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आखिर बलात्कारी संस्कृति को फांसी कब होगी?


बलात्कार के मामले में निर्भया के अपराधीयों की फांसी सजा अंतिम है, मैं ऐसा कतई नहीं मानता. क्योंकि बलात्कारी सोच और संस्कृति अभी जिंदा है. जिस समाज की संस्कृति की बुनियाद में ही नफरत और अलगाव की विचारधाराएं रीढ़ की हड्डी की तरह मजबूत हों चूकी हो  और ऊपर-ऊपर भाईचारे का पॉलिस किया गया हो, वहां कल किसी और की बेटी को शिकार बनाया जाएगा. फिर किसी के बेटे को फांसी होगी. फिर वही राम कहानी सुनी और सुनाई जाएगी कि बलात्कारी को फांसी दो, फांसी दो. चूंकि बलात्कार एक सामाजिक समस्या है. इसीलिए जब तक समाज नैतक रूप से मजबूत नहीं बनेगा, तब तक इसका कोई हल तत्काल दिखाई नहीं दे रहा है.


फिर भी आप फांसी की मांग करते थे, अब खुश हो जाइए, हो गई फांसी. यह आप के लिए खुशी का विषय हो सकता है, पर मेरे लिए नहीं. आज और चार मांओं का दर्द बढ़ गया. दर्द और पीड़ा को छोड़ दें तो किसी को मिला क्या? दूसरे की दर्द में खुद के लिए आनंद ढूढ़ना बर्बर संस्कृति की आदत हो सकती है. एक सभ्य समाज इसे स्वीकार नहीं कर सकता है. फिर भी आज जब फाँसी हो गई है तो देखते रहिये बलात्कार की घटनाओं में कितने प्रतिशत की कमी आती है.
 मुझे ऐसा नहीं लग रहा कि इससे बलात्कार की घटनाओं में कोई कमी आएगी. आज चार माँ को इस दर्द से गुजरना पड़ा है. कल इसकी संख्या ज़्यादा भी को सकती है. कल यह भी हो सकता है कि बलात्कारीयों की सूची में कोई आपका अपना भी शामिल हो होकता है. आपका बेटा, आप का भाई या आप का भतीजा. कल आपके भी किसी रिस्तेदार पर बलात्कार का आरोप लग सकता है, क्योंकि बलात्कार की घटना कोई व्यक्तिगत मामला नहीं, बल्कि एक सामाजिक बुराई है. अगर आप वास्तव में इससे निपटना चाहते हैं, इस सामाजिक बुराई को खत्म करना चाहते हैं ताकि कल किसी की बेटी, किसी की बहन, किसी की बीबी इसका शिकार नहीं हो तो आप को सबसे पहले आदमी को इंसान बनाना होगा. सरकार और परिवार को नैतिक शिक्षा प्राथमिक स्कूल से विश्वविद्यालय स्तर तक देने की व्यवस्था करनी होगी.
मत भूलिए कि आज से 16 साल पहले बलात्कार और हत्या के आरोप में ही धनंजय चटर्जी को 14 अगस्त 2004 को तड़के साढ़े चार बजे फांसी पर लटका दिया गया था. इसका समाज पर क्या असर हुआ हमें इसका भी अध्ययन करना चाहिए. क्या लोगों ने इससे कुछ सबक लिया. इस फांसी के बाद लोगों को उम्मीद थी कि अब बलात्कार की घटनाएं रुक जाएंगी लेकिन पिछले  दशक में अन्य अपराधों की तुलना में रेप की संख्या में सबसे ज्यादा बढ़ोतरी हुई है. वर्ष 2012 में बच्चों के बलात्कार की संख्या 8,541 से बढ़कर 2016 में 19,765 हो गई है. भले ही निर्भया के दोषियों को फांसी देना कानून, समाज और आप की नजर में न्याय हो गया हो. लेकिन बलात्कारी सोच और बलात्कारी मनोवृति आज भी वैसे ही जिन्दा है जैसे धनंजय चटर्जी को कोलकाता की अलीपुर जेल में फांसी देने के भी बाद भी ज़िंदा रह गई थी. आप व्यक्तिगत होकर और निर्भया की माँ की ओर खड़ा होकर सोचेंगे तो आप को ऐसा जरूर लगेगा कि न्याय हो गया लेकिन आप दोनों तरफ तठस्थ होकर सोचेंगे तो आप को भी लगेगा फांसी हत्या के बदले हत्या की महज सुनियोजित विधिसम्त तरीका मात्र है. बलात्कारी सोच की संस्कृति अभी जिंदा है.
 अगर आप ऐसा नहीं करेंगे तो यह सिर्फ दर्द में आनंद ढूढ़ने का साधन बन के रह जायेगा. यह आप की संस्कृति को एक सभ्य संस्कृति से बर्बर संस्कृति में बदल के रख देगा. तब कोई फांसी पर लटकाया जाएगा और आप खुश होंगे. सोचिए उस माँ पर क्या गुजरी होगी जिसकी बेटी का बलात्कार हुआ? जरा अब सोचिये उन मांओं पर क्या गुजरी होगी जिनके बेटों को सुबह-सुबह फांसी पर लटका दिया गया. मगर आप किस लिए ख़ुश हो रहें हैं मुझे नहीं पता. जब आप ठहर कर सोचेंगे तो आप को लगेगा कि आप की पूरी लड़ाई बलात्कारियों के विरुद्ध थी, न कि बलात्कार के लिए प्रेरित करनेवाली सोच और उस दकियानूसी संस्कृति के विरुद्ध जो बलात्कार के लिए उकसाती है. अगर हम इस पर जीत हासिल करना चाहते हैं तो हमे अपनी लड़ाई को व्यक्तिगत नहीं बना कर सामाजिक बनाना होगा. अगर वक्त रहते नैतिक शिक्षा के माध्यम से बलात्कार और बलात्कारी सोच से लड़ाई नहीं लड़ी गई तो यह सिर्फ़ कुछ माओं का दर्द बन कर रह जायेगा. सोचिए आज निर्भया की माँ को सालों की लंबी लड़ाई लड़ने के बाद सिर्फ दूसरे की दर्द में ख़ुशी छोड़ दे तो क्या मिला? इसके बाद भी क्या कोई दावा कर सकता है कि अब फांसी हो गई है तो बलात्कार की घटना में बड़ी गिरावट आएगी.
यह सत्य है कि अपराधी को सज़ा देकर ही हम अपराध पर लगाम लगाने की ओर बढ़ सकते हैं परंतु अपराध रोकने का एकमात्र यही तरीका कारगार नहीं हो सकता. इससे निपटने के लिए पारिवारिक और सामाजिक चेतना में सुधार की दिशा में हम सभी को सामूहिक कदम उठाने होंगे.
दुनिया में सबसे ज्यादा रेप साउथ अफ्रीका में होते हैं. यहां साल में करीब 5 लाख महिलाओं के साथ बलात्कार किया जाता है. आपको ये जानकर हैरानी होगी कि यहां महिलाओं के अलावा आदमी भी रेप का शिकार होते हैं. दुनिया के बहुत कम देशों ने पुरुष के विरुद्ध होने वाले यौन उत्पीडन को अपराध की श्रेणी में रखा है. वहीं दुनिया के दूसरे देशों की बात करें तो कुछ देश ऐसे हैं जहां महिला बलात्काहर के दोषियों को 24 घंटों के अंदर-अंदर सजा ए मौत दे दी जाती है. उन देशों में बलात्कार फिर क्यों होता है? अब प्रश्न यह है कि फांसी की सजा का प्रावधान बना देने भर से क्या ये घटनाएं बंद हो जाएंगी? हत्या के आरोप में फांसी की सजा का प्रावधान तो है लेकिन क्या इससे हत्याएं होना बंद हो सकीं? पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान सभी बलात्कार के लिए मौत की सजा देते हैं और मौत की सजा के पक्ष हम भारतीय लोग अक्सर इन देशों का जिक्र करते हैं जो बलात्कार को फांसी से रोकना चाहते है और हम ये भी मानते हैं कि उपरोक्त ऐसे देशों में बलात्कार की घटनाएं कम होती हैं. आंकड़े यह साबित करते है कि मौत की सजा इसका समाधान नहीं है. दुनिया भर के वे देश जो भिन्न-भिन्न अपराधों के लिए मृत्युदंड देते है वे देश भी निर्णायक रूप से यह कहने में सक्षम नहीं है कि मृत्युदंड एक प्रभावी साधन है जिससे बलात्कार जैसी घटनाओं पर काबू पाया जा सकता है. शोध में भी मौजूद आंकड़े मिश्रित परिणाम की ओर संकेत देते है. साथ ही साथ मृत्युदंड की सजा का डर बढ़ती बलात्कार की घटनाओं को रोक सकता है. इस विचार को भी ज्यादा मजबूती नहीं देता है. वहीं बलात्कारियों को मृत्युदंड की सजा देने का तर्क इस मिथ्या और विश्वास पर आधारित है कि बलात्कार मौत से भी बदतर और भयावह अपराध है. ऐसा सोचने और मानने के लिए हमें सम्मान और प्रतिष्ठा की पितृसत्तात्मक और पुरुषवादी धारणाएँ हमें प्रेरित ही नहीं, बल्कि उकसाती भी हैं. इस महिला विरोधी पुरुषवादी धारणा को नष्ट करने और दृढ़ता से चुनौती देने की जरूरत है. जिन महिलओं के साथ यौन उत्पीड़न का अपराध होता है. समाज में उनका मान-सम्मान गिर जाता है. बलात्कार पुरुषवादी मानसिकता के हिंसात्मक लोगों का बड़ा हथियार है, जिस वे महिलओं बार-बार डराने का काम लेते हैं. अतः इस हथियार को ही महिलओं को निडर बनाकर खंडित करने की जरुरत है, न कि हर तरह के यौन हिंसा को बड़ा अपराध के रूप में इसके साथ व्यवहार करने की.
वहीं मौत की सजा मानवाधिकारों के उल्लंघन की उच्चतम पराकाष्ठा में से एक है. सच पूछिए तो फांसी न्याय व्यवस्था के नाम पर सरकार द्वारा बदले की भावना से सुनियोजित हत्या का विधिसम्त एक तरीका मात्र है. यह किसी भी व्यक्ति के मूल अधिकार जीने के अधिकार के विरुद्ध है. यह न्याय का सबसे क्रूर, अमानवीय, बर्बर और अपमानजनक तरीका है. एमनेस्टी इंटरनेशनल की रिपोर्ट के अनुसार बात करें तो विश्व में अब तक 101 देशों ने मौत की सजा की को प्रतिबंधित किया है. लेकिन आज भी मुख्यत रूप से चीन, पाकिस्तान, भारत, अमरीका और इंडोनेशिया में मौत की सजा दि जाती है. ऐसे देशों की संख्या मात्र 58 ही रह गई है, जहाँ मौत की सजा दि जाती है. 2004 से लेकर अब तक सिर्फ आठ अपराधियों (धनंजय चटर्जी, अजमल कसाब, मोहम्मद अफजल, याकूब मेनन और 20 मार्च, 2020 को मुकेश सिंह, पवन गुप्ता, विनय शर्मा और अक्षय ठाकुर को फांसी दी गई है अर्थात मौत की सजा दि गई है. लेकिन बलात्कार का समाधान फांसी में नहीं बल्कि पहले आदमी को इंसान बनाने के लिए सरकार और परिवार को नैतिक शिक्षा प्राथमिक स्कूल से विश्वविद्यालय स्तर तक देने की व्यवस्था अनिवार्य करनी होगी. 
 संतोष कुमार 
 (लेखक कानूनी मामलों के जानकर व राजनीतिक विश्लेषक है) 

 अधिवक्ता, सर्वोच्च न्यायालय, नई दिल्ली 



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