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मलयज की दृष्टि में आचार्य रामचन्द्र शुक्ल: शैलेन्द्र प्रताप

आचार्य रामचन्द्र शुक्ल पर बहुत लिखा गया है और सबके अलग अलग कारण है। कुछ लेखकों को इतिहास लेखन और शास्त्रचर्चा दोनों में शुक्लजी बड़ी बाधा के रूप में दिखाई देते हैं। इस बाधा को दूर करने के लिए रामविलास शर्मा और मैनेजर पाण्डेय जैसे विद्वानों ने अपनी लेखनी चलाई परंतु मलयज ने शुक्लजी पर नितांत भिन्न कारणों से लिखा। मलयज का लेखन ‘आचार्य शुक्ल के बारे में एक और किताब नहीं यह एक नयी ‘रस-मीमांसा’ है। यदि ‘‘आज की रस मीमांसा कविता की पंक्तियों में लिखी जा रही संघर्ष-मीमांसा है’’ तो आलोचना में यह मलयज की संघर्ष मीमांसा का खाका है। संघर्ष में मलयज के हीरो रामचन्द्र शुक्ल हैं और रामचन्द्र शुक्ल का हीरो सामान्य मनुष्य। मोर्चे पर दूसरी तरफ है आज की भोगवादी संस्कृति की कविता। मलयज को इस भोगवादी संस्कृति का तीखा एहसास पहले-पहल 1975 की इमजेन्सी में हुआ।’1 जब राजनीति में आपातकाल का अमानवीय समय था, सामाजिक और आर्थिक स्तर पर आम आदमी को हशिए पर फेंका जा रहा था ऐसे विकट समय में भी कुछ ऐसे साहित्य चिंतक थे जो अपनी अलग दुनिया में मस्त थे।

‘ऐसा उस सुविधाभोगी वर्ग में हो रहा है जो विश्वविद्यालय की कुर्सियों पर है, प्रशासनिक सेवाओं में है, साहित्य कला संस्थानों में है, हर जगह जहां कला का मूल्य वसूला जा रहा है... ऐसी जगहों पर संतुष्टि है, सवालों से बचाव है, उपभोग पर बल है।’2 मलयज के इस एहसास का तात्कालिक आधार अशोक वाजपेयी का उन्हीं दिनों दिया गया एक वक्तव्य है जिसमें उन्होंने कहा था कि ‘पहले के मुकाबले शायद अब ऐसे नागरिक अधिक हैं जिनके लिये उनका समय सिर्फ राजनैतिक गतिविधियों, राजनेताओं और आर्थिक उथल-पुथल का नहीं बल्कि ऐसा है जिसमें कुमार गन्धर्व गाते हैं, उस्ताद अली अकबर सरोद बजाते हैं, यामिनी कृष्णमूर्ति अंतरिक्ष को संक्षिप्त अनंत में ढालते हुए नाचती हैं... शमशेर, त्रिलोचन और श्रीकांत वर्मा कविताएं करते हैं।3 इस वक्तत्व पर मलयज की टिप्पणी है: ‘कलाओं का स्वाद लेने की जो शैली, जिस भाषा में बयान की गई है वह मंगलेश डबराल के शब्दों में ‘क्या मसनद से उठँगकर आँख मूँदकर कला से आनंदित होने की’ शैली नहीं है?    ...अशोक वाजपेयी कलाकर्म की जो भव्य तस्वीर पेश कर रहे हैं उसमें लगता है कि कला संघर्ष के अनुभव से प्राप्त होने वाली वस्तु नहीं बल्कि ‘नाच-तमाशे’ की वस्तु सी सुलभ है।’4

भोगवादी कविता और आपातकाल की राजनीति के खिलाफ यह मलयज के संघर्ष की शुरुआत थी। भोगवाद की कविता के खिलाफ आचार्य शुक्ल ने भी संघर्ष किया था जो स्वाधीनता आंदोलन के समय कलावाद के रूप में प्रकट हुआ था। कलावाद पर आक्रमण करते हुए शुक्लजी ने लिखा था ‘काव्य को हम जीवन से अलग नहीं कर सकते। उसे हम जीवन पर मार्मिक प्रभाव डालने वाली वस्तु मानते हैं। कला, कला के लिए वाली बात को जीर्ण होकर मरे बहुत दिन हुए। एक क्या कई क्रोचे उसे जिला नहीं सकते।’5

लेकिन मलयज को साफ दिखाई दे रहा था कि यहाँ शुक्लजी की भविष्यवाणी सत्य न हुई। कलावाद को पुनजीर्वित किया गयाµउनकी नाक के नीचे छायावाद में ही और आगे चलकर प्रयोगवादµनयी कविता में भी कलानुभूति पर अतिरिक्त जोर उसी कलावाद से ही रस ग्रहण करता है। नयी समीक्षा में भी ‘काव्य लोक’, ‘कला संसार’ आदि प्रत्यय स्पष्ट सूचित करते हैं कि कलानुभूति को एक स्वायत्तता का दर्जा दिया गया और जिन्होंने नहीं दिया उन्हें सीधे-सीधे ‘प्रचारवादी’ (यानी प्रतिबद्धतावादी) कहने की राजनीतिक मुहिम भी चलाई गयी।’6 इसीलिए कलावाद के खिलाफ संघर्ष आज भी जरूरी है और मलयज ने इस संघर्ष को आगे बढ़ाया है। काव्य सिद्धांत के स्तर पर देखें तो ‘‘कला-संसार और काव्यलोक की चर्चा में कविता को जीवनानुभूति से अलग विशिष्ट स्वायत्त मान लेने का विचार उतना नहीं है जितना तत्व के सामने अंतःतत्व को रखने का। वाह्य तत्व तो प्रगतिवाद के जमाने से ही मौजूद था, पर अंतःतत्व की अवहेलना हुई थी। दूसरे नई परिस्थितियों में- व्यक्तिवाद के विकास के साथ-अंतःतत्व की माँग बढ़ने लगी थी और अब उसकी अवहेलना न की जा सकती थी। नयी समीक्षा की अगली चेष्टा इस बाह्य तत्व और अंतःतत्व को एक नये समीकरण में बाँधने की है। शुक्लजी की समीक्षा में बाह्य और अंतः तत्व को बराबर वजन मिला है और उन्होंने इनका एक नया समीकरण भी दिया है। उनके इस समीकरण का नाम ‘रसवाद’ है। ...अब जबकि स्थितियाँ पुनः बदली हैं हम शुक्लजी के रसवाद को ज्यों का त्यों स्वीकार नहीं कर सकते। हमें एक नया समीकरण रचना है।’’7



इसी समझ के साथ मलयज शुक्लजी की आलोचनात्मक व्याख्या को ओर प्रवृत्त हुए। शुक्लजी के प्रयत्नपक्ष और सौन्दर्य पक्ष के आधार पर मलयज ने अपनी मनोवांछित कविता का स्वरूप भी अपने खास शैली में स्पष्ट किया: ‘‘भाषा के भीतर जो अनुभूति है, भाषा के बाहर वही कर्म है। कविता इन दोनों की संधि पर है। कविता सच्ची बनती है भाषा के भीतर की अनुभूति से और बड़ी बनती है भाषा के बाहर के कर्म से। बौने जीवन से बड़ी कविता नहीं पैदा होती। पर जीवन बौना कर्म की असिद्धि से नहीं, कर्म क्षेत्र की विविधता का अनुसंधान न करने से बनता है... कविता सीधा-सीधा कर्म नहीं, पर हमने जीवन में कर्म की जो दिशाएँ खोजी हैं उनका वह फलक है।’’8

कविता का यह चित्र आचार्य शुक्ल के कर्म सौन्दर्य से भिन्न आज के संदर्भ में नया सृजन है। मलयज का कर्म शुक्लजी के ‘कर्म’ का अगला कदम है। कविता के लिए इस कर्म सौन्दर्य का महत्व इस बात में है कि उससे कविता में सम्भावनाएँ बढ़ती हैं, जब की कर्मच्युत भोगवादी कविता निरंतर संकुचित होती जाती है। इस बात को स्पष्ट करते हुए मलयज ने कहा है: ‘कविता बड़ी होगी महज अनुभूति की चरितार्थता से नहीं, बल्कि अनुभूति की सम्भावना से, और अनुभूति की सम्भावना कर्म क्षेत्र में है।’’9


विद्वानों ने शुक्लजी का अध्ययन करने के क्रम में अपना भिन्न-भिन्न मत प्रकट किया है। किसी ने उनके दार्शनिक आधार को भाववादी और उन्हें सामंती संस्कृति का हिमायती बताया है तो किसी ने उनके लोकधर्म को वर्णाश्रम धर्म10 और उन्हें ब्राह्मणवादी कहा है।11 आचार्य शुक्ल के संबंध में रामविलास शर्मा ने लिखा है ‘शुक्ल जी का दार्शनिक दृष्टिकोण मूलतः वस्तुवादी है, लेकिन संगत रूप से वस्तुवादी नहीं। उसमें असंगतियां भी हैं।12 यह असंगति ही शायद शुक्ल जी का भाववाद है। 

मलयज भी शुक्लजी को भाववादी मानते हैं लेकिन थोड़ा भिन्न रूप में, वे लिखते हैं ‘‘शुक्लजी मूलतः भाववादी थे लेकिन भाव में पड़कर बहना नहीं, भाव के गुण और धर्म को दृढ़ता से पकड़ना, उन्हें एक पुष्ट सांस्कृतिक एकसूत्रता में नियोजित करना और किन्हीं व्यापक मानव-मूल्यों में अर्थान्तरित करना उनकी समालोचना का स्वभाव था।’’13

भाववादी, चेतना को प्रथम और पदार्थ को उसका प्रतिबिम्ब मानकर जगत व्यापारों को अज्ञेय बताता है। वह सम्पूर्ण सृष्टि को किसी परोक्ष या आध्यात्मिक सत्ता के अधीन मानकर समस्त जगत व्यापारों की व्याख्या कार्य-कारण संबंधों की शृंखला के रूप में करता है। मलयज शुक्लजी को ज्ञान से बंधा हुआ भाववादी बताते हैं। शुक्लजी का कथन है ‘‘ज्ञान ही भाव के संचार के लिए मार्ग खोलता है। ज्ञान प्रसार के भीतर ही भाव प्रसार होता है।’’14 शुक्ल जी भावों के भौतिक आधार के साथ उसके ज्ञानात्मक आधार पर भी बल देते हैं। 

मलयज ने शुक्लजी को तीन मोर्चों पर खड़ा पाया: रीतिवाद, रहस्यवाद और कलावाद, जिनके खिलाफ शुक्लजी ने संघर्ष किया। इनकोे रेखांकित कर मलयज ने उस जीवन दृष्टि को रेखांकित करने का प्रयास किया जिसने साहित्य को जीवनोन्मुखी बनाया। उसे दरबार की चहारदीवारी से निकालकर लोक का विस्तृत प्रांगण दिया। अप्रस्तुत के खिलाफ प्रस्तुत का पक्ष लिया और कलावाद का तीव्र विरोध किया। शुक्लजी ने इन्हीं संदर्भों में छायावाद का विरोध किया।

मलयज ने छायावाद के विरोध के तीन कारण बताए:
1. रहस्यवाद 
2. व्यक्तिवाद
3. विदेशी प्रभाव


शुक्लजी ने लिखा है- ‘‘हमारे हृदय का सीधा संबंध गोचर जगत से है ...अध्यात्म शब्द की मेरी समझ में काव्य या कला के क्षेत्र में कोई जरूरत नहीं।’’15 मलयज भी कहते हैं, कविता में अमूर्त, अप्रस्तुत या अगोचर का वर्णन नहीं होना चाहिए। 

शुक्लजी व्यक्तिवाद के साथ-साथ हिंदी काव्य पर पड़ने वाले विदेशी प्रभाव का भी विरोध करते हैं, ‘शुक्लजी की चिंता यह थी कि ‘‘अपनी भाषा की प्रकृति की पहचान न करने के कारण कुछ लोग उसका स्वरूप ही बिगाड़ चले हैं। वे अंगे्रजी के शब्द, वाक्य और मुहावरे तक ज्यों का त्यों उठाकर रख देते हैं, यह नहीं देखने जाते कि भाषा हिंदी हुई या और कुछ।’’ मलयज के अनुसार शुक्लजी की चिंता भाषा के प्रति शुद्धतावादी की चिंता नहीं, बल्कि अपनी अस्मिता बनाये रखने वाले तत्वों की चिंता है। स्वतंत्र चिंतन पराश्रित अथवा आरोपित भाषा में नहीं हो सकता।’16

मलयज ने शुक्लजी की शक्ति के साथ-साथ उनकी सीमा को भी रेखांकित किया है। शुक्लजी ने छायावाद पर अंगे्रजी और बांग्ला प्रभाव की आलोचना की है। उस पर मलयज लिखते हैं: ‘‘छायावाद में शुक्लजी अंग्रेजी और बांग्ला का प्रभाव ही देख पाये-हिंदी की प्रकृति के विरुद्ध एक तरह का बाह्यारोपण। वे हिन्दुस्तान के बदलते परिदृश्य और उसके प्उचवतज को पूरी तरह नहीं आँक सके। उन ऐतिहासिक, सामाजिक शक्तियों को ठीक ढंग से नहीं भांँप सके, जो किसी साहित्यिक आन्दोलन को उभारती हैं। छायावाद साहित्य में एक सामाजिक आवश्यकता बनकर आया, एक परिवर्तन की सूचना लेकर ....छायावाद एक तरह से इसकी सूचना देता है कि हिन्दुस्तान के मानस तक विदेशी प्रभाव धीरे-धीरे छनकर आ चुके हैं और एक नया खमीरा बन गया है। एक बँधा हुआ समाज देहरी पर आ पहुँचा है। शुक्लजी इस बदलाव के लक्षणों से आँख मूँदे हुए नहीं थे, पर भावात्मक रूप से अपना पूरा समर्थन नहीं दे सके।’’17

शुक्लजी व्यक्तिवाद का विरोध करते हैं और यह उचित भी है, परन्तु वे उसके ऐतिहासिक कारणों की शिनाख्त करने की कोशिश नहीं करते। मलयज ने लिखा है: ‘‘किन ऐतिहासिक भौतिक शक्तियों ने उसका होना अनिवार्य बना दिया इसे- शुक्लजी ठीक-ठीक नहीं देख सके। अतः वे व्यक्तिवाद की असंगतियों तक ही रह गये। व्यक्तिवाद ने सामन्त आधारित चेतना को तोड़कर कितनी मनः उर्जा फैलायी इसे वे अपनी भारतीय साहित्य-शास्त्र पर टिकी समालोचनात्क दृष्टि एवं मूल्यों के कारण सहृदयता से नहीं पहचान पाये। छायावाद (विशेषकर निराला) के प्रति उनकी असहिष्णुता का यही कारण है।’’18



छायावाद को समझने में शुक्लजी की दृष्टि संगत होते हुए भी अपर्याप्त है। संगत इसलिए कि वे छायावाद में रहस्यवाद और व्यक्तिवाद जैसे तत्वों का विरोध करते हैं। अपर्याप्त इसलिए कि वे अपने समय की काव्य प्रवृत्ति का मूल्यांकन ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में नहीं कर सके।

मलयज ने अपने समय के भोगवाद और कलावाद के विरुद्ध संघर्ष में शुक्लजी को नायक बनाया। उन्हीं के सहारे मलयज जनमंगल के अभियान में तत्पर होते हैं। यह एक बेचैन प्रक्रिया है- एक नई सर्जना-परम्परा और समकालीनता के दौर से निकली मौलिकता। वस्तुतः आचार्य शुक्ल और मलयज के वैचारिक संघर्ष से हिंदी साहित्य को देखने की एक नई दृष्टि विकसित हुई।

मलयज ने आलोचना के शास्त्रीय प्रत्ययों के अंदर जाकर आचार्य शुक्ल के सामान्य मनुष्य की जिस प्रतिमा का निर्माण किया है वह निश्चित रूप से हिंदी आलोचना के क्षेत्र में एक मौलिक सृष्टि है, किंतु इससे भी महत्वपूर्ण वह पद्धति है जिससे उस प्रतिमा के उपादान और तत्व खोजे गये हैं। इस अध्यवसाय को देखकर अनायास ही कुँवरनारायण की एक कविता ‘आदमी अध्यवसायी था’ की ये पंक्तियाँ याद आती हैं-
क्यों खोजना पड़ता है 
मिथकों में, वक्रोक्तियों में, रूपकों में 
झूठ से उलटी तरफ क्यों इतना रास्ता चलना पड़ता है
एक साधारण सच्चाई तक पहुँच पाने के लिए।19

संदर्भ सूची:- 
1. रामचन्द्र शुक्ल, मलयज, राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, 1987, पृ. 9
2. वही, पृ.10
3. वही, पृ.10
4. वही, पृ.10
5. वही, पृ.11
6. वही, पृ.11
7. वही, पृ.11
8. वही, पृ.12
9. वही, पृ.13
10. हिन्दी साहित्य के अस्सी वर्ष, शिवदान सिंह चैहान, स्वराज प्रकाशन, दिल्ली, 2007, पृृ. 234
11. आलोचना (पत्रिका), संपा. रांगेय राघव, अक्टूबर, 1953
12. हिन्दी आलोचना और रामचन्द्र शुक्ल, डाॅ. रामविलास शर्मा, राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, 2009, पृ. 43 
13. रामचन्द्र शुक्ल, मलयज, पृ.-32
14. चिंतामणि भाग-एक, प्रकाशन संस्थान, नई दिल्ली, 2007, पृ. 117
15. चिंतामणि भाग-दो, पृ. 14
16. रामचन्द्र शुक्ल, मलयज, पृ. 15
17. वही, पृ. 71
18. वही, पृ. 63
19. वही, पृ. 20

-शैलेन्द्र प्रताप
शोधार्थी
दिल्‍ली विश्‍वविद्यालय
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