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मुक्‍तिबोध की डायरी, पारिवारिक शायरी: नीतू तिवारी

'एक साहित्यिक की डायरी'

'एक साहित्यिक की डायरी' भी इसी तरह केवल एक लेखक की साहित्यिक डायरी नहीं, बल्कि समाज, राजनीति, सौंदर्यशास्त्र, इतिहास जैसे कई क्षेत्रों के पाठ अपने भीतर रेशों की तरह समोए हुए है। डायरी लेखन की विशेषता है कि वह निज अभिव्यक्ति और स्वयं से साक्षात्कार का स्पेस भरपूर बनाती है। अपने नज़दीक जिन बातों की एहमियत रचनाकार को महसूस होती है उन्हें पन्नों पर उतारने की निर्बाध स्वतन्त्रता यहाँ उसे मिलती है। लेखक/लेखिका के लेखन के कारण भिन्न-भिन्न हो सकते हैं, अनुभव और ज़रूरतें अलग हो सकती हैं। लेकिन प्रत्येक विधा की ही तरह इस लेखन-विधा के केंद्र में भी मनुष्य है। आखिर, "साहित्य मनुष्य के आंशिक साक्षात्कारों के बिम्बों की एक मालिका तैयार करता है।" यही उसका मूल गुण-धर्म है।





मध्ययुगीन बांग्ला कवि चंडीदास ने लिखा है - "सबार ओपरे मानुष सत्य, ताहार ओपरे नेई", कि मनुष्य सर्वोपरि होता है। मनुष्य से बड़ा या उस से ऊपर कोई नहीं है। मुक्तिबोध के बारे में विचार करते हुए उन्हें प्रसिद्ध कवि, आलोचक, विचारक, समाजशास्त्री, इतिहासकार - इन तमाम छवियों से मुक्त और सबसे पहले एक सार्थक सर्जक के रूप में पहचान पाती हूँ। सृजन का उद्देश्य आने वाले समय के लिए धरोहर को सहेजने का होता है। ऐसी धरोहरें जिनमें पिछली पीढ़ी के संचित प्रगतिशील अनुभव हों और जो भविष्य में मानव-जीवन को सार्थकता देने में सहायक हों।  


मनुष्य की सार्थकता उसके मानवीय दृष्टि से संपन्न होने में है। सर्जक की भूमिका इसीलिए समाज के प्रति जवाबदेह होती है, क्यूंकि वह समाज के प्रत्येक मानव को मनन करने के अवसर प्रदान करते हैं। लेकिन मुक्तिबोध कौन-से मानव को अपने सृजन का केंद्र मानते हैं या उनके साहित्य में मनुष्य की कौन-सी छवि हम देख पाते हैं - यह प्रश्न हमारी जिज्ञासा का विषय होना चाहिए। 'मनुष्य का व्यक्तित्व एक गहरा रहस्य है' - मुक्तिबोध के यही शब्द लगभग उनके सारे साहित्य में गूँजते हैं। तो वो कौन-सा रहस्य है जिसकी धमक उनकी कविताओं और गद्य में स्पष्टतः सुनी/देखी/पढ़ी जा सकती है। उन गांठों के बारे में मुक्तिबोध की विशेष चिंता रही है कि जिनके कारण एक व्यक्तित्व किसी भी दुसरे के लिए पहेली सा रूप ले सकता है। यह केवल एक का दुसरे के प्रति अचंभित होना नहीं बल्कि उस एक का अपने स्वयं के प्रति भी जिज्ञासा का स्वर है - "शाम, रंगीन शाम, मेरे भीतर समा गयी है, बस गयी है। वह एक जादुई रंगीन शक्ति है। मुझे उस सुकुमार ज्वाला-ग्राही जादुई शक्ति से-यानी मुझसे मुझे डर लगता है।" "व्यक्तित्व के न मालूम कितने ही पहलू हैं जो मुझसे छिपे हुए हैं, जैसे पंखुरी के भीतर पंखुरी अथवा प्याज़ की परतों के अंदर परतें। फिर व्यक्तित्व का जो रूप हमें आज दिखाई देता है, वह कहाँ तक स्थायी है हम नहीं कह सकते। तीसरे, सबसे बड़ी बात यह है कि व्यक्तित्व के निर्माण की कार्य-कारण-परम्परा का यदि अध्ययन करें तो आप देखेंगे कि व्यक्तित्व-निर्माण में चेतन-मन का रोल बहुत ही कम होता है और उससे कम रोल संकल्प-शक्ति का। दोनों के रोल निस्संदेह कम होते हैं लेकिन होते हैं बहुत-ही महत्वपूर्ण-इतने महत्वपूर्ण कि उन्हीं के कारण मनुष्य मनुष्य है।"



महान लेखक कभी भी वर्ग-भावना से अलग नहीं हुए हैं। वर्गों में बँटे हुए समाज को साहित्य में स्थान देने के लिए पहले उसकी सही पहचान और संगठित होने के ढंग व उन शर्तों को समझना ज़रूरी है जिनसे वह समाज बँधा है। मुक्तिबोध ने हमेशा से वर्ग को ध्यान में रखते हुए अपनी पक्षधरता और पॉलिटिक्स को निश्चित किया है - "हर ज़माने में गरीबों की मुश्किल रही है, हर ज़माने में एक श्रेणी का दिल नहीं खुला है-बहुत विशाल श्रेणी का, भारतीय जनता का, मेहनतकश का।" वे अपने साहित्य सृजन के उद्देश्य को सीधे-सीधे एक वाक्य में स्पष्ट करते हैं - उस श्रम का चित्रण करना चाहता हूँ, जिसका बदला कभी नहीं मिलता।"


इसका कार्य-कारण सम्बन्ध उन्होंने जीवन में रचे-पगे लोगों की अनुभव-जनित प्रमाणिकता को माना है। यहाँ अक्षर ज्ञान का तथ्यात्मक-सत्य नहीं, बल्कि आत्म-ज्ञान का एक-सा लगने-होने वाला यथार्थ है।जिसमें निरक्षर व्यक्ति भी किसी साक्षर और बुद्धिजीवी सरीखे ही अनुभव करते हैं और सबकी संवेदनात्मक ज़मीन एक जैसे अनुभवों में बंजर हो रही है - "तुम शहर के या क़स्बे के अध-पढ़ गरीब लोग हो।  तुम्हारी परिस्थितियों में जीवन का मानवीय यथार्थ रक्ताल है। तुम एक यन्त्रचक्र में पिस रहे हो।  वहां फँसी हुई हालत में तुम मानव-सम्बन्ध का साक्षात्कार करते हो। " अभाव और संत्रास में गुज़र करने वालों की दशा-दिशा केवल अँधेरे में किसी अन्य मनुष्य की उपस्थिति का भरोसा है, वही आशा है जो सभी मनुष्यों को आपस में जीवन-यात्रा का सहभागी बनाती है.


समाज में सबके साथ रहते-बसते-जीते हुए हम लगातार एक निश्चित दूरी पर सबसे अलग और एक तयशुदा फासले पर सबके नज़दीक होते हैं। इस दूरी और नज़दीकी के ज़रिये हम अपने कुछ मित्र, साथी और सम्बन्धी चुनते हैं। परिवार समाज की सबसे ज़रूरी और ज़हीन कड़ी है। जिसके भीतर रहते हुए ही बाहर की दुनिया के बारे में व्यक्ति को अपने जीवन का पहला पथ मिलता है। इसीलिए माना तो यह भी जाता है कि पारिवारिक पृष्ठभूमि से बहुतों के जीवन की दिशा निर्धारित होती है। फिर परिवार आज बदल कैसे रहे हैं? इस गुत्थी को सुलझाना ज़रूरी है कि ऐसा क्या हुआ है जिसने हमारे जीवन की पहली पाठशालों के दिशा-निर्देशकों के प्रति, परिवार के बुज़ुर्गों के प्रति आज की पीढ़ी का विश्वास घटाया है ! मुक्तिबोध मानते हैं कि - "पहले समाज और परिवार पर बुज़ुर्गों का वज़न था; आज नवयुवकों और बालकों का ज़ोर है। लेकिन सवाल यह है कि अगर समाज और परिवार पर बुज़ुर्गों का वज़न नहीं है, तो आज, मुख्यतः:, वे स्वयं दोषी एवं अपराधी हैं। स्वयं वे कहीं चूक गए इसलिए मात खा रहे हैं। मेरा अपना मानना है कि जिस भ्रष्टाचार,अवसरवादिता और अनाचार से आज हमारा समाज व्यथित है उसका सूत्रपात बुज़ुर्गों ने किया था।"


वर्ग-संघर्ष को समस्या के रूप में प्रस्तुत करने के अलावा इसमें शामिल जेंडर के सवाल को अलग से भी उनके लेखन में पढ़ा जा सकता है। वे परिवार को इकाइयों में बाँटकर सरलतम स्तर तक लाकर यह समझाने का प्रयास करते हैं कि दरअसल दोनों के सामान रूप से शोषित होने की स्थिति में भी स्त्री का शोषण एक दर्जा अधिक है, क्योंकि शोषित पुरुष भी उसका शोषण करता है - "परिवार में न केवल सामंती अवशेष हैं, वरन यहाँ भी बराबर तीन श्रेणियाँ दिखाई देती हैं। एक वह श्रेणी जो पैसा कमाकर लाती है, उसे सबसे अधिक आदर ही नहीं दिया जाता वरन उसकी मान्यता-विचार और रुचि-अरूचि और कार्य शीघ्र ही सबके लिए मानदंड के रूप में प्रस्तुत हो जाते हैं- चाहे वे कितने ही अवैज्ञानिकअनुचित और स्वार्थपूर्ण क्यों न हों। सबसे निचली श्रेणी उन लोगों की है जो चौके में सोते हैं। अगर कहीं स्त्री निरक्षर हुई या निर्धन परिवार से आई हुई रही, तो वह और उसकी जैसी स्थिति के व्यक्ति उस तीसरी श्रेणी में ही रहते हैं। दूसरी श्रेणी में बालक और कमाऊ व्यक्ति के वो रिश्तेदार हैं, जो उससे कम कमाते हैं।  

मानवतावाद की हरदम दुहाई देते हुए भी, घर में जितना अंहवाद और व्यक्तिवाद तथा वैचारिक दासता चलती है उसकी कोई हद नहीं। "स्त्री-पुरुष को समाज और परिवार किस तरह आर्थिक आधार पर अलग-अलग रखकर नापते-जोखते हैं। उनका अभिप्राय भी इसी ओर इंगित करने का है। उचित ही वे इसके समाधान के लिए सामाजिक-संबंधों के बदलने पर ज़ोर देते हैं। "समाज में बाहर पूँजी या सत्ता से विद्रोह की बात की गयी लेकिन घर में नहीं। वह शिष्टता और शील के बाहर की बात थी। मतलब यह कि अन्यायपूर्ण व्यवस्था को चुनौती घर में नहीं घर के बाहर दी गयी। घर का संघर्ष कठिन था। उसमें भावनाओं की टकराहट उन्ही से होनी थी जो अपने प्राण के अंश थे। इसलिए न केवल उस संघर्ष को टाल दिया गया वरन एक अजीब ढंग का समझौता किया गया।" "इसलिए पुराने सामंती अवशेष बड़े मज़े में हमारे परिवारों में पड़े हुए हैं!"
"धर्म- भावना गयी, लेकिन वैज्ञानिक बुद्धि नहीं आई।"



"ऐसा क्यों हुआ? ऐसा इसलिए हुआ कि हमने अपने साक्षात जीवन में, यानी परिवार और समाज में, बीतते हुए पुराने के प्रति और आते हुए नए के प्रति एक अवसरवादी दृष्टि अपनायी।"


मुक्तिबोध के साहित्यिक मनुष्य की छवि हमेशा से एक संघर्षशील मनुष्य की रही है। संघर्ष से उसे नई ऊर्जा प्राप्त होती है। प्राप्त इस ऊर्जा से वह नए सिरे से अपने कर्म को प्रवृत्त होता है। शोषण, वैमनस्य, धार्मिक कट्टरता के विरूद्ध आवाज़ बुलंद करता है। संभव है कि वह एक निरक्षर मनुष्य हो, आर्थिक रूप से बदहाल हो, जीवन संघर्ष के उतार-चढ़ावों के बीच अकेला हो पर निराश नहीं है, झुका नहीं है और वह मूर्ख भी नहीं है। स्वाभिमान जिसकी सबसे बड़ी पूँजी है। इस तरह के मानव का चित्र अपने शब्दों से उकेरते हुए मुक्तिबोध ने अपने आप से लगातार प्रश्न किये हैं- "कुल मिलाकर मैं अपने को बहुत ही मूर्खतापूर्ण स्थिति में पाता हूँ, क्यूंकि मैं भी विश्लेषक हूँ और (विशेष मानव-संबंधों के आधार पर ही) विश्लेषण करता हूँ। तब मैं अपने से पूछता हूँ कि क्या मानव-संबंध रहित होकर यानी अपने से ऊपर उठकर व्यक्तित्व-विश्लेषण संभव है? मात्र तर्क कहता है यह बिलकुल संभव है। मनुष्य अपने से परे जा सकता है। वह जाता भी है, गया भी है और जायेगा भी। विभिन्न प्रकार से प्राप्त अनेक तथ्यों का संग्रह कर वह अवश्य व्यक्तित्व-विश्लेषण कर सकता है और उसने किया भी है और वह करता भी जायेगा।  
            
किन्तु उसका विश्लेषण सही ही है, इसका क्या प्रमाण है? इसकी कौन-सी कसौटी है? क्या वह छाती पर हाथ रखकर कह सकता है कि उसका विश्लेषण एकदम सही ही है?”  किसी भी रचनाकार का स्वयं से प्रश्न करते रहना उसके प्रश्नाकुल स्वभाव का होना वास्तव में उसकी रचनात्मक ईमानदारी है और अपने लेखन के लिए निर्धारित कसौटियों के बीच मुक्तिबोध लिखते हैं कि अगर मुझसे पूछा जाये तो मैं कहूँगा कि मेरे पास ऐसी कसौटी का अभाव है।"


तत्काल में, अभी इसी समय में मनुष्य के पास जितने गहरे और त्रासद संकट उभर रहे हैं, शायद पहले कभी रहे हों। व्यक्तिगत-स्वतंत्रता आज एक भुलावा है और मानवीयता एक छद्म बनती जा रही है। ऐसे क्षणों में साहित्य को समाज से जोड़ने वाले संपर्क सूत्रों की तलाश होनी चाहिए "कथाकार यदि सचमुच जीवन का गहरा और व्यापक ज्ञान रखता है तो वह प्रसंग-स्थिति में बढ़कर मनुष्य की संवेदनात्मक प्रतिक्रियाओं को ही महत्त्व नहीं देगा वरन उस स्थिति से सम्बन्ध रखने वाले, जो वस्तु-सत्य है उनको बनानेवाले तत्वों पर अर्थात व्यक्ति-स्वभाव की विशेषताओं, वास्तविकता की पेचीदगियों और अबतक चलते आये इन सबके विकास-क्रम पर, इन सब पर, अवश्य ही ध्यान देकर, इस प्रसंग-स्थिति के वस्तु-सत्य के सारे ताने-बाने (कलात्मक प्रभावशाली रूप से भौंड़े ढंग से नहीं) प्रस्तुत करेगा। और इस प्रकार व्यक्ति-समस्या को मानव-समस्या बनाकर एक व्यापकतर पार्श्वभूमी में उसे उपस्थित करेगा! वैसा करना चाहिए। "


मुक्तिबोध का साहित्य दलित, पीड़ितउपेक्षितअवहेलितनिर्यातितनिष्पेक्षित मनुष्य के प्रति प्रतिबद्धतता का साहित्य है। उच्च-वर्ग को चेताता, मध्य-वर्ग को नींद से जगाता और निम्न-वर्ग की आपबीती सुनाता साहित्य है। उनके ऐसे ही साहित्य की एक कड़ी है 'एक साहित्यिक की डायरी' जिसमें से यहाँ उनके कुछ कथनों के आलोक में लेखक की पक्षधरता की पड़ताल का प्रयास है। एक-एक मनुष्य के सम्बद्ध रहने की कीमत पर जो समाज खड़ा है, उसमें मनुष्य बचेंगे तो ही वह समाज और देश बचेगा। "मानव-यथार्थ का ताना-बाना बहुत गहरा और सूक्ष्म होता है।" अतः उस दृष्टि को बचाए रखने के लिए पहले सबको जगह देनी ज़रूरी होगी - "जो कमज़ोरी सब मनुष्यों में हो सकती है वह कमज़ोरी नहीं, बल्कि मनुष्य की प्रकृति का गुण-धर्म है !"
विपात्र'


बड़े-बड़े दार्शनिक प्रश्रों को हल करने से पहले अपने भीतर के शोर को सुनना प्रत्येक मन का  उत्तरदायित्व है । जहाँ इसकी अनदेखी है वहीँ भीतर-बाहर के पाट में पिसते मन चकनाचूर दिखाई देते हैं. 'विपात्र' में ऐसे स्वर सबसे मज़बूत और बँधे हुए सुनाई देते हैं, एकसाथ: "एक बात साफ है कि हमें उस महफिल में मजा नहीं आता था जिसमें विविध प्रकार के भोजनीय पदार्थों से ले कर कैंसर और ल्‍यूकीमिया तक तथा भूतों से ले कर कम्‍युनिस्‍टों तक चर्चा होती। ये महफिलें जो शाम के पाँच बजे से ले कर रात के बारह-एक बजे तक चलती रहतीं, उस अभाव का परिणाम थीं जिसे अकेलापन कहते हैं। हम जो यहाँ बीस थे, वे चाहे परिवार में ही क्‍यों न रहें, अपने को अकेला, किसी शाखा से कटा हुआ और अधूरा महसूस करते थे। और अपने अकेलेपन की वेदना से भागने के लिए, वक्‍त काटने की एक तरकीब के तौर पर, सामूहिक भोजन, सामूहिक पार्टी, गपबाजी, महफिलबाजी का आसरा लिया करते। लोग भले ही उसका मजा लिया करें, मैं ऐसे बेढंगे, बेजोड़ और बेमेल सोसाइटी में रह कर बड़ी ही घुटन महसूस करता। यही हाल जगत का भी था। फर्क यही था कि मुझे इस तरह अकेलेपन से भागने और वक्‍त काटने की इच्‍छा नहीं रहती थी, न जगत को ही रहती थी, इसलिए हम लोग 'अनसोशल' कहलाते थे। क्‍लब की जिंदगी अगर सामाजिकता का लक्षण है तो मैं ऐसी सामाजिकता से बाज आया।" यहाँ जो "हम" है, वह किसी ख़ास एलीट वर्ग वाला या सुविधाभोगी व्यक्ति होगा क्या ऐसा सुनाई देता है? 'बौद्धिक जुगाली' या मिलते-जुलते प्रचलित शब्द ध्यान में लाएं तो लगेगा कि शायद यह उसी ग्रुप का कोई एक है। जो कोस रहा/रही है उस मनोवृत्ति को। लेकिन सवाल तो यह है कि ऐसी मौक़ापरस्ती और सोशेबाज़ी आज कहाँ नहीं है जो केवल बोलना चाहती है, न सुनने न समझने का धैर्य उस संस्कृति के पास शेष रह गया है। इसलिए यह व्यवहार घर से लेकर सामाजिक सम्मेलनों तक सभी से एक-सा विरक्ति-भाव उन मनों को देते हैं जो यहाँ "हम" के रूप में मुखरित है। यही 'अनसोशल' लोगों की पहचान है। मुक्तिबोध ने अपने लेखन द्वारा इस ओर लगातार और बार-बार ध्यान दिलाया है कि वास्तव में हम स्वयं को 'सोशल' कहलाये जाने के कितने बड़े इच्छुक है! जिसके लिए न केवल अपनी निजता, अपने आत्म-सम्मान, अपने विचारों का 'कोट' उतारकर चलते हैं बल्कि दूसरों के लिहाफ में जल्दी ही फिट भी हो जाना चाहते हैं।  

अब विचार करने योग्य बात है कि ऐसा क्या है 'सोशल'  होने में जो सबके 'बीच' बने रहने के लिए व्यक्ति स्वयं से कटकर भी समाज में इस प्रकार प्रस्तुत हो जिस से समाज का ध्यान उस पर बराबर बना रहे। प्रशंसनीय हो, वन्दनीय हो या "अधिक से अधिक वह तिरस्‍करणीय और कम से कम वह दयनीय है - उपेक्षणीय भले ही न हो।"



जिस एकाकीपन और समूह से कट चुके मनुष्य की बात को अज्ञेय के साहित्य के रूप में प्रस्थान-बिंदु मान लिया गया उस दिशा में जाने की परिस्थितियाँ कहाँ से ऊपजी थी इसे मुक्तिबोध के साहित्य में पढ़ा जा सकता है। 'विपात्र' में एक पात्र की कथा को उन्होंने ऐसा बुना है जो विसंगत परिस्थितियों में फँसा खड़ा है- "उसके सामने अमेरिका जाने की थाली भी परसी गई थी... वह वहाँ जाने और बस जाने की इच्‍छा करता था; किंतु उस इच्‍छा की पूर्ति के पूर्व घर के झमेलों से निपटने की कला उसके पास नहीं थी। असल में वह बच्‍चा था, जिंदगी का उसके पास तजुर्बा नहीं था। दुर्भाग्‍य की बात यह थी कि रूढ़िवादी घराने में विवाहित होने के झमेलों की एक लंबी दास्‍तान ने उसकी जिंदगी का रस निचोड़ लिया था। इस प्रकार अपनी नौजवानी में ही उसके चेहरे पर असफलता की राख और विरक्ति की धूल का लेप लगा हुआ था। किंतु इसके विपरीत वह मानसिक लीला में डूबा रहता... सैन्‍फ्रान्सिसको के किसी कॉलेज में वॉल्‍ट ह्रविटमैन पर भाषण दे रहा है। सारे हाल में श्रोताओं के झुंड-ही-झुंड दिखाई देते हैं। उनमें एक संवेदनशील, स्‍वप्‍नशील लड़की भी जो किसी दूसरी या तीसरी बेंच पर बैठी है, वह उसकी ओर खिंच रही है। भाषण समाप्‍त। परिचय। वैचारिक आदान-प्रदान, फिर 'ब्‍लू मेन' रेस्‍तराँ। दोनों एक-दूसरे की सूरत देखना चाहते हैं। आँखे चुरा कर वह वहाँ भारत के संबंध में पूछती है। वह झेंपते हुए, और बाद में खुल कर, अपना ज्ञान पहले प्रदर्शित और फिर समर्पित करता है। दोनों का प्रेम हो जाता है। वे विवाहित होते हैं। दोनों अध्‍यापक हैं अथवा इनमें से कोई एक पत्रकार है। वे सरल, स्‍वच्‍छंद, उत्‍साहपूर्ण जीवन व्‍यतीत करते हैं। फिर वह अपनी स्‍त्री को भारत लाता है। उसका नाम रख लीजिए - इरीना। इरीना और वह दोनों ताजी-ताजी हवा खाते हुए मद्रास जाते हैं। वहाँ से ट्रेन पकड़ कर वे कोडाईकानाल पहुँच जाते हैं। अहाता, दरवाजा, घर कमरा, साँवला सूनापना! दो आकृतियाँ। माता-पिता। दोनों आगंतुक आँसू बरसाते हुए उनके पैर छूते हैं... स्‍वप्‍न टूट जाता है और जगत के मन में अचानक सवाल पैदा होता है कि इरीना उसके माता-पिता के पैर छुएगी कि नहीं!" जब मन में यह द्वन्द जन्म ले-ले कि खुद को किसी एक तरफ पाना है पर किस ओर? तो संसार को अकारथ भाव से देखने की मनः स्थिति अपने आप हावी हो सकती है।  

वर्ग-संघर्ष, जातिगत भेदभाव के मुद्दे या अन्य सामाजिक विषय जिन पर सोचने-बहस करने की आवश्यकता थी। उनके साथ-साथ घर के अंदर होने वाले भेद-भाव और असामान्य व्यवहार पर गजानन माधव मुक्तिबोध का लेखन पाठकों के अन्तः करण में अपना स्थान सादगी से थोड़ा अलग ही बना लेता है। जिसका श्रेय लेखक की कला यानी उसके लेखन-कौशल को ही जाना चाहिए। इसमें मुक्तिबोध द्वारा बड़ी बारीकी से परिवार के स्त्री-पुरुषों दोनों ही के मानसिक-शारीरिक व्यवहार के विश्लेषण को जगह मिली है-  "नौकरानियों के रूप में वे उनके घर में रहतीं। मजा यह है कि (जैसे कि मुझे कई लोगों ने बताया) वे नौकरानियाँ, जो उनके यहाँ पहुँच जातीं, इस बात का अभिमान रखती थीं कि वे बड़ों के 'घर' में हैं।" यहाँ सुरक्षा के जिस भाव का आभास उन कामगार महिलाओं को था, जो उन्हें तमाम सामाजिक बंधनों से भी ऊपर प्रतीत होता है। वही 'फील' आज आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर होकर बड़ी सँख्या में स्त्रियों ने अर्जित कर ली है और  साथ ही अर्जन हुआ है उन आक्षेपों का भी जिन्हे झेलने-सहने को अभी भी दूर-दराज़ इलाकों की बेटियाँ अभिशप्त हैं। स्त्री का शिक्षित होना, आत्मनिर्भर होना परिवारों में कभी उतनी बड़ी समस्या बनकर नहीं उभरे और न ही बच्चों को ऐसे पोषण दिए जाने पर बल मिला जिस से वे अधिक संयमित,संवेदनशील और न्यायप्रिय हों। परिवारों में भी आर्थिक स्तरों पर होने वाला दोहन बराबर होता रहा जिसकी आड़ में महिलाओं ने 'सुरक्षा' (किस से ?) और बच्चों ने 'शिक्षा' (कैसी?)  पाकर संतोष किया।  समानता के लिए प्रतिबद्ध मार्क्सवादी आलोचना को भारतीय सन्दर्भों में मुक्तिबोध ने जेंडर के सवाल से जोड़ा है। समाज में नज़र आने वाले भिन्न व्यवहार की कड़ियाँ दरअसल कैसे परिवार से निकल कर ही समाज में फैलती हैं इन्हे मुक्तिबोध ने समझा,लिखा और फिर अपनी रचनाओं के द्वारा प्रस्तुत किया है।

"मुझे देवकीनंदन खत्री के उस तिलिस्‍म की याद आई, जिसमें से बाहर निकलना असंभव था, लेकिन जिसके भीतर के प्रांगणों में बगीचे भी थे, तहखाने भी थे और जिसमें कई नवयुवतियाँ और किशोरियाँ गिरफ्तार रहती थीं। वे घूम-फिर सकती थीं, तिलिस्‍मी पेड़ों के फल खा सकती थीं, लेकिन अपनी हद के बाहर नहीं निकल सकती थीं। ये हदें वो दीवारें थीं जो पहले से ही बनी हुई थीं और जिनको तोड़ पाना लगभग असंभव था अथवा जिन्‍हें तोड़ने के लिए अपरिसीम साहस, कष्‍ट सहन करने की अपार शक्ति और धैर्य तथा वीरता के अतिरिक्‍त, विशेष कार्यकौशल और गहरे चातुर्य की जरूरत थी। मेरी आँखों में उस गहरे अँधेरे तिलिस्‍म के तहखानों और कोठरियों के बाहर के मैदानों में घूमती हुई लाल-पीली और नीली साड़ियाँ अभी भी दीख रही हैं। उनके मुरझाए, गोरे कपोल और ढीली बँधी वेणियों की लहराती लटें अभी भी दिख रही हैं और मन-ही-मन मैं कल्‍पना कर रहा हूँ कि क्‍या यहाँ फँसे हुए बहुत-से लोगों की आत्‍माएँ इसी प्रकार की तो नहीं हो गई हैं।... लेकिन, प्रश्‍न तो यह है कि इस तिलिस्‍म को कैसे तोड़ा जाए!"  समानता की अवधारणा के प्रति अपनी प्रतिबद्धता  के साथ जन्मे मार्क्सवादी आंदोलन की वैचारिकी को मुक्तिबोध ने समाज की सबसे मज़बूत ईकाई के साथ जोड़ा था। परिवारों में होने वाले भेद-भाव,दुव्यवहार और उनसे उपजने वाली पीड़ा का अनुभव ही मुक्तिबोध को देवकीनन्दन खत्री की रचनाओं से लगने वाले लेकिन आज सामजिक स्थितियों के रूप में पसरे हुए 'तिलिस्म' को तोड़कर मानवमुक्ति का हल खोजना चाहती हैं। विशेषतः स्त्री-मुक्ति के प्रश्न को उन्होंने ऐसे स्थानों पर जोड़ा है जहाँ वे अपने ही परिवारों में हाशिए पर पड़ी नज़र आती हैं।


सीधे तौर पर अगर घर में महिलाएँ और बच्चे कमाऊ व्यक्ति के तले व्यवहार करते थे तो इसका एक दूसरा पक्ष उस कमाऊ व्यक्ति के जीवन की दुर्दशा का भी है।  बहुतेरे अवसरों पर पुरुष केवल मानव-मात्र न होकर परिवार के तारणहार और पोषणकर्ता के रूप में प्रस्तुत होते हैं। पीढ़ियों के संचित मानसिक पोषण के बाद यह एक 'सोशल कन्स्ट्रक्ट' के रूप में बलपूर्वक जम चुकी अवधारणा नज़र आती है। जिससे पुरुष भी पूरी तरह स्वतंत्र तो शायद नहीं है- 1.) "'तुम जवान हो, तुम्‍हें तो जिंदगी में जरूर साहस करना चाहिए। और नई तलाश में जाना चाहिए। लेकिन... मैं? मैं कहाँ जाऊँगा। मेरे सात बच्‍चे हैं और माता-पिता की भी जिम्‍मेदारियाँ हैं। रोग, कर्ज और तरह-तरह की उलझने मुझ पर हैं।' 2.) "पेट पालना बहुत मुश्किल है। मेरे घर में सारे दुर्भाग्‍य मौजूद हैं - लंबे-लंबे रोग, भारी कर्ज, कलह और मानसिक अशांति, ये बीसियों साल से घर किए बैठे हैं, उन्‍होंने मुझे ही चुना है। बाल-बच्‍चों को सड़क पर फेंक कर, भले ही मैं कुछ कर जाऊँ। लेकिन मैं इतना कठोर नहीं हो पाता, कोई भी नहीं हो सकता!..." पारिवारिक दायित्वों को निभाते हुए स्त्री-पुरुष निरंतर जिस तनी हुई डोर पर चलते हैं, 'सोशल कंट्रक्शन' द्वारा निर्मित बुद्धि कई बार उसे और तनाव देती है। जिससे वे एक-दुसरे से खींचते ही जाते हैं क्यूँकि दोनों ही अपने-अपने दायित्वों का निर्वहन करते हैं और पीचीय हैट जाते हैं। अपने मन की साझेदारी 'दायित्व' निर्वहन के नाम पर हमेशा छोटी रह जाती है।  


परिवारों में घटती आपसी साझेदारियां, बढ़ते मन-मुटाव और फलतः: संयुक्त परिवारों का एकल और आज तो एक दंपत्ति का भी दो भागों में बँट जाना हमारे आगे प्रत्यक्ष है। मुझे लगता है निश्चित रूप से मुक्तिबोध ने अपने समय में ही परिवारों के भीतर से सुगबुगा रहे ऐसे त्रासद संकटों को पहचाना और उनके बारे में भरपूर लिखा भी था। 'विपात्र' में उन्होंने लिखा है- "मुझे बिजनेस नहीं दीखता था, वरन मानव-समुदाय दीखते थे जो विशेष-विशेष स्‍वार्थों और हितों की दिशा में कार्यशील थे। मुझे मानव-समुदायों के खास व्‍यक्ति और उनके व्‍यक्तित्‍व, उनके परस्‍पर संबंध और उनकी जीवन-प्रणाली दीखती थी।"  स्पष्टतः  मुक्तिबोध जब मानव-समुदाय, उनके परस्पर संबंधों और जीवन-प्रणाली की बात करते हैं तो उनके लेखन को केवल साहित्यिक, राजनीतिक,सामाजिक ही नहीं बल्कि पारिवारिक सन्दर्भों से भी जोड़कर पढ़ा जाना चाहिए। भारतीय पृष्ठभूमि में परिवारों की सरंचना, घरेलु दासता, संबंधों और दायित्वों के दो-पाटों में पिसती अभिव्यक्तियों को तर्कसंगत और बड़े ही 'रैशनल' रूप में मुक्तिबोध की रचनाओं के द्वारा साहित्य में जगह मिली है।

-नीतू तिवारी

संपर्क - neeroop@hotmail.com
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1 comment :

  1. सार्थक,सारगर्भित,सराहनीय

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