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हिन्दी उपन्यास के विकास के क्रम में मित्रो मरजानी और विराज बहू की समीक्षा



आधुनिक काल में विकसित गद्य विधाओं में उपन्यास का महत्वपूर्ण स्थान है। हिन्दी उपन्यास के विकास का श्रेय अंग्रेजी एवं बांग्ला उपन्यासों को दिया जाता है क्योंकि हिन्दी में इस विद्या का आरम्भ अंग्रेजी व बांग्ला उपन्यासों की लोकप्रियता से हुआ। स्वयं आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी ने सरस्वतीमें प्रकाशित निबन्ध उपन्यास रहस्यमें इस बात को स्वीकार किया है। वहीं इसको रामस्वरूप चतुर्वेदी ने हिन्दी साहित्य और संवेदना का विकासमें विदेशी प्रभाव से जनित बताया है- ‘‘हिन्दी में उपन्यास का आगम स्वयं विदेशी प्रभाव के रूप में देखा गया। घड़ी, फाउण्टेन पेन, कैमरा जैसी उस युग की स्थूल, उपकरणात्मक विलायतीवस्तुओं की तरह ही, जहाँ एक ओर उसका आकर्षण और लोकप्रियता थी, वहीं कुछ क्षेत्रों में तीव्र विरोध भी था।’’

अब प्रश्न उठता है कि यह तीव्र विरोध किस कारण और क्यों था? इसके लिए हिन्दी साहित्य में उपन्यास के विकास को देखना पड़ेगा। उपन्यास विधा के आरम्भ होने तथा उसकी ग्राहता को लेकर हिन्दी साहित्य जगत में जो विवाद चले, उनमें विवाद का एक रूप देवकी नन्दन खत्री के तिलिस्मी-ऐयारी परक उपन्यासों को लेकर था, दूसरे स्तर पर उपन्यास की उपयोगिता को लेकर था। इसे अगर इन शब्दों में कहें तो आरम्भिक उपन्यास तिलिस्मी ऐयारी और जासूसी प्रधान थे। इन्होंने अपनी रोचकता के द्वारा एक मध्यमवर्गीय पाठक वर्ग तैयार किया, बहुतों को हिन्दी सीखाने का श्रेय इन उपन्यासों को दिया जाता है। यद्यपि इन्हें हिन्दी उपन्यास के आरम्भ का श्रेय नहीं दिया जाता है।

यह श्रेय आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने लाला श्री निवास दास के उपन्यास परीक्षा गुरूको दिया है। जिसका प्रकाशन 1882 ईस्वी में हुआ तथा जिसे उन्होंने प्रथम मौलिक रचना माना है। लेकिन इसके ऊपर भी विवाद रहा। हिन्दी उपन्यास कोषके संपादक गोपाल राय का मानना है कि यह स्थान पंडित गौरीदत्त द्वारा लिखित देवरानी-जिठानी की कहानीको मिलना चाहिए जिसका प्रकाशन 1870 में हुआ।




जबकि कतिपय विद्वान आलोचकों की राय में यह स्थान श्रृद्धाराम फल्लौरी कृत भाग्यवतीको मिलना चाहिए। यदि कालक्रम की दृष्टि से विचार करें तो भाग्यवती1877 ई0 में प्रकाशित हिन्दी का पहला उपन्यास ठहरता है लेकिन इसमें औपन्यासिक तत्व, पूर्णतः विद्यमान नहीं है। डा0 गुलाब राय ने उपन्यास के तत्वों में कथावस्तु, पात्र, कथोपकथन, देशकाल, उद्देश्य शैली, भावको माना है। जबकि परीक्षागुरू’ (1882) में औपन्यासिक तत्व हैं। अतः इसे हिन्दी का प्रथम मौलिक उपन्यास माना जा सकता है। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने भी इसे प्रथम मौलिक उपन्यास माना है।

हिन्दी उपन्यास से ही उपन्यास की नई धारा विकसित हुई जिसे लघु उपन्यास नाम दिया गया। लघु उपन्यास के विषय में इसकी आधारगत संरचना को देखकर इसे लम्बी कहानी से जोड़ा जाता है। लेकिन लघु उपन्यास, उपन्यास और कहानी से नितान्त भिन्न है। यह भिन्नता न केवल उसके आकार में है। अपितु वह उसके प्रकार में भी है। उपन्यास या लम्बी कहानी तथा लघु उपन्यास में कथानक, पात्र और कथ्य की दृष्टि से स्थूल रूप में कोई भेद नहीं किया जा सकता और न ही इनके बीच कोई स्पष्ट रेखा खींची जा सकती। परन्तु लघु उपन्यास जो संवेदनशीलता, सांकेतिकता एवं गठन में अपना निजी और स्वतंत्र रूप लेकर चलता है। वह उसे उपन्यास और लम्बी कहानी से भिन्न रूप प्रदान करता है। इसे यों कहें तो ज्यादा उपयुक्त होगा एक ही धारा को लेकर चलने वाली साहित्य की यह दो शाखाएं लघु उपन्यास और उपन्यास हैं जिनमें वही अन्तर और साम्य है जो खण्डकाव्य और महाकाव्य में होता है।

हिन्दी साहित्य में लघु उपन्यास के विकास में अनेक कारण व परिस्थितियां रही हैं। प्रेमचन्द के आगमन से हिन्दी उपन्यास साहित्य में क्रान्तिकारी परिवर्तन हुआ। तत्व और शिल्प की दृष्टि से पहली बार हिन्दी उपन्यास इतने विकसित रूप में दिखाई दिये। इसी युग में आकर उपन्यास में यथार्थ की प्रतिछवि नजर आयी। अब उपन्यास का विषय परियों की कहानी तक सीमित न होकर, मानव जीवन और समाज से जुड़ा। इसी युग में आकर माक्र्स के द्वान्द्वात्मक भौतिकवाद, फ्रायड के मनोविश्लेषणवाद ने व्यक्ति और समाज को समझने की नयी दृष्टि दी। जिसने उपन्यास विधा से लघु उपन्यास विधा को जन्म दिया-‘‘इस युग की यह नव संचेतना मनोविश्लेषण का आधार लेकर चली। इसी के परिणामस्वरूप उपन्यास साहित्य में नवीन भाव बोध का जन्म हुआ, जिससे सम्पूर्ण उपन्यास को नई व मौलिक दिशाएं मिली। यह सारी स्थितियाँ और वातावरण लघु उपन्यास विधा के लिए हिन्दी उपन्यास के विकास के क्रम में मित्रो मरजानी और विराज बहू की समीक्षा अत्यन्त उद्बोधक सिद्ध हुआ और इस प्रकार लघु उपन्यास, उपन्यास से ही विकसित पर उससे भिन्न एक मौलिक विधा के रूप में प्रतिष्ठित हुआ।’’




हिन्दी में उपन्यास की दृष्टि से लिखे गये उपन्यासों में लक्ष्मीनारायण लाल का बया का घोंसला और सांप’, पाण्डे बेचन शर्मा उग्रका चन्द हसीनों के खतूत’, धर्मवीर भारती का सूरज का सातवाँ घोड़ा’, जैनेन्द्र का त्यागपत्र’, ‘परख’, ‘सुनीता’, हरिशंकर परसाई का रानी नागफनी की कहानी’, गंगाप्रसाद विमल का मरीचिका’, कृष्णा सोबती के डार से बिुछुड़ी’, मित्रो मरजानी’, ‘सूरजमुखी अन्धेरे के’, नरेन्द्र कोहली का आसंक’, अशोक अग्रवाल का वायदा माफ गवाह उल्लेखनीय है।

कृष्णा सोबती के लघु उपन्यास मित्रों मरजानीकी बात की जाए तो लेखिका के शब्दों में मित्रों बोल्डचरित्र है। हिन्दी साहित्य जगत में पहले भी लिखे गये नारी प्रधान उपन्यासों की नायिका मित्रों की तरह देह की बात नहीं करतीं यद्यपि देह को भोगने की कामना उनमें जरूर है चाहे वह रूकोगी नहीं राधिका की राधिकाहो उषा प्रियवदा ने उसे नारी अस्तित्व के प्रति सचेत जरूर दिखाया है लेकिन मित्रों के मुकाबले राधिका नहीं ठहरती। वहीं शिवानी की कृष्णकलीकी कृष्णकली भी नहीं मेल खाती।

यदि पुरूष लेखकों की बात की जाए तो- ‘‘साहित्य यदि स्त्री के सहयोग से शून्य हो तो उसे आधी मानव जाति के प्रतिनिधित्व से शून्य समझना चाहिए। पुरूष के द्वारा नारी का चरित्र अधिक आदर्श बन सकता है, परन्तु अधिक सत्य नहीं, विकृति के अधिक निकट पहुंच सकता है, परन्तु यथार्थ के अधिक निकट नहीं। पुरूष के लिए नारीत्व अनुमान है, परन्तु नारी के लिए अनुभव।’’

यह विवाद का विषय हो सकता है। यह जरूरी नहीं स्वानुभूति ही मुख्य हो। व्यक्ति जिसे देखता है उसे अनुभव करके लिखे तो वह भी सत्य के करीब ही प्रतीत होगा। यद्यपि लेखकों के बारे में परकाया प्रवेश (दूसरे के अनुभव को महसूस करना) की बात की भी जाती है। वैसे भी स़्त्री-पुरूष लेखन कोई अलग नहीं, बात अनुभव की है-‘‘लेखन-लेखन होता है कोई नर-मादा नहीं। उसे नर मादा के खाँचों में बांट कर देखने वाली दृष्टि पूर्वाग्रस्त है। लेखन जिस तरह पुरूष की अनुभूति और चेतना की अभिव्यक्ति है। स्त्री लेखक द्वारा लिखा गया लेखन उसके विशिष्ट स्वानुभव और आत्म चेतना की अभिव्यक्ति है। यह इसी समाज में समता के लिए संघर्षरत है, समताकी आकांक्षी है।’’ इस तरह से कहा जाए तो मुख्य बात अनुभव की है। कहावत भी जाके कभी न फटी बिवाई, सो का जाने पीर पराईअतः अनुभव की प्रामणिकता मुख्य है, चाहे वह स्त्री लेखक हो चाहे पुरूष लेखक।

कृष्णा सोबती की प्रकाशित कृतियों में बादलों के घेरे’, ‘तीन पहाड़’, यारों के यार’, ‘डार से बिछुड़ी’, ‘मित्रो मरजानी’, ‘सूरजमुखी अन्धेरे के’, ‘जिन्दगीनामा’, ‘दिलोदानिश’, ‘समय-सरगमआदि हैं। जिन्दगीनामा पर उन्हें साहित्य आकदमी पुरस्कार भी प्रदान किया गया है।




मित्रों मरजानी 1967 ई0 में प्रकाशित हुआ। कृष्णा सोबती के साहित्य पर सबसे बड़ा आरोप अश्लीलता का लगाया जाता है। लेकिन इसे अश्लील कदापि नहीं कहा जा सकता। मित्रो मरजानी से पहले महेन्द्र भल्ला कृत एक पति के नोट्समें सिर्फ कोरा भोग है जिसके ब्यौरे काफी दिलचस्प ढंग से पेश किये गये हैं। राजकमल चैधरी का मछली मरी हुईतो सेक्स गाथा ही है, मृदुला गर्ग का चितकोबरा तथा मनोहर श्याम जोशी का कुरू-कुरू स्वाहाको क्या अश्लीलता की श्रेणियों में नहीं रखा जा सकता। दरअसल साहित्य में श्लील-अश्लील का प्रश्न ही नाजायज हैं।

साहित्य कला है और उसे कला की दृष्टि से ही देखा जाना चाहिए। वैसे कामुक दृश्य और फूहड़ भाषा परोसने में तो चलचित्र जगत ही कम नहीं है। आज के सिनेमा जगत की हालत भी बुरी है। बहरहाल हम अपने विषय पर आये तो डा0 घनश्याम मधुप के शब्दों में-‘‘कृष्णा सोबती ने स्त्री होकर स्त्री को उद्घाटित करने का तथा पहचानने का प्रयत्न किया है, पुरूष जिस क्षेत्र पर अपना एकाधिकार समझता आया है, उसमें स्त्री के प्रवेश से बौखलाहट स्वाभाविक कही जा सकती है।’’ इसके साथ और भी आलोचक है जिन्होंने सोबती की दृष्टि और दृष्टिकोण की प्रशंसा की है- ‘‘मित्रो मरजानी में पंजाब की किसान संस्कृति का जो चित्र खंीचा गया है, यह इतना सघन और ठोस है मानो यह संस्कृति साक्षात हमारे सामने चाक्षुष-प्रत्यक्ष हो गयी हो। कलाकार ने भाषा के जिस रूप से कथा को बांधा है, यह बहुत कुछ किस्सा कहने की शैली है। जिसमें विवरण और कथाक्रम के साथ बीच-बीच में बोल-चाल के शब्दों, मुहावरों का सटीक इस्तेमाल है।’’

सोबती ने मित्रों को नारी संस्कार जन्य रूप से अलग देह को प्रमुखता देने वाली स्त्री को रखा है। मित्रो मरजानी की कथा पंजाब प्रात के किसान परिवार की है। गुरूदास और धनवंती का भरा-पूरा परिवार है। तीन लडके-बनवारी, सरदारी और गुलजारी। लड़की जनको की शादी कर दी है। मित्रो मझले बेटे सरदारी लाल की बीवी है। वह जिस घर में पली-बढ़ी है, उसे वासनाओं ने सींचा है। वह खुद कहती है- ‘‘सात नदियों की तारू, तवे सी काली मेरी माँ और मैं गोरी चिट्टी उसकी कोख पड़ी। अब तुम ही बताओ जिठानी तुम्हारा जैसा सत-बल कहाँ से लाऊँ।’’

सेक्स की यह अनुभूति मित्रों को मुखर बना देती है। वह सास-ससुर, जेठ-जिठानी की लाज नहीं रखती। इस सैक्सुअल-फस्ट्रेशन के कारण ही वह जली-भुनी रहती है। यद्यपि अपने परिवार वालों के लिए बड़े से बड़ा त्याग करने में भी पीछे नहीं रहती। जब सबसे छोटा बेटा गुलजारी ग्राहकों से पैसे लेकर पत्नी फूलवती पर उड़ा देता है तो तब मित्रों ही अपने सहेजे गहने व रूपये देकर परिवार को कर्ज के बोझ से हल्का करती है। फूलावन्ती की जान गहनों में बसती है धनवन्ती उसे कुछ नहीं कह पाती। केवल मित्रों ही उसका जबाव देती है। फूलवन्ती झगड़ालू, लोभिन तो सुहागवन्ती हमेशा परिवार के बारे में सोचने वाली। फूलवन्ती गुलजारी को लेकर मायके चली जाती है। जहाँ पर गुलजारी को अपनी भूल पर पश्चाताप होता है।

मित्रों, सुहागवन्ती के गर्भवती होने पर खूब चुहल करती है पर बाद में उसकी स्त्री सहज मातृत्व की भावना उसके स्वभाव को तिक्त बना देती है। ‘‘मेरा बस चले तो गिनकर सौ कौरव बना डालूँ, पर अम्मा अपने लाडले बेटे का भी तो आड़-तोड़ जुटाओ। निगोडे मेरे पत्थर के बुत में भी कोई हरकत तो हो।’’ और अन्त में मित्रो इसी कामवासना की पूति के लिए माँ के पास जाती है। माँ बेटी के लिए सारी तैयारियाँ कर देती है, लेकिन माँ की आँखों में अजीब सी चमक देखकर वह दौड़कर सरदारी लाल के कमरे का दरवाजा अन्दर से बन्द कर लेती है।




इस प्रकार मित्रो समर्पिता एवं ग्राहीत्वा दोनों है, परन्तु अन्त में आते-आते समर्पिता हो जाती है। यहाँ आकर मित्रो भारतीय नारी की परम्परा छवि में नजर आती है। इस प्रकार ‘‘मित्रो मात्र देह है’’ कहना गलत होगा। मित्रो ‘‘माँस मज्जा से बनी एक नारी है, जिसमें स्नेह भी है, ममता भी, माँ बनने की हौंस भी और एक अविरल बहती वासना भी।’’

अब बात की जाए शरतचन्द्र चट्टोपाध्याय की विराज बहूकी। शरत चन्द्र का जन्म 15 सितम्बर, 1876 ई0 में हुगली जिले के एक छोटे से गाँव देवनंदपुर में हुआ। शरत चन्द्र का जीवन बैचेनियों से भरा रहा। वह कभी एक जगह टिक कर काम नहीं कर सके। लेकिन यह भटकन भी उनके लिए लाभप्रद सिद्ध हुई, क्योंकि इसकी वजह से उन्हें समाज के उस तबके का भी ज्ञान हुआ जिसे लागे पतित समझते थे। जिसे उनकी रचनाओं में देखा जा सकता है। पल्लि समाजका अकबर सरदार’ ‘देना पावनाका सागर सरदार जो नीची जाति के हैं, दरअसल वह शरतचन्द्र के मित्र थे जो नीची जाति से थे, जिन्हें नाम बदलकर उन्होंने अपनी रचनाओं में स्थान दिया है। वैसे भी-‘‘प्रत्येक महान लेखक, चाहे वह कितना ही श्रेष्ठ क्यों न हो, अपने सामाजिक परिवेश की उपज होता है और वह मुख्यतः अपने युग के लिए साहित्य-रचना करता है। शरतचन्द्र इसके अपवाद नहीं।’’

शरतचन्द्र की साहित्य रचनाओं में बड़ दीदी, देवदास, कासीनाथ, देवी चैधरानी, श्रीकान्त, लेन-देन, गृहदाह, चरित्रहीन, ब्राह्मण की बेटी अरक्षणीया, दत्ता, गा्रमीण समाज, पंि डत जी, स्वामी, परिणीता, निष्कृति, शेष प्रश्न, चन्द्रनाथ, पथ निर्देश, एकादशी वैराग, तस्वीर, दर्प-चूर्ण,

प्रकाश और छाया, विराज बहू, अनुराधा आदि हैं। विराज बहू, ‘बड़ दीदीतथा देवदासके वर्षों बाद लिखा गया। क्योंकि कलात्मक अवधारणा और कौशल में स्पष्ट अन्तर है। इसकी नायिका एक निष्ठावान पत्नी हैं जो विशुद्ध बाहरी मानदण्डों से देखने पर सतीत्व से डिगी दिखेगी पर दूसरी दृष्टि से वह अन्त तक अपने पति के प्रति वफादार बनी रहती है। शरतचन्द्र की स्थापना यह प्रतीत होती है कि अत्यन्त निष्ठावान पत्नी भी भटक सकती है। लेकिन स्त्री का चरित्र किसी बँधे-बँधाए आदर्श से न देखकर सहानुभूति से जांचा जाना चाहिए।




विराज की शादी नौ वर्ष की उम्र में अपने से दस वर्ष बड़े नीलाम्बर के साथ हुई, वर्षों तक वह आदर्श पत्नी के रूप में रहती है लेकिन दुर्भाग्य यह होता है कि गरीबी की हालत में तथा नशे की लत के कारण नीलाम्बर उसे अनावश्यक रूप से पीट देता है। ऐसा भी तब जब वह ज्वर से पीड़ित है तथा किसी तरह मांग कर उसके लिए चावल पकाती है। नीलाम्बर उसे चरित्रहीन कहता है। बस यही चोट उसे घायल कर जाती है। वह उसी समय घर छोड़ देती है। जमींदार के लड़के के बजरे पर चली जाती है जो उस पर मोहित था। लेकिन क्रोध शान्त होने पर तथा स्थिति का भान होने पर पानी में कूद पड़ती है तथा पश्चाताप की अग्नि में जल-जलकर शरीर को बीमारियों से ग्रस्त कर लेती है। परन्तु उसका पश्चाताप पति के चरणों में प्राण त्यागने के उपरांत ही समाप्त हो पाता है। इस तरह शरतचन्द्र स्त्री को बोल्ड बनाने की जहमत उठाते उठाते उसे समर्पित ही बना कर रह गये, कारण स्पष्ट है बंगाल की समाज स्थिति जो उन्हें अनुमति नहीं देती।

मित्रों मरजानी में जहाँ संस्कृति के कारण खुलापन है, वहां बंगाल की समाज की स्थिति की संरचना भिन्न होने के कारण स्थिति थोड़ी भिन्न है। जहाँ मित्रों अपने शरीर की भूख का इजहार सबके सामने कर सकती है। वहां विराज ऐसे शब्द जबान पर भी नहीं ला सकती, मित्रो पाप करते करते रूक जाती है, विराज पुण्य करते-करते पाप कर बैठती है। दरअसल सामाजिक संरचना के कारण ऐसा होता है, क्योंकि साहित्य समाज का दर्पण है तथा हर लेखक अपने युग संस्कृति तथा परिवेश से असम्पृक्त नहीं रह सकता। इस प्रकार मित्रो तथा विराज एक ही

सिक्के के दो पहलू हैं फर्क सिर्फ समय तथा संस्कृति और लेखकीय व्यक्तित्व का है।




सन्दर्भ ग्रन्थ

1. हिन्दी साहित्य और संवेदना का विकास- रामस्वरूप चतुर्वे दी

पृष्ठ-137

2. काव्य के रूप- डा0 गुलाब राय, पृष्ठ 156

3. हिन्दी लघु उपन्यास- डा0 अमर प्रसाद, गणेशप्रसाद जायसवाल

पृ0 20

4. श्रंखला की कड़ियाँ-महोदेवी वर्मा, पृ0 66

5. समकालीन महिला लेखन- चित्रा मुदगल, सम्पादक- ओमप्रकाश

शर्मा, पृष्ठ 44

6. हिन्दी लघु उपन्यास- डा0 घनश्याम मधुप, पृ0 172

7. कृष्णा सोबती के उपन्यास- सं0 रामदरश मिश्र, पृ 58

8. मित्रो मरजानी- कृष्णा सोबती, पृ. 20

9. बही, पृष्ठ 75

10. कुछ कहानियाँ कुछ विचार- विश्वनाथ त्रिपाठी, पृष्ठ 47

11. शरतचन्द्र चिन्तन व कला- डा0 इन्द्रनाथ मदान (भूमिका)


रौबी

शोधार्थीदिल्ली विश्वविद्यालय

दिल्ली



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