किया था
छल तुम्हारे साथ
पर क्या मर गयी थी
तुम्हारी चेतना?
क्या मर गया था
तुम्हारा स्वत्व?
एकलव्य! सुनो
अपना अंगूठा काटने के बदले में
काटते अंगूठा
छली द्रोण का तुम
लड़ते अपनी अस्मिता की खातिर
तो हम मानते तुमको
अपना मसीहा
अपना महानायक!
 

  नहीं सुनना  

नहीं सुनना है हमें
तुम्हारे लुभावने वादे
जिसे करते तुम्हारी आँखे
हंसती है
हमारी लाचारी पर।

नहीं चाहिए हमें
तुम्हारा एक्सप्रेस-वे, पुल, मेट्रो या हाईवे।
जो होते हैं तैयार
हमारी लाशों पर।

नहीं चाहिए हमें
तुम्हारी योजनायें
जो तोड़ देती हैं दम
हम तक आते आते।
नहीं चाहिए हमें
तुम्हारा धर्म, तुम्हारा ईश्वर
जो पलता है
हमारे खून से।

बस चाहिए हमें
अपने हिस्से का
सम्मान व रोटी
जो तुम नहीं देना चाहते।

  इतिहास का सच  

तमाम सवालों को मद्देनजर रख
गया मैं पास इतिहास के
खोजता रहा जवाब
इतिहास के पन्नों में
तिलका माँझी, कोनता मुण्डा, बुद्धू भगत
सिद्धू, कान्हू, तात्या भील
गोविन्द गुरू
गुडलियानी व वीर नंगवाह को
टटोलता रहा इतिहास में!
चाह रहा था जानना मैं
 इनकी समरगाथा को
मगर बेकार
पूरा जीवन-संघर्ष इनका कहीं
खो गया इतिहास के पन्नों में
इस तरह इतिहास में करते-करते सफर
मेरे सारे सवाल रूपांतरित हो गए
एक सवाल में
और जवाब भी था उसका मेरे पास!

  संहार  
बने बनाये अपने घर को छोड़कर
हम चले आए ऐसे घर में
जहाँ आते ही हो गये गुलाम,
पैरों में डाल दी गयी बेड़ियाँ,
अभिव्यक्ति पर लगा दिये गये पहरे...;
छोड़कर हम अपनी
भाषा और संस्कृति
बोलने लगे उन्हीं की जबान!

ऐसा कदापि न था, कि
नहीं था सत्कार हमारा
अपने घर में
हम तो थे मुखिया
बेहद भरोसा करते थे हम पर
अपने लोग!

छोड़ा अपनों को हमनें, क्योंकि
बनाया जाने वाला था हमें
आदमी से ईश्वर,
होने वाले थे हम धनकुबेर,
भोग के लिए थीं कई
कामिनी भूरी स्त्रियाँ
हमारे पास!

ईश्वर धनकुबेरादि...,
बनने की लालच मंे
सुन्दर भूरी स्त्रियों को
भोगने की खातिर
भौंकते रहे हम, ‘‘यदा-यदा ही धर्मस्य’’
और करते रहे अपनों का
संहार!
 -रामबचन यादव 
शोध छात्र, हिन्दी विभाग
काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी।
मो0 9453087972
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