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सास्कृतिक चेतना के विकास में संगीत का योगदान: डाॅ॰ शालिनी वर्मा

संस्कृति जीवन के सर्वोच्च संस्कार विचार और चिन्तन का समग्र स्वरूप है।1 मनुष्य अपनी बुद्धि का प्रयोग कर विचार और कर्म के क्षेत्र में जो सृजन करता है उसे संस्कृति कहते हैं। ‘‘किसी समाज और राष्ट्र की श्रेष्ठतम् उपलब्धियां ही संस्कृति है। जिससे समान राष्ट्र की शारीरिक, मानसिक व आध्यात्मिक शक्तियों का विकास, संस्कृति का मुख्य उद्देश्य है। वस्तुतः मानव के जातिय संस्कारों को ही संस्कृति कहा जाता है।’’2 हमारी पुरानी संस्कृति को जीवित रखने व इसकों पुष्पित, पल्लिवित करने में संगीत अहम् भूमिका निभाता है। संस्कृति का कला से अटूट सम्बन्ध है। मानव हृदय में जो भी भावनाएं उत्पन्न होती है, उनका उद्गार प्रस्तुत करना ही संस्कृति है और ये उद्गार जितने उत्कृष्ट ढंग से प्रस्तुतकिए जाएंगे उतना ही उच्च स्तर संस्कृति का माना जाएगा।



आज के युग में मानव प्राचीन भारतीय संस्कृति से विमुख होता जा रहा है। पुरानी भारतीय संस्कृति को जीवित रखने में संगीत का बहुत बड़ा योगदान है। हमारे लोक गीत, नृत्य, गायन वादन इत्यादि में प्राचीन संस्कृति के दर्शन होते है। क्योंकि भारतीय संगीत मूलतः प्राचीन धरोहर है। जिसको कलाकार, सुरक्षित रखते है।

तीज त्यौहारों में प्रयुक्त संगीत के माध्यम से सांस्कृतिक चेतना का विकास-
‘‘प्रत्येक धर्म, समाज, सम्प्रदाय व संस्कृति में जन्म से मृत्यु तक मनुष्य रीति-रिवाजों और तीज त्यौहारों के मध्य अपने मनोभावों को संगीत के माध्यम से व्यक्त करता चला आ रहा है।’’3 सावन में गाये जाने वाले गीत, रक्षा बन्धन के गीत, झूला गीत, दशहरा पर्व, दीपावली पर्व, होली गीत आदि में हमारी प्राचीन संस्कृति दृष्टिगोचर होती है।


सावन के गीत-सावन के महीने में तीज त्यौहारों का आरम्भ माना गया है। इन तीज त्योहारों से जुड़ी लोक लोक कथाऐं कहानियां एवं लोकगीत, साहित्य तथा संगीत में प्रसिद्ध है। सावन के मौसम में नन्हीं-नन्हीं वर्षा की बूंद, ठंडी हवा, दादूर, मोर, पपीहा, कोयल के मधुर स्वर इत्यादि का वर्णन सावन के गीतों में मिलता है। जैसे-

झूला गीत-
झूलन चालो री सखी री बागा में सावन आया
नन्ही नन्ही बूंदन मेघा बरसे
कोयल कर रही शोर, बसूखा आंगन में
तीजो का त्यौहार-सावन के महीने में मनाये जाने वाले इस त्यौहार में सहागिन महिलाएं पति की दीर्घायु की कामना के साथ व्रत रखती है। इस दिन महिलाएं प्रातः की शुभ बेला में स्नान आदि कर निराहार निर्जल व्रत रखती है और सायं गोधूली बेला के समय झूला झूलते हुए गाती हैं।
‘‘हर झूले सों मेहंदी हषिन ते लगाए
माँ पुजियां, सुहाग साँ,
हर झूले साँ, मेहंदी हविन ते लगाए
अर्थात् हर सावन में हाथों पर मेहंदी सजा, मैं हर झूले में सुहाग के संग पूजा करूं।
जोगी पेहिंजे जो सा, भोगी पेहिंजे मांगसा
रणि पेहिंजे राज सा माँ पेहिंजे सुहाग जा
हे तीज माँ नित-नित मुझे, झूले में झुलाए
इन सब गीतों के माध्यम से हमारी प्राचीन संस्कृति जीवित रहती है। दरअसल सावन महीने में आने वाली परम्पराओं, तीज त्यौहारों को मनाने के पीछे मान्यता यह है कि सावन के माह में आने वाले व्रतों को रखने वाली महिलाओं में, समस्त समस्याओं से बहादुरी के साथ जूझते हुए सफलता हासिल करने की शक्ति जाग्रत होती है।4
होली गीत-
फाल्गुन मास में होली के पर्व पर होली गीत गाने का प्रचलन है। होली से एक दिन पूर्व होलिका जलाई जाती है। ‘‘इस अवसर पर सभी महिलाएं जलती धूनी में कच्चे बेर अथवा ज्वार के दाने अर्पित करते हुए यह गीत गाती हैं-
होलिका माता
कजाँई कुल जो खैर
टिन वर्णन जो खैर
हिन्दू मुस्लिमाननि जो खैर
देस परदेस रक्षा कजाँई
सभनिनि खे बधाईजा वीझाइजां।
अर्थात् होलिका माता! तीनों वर्णो का भली करना, हिन्दु-मुसलमानों का भला करना, देस-परदेस में रहने वाले सभी की रक्षा करना, सभी को सुख-समृद्धि प्रदान करना।5 इस प्रकार इस गीत में साम्प्रादायिक एकता की भावना निहित है। इस तरह के गीतों के माध्यम से समाज में व्याप्त भेदभाव दूर होते है। होलिका खेलने का प्रचलन है। राधा-कृष्ण पर रचित अनेक पद गाये जाते है। जैसे-‘‘होरी कुँज भवन में खेलत नंद कुमार री’’ इस तरह अबीर, गुलाल, रंग, पिचकारी जैसे शब्दों से युक्त होली गान किया जाता है। इन गीतों द्वारा नयी पीढ़ी को भी हमारी संस्कृति के बारे में ज्ञान मिलता है।



संगीत में प्रयुक्त अनेक गायन शैलियां जैसे-भजन, गजल, कव्वाली, ठुमरी आदि के द्वारा भी प्राचीन भारतीय संस्कृति का विकास होता है। भजन-भक्ति काल में अनेक कवियों सूरदास, कबीर, मीरा, तुलसी आदि के पदों में हमारी प्राचीन संस्कृति के पूर्णतः दर्शन होते हैं। कबीरके दोहे हमें सत्मार्ग पर चलना सिखाते है तथा समाज में व्याप्त कुरीतियों की ओर सीधे संकेत करते है। जब इन्हंे गाया जाता है तो मानव हृदय पर प्रत्यक्ष आघात करते हैं। 
कांकर पाथर जोड़ कर, मस्जिद लई बनाये
ता चढि मुल्ला बागदे, क्या बहरा हुआ खुदाया।
इस प्रकार भक्ति काल में कृष्णा भक्ति धारा में अनेक भक्तों का उल्लेख मिलता है। जिन्होंने संगीत के माध्यम से ईश्वर भक्ति की ओर अपने-अपने मार्ग अथवा सम्प्रदाय की दीप शिखा को प्रज्जवलनशील बनाए रखा।
हवेली संगीत परम्परा-
‘‘वल्लभाचार्य जी के सम्प्रदाय की सांगीतिक परम्पराएं ‘हवेली संगीत परम्परा’ के अन्तर्गत आती है। गुजरात में मंदिर को ‘हवेली’ कहा जाता है। इसी कारण इसे ‘हवेली संगीत’ कहना उचित प्रतीत होता है। इष्टदेव श्री कृष्ण के बाल रूप की पूजा का प्रावधान इस मार्ग में था। इनकी पूजा अर्चना में संगीत खाद्य सामग्री व वस्त्र-आभूषण को सम्मिलित किया गया है। इसमें प्रथम ‘राग’ अर्थात संगीत को अत्याधिक महत्ता प्रदान की गई। इस परम्परा में आराध्य देव को राग द्वारा ही जगाने, श्रृगांर करने, गो चराने व सुलाने आदि की प्रथा है। इनकी परम्परा में कीर्तन के दैनिक कृत्यों को ‘दैनिक क्रम’ कहा जाता है। जिसमें प्रातःकाल से सायंकाल तक की गान विद्या संकलित है तथा सम्पूर्ण वर्ष के उत्सवों को ‘वार्षिक क्रम’ के अन्तर्गत रखा गया है।
वार्षिक क्रम में वर्ष भर के उत्सवों को मनाने का प्रावधान निहित है। इन उत्सवों पर पखावज व झांझ का वादन अनिवार्य रूप से किया जाता है। पुष्टिभार्गीय परम्परा में प्रयुक्त अनेक तत् वाद्य-वीणा, तम्बूरा, स्वर मण्डल, सारंगी, रबाब, सुषीर वाद्यों में-बांसुरी, मुरली, अलगोना शहनाई, शेख, अवनद्य वाद्यों में-मृदंग, मुरंज, दुदुंभि, मेरी, ढोली, खेंजरी, ढफ आदि का वर्णन मिलता है।


इस प्रकार कृष्ण भक्ति धारा में अनेक ऐसे अनुष्ठान है जिनकी पूर्ति संगीत के अभाव में असम्भव है व इनके भजन-कीर्तन की परम्परा के कारण अर्थात् संगीत के आधार पर ही यह परम्पराएं आज तक प्रचार में है।6

सूफी परम्परा में संगीत का योगदान-
सूफी संत सादा जीवन व्यतीत करते थे व विभिन्न धर्मों में भाईचारे की भावना का प्रस्फुटन करना उनका उद्देश्य था। सूफी सन्तों ने परमात्मा को नायक व जीवात्मा को नायिका माना है ‘‘अमीर खुसरों का रचना ‘छाप तिलक सब छीनी रे मोसे नैना मिलाय के’ इसका उत्कृष्ट उदाहरण है। यू सूफी सन्त ‘हरि को भजे सो हरि का होई।’ का भी अनुपालन जात-पात के भेदभाव बिना करते थे।’’7
सूफी परम्परा मूलरूप से प्रेम भावना पर आधारित थी। श्रृंगार रस को प्रेम का मुख्य आधार व संगीत को श्रृंगार रस का मुख्य आधार मानकर इन संतों ने संगीत को अपने लक्ष्य प्राप्ति का सशक्त माध्यम माना। इन संतों ने अरबी-फारसी का मिश्रण करके अनेक गायन शैलियों की रचना व प्रचार-प्रसार किया।
किसी देश की संस्कृति से उस देश की स्थिति व सामाजिक वातावरण का पता चलता है। हमारे देश की संस्कृति बहुत समृद्ध व सुसस्कारित है परन्तु पिछले कुछ समय में विदेशों के अंधानुकरण के कारण इसकी अनदेखी की जा रही है। सांस्कृतिक रूप से चेताये जाने में संगीत एक सशस्त्र भूमिका निभाता है। समाज को सशक्त करने में महिलाओं की बराबर की साझेदारी होती है।
‘‘अत पचास वर्षाें में महिला कलाकारों की संख्या में वृद्धि उल्लेखनीय है। एक समय था जब महिलाओं का मंच पर आना अपमानजनक समझा जाता था। आज अभिाभावक चाहते है कि उनकी लड़कियां मंच पर प्रदर्शन करे। अभिभावक सांगीतिक प्रतिभाओं के विकास में सक्रिय योगदान भी देते है।’’8
संगीत का प्रभाव सर्वाधिक मनुष्य के मस्तिष्क पर पड़ता है। इस प्रकार महिलाओं का समाज में स्तर उठाना हो, बालकों का संस्कारित करना हो, समाज में व्याप्त कुप्रथाओं का अंत करना हो तथा प्राचीन अच्छे विचारों को जनता तक पहुंचाना हो सभी को यदि मीडिया पर सस्वर प्रस्तुत किया जाये तो उसको शिक्षित क्या अशिक्षित व्यक्ति भी आसानी से समझ जायेगा। इस प्रकार सांस्कृतिक चेतना के विकास में संगीत का बहुत बडा योगदान है।

सन्दर्भ ग्रन्थ सूचीः-
1. रतनलाल मिश्र-‘‘भारतीय संस्कृति मुख्य पृष्ठ
2. भारतीय संगीत: शिक्षा और उद्देश्य-डा. पूनम दत्त
3. संगीत सितम्बर 2006 पृ.-30
4. संगीत, सित. 2006 पृ.32
5. संगीत सित. 2006 पृ.34
6. भारतीय संगीत: शिक्षा का उद्देश्य डा. पूनम दत्ता पृ. 145, 146
7. भारतीय संगीत: शिक्षा का उद्देश्य पूनम दत्ता पृ. 148
8. संगीत 2005 पृ. 30

-डाॅ॰ शालिनी वर्मा
असिस्टेन्ट प्रोफेसर, संगीत गायन
राजकीय स्ना॰ महाविद्यालय, नोएडा।
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