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कहीं आप हाशिए के लोगों के लिए फांसी की मांग तो नहीं कर रहे हैं?






अगर आपको लग रहा है कि बलात्कार के मामले में फांसी का प्रावधान हो जाए तो बलात्कार की घटनाएं रुक जाएंगी या कम हो जाएंगी या इसे रोकने में मदद मिलेगा तो आप भ्रम में हैं। आपको भूत और भविष्य के कड़े अनुभवों के बीच वर्त्तमान के सच का ज्ञान नहीं है। आप तथ्य और आंकड़े उठाकर देख लीजिए। अभी तक बहुत बड़ी संख्या में फांसी की सजा सेलेक्टिव न्याय के तहत सबसे ज्यादा दलित-पिछड़ों को ही दी गई है। 

आप अगर अवयस्क से बलात्कार के मामले में ऐसे प्रावधान करवा रहे हैं तो आप समझ लीजिए कि आप दलित पिछड़ों के लिए फांसी का फंदा खुद तैयार कर रहे हैं। आने वाले समय में सेलेक्टिव न्याय के तहत सबसे ज्यादा फांसी पर चढ़ने वाले लोग दलित पिछड़े और मुसलमान समुदाय के होंगे। वे लोग जो असली बलात्कारी हैं और जो लोग सिस्टम के बलात्कारी है। वे सेलेक्टिव न्याय के फार्मूले के तहत बिल्कुल बेदाग बच जाएंगे। आप को बता दें कि इस देश में आजादी के बाद जितने लोगों को फंसी की सजा दी गई है। उनमें कुछेक मामलों को हटा दें तो अधिकतर फांसी की सजा पाने वालों में दलित, पिछड़े, जनजाति और अल्पसंख्यक समाज के लोग ही शामिल रहे हैं। खासकर बिहार और उत्तर प्रदेश जैसे राज्य के जेलों में बंद फांसी की सजा पाने वाले लोगों की सूची को गौर से देखें तो कहा जा सकता है कि फांसी की सजा समाज के गरीब और दलितों के लिए ही मुकर्रर की दी गई है। 


अपने ब्लॉग के माध्यम से अखिलेश अखिल बताते है कि आजादी के बाद बिहार समेत पूरे देश में फांसी की सजा पाने वालों दो चार मामलों को छोड़ दिया जाए तो जो तस्वीर सामने आती है आंखें खोलने वाली है। बिहार की जेलों में 2 साल पहले तक 69 ऐसे कैदी बंद थे जिन्हें विभिन्न अदालतों ने फांसी की सजा दे रखी है। फांसी की सजा पाए ये सभी लोग दलित, पिछड़ी, जनजाति और अल्पसंख्यक समुदाय से आते हैं। लेकिन पहले हम आपको ले चलते हैं भागलपुर केंद्रीय जेल जहां फांसी की सजा पाए 36 लोग मौत का इंतजार कर रहे हैं। 

इनके बारे में आगे हम चर्चा करेंगे और कानून की राय भी जानेंगे लेकिन सबसे पहले इनकी सूची पर एक नजर:-
नाम                         जाति                   रहनेवाले
हरिबल्लभ सिह                यादव                   मधेपुरा
भूमि मंडल                   यादव                    मधेपुरा
विनोद मंडल                  यादव                    मधेपुरा
चंद्रदेव मंडल                  यादव                    मधेपुरा
अर्जुन भुनी                   पिछड़ी जाति              मधेपुरा
दुखो शर्मा                    हजाम                    मधेपुरा
जगवीण सहनी                मलाह                    मधेपुरा
शिवेश मंडल                  यादव                    मधेपुरा
वैद्नाथ शर्मा                  हजाम                   मधेपुरा
बिंदेश्वरी मंडल                 यादव                   मधेपुरा
उपेंद्र मंडल                    यादव                   मधेपुरा
जालिम मंडल                  यादव                   मधेपुरा
फूनो शाह                     मुसलमान                समस्तीपुर
मो0 एहसान शाह               मुसलमान                समस्तीपुर
रामसमुन तहतो                 पिछडी जाति             समस्तीपुर
सिधेसर राय                    यादव                   समस्तीपुर
विनोद प्रसाद                   पिछडी जाति              समस्तीपुर
मिथिलेश ठाकुर                 हजाम                   समस्तीपुर
मनोज राय                     यादव                   समस्तीपुर
रघुनाथ सहनी                   मल्लाह                 समस्तीपुर
अशोक कुमार गुप्ता              बनिया                  समस्तीपुर
प्रभात कुमार रय                 यादव                  समस्तीपुर
महेंद्र यादव                     यादव                   भागलपुर
दुर्गा मंडल                      पिछड़ी जाति             भागलपुर
शमशूल                        मुसलमान                भागलपुर
मनोज सिंह                     पिछड़ी जाति             गया
बीर कुंर पासवान                 दुसाध                  गया
कृष्णा मोची                     चमार                  गया
नंदलाल मोची                    चमार                  गया
धमेंद्र सिंह                       दुसाध                  गया
शोभित चमार                     चमार                 रोहतास
करे सिंह                                              बेगुसराय
नरेश यादव                       यादव                 गोड्डा
मो गयासुदीन                     मुसलमान             भोजपुर
नौशाद आलम                     मुसलमान             अररिया

आकड़े अखिलेश अखिल के लेख ‘’फांसी में आरक्षण’’ से ली गई है वो आगे एक और मजेदार तथ्य रखते है. उत्तर प्रदेश में इलाहाबाद हाई कोर्ट ने निचली अदालत की फांसी के फैसले को सही ठहराया था। निचली अदालत ने हत्या के जुर्म में जीता सिंह, कश्मीरा सिंह और हरबंश सिंह को फांसी की सजा दी थी। महामहिम से भी क्षमादान नही मिला। फांसी की तिथि, स्थान और समय निश्चित हो गया। निर्धरित समय पर केवल जीता सिंह को फांसी पर लटकाया गया। शेष दो अभियुक्तों को किसी कारण से उस समय फांसी नही दी गई। दोनों अभियुक्तों ने एक बार फिर पनुर्विचार याचिका दायर की। कश्मीरा सिंह की फांसी की सजा को उम्र कैद में बदल दिया गया और हरबंश सिंह को क्षमा देकर मुक्त कर दिया गया। दोष एक सजा एक किन्तु क्रियान्वयन में तीन तरह के व्‍यवहार। यह प्रयाप्त आधार बनता है कि न्याय की तराजू में सब कुछ ठीक ठाक नही है। 




इसी मसले पर सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश रह चुके पी एन भगवती ने कहा था ‘‘दीस इज ए क्लासिक केस, व्हिच इलेस्टेट्स दि जुडिशियल बेगरीज इन द इंपोजिशन आफ डेथ पेनाल्टी।’’ अर्थात ‘‘मृत्युदंड दिए जाने के मामले में कानूनी अहं को प्रदर्शित करने का यह शास्त्रीय उदाहरण है।’’     

फांसी की सजा पाए कुल 69 कैदियों में से 67 ऐसे हैं जो अनुसूचित जातियों, जनजातियों, अन्य पिछड़ी जातियों से आते हैं या धार्मिक, भाषाई या क्षेत्रीय अल्पसंख्यक की श्रेणी से आते हैं। वही विगत दिनों नैशनल लॉ यूनिवर्सिटी से स्टूडेंट्स ने लॉ कमिशन की मदद से यह स्टडी की जिसमें लॉ कमिशन यह तय करना चाहता है कि मौत की सजा देने को बरकररार रखना है या नहीं। लॉ पैनल के चेयरमैन जस्टिस ए.पी. शाह खुद मौत की सजा को हटाने जाने के पक्षधर हैं। 





अपनी तरह के पहले शोध में पिछले 15 सालों में मौत की सजा पाए 373 दोषियों के इंटरव्यू के डेटा को स्टडी किया गया है। वहां भी यह पाया गया कि इनमें तीन चौथाई पिछड़ी जातियों और धार्मिक अल्पसंख्यक वर्गों से थे। 75 फीसदी लोग आर्थिक रूप से कमजोर तबके से थे। देखिये इस पर विधि विशेषज्ञों की राय क्या है।

मुझे लगता है कि 75 फीसदी मौत की सजाएं गरीबों को हुई है। अमीर लोग आसानी से बच जाते हैं मगर गरीब, खासकर दलित और आधिवासी फंसे रह जाते हैं। नैशनल लॉ यूनिवर्सिटी के छात्रों ने सभी मौत की सजा पाए कैदियों से बात की और उनकी बैकग्राउंड जानी। इसमें यह भी देखा गया है कि फांसी पर चढ़ने से पहले वे किस तरह का मानसिक दबाव और परेशानी झेलते हैं। 

कॉलिन गॉन्जाल्वेज, ह्यूमन राइट्स लॉ नेटवर्क के संस्थापक और सीनियर ऐडवोकेट कहते हैं 'मौत की सजा उन लोगों के लिए है जो हाशिए पर चले गए हैं। अरेस्ट किए जाने पर सबसे पहले वकील की मदद लेनी होती है। मगर गरीब लोग ऐसा नहीं कर पाते, जबकि अमीर लोग ऐसा कर लेते हैं। यही फर्क दोनों की जिंदगियों को बदल देता है।'’ आगे कहते हैं गरीबों और पिछड़ों को कानूनी मदद मुकदमा शुरू होने पर मिलती है, मगर तब तक देर हो चुकी होती है। 

सीनियर वकील प्रशांत भूषण ने कहा, ‘‘यह सच है कि क्लास को लेकर थोड़ा भेदभाव है, वरना हमारी जेलों में इतने सारे लोग ऐसे क्यों भरे होते, जो जमानत लेने के लिए एक वकील तक हायर करने की क्षमता नहीं रखते?'

‘‘मृत्युदंड को भारतीय दंड संहिता से हटाने की बात कही थी।’’ -वाईके सब्बरवाल, मुख्य न्यायाधीश, सुप्रीम कोर्ट 

वरिष्ठ वकील एस नारीमन का मानना है कि मृत्युदंड को समाप्त किया जाना चाहिए। इस पर ज्यादा राजनीति करने की जरूरत नहीं है।

‘‘गरीब, असहाय और बूढ़े लोगों की फांसी सजा को कम करने की बात सरकार से कही थी।’’-पूर्व राष्ट्पति कलाम

‘‘अल्पसंख्यकों के खिलाफ़ मुक़दमों में दोहरा मापदंड अपनाया जाता है।’’ -जस्टिस ए.पी. शाह

‘‘न्यायधीश कैसे बेकसूरों के साथ पक्षपातपूर्ण रवैया अख्तियार करते हैं या संकोच में आकर मुआवजा दिलाने का आदेश नहीं देते। इसके कई उदाहरण हैं, जिसमें में आतंकवाद के आरोपों से लोगों को बरी किया गया पर उनको इसका मुवावजा नहीं दिया गया। आगे कहते हैंं कि मैं उस बेंच पूछना चाहता हूं जिसने अक्षरधाम मामले पर निर्णय दिया था। जब झूठे अभियोजन पक्ष के ख़िलाफ आपके पास सबूत है, तो आपने पुलिस अधिकारियों के ख़िलाफ कार्रवाई क्यों नहीं की।’’- -ए.पी. शाह, पूर्व मुख्य न्यायाधीश, दिल्ली उच्च न्यायालय

2000 से लेकर 2015 तक ट्रायल कोर्ट से 1,617 लोगों को मौत की सजा मिली। इनमें 42% अकेले यूपी और बिहार से हैं। हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में इस तरह की सजा की दर ट्रायल कोर्ट के मुकाबले कम है। कन्विक्शन रेट ट्रायल कोर्ट के मुकाबले हाई कोर्ट में 17.5 फीसदी और सुप्रीम कोर्ट में 4.9 फीसदी कम है। कई फांसी की सजाओं को आजीवन कारावास या बाइज्जत बरी में बदल दिया जाता है। इस रिसर्च में भी पाया गया कि गरीब, दलित और पिछड़ी जातियों के लोगों को हमारी अदालतों से कठोर सजा इसलिए मिलती है, क्योंकि वे अपना केस लड़ने के लिए काबिल वकील नहीं कर पाते। आतंक से जुड़े मामलों के लिए सजा पाने वालों में 93.5 प्रतिशत लोग दलित और धार्मिक अल्पसंख्यक हैं। 

अब आपको यह लग रहा होगा अगर यह समाधान नहीं है तो फिर ऐसी परिस्थितियों में आप हमसे पूछ सकते हैं कि समाधान क्या हैॽ निश्चित रूप से इस समस्या के समाधान पर आपसे मैं भी बात करना चाहता हूं। वर्तमान न्याय प्रणाली में सुधार हो और सरकार में बैठे बलात्कारी लोगों को भी सजा मिले। इसके लिए आपको बचने के कारणों को जानना होगा। क्योंकि हमेशा बलात्कार करने वाला व्यक्ति अगर बचता है तो सिर्फ और सिर्फ पीड़ित पक्ष के गलती और इन्वेस्टिगेशन, प्रॉसिक्यूशन के उदासीनता से बलात्कारी बच जाता है। 


अब हम आपको बताना चाहते हैं कि आखिर वर्तमान स्थितियों परिस्थितियों में बलात्कार जैसे मामले में किस तरीके से सुधार लाया जा सकता है। इसके लिए आपको न्यायिक प्रणाली को जानना होगा। आखिर कोर्ट किस तरीके से काम करती है। जब कोई संज्ञय अपराध घटित होता है और उसकी सूचना पुलिस को मिलती है तो पुलिस उस मामले में FIR दर्ज करती है। उसके उपरांत उस मामले का इन्वेस्टीगेशन होता है। इंवेस्टिगेशन के उपरांत भी अगर लगता है कि संज्ञय आपरध का मामला बनाता है तो उस धाराओं में चार्जशीट फाइल होती है वरना क्लोज़र रिपोर्ट फाइल होती है। जब पुलिस को यह लगता है कि कोई भी संज्ञय आपराध घटित नहीं हुई है तो पुलिस ऐसे मामलों में फाइनल रिपोर्ट लगा देती है। 

इस प्रकार पूरा खेल इन्वेस्टीगेशन के नाम पर होता है और वर्तमान परिस्थितियों में सामान्य रूप से इन्वेस्टीगेशन का काम राज्य सरकार की पुलिस करती है। हम उसी सरकार की बात कर रहे हैं जिनके द्वारा जांच कर रहे पुलिस पदाधिकारी को ट्रांसफर, पोस्टिंग, सैलरी, छुट्टी, तनख्वाह, पदों की पुरस्कार आदि दी जाती है और बलात्कारी उसी सरकार में मंत्री होते हैं, उसी सरकार में विधायक होते हैं, उसी सरकार के नेता होते हैं, उसी सरकार की पार्टी के नेता होते हैं, उसी सरकार की पार्टी के पदाधिकारी होते हैं, ऐसे में जांच अधिकारी एक स्वतंत्र जांच अधिकारी की भूमिका नहीं निभा पाता। वह सरकार के दबाव में और नेताजी के प्रभाव में काम करता है। 

पहले तो वह सोचता है FIR ही न हो, अगर किसी कारण FIR हो गई तो चार्जशीट ही फाइल न करनी पड़े, अगर करनी पड़े तो देर से करे और इतना लूप होल छोड़ दे कि नेता जी बच जाए। ऐसे चार्जशीट फाइल होने पर भी प्रॉसिक्यूशन का केस कमजोर हो जाता है तथा कई बार तो जिन लोगों को गवाह बनाना था और जिन डॉक्यूमेंटस को रिकॉर्ड पर लिया जाना था, इंवेस्टिगेशन के दौरान पूछताछ कि जानी चाहिए थी नहीं होता है। 

जाँच अधिकार कई बार प्रॉसिक्यूशन के स्टोरी को भी तोड़-मरोड़ कर कोट में पेश करता है और इसी के आधार पर आरोपियों के विरुध ट्रायल शुरू होता है। इस प्रकार इंवेस्टिगेशन वो स्तंभ होती है जिस पर प्रॉसिक्यूशन का पूरा केस खड़ा होता है।  इसलिए एक फेयर ट्रायल के लिए फेयर इन्वेस्टीगेशन का होना बहुत ही जरूरी है। फेयर इन्वेस्टिगेशन के बिना फेयर ट्रायल नहीं हो सकती। ऐसी परिस्थितियों में फेयर इन्वेस्टिगेशन नहीं होने का लाभ बखूबी बलात्कारियों को मिल जाता है। और वह आरोप मुक्त हो जाता है। इसलिए अगर हमलोग चाहते हैं किसी भी मुकदमे में आरोपियों को सजा मिले। इसके लिए हमें फ़ेयर इन्वेस्टिगेशन सुनिश्चित करना होगा और फेयर इन्वेस्टिगेशन सुनिश्चित करने के लिए हमें जांच एजेंसी को स्वतन्त्र रखना होगा।

किसी भी मुकदमे के लिए इन्वेस्टिगेशन उसकी मुख्‍य स्तंभ होता है और जब तक पिलर मजबूत नहीं होगा हम एक मजबूत बिल्डिंग की बुनियाद नहीं डाल सकते हैं। अगर हम चाहते हैं कि देश में फेयर ट्रायल हो और हर दोषी व्यक्ति को सजा मिले। इसके लिए हमें हर मामले में फेयर इन्वेस्टिगेशन को सुनिश्चित करना होगा और यह तभी संभव है। जब इन्वेस्टिगेशन एजेंसियां स्वतंत्र हों और ऐसे जांच अधिकारी किसी सरकार के दबाव में न हों। वे स्वतंत्र व स्वस्थ मन और विचार से मामले की जांच करें और हर मामले की तह तक जाएं और वास्तविक घटना का पता लगाकर बिना किसी दबाव के अपनी जाँच रिपोर्ट कोर्ट में सौंंपे तभी जाकर फेयर ट्रायल हो सकता है और दोषी लोगों को सजा मिल सकती है और जाँच अधिकारियों पर सरकार का दबाव कम हो सकता है। 





जब तक जाँच अधिकारी सरकार के अंडर में होकर काम करेंगे तब तक निष्पक्ष इन्वेस्टिगेशन नहीं हो सकती है और फेयर ट्रायल भी नहीं हो सकता है। और दोषियों को भी सजा नहीं मिल सकती है। क्या ऐसे में किसी भी मामले में आप सजा का ड्यूरेसन का प्रावधान बढ़ाकर, फाँसी का करवा कर क्या हासिल कर सकते हैं। सजा कुछ भी कर दे इससे कोई फर्क पड़ने वाला नहीं है क्योंकि जब तक कोई दोषी करार नहीं दिया जाएगा, सजा नहीं मिलेगी और लोगों में कानून का डर नहीं होगी। और आरोपी जाति और पार्टी के नाम पर सरकार में बैठे लोगों से अपना रिश्ता जोड़ लेंगे और इन्वेस्टीगेशन को प्रभावित कर देंगे।

आप को बता दें इस देश में कोई भी जांच एजेंसी स्वतंत्र नहीं है। यही कारण है कि देश में फेयर इन्वेस्टीगेशन नहीं हो पाती और ज्यादातर मामलों में आरोपी बच निकलते हैं। कुछ जांच एजेंसियां केंद्र सरकार के जिम्मे हैं तो कुछ राज्य सरकार के। सरकार से स्वतंत्र कोई भी जांच एजेंसी नहीं है। हा, कभी-कभी जब कोर्ट और सरकार को लगता है तो कोर्ट और सरकार के निर्देश पर कुछ मामलों में एसआईटी का गठन करके काम चलाया जाता है। अगर बात सीबीआई के भी जाँच की करें तो सीबीआई के विषय में सुप्रीम कोर्ट कई बार अपनी टिप्पणियों में सरकार का तोता तक करार दे चुकी है। वहीं अगर आप अभी हाल ही की बात करें तो आईआरसीटी घोटाले में दिल्ली की पटियाला हाउस कोर्ट ने केंद्र सरकार के दबाव में अधूरी चार्जशीट फाइल करने के लिए सीबीआई को कड़ी फटकार लगाई है। 

अत: अगर हम चाहते हैं कि वास्तव में अपराधियों को उनके अपराध की सजा मिले तो हमें अपनी जाँच एजेंसियों को सरकार से मुक्त करना ही होगा।
-संतोष कुमार
अधिवक्ता, सुप्रीम कोर्ट, दिल्‍ली







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