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‘लोक और वेद आमने-सामने’ पुस्तक का लोकार्पण और परिचर्चा : सुनील यादव

''पुनर्पाठ की जो परम्परा ज्योतिबा फुले ने 19 वीं सदी में शुरू की उसे ही इस पुस्तक के माध्यम से चौथीराम यादव आगे बढ़ा रहे हैं।'' 
-प्रो. वीर भारत तलवार





प्रो. चौथीराम यादव की ‘पुस्तक लोक और वेद आमने-सामने’ का लोकार्पण 10 जनवरी को विश्वपुस्तक मेला में प्रख्यात आलोचक वीरेंद्र यादव, प्रख्यात पत्रकार उर्मिलेश, साहित्य चिंतक और दलित रचनाकार मोहनदास नैमिशराय, प्रोफेसर गोपेश्वर सिंह, कवि मदन कश्यप और आलोचक विनोद तिवारी जी के हाथों हुआ. इस पुस्तक पर चर्चा के लिए एक गोष्ठी जेएनयू के भारतीय भाषा केंद्र में 11 जनवरी को हुई . इस पुस्तक पर जिस तरह वैचारिक चर्चा होनी चाहिए थी वो चर्चा हुई । एक अनौपचारिक पुस्तक लोकार्पण के बाद बीज वक्तव्य देते हुए प्रोफेसर गोपेश्वर सिंह ने इस किताब के महत्व को स्वीकार किया, उन्होंने चौथीराम जी की मीरा और सूर के संदर्भ में नई व्याख्याओं की विस्तार से चर्चा करते हुए इस पुस्तक के गद्य को सुरुचिपूर्ण गद्य बताया । आचार्य रामचंद्र शुक्ल के अंतर्विरोधों की चर्चा करते हुए प्रो. गोपेश्वर सिंह ने कहा कि शुक्ल जी को ब्राह्मणवादी नहीं कह सकते हैं. अगर रामचंद्र शुक्ल को उनके अपने अंतर्विरोधों के कारण हम ब्राह्मणवादी कहते हैं तो एक तरह से तर्कवादी धारा को साम्प्रदायिक शक्तियों के हवाले करेंगे. अपने इसी वक्तव्य के आलोक में प्रो गोपेश्वर सिंह    ने रामचन्द्र शुक्ल संबंधी चौथीराम यादव की स्थापनाओं से अपनी असहमति दर्ज कराई . उन्होंने कहा कि अन्तर्विरोध तो बुद्ध के भी थे जिन्होंने अपने धम्म में स्त्री प्रवेश वर्जित किया था और बाद में बुद्ध के धम्म में स्त्री प्रवेश तो हुआ पर बुद्ध ने कह दिया कि जो धर्म एक हजार सालों तक चलना था वह पांच सौ वर्ष में ही खत्म हो जाएगा. इसी तरह आप कबीर के स्त्री संबंधी दृष्टि के अंतर्विरोधों को कहाँ रखेंगे?  गाँधी और करपात्री को क्या एक ही श्रेणी में रखेंगे? गोपेश्वर सिंह ने समन्वयवाद के संदर्भ में लोहिया और हजारीप्रसाद दिवेदी के विचारों के हवाले से चौथीराम जी की समन्वयवाद की स्थापनाओं पर सवाल खड़ा किया.

             जेएनयू में लोकार्पण कार्यक्रम      
कथाकार नूर जहीर ने हिमांचल के लोक विमर्श के आलोक में ‘हिन्दू मिथक कथा विन्यास’ को नए संदर्भो में देखा और इस पुस्तक के महत्व को रेखांकित किया। प्रोफेसर हेमलता महिश्वर ने ब्राह्मणवाद, अत्यंज और शुद्र के विभाजन को साफ तौर पर रेखांकित किया।उन्होंने कहा कि जितना स्पेस की कामना हम अपने लिए करते हैं, उतना ही स्पेस किसी दूसरे को नहीं दे पाते हैं तो यही से ब्राह्मणवाद की शुरुवात होती है. यह पुस्तक भारतीय समाज के ज्वलंत सवालों को विमर्शकारी बनाती है. 

         पुस्‍तक पर प्रश्‍नोत्‍तर करते जेएनयू और डीयू के शोधार्थी    
प्रो. सूरज बहादुर थापा ने तनिका सरकार की वेद संबधी स्थापनाओं के आलोक में इस पुस्तक के स्थापनाओं की पड़ताल की। उन्होंने कहा कि इस पुस्तक में मीरा पर अन्य आलोचकों से बिलकुल अलग स्थापना है. ‘पूरे मध्यकाल में मीरा को छोड़कर किसी कवि ने सत्ता पर बैठे व्यक्ति को मुर्ख नहीं कहा है.’ इस पुस्तक में ‘मध्यकालीन लोक जागरण और नारी मुक्ति’ तथा ‘नारी जागरण और मीराबाई का मुक्ति संघर्ष’ नामक लेखों में स्त्री विमर्श से संबंधित बिलकुल नया आख्यान है. आचार्य रामचंद्र शुक्ल के भीतर के भाववाद और बाहर के वस्तुवाद को चिन्हित करते हुए प्रो थापा ने आचार्य शुक्ल संबंधी चौथीराम यादव की स्थापनाओं का समर्थन किया. उन्होंने कहा कि रामचन्द्र शुक्ल वीरगाथा काल के नामकरण करते हुए जिन पुस्तकों को प्रतिबंधित करते हैं, उसमें 10 किताबें जैन साहित्य की हैं क्योंकि जैन साहित्य में हिन्दू मिथकों पर जो काव्य है वह मुख्यधारा के मिथकों से एकदम अलग है. ब्राह्मणवाद का समन्वय एक तरफ़ा है, वो अपने में शामिल करने की बात तो करता है पर वह दूसरे में शामिल नहीं होना चाहता.  इसीलिए इस समन्वयवाद में भारी झोल है, जिसका सटीक मूल्यांकन प्रो. चौथीराम यादव ने अपनी इस किताब में किया है. अपनी बात समाप्त करते हुए प्रो थापा ने बहुत व्यवस्थित ढंग से वाम के भीतर के ब्राह्मणवाद और साहित्य के भीतर के ब्राह्मणवाद से निर्णायक लड़ाई की बात की।


              पुस्‍तक पर प्रश्‍नोत्‍तर करते जेएनयू और डीयू के शोधार्थी    






दिलीप मंडल ने इस पुस्तक को साहित्य के बजाय समाजशास्त्र की पुस्तक के रूप में देखा और यूरोप के रेनेसॉ के आलोक में मध्यकालीन साहित्य पर अपनी बात रखी। उन्होंने गाँधी-करपात्री की एक परम्परा और फुले, पेरियार, अम्बेडकर की दूसरी परम्परा की बात की. उन्होंने कहा कि सबसे पहले तो यही तय कर लेना चाहिए कि जिसे मुख्य धारा कहा जाता है क्या वह वाकई मुख्यधारा है क्या ? उन्होंने भारतीय मॉडर्ननिटी के अन्तर्विरोध पर विस्तार से बात की और कहा कि कायदे से मॉडर्ननिटी को परम्परा से टकराना चाहिए, लेकिन भारत में यह होता नहीं है.

          सबाल्‍टर्न आलोचक वीरेंद्र यादव   

प्रख्यात आलोचक वीरेंद्र यादव ने आज के संदर्भ में इस पुस्तक की क्या भूमिका हो सकती है, इसपर विस्तार से बात करते हुए कहा कि यह पुस्तक भक्तिकाल पर भले हो पर यह आज के संदर्भों की पुस्तक है. हिंदी की अकादमिक दुनिया में एक प्रवृत्ति बहुत तेज है. वह है  कबीर को ख़ारिज करने और तुलसी को स्थापित करने की. एक तरफ इस तरह की अकादमिक दुनिया है जो कबीर को ख़ारिज करने के लिए कह रही है कि ‘किसी कवि का मूल्यांकन उसके विचारों के आधार पर नहीं बल्कि उसकी कविता के आधार पर होना चाहिए.’ तो दूसरी तरह वह दुनियां है जिसमे कांचा इलैया की पुस्तक ‘पोस्ट हिंदू इण्डिया’ प्रतिबंधित करने की मांग जोरों पर है, तो इसके पीछे कौन सी शक्तियां हैं? इस मुहिम के पीछे कौन लोग हैं? भीमा कोरे गाँव के पीछे कौन सी शक्तियां हैं? दाभोलकर, कलबुर्गी, पान्सारे, गौरी लंकेश की हत्या के पीछे कौन सी शक्तियां हैं? आप तय करते रहिए कि रामचंद्र शुक्ल ब्राह्मणवादी हैं कि नहीं. आप कहते रहिए कि उन्होंने जाति व्यवस्था के विरोध में लिखा है, लेकिन यह भी तो कहिए कि उन्होंने ‘गोस्वामी तुलसीदास’ नमक पुस्तक लिखी जिसमें कहा कि उंच-नीच की परम्परा हमेशा रही है और रहेगी. यह भी तो बताइए कि शुक्ल जी ने लेनिन के बारे में क्या लिखा है? वर्गों के बारे में क्या लिखा है ? ये सब भुलाकर रामचंद्र शुक्ल को सेलेक्टिव तरीके से देखेंगे तो बात यही तक नहीं रुकेगी, बात तुलसी तक भी नहीं रुकेगी, बात कबीर को ख़ारिज करने तक पहुँच जाएगी. वीरेन्द्र यादव ने अपनी बात आगे बढाते हुए कहा कि अगर चौथीराम जी की यह  पुस्तक प्रतिरोध के महानायकों बुद्ध, कबीर, फुले, अम्बेडकर, पेरियार, भगत सिंह की स्मृति को समर्पित है, तो यह अनायास नहीं है. बल्कि चौथीराम जी ने इस पुस्तक के बहाने इसी प्रतिरोधी विचारधारा को आगे ले जाने के काम किया है. आज के राजनीति, समाज और साहित्य के समक्ष जो चुनौतियाँ हैं उसका केन्द्रीय अन्तर्विरोध ब्राह्मणवाद बनाम हाशिए के समाज का है. इसे समझना होगा.


          प्रख्यात आलोचक वीरभारत तलवार  

प्रख्यात आलोचक वीरभारत तलवार ने अपने अध्यक्षीय उद्बोधन  में कहा कि इधर वर्षों से हिंदी में जो पुनर्पाठ की परम्परा विकशित हुई है, वह  इस किताब को समझने में महत्वपूर्ण है. यह पुनर्पाठ की परम्परा  19 वीं सदी में ज्योतिबा फुले से शुरू होती है. इस समाज में जो वर्चस्वशाली वर्ग हैं, जो ताकतवर वर्ग हैं उन्होंने बहुत से प्रतीक खड़े किए हुए हैं, बहुत सी पुराण कथाएँ बनाई हुई हैं, बहुत से देवी देवता प्रचलित किए हुए हैं. जो उनकी सत्ता की विचारधारात्मक पुष्टि करते हैं. उनकी सत्ता को टिकाए रखने का विचारधारात्मक आधार मुहैया कराते हैं. उस विचारधारा को पलटने के उद्देश्य से, उसके खिलाफ संघर्ष के लिए पुनर्पाठ की परम्परा ज्योतिबा फुले ने विकशित की. इसलिए आप इस पुनर्पाठ को कोई पुनर्मुल्यांकन मत समझिए. दरअसल यह पुनर्पाठ इस समाज में चले आ रहे शक्ति समीकरण को बदलने के संघर्ष का अंग है. इस अर्थ में उसका एक राजनीतिक चरित्र है. इसीलिए यह केवल पाठालोचन या पुनर्मूल्यांन का सवाल नहीं है. बल्कि यह राजनीतिक प्रक्रिया है. ज्योतिबा फुले ने बहुत सी प्रचलित कथाओं का फिर से एक नया रूप दिया, एक नया अर्थ दिया तथा नए मंतव्य निकाले. जिसने बहुजन समाज की राजनीतिक और सामाजिक चेतना को क्रन्तिकारी रूप से बदल दिया. 19 वीं सदी में बहुजन लोग इस स्थिति में नहीं थे कि वे कोई राजनीतिक लडाई लड़ पाते. इसीलिए यह समाज को बदलने की लडाई संस्कृति और धर्म के क्षेत्र में शुरू हुई.  धर्म और संस्कृति के क्षेत्र में एक नई चेतना को पैदा करके ज्योतिबा फुले ने इन वर्गों के अन्दर एक नया आत्मविश्वास और दृष्टिकोण पैदा किया. यह वही आधार था जिसके बल पर ये वर्ग अपनी राजनीतिक लडाई लड़ने में समर्थ हो सके. सामाजिक समीकरण बदल देने की यह जो ज्योतिबा फुले की पुनर्पाठ  परम्परा है इसका प्रभाव हिंदी में बहुत देर से आया. 1970 के आसपास हिंदी में पुनर्पाठ की परम्परा शुरू होती है. सबसे पहले स्त्री प्रश्न पर और उसके बाद दलित प्रश्न पर और उसके भी बहुत बाद आदिवासी प्रश्न पर. यह जो पुनर्पाठ की परम्परा हैं  इसकी खासियत यह है कि यह सारे परिप्रेक्ष्य को बदल देने का, सारे संदर्भों को बदल देने का, सारे अंतर्विरोधों में एक प्रधान अन्तर्विरोध खड़ा कर देने का विचारधारात्मक संघर्ष है.  यह ज्ञान की एक प्रक्रिया है.  ध्यान रखना चाहिए कि ज्ञान की प्रक्रिया हमेंशा सामूहिक होती है. चौथीराम जी की किताब इसी सामूहिक ज्ञान के प्रक्रिया की एक कड़ी है. चौथीराम जी ने जो यह कड़ी विकशित की है, उसमें बहुत से विचारों का समाहार है.  उन्होंने अपने वक्तव्य के अंत में कहा कि इस पुस्तक के केंद्र में जाति का सवाल ही है। वह इसलिए भी है क्योंकि भारतीय समाज का केन्द्रीय प्रश्न ही जाति का प्रश्न है.  भारतीय वामपंथ या कोई भी आंदोलन जाति के सवाल को ट्रेस किए बिना जन भागीदारी हासिल नही कर सकता।






                         दिल्‍ली पुस्‍तक मेले में      
कार्यक्रम का आयोजन जेएनयू और दिल्ली विश्वविद्यालय के शोध छात्रों ने किया था जिसका संचालन जेएनयू के एसोसिएट प्रोफेसर गंगासहाय मीणा ने किया तथा धन्यवाद ज्ञापन सोनम मौर्य नेकिया।
-सुनील यादव 
यायावर और चिंतक
गाजीपुर, उत्तर प्रदेश
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