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कविताएं: तमन्‍ना, भूख, ताड़ की आड़, नदी के आस-पास -राजेश कुमार मांझी

  कविताएं    
  तमन्‍ना  

माॅं तुम्हारी बाहों में
मैंने आॅंखें खोलीं।

मेरी पहली आवाज सुन
तुम यूं हर्षित हुईं
जैसे कोई माली
पुष्‍प देख होता है
आनन्द विभोर।

सच तो यह है कि
तुम मेरे लिए
पूजनीय हो
वंदनीय हो तुम।

तुम्हारी अॅंगुलियाॅं पकड़कर
मैंने चलना सीखा
और जब
कभी भी लड़खड़ाया
तुमको अपने साथ पाया।

तुम प्ररेणा स्रोत हो
जीवन में आगे बढ़ने का
इस मानव-मात्र के लिए
कुछ कर्म नेक करने का।

तुम माॅं रूप में
साक्षात देवी हो
तुम्हारी कृपा बगैर
लाखों मील की दूरी
असंभव है पूरी करना।

तुम सर्वगुणों से संपन्न हो
सबसे महान हो
बहुत ही दानी हो
प्यार-ममता की छाया में
पाला है माॅं तुमने मुझे।

मुझे और कुछ नहीं चाहिए
अगले जन्म में
तुम्हारा ही प्यार पाने की
तुम्हारी ही गोद में खेलने की
बस एक तमन्ना है
मेरी ये छोटी-सी।


  भूख  

गरीब का बच्चा बैठा है
जमीं पर बिछाकर
एक चटाई
वह भी फटी हुई
एक कोने से
और दूसरा
चूहे कुतर गए हैं कोना।

आखिर क्या करें ये बेचारे
चूहे ही तो हैं
खाने को जो कुछ नहीं मिलता।

क्या मालूम था इन चूहों को
दाने नसीब न होंगे
इस झोपड़ी में
दो-दो दिन बाद भी।

बच्चा भी भूख से
तड़प-तड़प कर
रो-रोकर
लेट गया है
वहीं उस चटाई पर
और चूहे भी भूखे हैं
पर बच्चे पर
दया आ गई है उनको।

चूहे काटेंगे नहीं चटाई अभी
बच्चा जो लेटा है उस पर
इंतजार कर रहे हैं वे बेचारे
उसके हटने का टकटकी लगाए।

चटाई से उठकर
माॅं से अपनी
खाना माॅंग रहा है बच्चा
और चटाई को भूख से
काट रहे हैं चूहे मिलकर।

दाना हो तब न पके खाना
सो नारियल के खोपरे से
पिला रही है पानी
बेबस माॅं
अपने कलेजे के टुकड़े को।

2/2
कब तक पिलाएगी पानी
क्या पानी से बच्चे की भूख मिटेगी
क्या चटाई से चूहे संताश करेंगे
नहीं-नहीं
यह असंभव है
नामुमकिन है
पानी तो छलावा है
संभव है और मुमकिन है तो
सिर्फ उनका मरना
हाॅं सिर्फ उनका मरना।


  ताड़ की आड़   

वो जो पासी है
मेरे घर के पास ही
उसकी पाॅंच ताडे़ं हैं।

रोज ताड़ी उतारने के बहाने
सुबह-शाम 
चढ़ जाता है ताड़ पर
और मेरे आॅंगन में
मुझे काम-काज करते हुए
सबसे आॅंखें बचाकर
रोज देखता है
आॅंखें फाड़-फाड़कर मुझे।

मैं जवां जो हूं
मेरी जवानी देख
नीयत खराब लगती है उसकी।

मजबूर हूं मैं
किससे शिकायत करुॅं
आखिर क्या कहॅूं
कहूं भी मैं कैसे
ताड़ के पत्तों से बनी
टाटी-रूपी दीवार की आड़ में
कौमार्य की अपने
रक्षा जो किए हुए हूं।

क्या करूॅंगी
कैसे रहॅूंगी इस घर में
जिसकी मिट्टी की दीवार
बारिश में ढ़ह गई है।

कोई भी घुस सकता है
टूटे हुए इस घर में
जमाना भी खराब है
और तड़बाना भी यहीं
पास ही तो है।


2/2
लोग डरते हैं उससे
पर
टाटी में
आॅंख दौड़ाते हैं
नहीं होता है जब वह पासी
घर के मेरे आसपास।

ये सारा इलाका उसी का है
कोई पत्ता भी नहीं हिल सकता
उसकी मर्जी के खिलाफ।

सहारा भी उसी का है
हाल-चाल पूछ लेता है
घर की जरूरतों को
अक्सर पूरा भी कर देता है।

पर बावजूद इसके
आवारा लगता है
पुलिस तक पहुॅंच है उसकी
पुलिस भी भूखी है पैसों की
और मैं स्त्री
कैसे करुॅं सामना
इन उठती-चुभती नजरों का।



  नदी के आस-पास    

एक नदी है
जो बहती जा रही है
जिसमें एक किश्‍ती है
बिन पतवार
बिन माॅंझी की।

नदी के आस-पास
दूर-दूर तक
छोटे-मोटे पत्थर हैं
जिनसे जलकुंभी
और अन्य घास-पात
जा चिपके हैं।

नदी पर
एक छोटी-सी पुलिया है
जिससे
एक रास्ता
पाॅंच घरों की
एक बस्ती की ओर जाता है।

पहला अग्नि-घर है
दूसरा पानी तो तीसरा
हवा है और
चैथा मिट्टी का घर है
तथा पाॅंचवे में आकाश है।

इन पाॅंच घरों के पीछे
पाॅंच पेड़ हैं
जिनमें से पहले पर
सफेद फूल खिलते हैं
दूसरे पर लाल
तीसरे पर नीले
और चैथे पर पीले।

पाॅंचवा बिन फूलों का पेड़ है
जिससे पत्ते गिरते ही रहते हैं
चाहे कोई-सा मौसम हो।

2/2
सफेद सत्य का प्रतीक है
और लाल खतरे का सूचक है
उॅंचाईयों और गहराईयों का रंग
नीला ही होता है।

चैथा फूल पीला
सुख-दुःख समेटे बैठा है
क्योंकि ऐसी ही जिन्दगी है
और पेड़ के टूटते पत्ते मानो
जिन्दगी की टूटती तार हैं।
 -राजेश कुमार मांझी 
 हिंदी अधिकारी 
 जामिया मिलिया इस्‍लामिया, दिल्‍ली 








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